माँगपत्रक शिक्षणमाला – 10
ग़ुलामों की तरह खटने वाले घरेलू मज़दूरों को उनकी माँगों पर संगठित करना होगा

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

देश में इस समय 10 करोड़ लोग घरेलू मज़दूर के तौर पर काम कर रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ़ एक अनुमान है क्योंकि इसके बारे में कोई भी ठोस आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। इनमें सबसे अधिक संख्या औरतों और बच्चों की है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के अनुसार घरेलू मज़दूर वह है जो मज़दूरी के बदले किसी निजी घर में घरेलू काम करता है। लेकिन भारत में इस विशाल आबादी को मज़दूर माना ही नहीं जाता है। ये किसी श्रम क़ानून के दायरे में नहीं आते और बहुत कम मज़दूरी पर सुबह से रात तक, बिना किसी छुट्टी के कमरतोड़ काम में लगे रहते हैं। ऊपर से इन्हें तमाम तरह का उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। मारपीट, यातना, यौन उत्पीड़न, खाना न देना, कमरे में बन्द कर देना जैसी घटनायें तो अक्सर सामने आती रहती हैं, लेकिन रोज़-ब-रोज़ इन्हें जो अपमान सहना पड़ता है वह इनके काम का हिस्सा मान लिया गया है। इन्हें कभी भी काम से निकाला जा सकता है और ये अपनी शिकायत कहीं नहीं कर सकते।

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पिछले दो दशकों के दौरान घरेलू काम में लगे असंगठित मज़दूरों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। पूँजी की मार से देश के अलग-अलग हिस्सों से उजड़कर शहरों में काम की तलाश करने वालों में से एक बड़ी संख्या घरेलू कामों में लगे लोगों की है। औद्योगिक बस्तियों में रहने वाले मज़दूरों के घरों की स्त्रियाँ भी बड़ी संख्या में आसपास की कालोनियों में काम करने जाती हैं। महानगरों में बहुत से पुरुष भी फैक्टरियों में काम न मिलने के कारण घरों में काम करने लगे हैं। बड़ी संख्या में शहरों में लाकर बेचे गये बच्चे भी इस तरह के कामों में बँधुआ मज़दूरों की तरह खट रहे हैं। महानगरों में कई निजी ठेका कम्पनियाँ गाँवों और छोटे शहरों से आने वाले बेरोज़गारों की मजबूरी का फ़ायदा उठाती हैं। ये कम्पनियाँ परिवारों को ठेके पर घरेलू मज़दूर मुहैया करवाती हैं और इसके बदले ये काम कराने वालों से तगड़ी फ़ीस वसूलने के साथ-साथ मज़दूरों से भी भारी रक़म ऐंठ लेती हैं। कुछ एजेंसियाँ तो पहले महीने की पूरी तनख्वाह ही रख लेती हैं। कई एजेंसियाँ छोटे क़स्बों और गाँवों से मज़दूरों को अच्छी तनख्वाह और आराम के काम का लालच देकर महानगरों में ले आती हैं जहाँ आकर उन्हें पता चलता है कि वे ठगे गये।

मज़दूरों की इतनी बड़ी आबादी पूरी तरह असंगठित है। कोई ट्रेड यूनियन उनके मुद्दों को नहीं उठाती और कुछ जगहों पर उन्हें थोड़ा-बहुत संगठित किया भी है तो एनजीओ-टाइप संगठनों ने या कुछ सुधारवादी व्यक्तियों ने। घरेलू मज़दूरों के उत्पीड़न की अनेक घटनाओं पर मीडिया में होहल्ला मचने के बाद पिछले कुछ वर्षों में सात राज्यों, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और बिहार में घरेलू मज़दूरों के लिए क़ानून बनाया गया है या फिर किसी पहले से मौजूद श्रम क़ानून के दायरे में लाकर उन्हें थोड़ी-बहुत सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गयी है। लेकिन ये सभी क़ानून अभी काग़ज़ पर ही हैं और तमाम श्रम क़ानूनों की तरह इन पर भी अमल शायद ही कहीं होता है।

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मज़दूर माँगपत्रक-2011 में घरेलू मज़दूरों की माँगों को पुरज़ोर तरीक़े से उठाया गया है। माँगपत्रक ने घरेलू मज़दूरों के लिए पहली माँग यह उठायी है कि घरेलू मजदूरों के पंजीकरण की सुचारु व्यवस्था लागू करके उन्हें कार्ड जारी किया जाये तथा ठेका मजदूरों को मिलने वाली सभी सुविधाएँ उनके लिए लागू की जायें। मज़दूर माँगपत्रक की दूरगामी माँग ठेका मज़दूरी को पूरी तरह समाप्त करने की है। ठेका प्रथा को समाप्त करना मज़दूर वर्ग की एक प्रमुख राजनीतिक माँग है। लेकिन जब तक इस दूरगामी माँग के लिए संघर्ष जारी है, तब तक ख़ुद सरकार के बनाये हुए ठेका मज़दूरी क़ानून में दिये गये अधिकार और सुविधाएँ उन सभी मज़दूरों को मिलने चाहिए जो स्थायी रोज़गार में नहीं हैं।

माँगपत्रक की अगली माँग है कि काम के घण्टे, ओवरटाइम, प्रॉविडेण्ट फण्ड, ई.एस.आई., स्वास्थ्य एवं सुरक्षा विषयक अधिकार तथा स्त्री मज़दूरों के विशेष अधिकार सहित असंगठित मज़दूरों के अन्य हिस्सों के सभी क़ानूनी अधिकार सभी घरेलू मज़दूरों को भी क़ानूनी तौर पर प्रदान किये जायें। इसकी अगली प्रमुख माँग है कि अलग-अलग घरों में काम करने वाले घरेलू मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी की दर घण्टे के हिसाब से तय की जाये। न्यूनतम मज़दूरी की सरकारी दर एक दिन के काम के हिसाब से तय होती है लेकिन घरेलू मज़दूर अक्सर एक ही दिन में कई घरों में काम करते हैं इसलिए उनकी न्यूनतम मज़दूरी की दर घण्टे के हिसाब से तय की जानी चाहिए।

मज़दूर माँगपत्रक-2011 में सरकार से माँग की गयी है कि घरेलू मज़दूरों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के लिए उच्च आय वर्ग वाले परिवारों पर या विलासिता की वस्तुओं की ख़रीदारी पर विशेष सेस लगाकर धन का प्रबन्ध किया जाये। उनके पी.एफ़. और ई.एस.आई. के लिए निर्धारित कोष में सरकार और मालिक मुख्यतया योगदान दें। घरेलू मजदूरों से सिर्फ़ एक प्रतीक धनराशि ही ली जाये। माँगपत्रक ने संसद में लम्बित घरेलू मजदूर (पंजीकरण, सामाजिक सुरक्षा एवं कल्याण) विधेयक, 2008 की ख़ामियों को दूर कर उसे यथाशीघ्र पारित करने की भी माँग की है। इसकी यह भी माँग है कि केन्द्र सभी राज्यों को घरेलू मज़दूरों के सभी श्रम-अधिकारों एवं सामाजिक सुरक्षा के सम्बन्ध में क़ानून बनाने का निर्देश दे। जिन राज्यों में पहले से ऐसे क़ानून मौजूद हैं, उनकी ख़ामियों को दूरकर उन्हें प्रभावी बनाया जाये तथा पूरे देश में इस विषय से सम्बन्धित क़ानूनों में यथासम्भव समानता क़ायम की जाये।

घरेलू मज़दूरों से सम्बन्धित क़ानूनों पर अमल हो इसे पक्का करने के लिए माँगपत्रक उप श्रमायुक्त (डी.एल.सी.) कार्यालय स्तर पर विशेष इंस्पेक्टरों की नियुक्ति करने और विशेष निगरानी समितियाँ बनाने की माँग करता है। इन समितियों में घरेलू मज़दूरों के प्रतिनिधि, स्त्री मज़दूरों की प्रतिनिधि, स्त्री संगठनों की प्रतिनिधि, मज़दूर संगठनों के प्रतिनिधि, घरेलू मज़दूरों से काम कराने वालों के प्रतिनिधि और नागरिक अधिकार कर्मी शामिल होने चाहिए।

इसके साथ ही ट्रेड यूनियन क़ानून में आवश्यक संशोधन करके घरेलू मज़दूरों के ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार सुनिश्चित किया जाना चाहिए और ट्रेड यूनियन बनाने तथा उसका पंजीकरण कराने की प्रक्रिया सरल, त्वरित एवं पादरर्शी बनायी जानी चाहिए।

मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है कि इन असंगठित मज़दूरों को इनके अधिकारों के बारे में शिक्षित कैसे किया जाये, इनके बीच किस प्रकार रचनात्मक तरीके से राजनीतिक प्रचार कार्य करते हुये इन्हें संगठित किया जाये। इसकी शुरुआत इस विशाल असंगठित मेहनतकश आबादी को उनके क़ानूनी अधिकारों के लिए यूनियनों में संगठित करने से होनी चाहिए। उनकी लड़ाई को फ़ैक्टरियों एवं अन्य असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष के साथ एकजुट करना होगा।

 

मज़दूर बिगुलमई 2012

 


 

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