हज़ारों मज़दूरों के ख़ून की क़ीमत पर मना फ़ुटबाल विश्व कप का जश्न

अपूर्व

साल 2010 में क़तर ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देशों को पछाड़कर 2022 में होने वाले फ़ुटबाल विश्व कप की मेज़बानी हासिल की। 20 नवम्बर से 18 दिसम्बर तक होने वाले 29 दिनों के फ़ुटबाल विश्व कप की तैयारी के लिए क़तर ने पिछले 12 सालों में पानी की तरह पैसा बहाया। इस विश्व कप को अबतक का सबसे महँगा फ़ुटबाल विश्व कप बताया जा रहा है। इन 12 सालों में क़तर ने हर हफ़्ते 400 करोड़ रुपये ख़र्च किये। इसका कुल बजट 17.81 लाख करोड़ तक पहुँच गया है, जो अर्जेण्टीना, न्यूज़ीलैण्ड जैसे 10 देशों के सालाना बजट से भी ज़्यादा है। इन पिछले 12 सालों में क़तर ने सात अत्याधुनिक स्टेडियमों, 100 से ज़्यादा पाँच सितारा होटलों, नयी स्मार्ट सिटी, नयी मेट्रो लाइन, मॉल, एयरपोर्ट का विस्तार, रेस्तराँ, स्पा, फ़िटनेस सेण्टर, वाटर ऐडवेंचर पार्क, स्कूबा डाइविंग आदि कई सारी चीज़ों का निर्माण किया, जो फ़ुटबाल वर्ल्ड कप प्रोजेक्ट का हिस्सा थे। लेकिन 29 दिनों के जश्न, चमक-दमक बनाने के पीछे का जो अँधेरा है उसे छुपाया नहीं जा सकता है। आइए देखते हैं कि इस जश्न की तैयारी किस क़ीमत पर हुई है!

जश्न को अमली जामा ऐसे पहनाया गया :

2010 में जब क़तर ने फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप की मेज़बानी हासिल की, तो वहाँ पर फ़ुटबाल विश्व कप की प्रतियोगिता कराने का कोई आधारभूत ढाँचा मौजूद नहीं था। सबकुछ नये सिरे से ही बनाया जाना था। इसके लिए लाखों मज़दूरों की ज़रूरत थी। इसके पहले क़तर में फ़िलिपीन्स और केन्या के मज़दूर ही ज़्यादातर काम करते थे। लेकिन इस वर्ल्ड कप इन्फ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए बड़े पैमाने पर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों से प्रवासी मज़दूरों को भरती किया गया। वैसे भी क़तर की तीस लाख की कुल आबादी में 85 प्रतिशत आबादी प्रवासी मज़दूरों की है। 2010 से पहले भी क़तर अपने बर्बर श्रम क़ानूनों की वजह से कुख्यात रहा है। क़तर मध्य एशिया के उन कई देशों में शामिल है जहाँ श्रम क़ानून नाम की कोई चिड़िया नहीं रहती है। क़तर में एक ‘कफ़ालह’ सिस्टम चलता है जिसके तहत कोई भी प्रवासी मज़दूर न तो नौकरी बदल सकता है और न ही अपने मालिक की इजाज़त के बग़ैर देश छोड़कर जा सकता है। प्रवासी मज़दूरों की तनख़्वाह, वीज़ा, पासपोर्ट तक ज़ब्त कर लिये जाते हैं।
क़तर में पिछले दस सालों में वर्ल्ड कप इन्फ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में काम कर रहे 6500 से ज़्यादा मज़दूरों की मौत हुई। 37 हज़ार से अधिक प्रवासी मज़दूर घायल हुए, जिनका समुचित इलाज भी क़तर सरकार ने नहीं करवाया। इनमें हज़ारों मज़दूर ऐसे हैं जो बहुत ही गम्भीर रूप से घायल हुए हैं और भविष्य में वे शायद ही अपने परिवार के लिए कुछ कमाने के क़ाबिल बन सकें। एक आँकड़े के अनुसार 2010 से हर हफ़्ते 12 प्रवासी मज़दूरों की मौत क़तर में हई है।

बेहतर भविष्य के सपने, उम्मीद और आशाएँ और उनके टूटने का बदस्तूर सिलसिला

हमारे देश के बिहार, झारखण्ड, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा आदि कई राज्यों से मज़दूर बेहतर तन्ख़्वाह और बेहतर भविष्य के सपने संजोये हुए क़तर में काम करने गये। जब वे गये तो स्वस्थ और हट्टे-कट्टे थे, लेकिन जब लौटे तो ताबूत में! यहाँ तक कि मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा तक क़तर सरकार या कम्पनी ने नहीं दिया जिसके मातहत वे काम करने गये थे।
ऐसे ही तेलंगाना के कल्लाड़ी 1300 क़तरी रियाल (29 हज़ार रुपये प्रतिमाह) के लिए वहाँ नौकरी हासिल करने के लिए लोन लिये। जिस शिविर में उन्हें रखा गया था वहाँ छः से आठ लोग सोते थे, जबकि वहाँ चार लोगों के बैठने की भी जगह नहीं थी। कल्लाड़ी के साथ आये श्रवण बताते हैं कि “स्टेडियम का निर्माण किया जा रहा था और उनके चारों ओर सड़कें बनायी जा रही थीं। उच्च तापमान में काम करने के कारण कल्लाड़ी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा जिससे उनकी मृत्यु हो गयी”। कल्लाड़ी के परिवार को कोई मुआवज़ा नहीं मिला। उनकी मौत को प्राकृतिक मौत बता दिया गया, जबकि उनकी मौत काम करने के दौरान हुई थी। क़तर में काम करने के सबसे ख़राब हालातों में वहाँ का तापमान भी है।
इसी तरह से बिहार के दो मज़दूरों जगत और अखिलेश की मौत भी निर्माण के दौरान ज़मीन धँसने से हो गयी। इनको भी कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया बल्कि उल्टे इनकी लाशों को भेजने के लिए कम्पनी की तरफ़ से पाँच लाख की माँग की जाने लगी।
एक नेपाली मज़दूर ने बताया कि उसका जीवन एक क़ैदी जैसा हो गया है। 12 घण्टे की शिफ़्ट चलती है। ओवरटाइम के लिए कोई क़ानूनी दर नहीं मिलती है। खाना ऐसा मिलता है जिसे कुत्ता भी न खाये। 12 घण्टे की शिफ़्ट के बाद जिस कैम्प में रुकना पड़ता है वहाँ गन्दगी और बदबू भरी रहती है। एक छोटे-से कैम्प में 7-8 मज़दूरों को रेवड़ों की तरह ठूँस दिया जाता है।
40 साल के राजेन्द्र प्रभु वहाँ 2016 में कारपेण्टर का काम करने पहुँचे हुए थे। उन्हें 55 हज़ार रुपये महीने की तनख़्वाह बतायी गयी और उन्हें मात्र 22 हज़ार रुपये दिये गये। उड़ीसा के रमेश वहाँ ड्राइवर का काम करते हैं। वे बताते हैं कि मेरी ड्यूटी सुबह 3 बजे से शुरू हो जाती है और रात 11 बजे ख़त्म होती है। मैं इसके ख़िलाफ़ कोई शिकायत भी नहीं कर सकता हूँ।
25 साल के पदम शेखर अपने परिवार को क़र्ज़ और ग़रीबी में छोड़कर गये। एक साल बाद जब वो लौटे तो जीवित नहीं थे। 20 अप्रैल 2016 की सुबह 9:30 बजे बिहार के जलेश्वर प्रसाद (स्टील वर्कर) अल-बेयत स्टेडियम में खिलाड़ियों के लिए बनायी जाने वाली टनल के अन्दर काम कर रहे थे। काम करते हुए अचानक गिर गये। दो घण्टे बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। उनके परिजनों को बताया गया कि उनकी मौत ‘हृदय गति रुकने’ से हुई। इन्हें भी कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया। जलेश्वर अपने परिवार के अकेले कमाने वाले थे।
ये कहानी उन हज़ारों एशियाई और अफ़्रीकी मज़दूरों के साथ घटी है जो क़तर में काम करने गये थे। इन चन्द उदाहरणों से वहाँ काम के हालात, परिस्थितियों और माहौल को समझा जा सकता है। हज़ारों मज़दूरों की मौत के बावजूद क़तर की सरकार ने केवल चार सौ से पाँच सौ मज़दूरों की मौत को स्वीकारा है। भारत के विदेश मंत्रालय ने 2011 से 2022 तक क़तर में 3313 भारतीय श्रमिकों की मौत की पुष्टि की है। इसी तरह से पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और अफ़्रीकी देशों के सैकड़ों-हज़ारों मज़दूरों की मौत हुई है। इसमें एक और बात ग़ौर करने वाली है कि इन देशों की सरकारों ने भी क़तर में काम के हालात, शोषण और मज़दूरों की मौत पर न तो कोई सवाल उठाया और न ही कोई आपत्ति की। असल में इन सभी देशों की सरकारें भी अपने देश में मज़दूरों के उन्हीं बर्बर, शोषण, उत्पीड़न को बनाये रखे हुए हैं। इस मामले में ये सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
हज़ारों मज़दूरों की लाशों पर फ़ीफ़ा फ़ुटबाल विश्व कप की विलासिता खड़ी की गयी। ये मामला सिर्फ़ यहीं तक नहीं रुका। जब ये प्रोजेक्ट 90 प्रतिशत तक पूरा हो गया तो लाखों मज़दूरों को ज़बर्दस्ती उनके देश वापस भेज दिया गया। मज़दूरों को भेजने का सिलसिला अगस्त 2021 से शुरू हुआ और अप्रैल 2022 तक चलता रहा।

और इस तरह मुकम्मल हुई जश्न की अन्तिम तैयारी :

फ़ुटबाल विश्व कप शुरू होने के ठीक 15 दिन पहले जब उसकी टिकटों को लेने और पाँच सितारा होटल में ठहरने के लिए बुकिंग की होड़ चल रही थी, उसी समय 5 नवम्बर की रात 10 बजे क़तर की राजधानी दोहा के अल-मंसौरा ज़िले की एक इमारत को ज़बरन ख़ाली कराया जा रहा था। इमारत की बिजली-पानी का कनेक्शन काट दिया गया था। इस इमारत में रहने वाले लगभग 1200 मज़दूरों को दोहा से 40 कि.मी. दूर बने कैम्पों में ज़बर्दस्ती भेजा जा रहा था। इस इमारत में रहने वाले एक मज़दूर जावेद बताते हैं कि “अभी-अभी बहुत सारे मज़दूर अपनी ड्यूटी ख़त्म करके थके-हारे आराम करने के लिए आये हैं। लेकिन अधिकारियों ने हमें ज़बरन निकालकर इमारतों में ताला लगा दिया है। अब इस ठण्डी रात में हम कहाँ जायें और क्या करें?” मज़दूरों को बेघर करने की यह कार्रवाई फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप की उन अन्तिम तैयारियों का हिस्सा थी जो फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप की चकाचौंध को बढ़ाने के लिए ज़रूरी था क्योंकि ये मज़दूर उस इलाक़े में रह रहे थे जहाँ यह वर्ल्ड कप होना था।

पूँजीवादी व्यवस्था और खेल

वैसे देखा जाये तो खेल मनुष्य की उत्पादन के बाद सबसे स्वाभाविक मानवीय गतिविधियों में से एक है जिसका सभी मनुष्यों को अधिकार होना चाहिए लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में खेल भी एक माल बन जाता है जिसे पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के हित के लिए इस्तेमाल करता है। पूँजीवाद में खेल अपनेआप में एक उद्योग होने के साथ-साथ बहुसंख्यक उद्योगों में उत्पादित होने वाले मालों के विज्ञापन का एक साधन भी बन जाता है। खेल और फ़िल्म जगत से जुड़े स्टार खिलाड़ी और कलाकार बड़ी-बड़ी कम्पनियों के ब्राण्ड एम्बेसडर बनकर उनके मालों के प्रचार का काम करते हैं। मज़दूरों की नस-नस से ख़ून-पसीने को निचोड़कर जो अतिरिक्त मुनाफ़ा पूँजीपति वर्ग हासिल करता है उसी का एक छोटा-सा हिस्सा प्रचार के रूप में इन खिलाड़ियों व फ़िल्मी स्टारों को दे देता है जो ज़ाहिर-सी बात है लाखों-करोड़ों में होता है।
इन खेलों के जश्न और चकाचौंध में उन मज़दूरों को भुला दिया जाता है जिनके दम पर इन सारे खेलों के साजो सामान तैयार होते हैं। क़तर में हो रहे फ़ुटबाल विश्व कप की एक सीट की औसत टिकट 27 हज़ार रुपये से शुरू होकर 14 लाख रुपये तक गयी है। इस विश्व कप के लिए फ़ुटबाल का निर्माण करने वाले पाकिस्तान के एक छोटे-से शहर सियालकोट में रहने वाले मज़दूर बमुश्किल अपना घर चला पाते हैं। दुनियाभर में इस्तेमाल होने वाले फ़ुटबाल का दो तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के सियालकोट में ही तैयार किया जाता है। इन फ़ुटबालों को हाथ से सिला जाता है जो बहुत ही बारीक काम है। हर रोज़ 12 घण्टे काम करने के बाद भी यहाँ के मज़दूरों की औसत कमाई 9600 रुपये महीने ही हो पाती है।
पूँजीवादी समाज में खेल एक विशेषाधिकार बन चुका है। यह आम मेहनतकश आबादी की पहुँच से दूर हो गया है। हमारे देश की अस्सी फ़ीसदी आबादी जिन हालातों और जिन जगहों पर रहती है वहाँ खेल के कोई साधन, मैदान आदि ही नहीं है। बहुसंख्यक आबादी खेल और उसकी मानवीय स्वाभाविकता से वंचित कर दी गयी है। यही कारण है कि अरबों की जनसंख्या वाला हमारा देश ज़्यादातर खेलों में पिछड़ा हुआ है। यह अपवादस्वरूप ही होता है कि ग़रीबों-मेहनतकशों के बीच से कोई स्टार खिलाड़ी पैदा हो। पूँजीवादी व्यवस्था बहुसंख्यक आबादी को उसकी मानवीय स्वाभाविकता से वंचित करने का ही काम कर सकती है। इसलिए क़तर के इस जश्न और उत्साह में जो बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी शामिल नहीं थी वही भविष्य में मानवीय स्वाभाविकताओं की मुक्ति का रास्ता खोलेगी और खेल जैसी स्वाभाविक मानवीय गतिविधि को समग्र मानव के लिए सुलभ बनायेगी।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023


 

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