ब्राज़ील में लूला के जीतने के निहितार्थ

केशव

इस वर्ष ब्राज़ील में हुए राष्ट्रपति चुनाव में वाम पक्ष की ओर से लुइज़ इनेसियो लूला डा सिल्वा के जीतने के बाद ब्राज़ील समेत भारत की लिबरल जमात ब्राज़ील में फ़ासीवाद पर “मुक्कमल जीत” का जश्न मनाकर लहालोट हो रही है। ब्राज़ील के फ़ासीवादी नेता बोल्सोनारो की इस चुनाव में होने वाली हार के साथ ही इस बात का प्रचार पूरे ज़ोर-शोर से किया जा रहा है कि अब ब्राज़ील में आम मेहनतकश जनता के लिए बेहतर ज़िन्दगी का रास्ता खुल चुका है। लेकिन इन तमाम प्रचारों और शोर के बीच ब्राज़ील की जनता की स्मृति को थोड़ा पीछे ले जाकर देखें तो हम ब्राज़ील समेत भारत में लूला के समर्थन में उठ रहे खोखले नारों की असलियत जान पायेंगे।
पहली बार 2002 के अन्त में चुनकर आयी लूला की पार्टी ‘वर्कर्स पार्टी’ (PT) के शुरू के 2 वर्ष के कार्यकाल में ही इसकी सच्चाई जनता के सामने उजागर होनी शुरू हो गयी। अपने कार्यकाल के दौरान लूला की सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की पेंशन पर हमले किये। इसके साथ ही पार्टी में जिन्होंने भी इसका विरोध किया उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। साथ ही इस पार्टी को इस दौरान बड़े कॉर्पोरेट घरानों से भी काफ़ी फण्ड मिले। अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही लूला सरकार ने वर्ग सहयोग के नाम पर पूँजीपति वर्ग के सहयोग में जुट गयी, जिसके नतीजे के तौर पर लूला सरकार को जनता के भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। 2003 के अगस्त महीने में 80,000 सरकारी कर्मचारियों के चार महीनों की हड़ताल, 1,20,000 पोस्टल कर्मचारियों की हड़ताल, 1,40,000 तेल कर्मचारियों की हड़ताल इसके प्रतिनिधिक उदाहरण हैं। वर्ष 2006 के चुनाव के पहले राउण्ड में जनता के एक बड़े हिस्से ने लूला का बहिष्कार किया, जो कि जनता की तरफ़ से लूला सरकार को एक चेतवानी थी और साथ ही जनता के बीच विकल्पहीनता का नतीजा। इसके बाद लूला दूसरे राउण्ड में अपने खोखले वायदों के ज़रिए वोट बटोरने में क़ामयाब हुआ। इस चुनाव के बाद लूला ने तमाम बुर्जुआ पार्टियों के सामने गठबन्धन का प्रस्ताव रखा जिसमें से कई बुर्जुआ पार्टियाँ ‘PT’ के साथ इस गठबन्धन में शामिल भी हुईं। इसके साथ ही लूला ने इस दौरान बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के हित में कई नीतियाँ बनायीं।
जैसे-जैसे व्यवस्था का संकट बढ़ता गया, वैसे-वैसे पूँजीपति वर्ग को एक ऐसे तानाशाह शासक की ज़रूरत पड़ने लगी जो डण्डे की ज़ोर पर उनकी नीतियों को लागू करवा सके। इसलिए ही 2015 में मनी लॉण्ड्रिंग के मामले में लूला को जेल भेजा गया, और पूँजीपति वर्ग ने बोल्सोनारो की प्रतिक्रियावादी राजनीति के फलने-फूलने के लिए ख़ूब पैसा बहाया। अन्य देशों की तरह ब्राज़ील में भी बोल्सोनारो की फ़ासीवादी राजनीति ने जनता के गुस्से को प्रतिक्रियावादी राजनीति की ओर धकेलकर एक सामाजिक आन्दोलन खड़ा किया, और यहाँ ज़मीनी स्तर पर धुर-दक्षिणपन्थ ने अपनी पैठ बना ली। साथ ही देशभर के सरकारी महकमों में धुर-दक्षिणपन्थ और अर्द्ध-फ़ासीवाद की पकड़ मज़बूत हुई। और इसके नतीजे के तौर पर वर्ष 2018 में बोल्सोनारो सत्ता में आया। सत्ता में आने के बाद उसने पूँजीपरस्त नीतियों को और भी अधिक नंगे तरीक़े से लागू करने शुरू कर दिया, और आम जनता के तमाम हक़ों और अधिकारों को कुचलना शुरू कर दिया। कोरोना के दौर में बोल्सोनारो सरकार की लापरवाही की वजह से 7 लाख से भी अधिक लोग मारे गये। और इस दौरान भी उसने मज़दूरों-मेहनतकशों के हक़ों और अधिकारों को कुचलने का काम और भी तेज़ी से किया।
जनता के बीच बोल्सोनारो के लिए बढ़ता असन्तोष एक लम्बी दूरी में व्यवस्था के ख़िलाफ़ असन्तोष बन सकता था। इस बात को भली-भांति समझने वाले पूँजीपति वर्ग ने एक बार फिर जनता के बीच लूला को खड़ा करने की कोशिश में जुट गया। और इसके नतीजे के तौर पर इस वर्ष के चुनाव में बोल्सोनारो के सामने लूला का चेहरा एक “बेहतर विकल्प” के रूप में पेश किया गया। और इसी प्रचार का शिकार आज भारत की लिबरल जमात हो रही है जिसे लूला का उभार बोल्सनारो की फ़ासीवादी राजनीति के बरक्स एक “प्रगतिशील विकल्प” के तौर नज़र आ रहा है। लूला का इस चुनाव में जीतना और कुछ नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग द्वारा जनता के गुस्से पर क़ाबू पाने का ही एक हथकण्डा है।
लूला की सुधारवादी राजनीति
‘वर्ग सहयोग’ की राजनीति करने वाले इतिहास में भी सुधारवादी तथा संशोधनवादी धड़े के नाम से कुख्यात रहे हैं। लूला की राजनीति को सुधारवादी राजनीति का क्लासिकीय उदाहरण कहना गलत नहीं होगा। लूला के पिछले वर्षों का कार्यकाल उसकी सुधारवादी राजनीति की पुष्टि करता है। उसके कुछ बयानों पर ग़ौर करने पर हमें पता चलता है कि उसकी राजनीति इस व्यवस्था को सही ठहराने से अधिक कुछ नहीं करती। वर्ष 2019 में लूला द्वारा दिये गये बयान, जिसमें उसने कहा कि न्याय प्रणाली के ‘सड़े हुए पक्ष’ ने, लोक अभियोजक के कार्यालय के ‘सड़े हुए पक्ष’ ने, संघीय पुलिस के ‘सड़े हुए पक्ष’ ने और संघीय राजस्व विभाग के ‘सड़े हुए पक्ष’ ने वामपन्थियों को अपराधी बनाने और लूला का अपराधीकरण की कोशिश की है, इस व्यवस्था के किसी सही पक्ष की ओर इशारा करते हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि इस व्यवस्था का हर पक्ष आम मेहनतकश और मज़दूरों के विरोध में खड़ा है और आम मेहनतकश जनता के लिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था ही सड़ी हुई है। जब पूँजीवाद मज़दूरवर्गीय राजनीति से सीधे टक्कर लेने को हालत में नहीं होता तो वह सुधारवाद और संशोधनवाद के रूप में मज़दूर वर्ग की राजनीति का खोल ओढ़कर आता है। यह मज़दूर वर्ग को बताता है कि समाज में वर्ग संघर्ष की जगह वर्ग सहयोग की बात करनी चाहिए। वह इस बात के पूरी तरह से छिपा देता है कि बुर्जुआ जनवाद अपने सार रूप में आम जनता पर बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व होता है। यह मेहनतकशों और मज़दूरों को इतनी ही आज़ादी देता है कि वे बाज़ार में अपनी शारीरिक श्रमशक्ति और मानसिक श्रमशक्ति बेचकर जीवित रह सकें। वह मौजूदा लूटेरी पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की बजाय इस व्यवस्था को अलग-अलग रूपों से सही ठहराने का काम करता है।
सभी प्रकार के सुधारवादी और संशोधनवादी क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के विभीषण, जयचन्द और मीरजाफर होते हैं। वे मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ वर्ग के एजेण्ट का काम करते हैं। वे पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करते हैं। ये मज़दूर वर्ग के सामने खड़े खुले दुश्मन से भी अधिक ख़तरनाक होते हैं। सुधारवादी और संशोधनवादी पूँजीवादी संसदीय राजनीति को ही व्यवस्था-परिवर्तन का माध्यम तो मानते ही हैं, साथ ही मज़दूर वर्ग को राज्यसत्ता के ध्वंस के लक्ष्य से दूर रखने के मक़सद से, वे उनके बीच न तो क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार करते हैं, न ही उनके राजनीतिक संघर्षों को आगे विकसित करते हैं। राजनीति के नाम पर बस वे चुनावी राजनीति करते हैं और मेहनतकश जनता का इस्तेमाल मात्र वोट बैंक के रूप में करते हैं। ये पार्टियाँ और इनकी ट्रेड यूनियनें प्राय: मज़दूरों को वेतन-भत्तों आदि की माँगों को लेकर चलने वाले आर्थिक संघर्षों में ही उलझाये रहती हैं और उनकी चेतना को पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दी में बाँधे रखती हैं। प्राय: सीधे-सीधे या घुमा-फिराकर ये यह तर्क देती हैं कि आर्थिक संघर्ष ही आगे बढ़कर राजनीतिक संघर्ष में बदल जाता है। इसके विपरीत सच तो यह है कि आर्थिक संघर्ष इस व्यवस्था के भीतर मज़दूर वर्ग को संगठनबद्ध होकर अपनी माँगों के लिए लड़ना सिखाता है, लेकिन वह स्वयं विकसित होकर राजनीतिक संघर्ष नहीं बन जाता। मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और राजनीतिक संघर्ष में उसे उतारने का काम मज़दूर वर्ग के हिरावल को, जो कि सर्वहारा पार्टी के रूप में संगठित होता है, आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ शुरू से ही करना होता है। इस तरह अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ते हुए मज़दूर वर्ग बुर्जुआ राज्यसत्ता को चकनाचूर करने के अपने ऐतिहासिक मिशन को समझता है और उस दिशा में आगे बढ़ता है। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी सर्वहारा वर्ग के हिरावल के रूप में इस काम में नेतृत्वकारी भूमिका निभाती है। संशोधनवादी पार्टियाँ जन संघर्षों को मात्र आर्थिक संघर्षों तक सीमित कर देती हैं और राजनीति के नाम पर केवल वोट बैंक की राजनीति करती हैं।
धुर-दक्षिणपन्थ और फ़ासीवाद के “पराजय” के मुग़ालते में लिबरल जमात
आज लूला की जीत के बाद जो लिबरल जमात धुर-दक्षिणपन्थ और फ़ासीवाद पर निर्णायक जीत का जश्न मनाकर खुशी में लहालोट हो रही है, उन्हें न तो फ़ासीवाद के बारे में कोई समझ है, न ही समाज विज्ञान की कोई जानकारी। यह लिबरल जमात व्यवहारवादी नज़रिए से दुनिया को देखती है। यही जमात फ़ासीवाद के उभार के दौरान से मुँह फेर लेती है और ऐसे किसी संशोधनवादी राजनीतिक के आंशिक तौर पर भी जीत के साथ खुशी का ढोल पीटना शुरू कर देती है। पहली बात तो बोल्सोनारो और लूला के वोट में बहुत अधिक फर्क नहीं है। इस चुनाव में लूला को 50.2% वोट मिले हैं, वहीं बोल्सोनारो को 49.8% वोट मिले हैं। दूसरा, केवल चुनाव में हार जाने के कारण यह कतई नहीं कहा जा सकता कि ब्राज़ील में धुर-दक्षिणपन्थ पराजित हो गया है, क्योंकि धुर-दक्षिणपन्थ और प्रतिक्रियवादी आन्दोलनों की बुनियाद चुनावी जीत नहीं होती, बल्कि यह टुटपुँजिया वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है या फिर टुटपुँजिया वर्गों में सामाजिक आधार की बुनियाद पर खड़ा होता है और बड़ी पूँजी की सेवा करता है। धुर-दक्षिणपन्थ और विशेष तौर पर फासीवाद की पराजय महज़ चुनावों में प्रतिक्रियवादी दलों की हार पर निर्भर नहीं करती। उसे क्रान्तिकारी जनान्दोलन और समाजवादी क्रान्ति ही निर्णायक तौर पर परास्त कर सकती है। अन्यथा, वह समय-समय पर आने वाले ज्वरों या दौरों के समान अपनी शक्ति को बढ़ाता है और मज़दूर वर्ग को खण्ड-खण्ड में विभाजित करता है और उसके प्रतिभार के तौर पर टुटपुँजिया वर्गों के भीतर निहित प्रतिक्रिया को वास्तविकता में तब्दील कर उसका इस्तेमाल करता है।
फ़ासीवाद समेत धुर-दक्षिणपन्थ के तमाम रूपों का मुक़ाबला करने की ताक़त सुधारवादी या संशोधनवादी राजनीति में कभी थी ही नहीं। आज यह राजनीति पूरे तरीक़े से पूँजीपति वर्ग की गोद में जाकर बैठ चुकी है। और इनसे किसी भी प्रकार की उम्मीद करना शेखचिल्ली के सपने देखने की तरह होगा। आज मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी ताक़त ही फ़ासीवाद समेत धुर-दक्षिणपन्थ के तमाम रूपों का मुक़ाबला कर सकती है। मज़दूर वर्ग के सबसे ख़तरनाक दुश्मन फासीवाद और धुर-दक्षिणपन्थ के अन्य रूपों का मुक़ाबला करने के लिए आज ब्राज़ील के मज़दूर वर्ग को अपनी माँगों के आधार पर संगठित होना होगा, उन्हें ज़मीनी स्तर पर क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू कर फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ अपना मोर्चा खोलना होगा। साथ ही लूला जैसी तमाम पार्टियों की सुधारवादी राजनीति को सिरे से ख़ारिज करना होगा और अपना स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष खड़ा करना होगा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022


 

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