आम मेहनतकश जनता का ख़तरनाक और धोखेबाज़ दुश्मन है अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’
सम्पादकीय अग्रलेख
आज से क़रीब एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त पहले सदाचार की डुगडुगी बजाते हुए अण्णा हज़ारे के नेतृत्व में ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ का मजमा दिल्ली में एकत्र हुआ था। इस शंकर की बारात में किरण बेदी जैसे जोकरों के साथ योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण व शान्ति भूषण जैसे घाघ समाजवादी व सुधारवादी तथा अरविन्द केजरीवाल व मनीष सिसोदिया जैसे अवसरवादी और लोकरंजकतावादी दक्षिणपन्थी और साथ ही स्वामी रामदेव जैसे मक्कार ठग बाबा इकट्ठा हुए थे। अरविन्द केजरीवाल ‘परिवर्तन’ नाम का एक एनजीओ चलाता था, जबकि सिसोदिया ‘कबीर’ नाम का एनजीओ चलाता था और दोनों को ही विदेशी फ़ण्डिंग एजेंसिंयों से फ़ण्ड मिला करता था। आज भी ‘आप’ से रिश्ता रखने वाले इसी प्रकार के कई एनजीओ हैं, जो सुधारवाद की गन्द जनता में फैलाने में लगे हुए हैं। उससे पहले केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा में अधिकारी था। वह नौकरी छोड़कर एनजीओ की सुधारवादी राजनीति में आया था और उसका विचारधारात्मक रुझान शुरू से ही व्यवहारवादी मौक़ापरस्ती और दक्षिणपन्थ का था। अण्णा हज़ारे के आन्दोलन ने उसे अपना चेहरा चमकाने का पूरा मौक़ा दिया। वह अण्णा हज़ारे का दाहिना हाथ बनकर उभरा। टुटपुँजिया वर्गों के इस आन्दोलन ने भारतीय पूँजीवाद की ज़बर्दस्त सेवा की। 2010-11 में देश में सत्ताधारी कांग्रेस के भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई का प्रकोप छाया हुआ था। लोगों में ग़ुस्सा था। 2012 में दिल्ली में 16 दिसम्बर की बर्बर घटना हुई जिसके कारण जनता के दिल में लम्बे समय से भरा ग़ुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा।
पूँजीवादी शासक वर्ग के दूरदर्शी पहरेदारों ने इस घड़ी की नज़ाकत को समझा और जनता के ग़ुस्से को व्यवस्था-विरोधी दिशा में मुड़ने से रोकने के लिए ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ का साथ देने की हिमायत की। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आन्दोलन को खड़ा करने में विचारधारात्मक और राजनीतिक तौर पर केन्द्रीय भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की थी। आज इस बात से इन्कार करने वाला व्यक्ति पिछले एक दशक अवश्य ही सोता रहा है। अण्णा हज़ारे अन्दरूनी तौर पर आर.एस.एस. के साथ सम्बन्ध रखने वाला एक प्रतिक्रियावादी दक्षिणपन्थी व्यक्ति है। रालेगण सिद्धी में और देश के पैमाने पर उसके राजनीतिक व्यवहार ने इस बात को बिना शक साबित किया है। जहाँ तक योगेन्द्र यादव जैसे समाजवादियों की बात है, तो इनकी भूमिका हमेशा ही दक्षिणपन्थी राजनीति को मदद पहुँचाने की ही रही है। चाहे वह राम मनोहर लोहिया के दौर की संयुक्त विधायक दल सरकारों का मसला हो या फिर जयप्रकाश नारायण द्वारा 1970 के दशक के व्यापक जनान्दोलन में संघी ताक़तों को घुसाने का मसला हो, भारत के समाजवादियों ने हमेशा ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दक्षिणपन्थ और फ़ासीवाद को मुख्यधारा में लाने और उसे सहायता पहुँचाने का काम ही किया है।
किरण बेदी जैसे राजनीतिक जोकरों के बारे में ज़्यादा किसी चर्चा की ज़रूरत नहीं है। इसके अलावा, स्वामी रामदेव के रूप में एक दक्षिणपन्थी साम्प्रदायिक बाबा भी इस मुहिम में उछल-उछलकर शिरकत कर रहा था। अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया उस समय एनजीओ राजनीति में उभर रहे अहम नाम थे। केजरीवाल का एनजीओ ‘परिवर्तन’ और सिसोदिया का एनजीओ ‘कबीर’ विदेशी फ़ण्डिंग एजेंसियों के टुकड़ों पर पलते थे और उन्हें खड़ा ही इसलिए किया गया था कि समाज में मौजूद असन्तोष पर पानी के ठण्डे छींटों का छिड़काव किया जा सके। इसी राजनीति से निकलकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए केजरीवाल-सिसोदिया ने पहले आर.एस.एस. द्वारा खड़े किये गये अण्णा हज़ारे के आन्दोलन की लहर पर सवारी की और जब उसका पूरा लाभ निचोड़ लिया तो 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के पहले ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन किया। शुरू से ही इस पार्टी ने हर सवाल को ही भ्रष्टाचार पर लाकर ख़त्म कर दिया : यानी बेरोज़गारी, ग़रीबी, शोषण, अन्याय आदि सबकी जड़ में भ्रष्टाचार है, और भ्रष्टाचार का रिश्ता लोगों के ईमानदार या बेईमान होने से है! मानो इन्सान पैदाइशी तौर पर बेईमान या ईमानदार होता हो! यह सारी सोच इसलिए बनायी जा रही थी ताकि इस बात को छिपाया जा सके कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था ही मज़दूर वर्ग के नज़रिए से एक भ्रष्टाचार ही है, जो मज़दूर वर्ग के शोषण पर टिकी है, जो मज़दूर वर्ग के श्रम से अतिरिक्त मूल्य निचोड़ने पर टिकी हुई है। सारी बात को ही ‘ईमानदार नेताओं’ और ‘भ्रष्टाचारी नेताओं’ पर लाकर समेट दिया गया। ज़ाहिरा तौर पर, केजरीवाल और उसकी पार्टी ‘आप’ ने दावा किया कि वे ही ईमानदार हैं और बाक़ी सभी बेईमान हैं। यह दीगर बात है कि आने वाले वर्षों में केजरीवाल की पार्टी में भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों से ही तमाम नेता भर्ती हो गये और वे एक मिनट में ईमानदार भी हो गये।
यह ‘भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार’ का शोर सबसे ज़्यादा पूँजीपति वर्ग को पसन्द आता है क्योंकि उसे भी तो भ्रष्टाचार पसन्द नहीं है! उसे यह पसन्द नहीं कि अगर वह श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करते हुए न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे का कार्यदिवस, डबल रेट से ओवरटाइम का भुगतान, मुआवज़ा क़ानून, साप्ताहिक अवकाश लागू नहीं करता तो फिर लेबर इंस्पेक्टर या फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर उससे आकर घूस माँगे! उसे पसन्द नहीं कि जब उसे मज़दूरों के श्रम के शोषण के लिए नयी कम्पनी खोलनी होती है तो उसे बीस जगह से क्लियरेंस और नो ऑब्जेक्शन प्रमाणपत्र लेना पड़ता है, जिसके लिए उसे सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को घूस देनी पड़ती है! उसे पसन्द नहीं कि सेल्स टैक्स डिपार्टमेण्ट वाले उससे वसूली करते हैं और उसे टैक्स चोरी का अधिकार देने की पूरी क़ीमत वसूलते हैं! कितना भ्रष्टाचार है, यह सोचकर पूँजीपतियों की आँखें भर आती हैं, गला रुँध जाता है! वह चाहता है कि सरकारी भ्रष्टाचार ख़त्म हो और उसे अपना मुनाफ़ा नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग के साथ साझा न करना पड़े।
दूसरी तरफ़, नौकरशाह पूँजीपति वर्ग कहता है कि सूखी पगार में गुज़ारा नहीं चलता! जब तमाम पूँजीपति मज़दूरों को लूटकर नोट छाप रहे हैं, और उनकी समूची व्यवस्था को चलाने का काम नौकरशाह, अधिकारी और सरकार के उच्च कर्मचारी कर रहे हैं, तो उन्हें पगार के ऊपर उद्यमी पूँजीपति के मुनाफ़े से कुछ हिस्सा भी तो मिलना चाहिए! यह पूँजीपति वर्ग के दो हिस्सों के बीच मज़दूरों से लूटे गये बेशी मूल्य के बँटवारे का सवाल होता है। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर भ्रष्टाचार-विरोधी राजनीति का आधार यही अन्तरविरोध होता है। अरविन्द केजरीवाल और उसकी ‘आप’ ने इसी अन्तरविरोध को भुनाया। लेकिन उसके समर्थन में मध्यवर्गीय व निम्न मध्यवर्गीय टुटपुँजिया आबादी भी जुट गयी। आप पूछेंगे क्यों? इसलिए क्योंकि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग अलग प्रकार के सरकारी भ्रष्टाचार का शिकार होता है। उसे बिजली का बिल ठीक करवाने के लिए लाइन में लगना पड़ता है और घूस देनी पड़ती है, तो वह समूची व्यवस्था को गरियाता है और बोलता है : ‘इस देश को हिटलर की ज़रूरत है, जो सबको टाइट कर दे!’ इसलिए जब अण्णा हज़ारे जन्तर-मन्तर पर अपनी नौटंकी के लिए इकट्ठा हुआ और बाद में जब केजरीवाल और ‘आप’ का भारतीय राजनीति के पटल पर अवतरण हुआ, तो वह भी उनके पीछे चल पड़ा।
ऊपर से शुरू से ही केजरीवाल और ‘आप’ की राजनीति दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद कर रही थी। यानी वह एक ओर अन्धराष्ट्रवाद के मामले में भाजपा से होड़ कर रही थी, तो दूसरी ओर वह टुटपुँजिया आबादी को लुभाने वाले मुद्दों को लपक रही थी। अन्धराष्ट्रवाद, हिन्दू पुनरुत्थानवाद और टुटपुँजिया लोकरंजकतावाद के तत्वों से बनी अरविन्द केजरीवाल की राजनीति सदाचार की तुरही बजाते हुए 2014 में दिल्ली में सत्ता में आयी। तब से आठ साल बीत चुके हैं। इस बीच अरविन्द केजरीवाल और उसकी पार्टी ने अपने आपको दिल्ली के दलालों, व्यापारियों, कारख़ानेदारों, ठेकेदारों, जॉबरों व प्रॉपर्टी डीलरों की पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया है। इस मामले में कम-से-कम दिल्ली में उसने भाजपा की जगह ले ली है।
इसके साथ, केजरीवाल सरकार ने कुछ ऐसे फ़्रॉड किये हैं, जिनकी सच्चाई दिल्ली की टुटपुँजिया आबादी और व्यापक मेहनतकश जनता अभी तक समझ नहीं सकी है। मिसाल के तौर पर, 200 यूनिट तक फ़्री बिजली का मसला लीजिए। निश्चित तौर पर सभी को 200 यूनिट तक ही नहीं बल्कि निःशुल्क बिजली देने की व्यवस्था करना तो सरकार की ज़िम्मेदारी ही होनी चाहिए। इसके लिए विद्युत उत्पादन और वितरण को पूर्णत: सरकार के हाथ में होना चाहिए। बिजली निःशुल्क इसलिए होनी चाहिए क्योंकि जनता इस प्रकार की बुनियादी सुविधाओं के लिए पहले ही अप्रत्यक्ष करों के रूप में भुगतान कर चुकी है। साथ ही, व्यापक मेहनतकश जनता को ये सभी बुनियादी सुविधाएँ देने के लिए सरकार को देश के अमीरज़ादों पर विशेष टैक्स लगाने चाहिए क्योंकि इन अमीरज़ादों की समृद्धि का स्रोत भी व्यापक मेहनतकश जनता का श्रम ही है। लेकिन क्या केजरीवाल सरकार ने ऐसा कुछ किया? नहीं। उसने न तो कांग्रेस सरकार द्वारा दिल्ली में बिजली वितरण के निजीकरण को वापस लिया और न ही दिल्ली के पूँजीपतियों से करों की नियमित वसूली का काम किया। उल्टे उसने दिल्ली की जनता पर करों का बोझ बढ़ाया और उन करों में से ही बिजली वितरण करने वाली निजी कम्पनियों को भुगतान करने के लिए सब्सिडी दी! यानी, बिजली की क़ीमत वास्तव में अभी भी उतनी ही है। दिल्ली सरकार अभी भी पुरानी ऊँची दरों पर ही बिजली टाटा और अम्बानी से (यानी एनडीपीएल और बीएसईएस) से ख़रीद रही है, लेकिन जनता को 200 यूनिट तक बिजली फ़्री देने के लिए जो सब्सिडी दी जा रही है, उसी से वह टाटा और अम्बानी को भुगतान कर रही है। लेकिन दिल्ली सरकार यह सब्सिडी दिल्ली की जनता की जेब से ही लेकर दे रही है क्योंकि उसकी आय दिल्ली की जनता से वसूले गये करों से होती है। फ़र्क़ बस इतना है कि दिल्ली के आम ग़रीब नागरिक को अपने बिजली बिल पर 200 यूनिट तक बिजली ख़र्च करने पर छूट मिलती दिखती है तो उसे लगता है कि उसका ख़र्च कम हो गया। लेकिन टैक्स को बढ़ाकर जो सब्सिडी दी जा रही है, वह सीधे तौर पर किसी बिल पर लिखकर जनता के पास नहीं आती। वह उसे बढ़ी हुई महँगाई के रूप में दिखती है, जिसके लिए केजरीवाल सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नज़र नहीं आता। इस प्रकार दिल्ली की जनता को कोई फ़्री बिजली या पानी नहीं मिल रहा है। उसकी क़ीमत केजरीवाल सरकार जनता से ही वसूल रही है, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर जबकि प्रत्यक्ष तौर पर जनता को यह भ्रम होता है कि उसे कोई छूट मिली है। इस बात को जनता को समझने और समझाने की ज़रूरत है।
इसी प्रकार दिल्ली के स्कूलों की गुणवत्ता के बारे में भी केजरीवाल का प्रचार झूठा है। जो दिल्ली के राजकीय विद्यालयों में एक बार घूम लेगा उसे इस झूठे प्रचार की सच्चाई समझ में आ जायेगी। बेहतर आर्थिक हैसियत वाले लोगों के इलाक़ों में चन्देक सरकारी स्कूलों को मॉडल स्कूल के रूप में केजरीवाल सरकार ने स्थापित किया है और उसी की तस्वीरें दिखाकर वह दावा कर रही है कि उसने दिल्ली की स्कूल व्यवस्था बदल डाली है! इसके अलावा, केजरीवाल ने पूँजीवादी राष्ट्रवाद का पाठ स्कूलों में पढ़ाने के लिए बाक़ायदा कोर्स शुरू करवाया है। यह पूरा कोर्स व्यापक मेहनतकश जनता के विरोध में खड़ा है और किसी अमूर्त ‘राष्ट्र’ की सेवा में अपना शोषण और दोहन करवाने की शिक्षा आम ग़रीब आबादी के बच्चों को देता है। वास्तव में इसका अर्थ है पूँजीपतियों के राष्ट्र के लिए मेहनतकशों को अपनी हड्डियाँ गलाने की शिक्षा देना। साथ ही, केजरीवाल सरकार सभी बच्चों को छोटे-मोटे धन्धे करने का प्रशिक्षण दे रही है, ताकि “हर कोई नौकरी दे, कोई नौकरी न करे”! लेकिन हर कोई छोटा-मोटा उद्यमी पूँजीपति बन जायेगा तो वह नौकरी देगा किसको? इस तरह की बातों से जनता को मूर्ख बनाने के काम में केजरीवाल और उसकी ‘आप’ पार्टी मोदी और उसकी भाजपा से प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं। यह बातें सुनकर टुटपुँजिया वर्ग के लोग अक्सर मूर्ख बन भी जाते हैं। सर्वहारा वर्ग को उन्हें इस तरह की बातों की चार सौ बीसी के बारे में समझाना चाहिए और बताना चाहिए कि ‘सभी उद्यमी बन जायें’ का नारा रोज़गार पैदा करने के मामले में व्यवस्था की पूर्ण असफलता को छिपाने के लिए दिया गया जुमला है।
मुहल्ला क्लिनिक के बारे में मचाये गये शोर के पीछे भी केजरीवाल सरकार की धोखाधड़ी ही है। मुहल्ला क्लिनिक के लिए दिल्ली में नये डॉक्टरों व नर्सों आदि की कोई भर्ती नहीं की गयी बल्कि दिल्ली के राजकीय अस्पतालों में पहले से ही काम के बोझ तले दबे स्टाफ़ से ही काम करवाकर इन मुहल्ला क्लिनिकों को चलवाने की कोशिश की गयी। नतीजा वही हुआ जो होना था। आज अधिकांश मुहल्ला क्लिनिक या तो बन्द पड़े हैं, या कभी-कभार खुलते हैं और जब खुलते भी हैं तो उनमें अक्सर डॉक्टर, नर्स व तमाम सुविधाएँ मौजूद नहीं होती हैं।
लेकिन इन सारे फ़्रॉडों का प्रचार करने के लिए आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपना ख़र्च पिछले कुछ महीनों में ही हज़ार प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ाया है! करोड़ों-करोड़ रुपये केजरीवाल सरकार अपने झूठे प्रचार पर बहा रही है। अधिकांश मामलों में केजरीवाल बौना मोदी साबित हो रहा है। उसकी सारी हरकतें वैसी ही हैं। बस वह छोटी इकाई का मोदी है। वह छोटे पूँजीपतियों व मँझोले पूँजीपतियों का चहेता है दिल्ली में! क्यों? उसने दिल्ली के छोटे व मँझोले (और बड़े भी!) पूँजीपतियों को तमाम प्रकार के करों, लेबर इंस्पेक्टरों-फ़ैक्टरी इंस्पेक्टरों, सेल्स टैक्स विभाग आदि के छापों से पूर्ण रूप से छुटकारा देते हुए उन्हें भ्रष्टाचार करने और मुनाफ़ा पीटने की पूरी आज़ादी दे दी है। केजरीवाल ने सत्ता में आते ही कहा था, “अजी, मैं तो बनिया हूँ, धन्धा मेरे ख़ून में है!” कम से कम छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग से उसने अपना वायदा दिल्ली में पूरा किया है!
लेकिन मज़दूरों और मेहनतकशों से किये गये वायदे के मामले में केजरीवाल ने बेशर्मी से वायदाख़िलाफ़ी और ग़द्दारी करने का काम किया है। 2014 में सरकार बनाने से पहले चुनावों में केजरीवाल ने यह वायदा किया था कि वह दिल्ली में नियमित प्रकृति के कामों पर से ठेका प्रथा ख़त्म कर देगा, न्यूनतम मज़दूरी को पूर्ण रूप से लागू करेगा और सभी श्रम क़ानूनों को लागू करवायेगा। लेकिन जब 2015 में 25 मार्च को दिल्ली के हज़ारों मज़दूर उसे उसका यह वायदा याद दिलाने दिल्ली सचिवालय गये तो उसने भाजपा की मोदी सरकार के साथ मिलीभगत करके इन मज़दूरों पर बर्बर लाठीचार्ज करवाया और हवाई फ़ायर करवाये। मज़दूरों ने बार-बार केजरीवाल को उसके उस वायदे की याद दिलायी लेकिन केजरीवाल सीधे-सीधे उस वायदे से मुकर गया। इसी प्रकार दिल्ली सरकार में 55 हज़ार ख़ाली पदों पर भर्ती करने के वायदे से भी केजरीवाल सरकार मुकर गयी। नये कॉलेज व स्कूल बनाने के वायदे भी केजरीवाल सरकार भूल चुकी है, जिसने दिल्ली में व्यापक मेहनतकश आबादी के लिए रोज़गार सृजित किये होते।
यानी केजरीवाल ने सबसे हर चीज़ का वायदा किया, लेकिन पूरा केवल वह वायदा किया जो उसने पूँजीपतियों से किया था। इसीलिए अब आम आदमी पार्टी को पूँजीपतियों से मिलने वाला चन्दा कहीं ज़्यादा बढ़ गया है। साथ ही, केजरीवाल सरकार ने विधायकों को मिलने वाला वेतन बढ़ाते-बढ़ाते अब रु. 90,000 प्रति माह पर ला दिया है। इसमें भाजपा के दो-चार विधायकों ने भी आपसी गिले-शिकवे भुलाकर केजरीवाल सरकार का पूरा साथ दिया है। पूँजीपतियों से मिलने वाले चन्दे में भारी बढ़ोत्तरी के कारण आम आदमी पार्टी अपने प्रचार पर बेहिसाब पैसा बहा रही है। इसीलिए 2012-13 में आम आदमी पार्टी की कुल ‘घोषित’ सम्पदा थी रु. 126.15 लाख जबकि 2020-21 में यह बढ़कर रु. 2,182.07 लाख पहुँच चुकी है। इसे फ़ण्ड देने वालों में भारती मित्तल के नियंत्रण वाला प्रूडेण्ट चुनाव ट्रस्ट, बजाज चुनाव ट्रस्ट, भारता नम्मदे सम्स्थे ट्रस्ट (बंगलुरू की कम्पनी), गोयनका जैसे पूँजीपतियों का न्यू डेमोक्रेटिक इलेक्टोरल ट्रस्ट, ऑर्बिट, एलेग्रो आदि शामिल हैं। अब या तो ये पूँजीपति बेवक़ूफ़ हैं, या फिर आम आदमी पार्टी उनके ही हितों की नुमाइन्दगी करती है!
केवल इतने से ही हमें समझ लेना चाहिए कि अरविन्द केजरीवाल और उसकी पार्टी ‘आप’ किसके प्यादे हैं। लेकिन अब तो केजरीवाल ने ऐसा कोई अन्दाज़ा लगाने की ज़रूरत को भी अपनी राजनीतिक नंगई से ख़त्म कर दिया है। गुजरात के विधानसभा चुनावों और दिल्ली के नगर निगम चुनावों में भाजपा जितनी ही आक्रामकता के साथ केजरीवाल फ़ासीवादी हिन्दुत्व की राजनीति का प्रचार-प्रसार कर रहा है। प्रतीकों की और पहचान की राजनीति को आगे कर जनता के असली मुद्दों को ओझल करने की रणनीति में भी वह भाजपा से पीछे नहीं है। पहले केजरीवाल ने नोटों पर लक्ष्मी, गणेश व हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें लगाने की माँग की। फिर उसने बंगलादेश के ग़रीब मेहनतकश आप्रवासियों के ख़िलाफ़ भाजपा से भी ज़्यादा ज़हर उगला, जो कि मजबूरी में अपने देश से उजड़कर भारत आये हैं। इसके पहले, उसने कश्मीर में भाजपा द्वारा क़ौमी दमन और साम्प्रदायिकता फैलाने के काम में भाजपा का पूरा साथ दिया था, जनता की एकता को भंग करने के लिए भाजपा की मोदी सरकार द्वारा सीएए-एनआरसी के रूप में की गयी साज़िश में भी भाजपा का दिलो-जान से साथ दिया था और सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन का भी विरोध किया था।
लेकिन हिन्दुत्व की राजनीति में साथ देने की भूमिका से अब यह मदारी केजरीवाल आगे जाकर ख़ुद हिन्दुत्व का नया पोस्टर बॉय बनने की जुगत भिड़ा रहा है। यह सम्पादकीय अग्रलेख लिखे जाने के दो दिन पहले ही उसने गुजरात में बयान दिया, “मैं हिन्दू हूँ, अगर मैं हिन्दुत्व की राजनीति नहीं करूँगा तो और क्या करूँगा।” कई लोग इसमें महज़ मौक़े पर गधे को भी बाप बनाने की मौक़ापरस्ती देख रहे हैं (जो केजरीवाल में एक पतित व्यवहारवादी के समान है ही!) लेकिन यह महज़ गिरी हुई मौक़ापरस्ती नहीं है, बल्कि यह केजरीवाल के संघी दिमाग़ की विचारधारा को भी दिखलाता है। केजरीवाल का विवेकानन्द इण्टरनेशनल फ़ाउण्डेशन से गहरा जुड़ाव है, जिसके पीछे मोदी का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और आर.एस.एस. खड़े हैं। यह फ़ाउण्डेशन 2009 में बनाया गया था और इसका मक़सद था कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार को गिराकर भाजपा के लिए रास्ता साफ़ करना। केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, अण्णा हज़ारे, किरण बेदी, प्रशान्त भूषण व शान्ति भूषण को साथ लाकर ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ को खड़ा करने का काम विवेकानन्द फ़ाउण्डेशन ने ही किया था और संघ की इस भूमिका के बारे में अरविन्द केजरीवाल को अच्छी तरह से पता था, जिस बात का खुलासा अरविन्द केजरीवाल द्वारा लात मारकर ‘आप’ से बाहर किये गये प्रशान्त भूषण ने ख़ुद किया है।
यह बात दीगर है कि इस प्रक्रिया में अरविन्द केजरीवाल की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ बढ़ती गयीं और वह पूरी तरह से संघ के नियंत्रण में नहीं रहा। लेकिन यह भी सच है कि आज भी अरविन्द केजरीवाल की आर.एस.एस. से कोई दुश्मनी नहीं है और आज भी मोदी-नीत भाजपा और आर.एस.एस., केजरीवाल और ‘आप’ का इस्तेमाल तमाम राज्यों में विरोधी पार्टियों की सरकारों को गिराने, उनके वोट काटने आदि के लिए कर रहे हैं, ताकि वहाँ भी भाजपा की सरकार बनायी जा सके। पहले पंजाब में भी ‘आप’ का यही इस्तेमाल संघ परिवार ने किया क्योंकि वह भी जानता है कि ‘आप’ राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए चुनौती शायद ही बन पाये, लेकिन जिन-जिन राज्यों में यह दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी यानी कांग्रेस की सरकार गिरा सकती है या उसे सरकार में आने से रोक सकती है, वहाँ उसका इस्तेमाल करने में भाजपा को दूरगामी तौर पर फ़ायदा ही है। कुल मिलाकर, अरविन्द केजरीवाल की स्वायत्त महत्वाकांक्षाओं के बावजूद ‘आम आदमी पार्टी’ भारतीय राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में आर.एस.एस. और मोदी के ‘गेम प्लान’ में बिल्कुल सटीक बैठती है। केजरीवाल वस्तुगत तौर पर संघ परिवार और मोदी का एक मोहरा ही बन चुका है। यही कारण है कि अभी चन्द दिनों पहले ही केजरीवाल ने कहा था, “मैं भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए किसी गठबन्धन में नहीं शामिल होने वाला।” मोदी और भाजपा भी ठीक यही चाहते हैं। केजरीवाल का काम हर राज्य में भाजपा-विरोधी वोटों को काटना है और इस प्रक्रिया में वह अगर दिल्ली, पंजाब या गोआ जैसे राज्यों में सरकार बना भी ले तो भाजपा की राष्ट्रीय योजना पर उससे ज़्यादा कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। फ़र्क़ इसलिए भी नहीं पड़ने वाला क्योंकि केजरीवाल की धुर-दक्षिणपन्थी लोकरंजक व साम्प्रदायिक राजनीति का भाजपा के हिन्दुत्व फ़ासीवाद से कोई अन्तरविरोध या विरोधाभास नहीं है। उल्टे राष्ट्रीय राजनीति में इन दोनों ही राजनीतियों में अच्छा तालमेल बैठता है। दोनों ही मज़दूर वर्ग की धुर विरोधी राजनीतियाँ हैं, दोनों ही धार्मिक कट्टरपन्थ और हिन्दुत्व की सोच से जुड़ी हुई हैं, दोनों ही अन्धराष्ट्रवाद परोसती हैं, दोनों ही दमित क़ौमों के अधिकारों के हनन की हिमायत करती हैं, दोनों ही धार्मिक अल्पसंख्यक-विरोधी हैं, दोनों ही पूँजीपतियों के हितों की नुमाइन्दगी करती हैं (केन्द्रीय सत्ता में होने के नाते भाजपा बड़े व बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग के प्रति ज़्यादा जुड़ाव रखती है, जबकि केजरीवाल छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग को मज़बूती से इस धुर-दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी राजनीति से जोड़ने का काम करता है)। इन दोनों राजनीतियों का योग हिन्दुत्व फ़ासीवाद की ही सेवा करता है। इसको हम इससे भी समझ सकते हैं कि 2019 में दिल्ली के चुनावों के दौरान केजरीवाल के आपिये बन्दरों ने इलाक़ों-मुहल्लों में नारा ही यह चलाया था : ‘देश में मोदी जी, दिल्ली में केजरीवाल’!
‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर हमने केजरीवाल की राजनीति के इस चरित्र को 2011-12 में ही स्पष्ट किया था, जब कि आम आदमी पार्टी अभी बनी भी नहीं थी। उस समय तमाम लिब्बू वामियों और वामी लिब्बुओं ने (जो वास्तव में टुटपुँजिया उदारवादी राजनीति है, मज़दूर वर्ग को नुक़सान पहुँचाती है और प्रतिक्रियावादी दक्षिणपन्थी पूँजीवादी राजनीति को परास्त करने की क्षमता नहीं रखती) हम पर संकीर्णतावादी होने का आरोप लगाया था। तमाम कम्युनिस्ट कहे जाने वाले और अपने आपको कम्युनिस्ट समझने वाले भी केजरीवाल का उभार देखकर ईर्ष्या की भावना से ग्रस्त थे, केजरीवाल को भाजपा के विकल्प के तौर पर भी पेश कर रहे थे, उससे मोर्चा भी बनाना चाहते थे और अपने आपसे पूछ रहे थे, “केजरीवाल ने ऐसा क्या किया जो हम नहीं कर पाये!” हम ऐसे संशोधनवादियों और दिग्भ्रमित “कम्युनिस्टों” को तब भी इतना ही कह रहे थे और आज भी यही कहेंगे : “आप अब तक केजरीवाल से ज़्यादा कुछ अलग नहीं कर रहे थे, आप भी टुटपुँजिया व छोटे पूँजीपति वर्गों के प्रतिनिधि हैं, केजरीवाल भी। बस आप टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग को उदार वाम की ओर जीतना चाहते हैं, जबकि वह अपनी सम्भावनासम्पन्नता और प्रकृति से ही दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी राजनीति की ओर ज़्यादा आकर्षित होता है। इसलिए इस मामले में आप केजरीवाल से परास्त होने के लिए अभिशप्त थे।”
विकल्पहीनता की स्थिति में आज केजरीवाल की राजनीति की ओर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश वर्गों का एक हिस्सा भी आकर्षित है। लेकिन वह अपने 8 वर्षों के अनुभव से समझ चुका है कि केजरीवाल किसका नुमाइन्दा है। मोदी-शाह की भाजपा के विकल्प के तौर पर अपनी वर्ग चेतना की कमी के कारण पूँजीवादी चुनावी राजनीति के दायरे में उसे तात्कालिक तौर पर ‘आप’ एक विकल्प के तौर पर दिख रही है और ‘फ़्री बिजली और पानी’ के झूठे प्रचार का भी उसके ऊपर असर है। इसलिए दिल्ली में मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी के भी विचारणीय हिस्से ने केजरीवाल को वोट दिया था। आगे भी शायद दे। इन नगर निगम चुनावों में भी शायद वह केजरीवाल को ही वोट दे। लेकिन यह कोई विचारधारात्मक-राजनीतिक समर्थन नहीं है, बल्कि विकल्पहीनता की स्थिति है। साथ ही, जिस मात्रा में कुछ भ्रम केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के प्रति बना हुआ है, उसे दूर करने के लिए सर्वहारा वर्ग के हिरावल को लगातार प्रचार करना चाहिए।
वजह यह कि केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति की छोटी गन्दी नाली दूरगामी तौर पर मोदी और भाजपा व संघ परिवार के ही बड़े गन्दे नाले में जाकर प्रवाहित व समाहित हो जाती है। यह बात हम पहले भी कई बार कह चुके हैं और आज भी दुहरा रहे हैं। अब यह बात व्यापक प्रगतिशील दायरे में भी अधिकांश लोग समझ रहे हैं, जो पहले हमें यही बात कहने के लिए कोसते थे और कहते थे कि हम भाजपा के विकल्प को कमज़ोर कर रहे हैं! अब उन्हें भी यह समझ आ रहा है कि केजरीवाल और ‘आप’ भाजपा के विकल्प नहीं बल्कि उसकी ही फ़ासीवादी राजनीति के सहायक हैं।
इस रूप में केजरीवाल की राजनीति मेहनतकश व मज़दूर वर्ग के लिए बेहद ख़तरनाक है; यह घास में छिपा हरे रंग का साँप है और इससे मज़दूरों-मेहनतकशों को एकदम सावधान हो जाना चाहिए, वरना बाद में बहुत पछताना पड़ेगा।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022
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बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन