सिर्फ़ एक धर्म विशेष क्यों, हर धर्म के धार्मिक कट्टरपन्थी अतिवादी संगठनों पर रोक क्यों नहीं?
संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद व धार्मिक कट्टरपन्थ को खुला हाथ क्यों?
आतंकवाद बहाना है, जनता ही निशाना है!

सम्‍पादकीय

हालिया दिनों में फ़ासीवादी मोदी सरकार ने पॉप्युलर फ़्रण्ट ऑफ़ इण्डिया के केन्द्रों और उसके सदस्यों पर देशभर में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वारा छापे डलवाये। पॉप्युलर फ़्रण्ट ऑफ़ इण्डिया (पीएफ़आई) को इस्लामी कट्टरपन्थी व आतंकवादी संगठन बताया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पीएफ़आई एक धार्मिक कट्टरपन्थी और अतिवादी संगठन है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि इसके पीछे इस्लामिक कट्टरपन्थी विचारधारा काम कर रही है और इसी विचारधारा के फैलाव के लिए यह संगठन काम करता रहा है। वैसे तो यह संगठन तमाम प्रकार की सामाजिक व आर्थिक सुधार की गतिविधियों का इस्तेमाल करता रहा है, लेकिन भारत सरकार की जाँच एजेंसियों के अनुसार, ये काम वास्तव में मुसलमान युवाओं के बीच इस्लामी कट्टरपन्थी अतिवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार और उनके धार्मिक रैडिकलाइज़ेशन के लिए किये जाते हैं। 2010 में केरल में एक ईसाई शिक्षक के हाथ काटे जाने की घटना से पीएफ़आई सुर्ख़ियों में आया था। उस मामले में कई दोषियों को सज़ा भी मिली थी। लेकिन पीएफ़आई उसके बाद भी सक्रिय रहा है और कई राज्यों में इसने अपना विस्तार किया था। मोदी सरकार की जाँच एजेंसियों ने पीएफ़आई को देश की ‘सम्प्रभुता’ और ‘अखण्डता’ के लिए ख़तरा बताते हुए उस पर आतंकवाद निरोधक क़ानून यूएपीए के तहत पाँच वर्षों के लिए पाबन्दी लगा दी है। इस दौरान देश में पीएफ़आई के दर्जनों कार्यालयों पर छापे डाले गये और सैंकड़ों सदस्यों को गिरफ़्तार किया गया। इस बात की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पीएफ़आई के धार्मिक कट्टरपन्थ को बहाना बनाकर कई आम मेहनतकश मुसलमान युवाओं को भी निशाना बनाया जा रहा है। क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग हर प्रकार के दमन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सबसे पुरज़ोर तरीक़े से लड़ने वाला वर्ग होता है और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के आम युवाओं के इस प्रकार प्रताड़ित किये जाने पर भी वह चुप नहीं रह सकता है।
लेकिन यहाँ एक और अहम सवाल है। क्या पीएफ़आई देश में एकमात्र धार्मिक कट्टरपन्थी और आतंकवादी संगठन है? क्या केवल पीएफ़आई है जो जनता के बीच धार्मिक व साम्प्रदायिक कट्टरपन्थ और दक्षिणपन्थी अतिवादी सोच का प्रचार-प्रसार कर रहा है? सच तो यह है कि हमारे देश में जनता की एकता को हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थी और दक्षिणपन्थी साम्प्रदायिक अतिवाद से ख़तरा है और पीएफ़आई ऐसा अकेला संगठन नहीं है जो इस प्रकार की प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार और अतिवादी गतिविधियों में लगा रहा है। यहाँ तक कि पीएफ़आई को इस मामले में सबसे बड़ा ख़तरा भी नहीं कहा जा सकता है। इस देश में ये काम करने वाला अगर कोई सबसे बड़ा संगठन है तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके तमाम अनुषंगी संगठन। पीएफ़आई जैसे धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन पर रोक का कोई भी जनवादी व्यक्ति बिना शर्त विरोध या समर्थन नहीं कर सकता है। पहला सवाल तो एक धार्मिक कट्टरपन्थ द्वारा दूसरे धार्मिक कट्टरपन्थ पर प्रतिबन्ध लगाये जाने पर ही है। स्वयं धार्मिक उन्माद की लहर फैलाने वाली भाजपा की सरकार इस्लामिक धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन पर प्रतिबन्ध लगाये, क्या यह ख़ुद एक भद्दा मज़ाक़ नहीं है? इसके अलावा भी दो मुद्दे हैं : पहला, पीएफ़आई के धार्मिक कट्टरपन्थ और आतंकवाद पर निशाना साधने के नाम पर बेगुनाह आम ग़रीब मेहनतकश मुसलमानों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए जो कि बनाया जा रहा है और सभी गिरफ़्तार लोगों को निष्पक्ष जाँच और मुक़दमे का अधिकार मिलना चाहिए जो कि मोदी-शाह की सत्ता के आने के बाद ग़रीबों, राजनीतिक विरोधियों और अल्पसंख्यकों को नहीं मिलता रहा है और, दूसरा, सिर्फ़ एक धर्म के धार्मिक कट्टरपन्थी अतिवाद और आतंकवाद पर ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों में मौजूद ऐसे धार्मिक कट्टरपन्थी अतिवादी और आतंकवादी विचारधाराओं और संगठनों पर पूर्ण रोक लगायी जानी चाहिए क्योंकि अगर केवल किसी धर्म विशेष में मौजूद कट्टरपन्थ और अतिवाद को निशाना बनाया जाता है, जबकि बहुसंख्यवादी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और उसके धार्मिक कट्टरपन्थ को हाथ भी नहीं लगाया जाता तो वास्तव में इस प्रतिबन्ध का निशाना स्वयं पीएफ़आई नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय है। ज़ाहिर है कि अगर प्रतिबन्ध का अधिकारी कोई है तो सबसे पहले बहुसंख्यवादी धार्मिक कट्टरपन्थ, साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और अतिवाद है और उसमें पहला नम्बर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठनों का होना चाहिए क्योंकि सबसे बड़ी ताक़त होने के चलते देश की जनता की एकता को अगर किसी से सबसे बड़ा ख़तरा है तो वे ये ही संगठन हैं। ज़ाहिर है, मौजूदा दौर में यह सम्भव नहीं है क्योंकि ये ही ताक़तें आज सत्ता में क़ाबिज़ हैं! फिर भी इस सवाल पर इस नज़रिए से सोचना हमारे लिए गहरी प्रासंगिकता रखता है। सच तो यह है कि पीएफ़आई पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई नैतिक अधिकार संघ परिवार के चुनावी फ़्रण्ट भाजपा की सरकार के पास नहीं है जो कि स्वयं एक धार्मिक कट्टरपन्थी और साम्प्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा से संचालित है।
यह बात हम यूँ ही नहीं कह रहे हैं। आइए, कुछ प्रमाणों और तर्कों पर ग़ौर करें।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की सदस्य रही प्रज्ञा ठाकुर का नाम सीधे तौर पर मालेगाँव बम धमाकों में आया, जिसका मक़सद साम्प्रदायिक उन्माद भड़काना था। ठाकुर को गिरफ़्तार भी किया गया और वह जेल में भी रही। उसके बाद, जैसा कि ऐसे मामलों में पकड़े जाने पर संघ से जुड़े लोगों के साथ होता है, ठाकुर को ज़मानत मिल गयी। इसके बाद भाजपा ने बाक़ायदा उसे चुनाव में टिकट दिया और आज वह मोदी सरकार की एक सांसद है। अभी भी उसके ऊपर यूएपीए के तहत मुक़दमा जारी है। फ़र्ज़ करें, अगर कोई धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय का व्यक्ति ऐसे मामले में पकड़ में आता तो क्या उसे ज़मानत मिलती? क्या अब तक वह यूएपीए के तहत या उसके बिना ही जेल में नहीं सड़ रहा होता? लेकिन प्रज्ञा ठाकुर को अपनी आतंकी गतिविधियों का ईनाम सांसद बनाकर भाजपा ने दिया। बिना किसी आतंकी कार्रवाई में हिस्सा लिये उमर ख़ालिद, गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुम्बडे जैसे लोगों को जेलों में डाल दिया गया है। लेकिन अगर आप आरएसएस के हैं तो आपके द्वारा आतंकी कार्रवाई में हिस्सा लिया जाना भी “राष्ट्रवाद” माना जायेगा!
हमारे देश में एक प्रदेश का भाजपा का मुख्यमंत्री बाक़ायदा वीडियो पर यह बयान देते हुए दर्ज है कि हरेक हिन्दू कन्या के बदले हिन्दू युवा वाहिनी 100 मुसलमान कन्याओं को अगवा करेगी और हर एक हिन्दू की हत्या पर 100 मुसलमानों की हत्या की जायेगी। इस नेता की मौजूदगी में ही मंच पर एक अन्य नेता मुसलमान औरतों को क़ब्र से निकालकर बलात्कार करने का आह्वान करता है। यही नेता खुलेआम मंच से बयान देता है कि हिन्दू और मुसलमान साथ नहीं रह सकते और वह एक धर्मयुद्ध की तैयारी कर रहा है और केवल वही जिहाद का जवाब दे सकता है। इन नेता का नाम अजय मोहन सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ है और आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के 2014 से मुख्यमंत्री हैं। ऐसा व्यक्ति मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने ऊपर धार्मिक उन्माद और दंगा फैलाने के सारे मुक़दमे हटवा देता है। देश का क़ानून, उसकी अदालत चुपचाप देखती रहती है। क्या इस प्रकार के बयान देश की एकता को नहीं तोड़ते? क्या ऐसे बयान स्वयं आतंकी कार्रवाइयों और साम्प्रदायिक हिंसा के लिए भड़काने का काम नहीं करते? क्या वे संविधान का उल्लंघन नहीं करते? क्या ऐसे बयान देने वाले लोगों के संगठन पर प्रतिबन्ध नहीं लगना चाहिए?
पूरा देश जानता है कि गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार में बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद् की क्या भूमिका थी। यहाँ तक कि अदालत ने बजरंग दल, विहिप और भाजपा के कई नेताओं को जेल तक भेजा। बजरंग दल का बाबू बजरंगी एक स्टिंग ऑपरेशन के दौरान कैमरे पर क़ुबूल करता पाया गया कि उसने दर्जनों मुसलमानों का क़त्ल किया और करवाया। माया कोडनानी जो कि गुजरात राज्य की मोदी सरकार में उस समय महिला और बाल विकास मंत्री थी, स्वयं दंगाइयों की अगुवाई करते हुए उनसे धार्मिक अल्पसंख्यकों का क़त्ल करवाने में संलिप्त पायी गयी और उसके लिए उसे सज़ा भी हुई। बाद में, गुजरात हाई कोर्ट ने सारे सबूतों और फ़ैसलों को नज़रन्दाज़ करते हुए माया कोडनानी को बरी कर दिया! उसकी जगह बजरंग दल के स्थानीय छुटभैया नेताओं सुरेश रिचर्ड और प्रकाश राठोड़ की सज़ा को बरक़रार रखा। क्या ये सारी कार्रवाइयाँ देश की एकता के लिए ख़तरा नहीं थीं? क्या इन्हें आतंकी कार्रवाई नहीं माना जायेगा? क्या ये इन आपराधिक संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए पर्याप्त कारण मुहैया नहीं कराते?
सभी जानते हैं कि बजरंग दल, विहिप, आदि आरएसएस के अनुषंगी संगठन लगातार जनता की एकता को धार्मिक आधार पर तोड़ने का काम करते हैं। जो इनकी शाखा में एक बार भी गया होगा, वह इस बात को जानता है। ये संगठन बच्चों और युवाओं के मन में लगातार ज़हर घोलने का काम करते हैं। इनमें से कई तो युवाओं ही नहीं बच्चों तक को बाक़ायदा हथियारों को इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण देते हैं और स्वयं इन संगठनों की स्थिति अर्द्धसशस्त्र अर्द्धसैन्य आतंकी दस्तों जैसी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बाक़ायदा भोंसला मिलिटरी स्कूल चलाने में शामिल है, जिसकी स्थापना हिन्दू महासभा के नेता मूंजे ने सेण्ट्रल हिन्दू मिलिटरी एजुकेशन सोसायटी नामक संस्था के ज़रिए की थी। यह स्कूल आरएसएस के लिए क्या भूमिका निभाता है, यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह भारत में फ़ासीवादी संगठनों के सैन्यकरण का एक उपकरण रहा है और आज भी है। वैसे भी एक सेक्युलर देश में धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार की शिक्षा दिये जाने की इजाज़त कैसे दी जा सकती है? लेकिन यह सब खुलेआम होता है। अन्य पार्टियों की सरकारें भी संघ परिवार की ज़रूरत को समझती हैं। वे जानती हैं कि संकटकाल में मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता के उभार पर क़ाबू पाने, जनता की एकता को तोड़ने और पूँजीपति वर्ग के हितों को तानाशाहाना तरीक़े से पूरा करने के लिए संघ परिवार भारत के पूँजीपति वर्ग की आवश्यकता है। इसीलिए बाक़ायदा धार्मिक कट्टरपन्थी, फ़ासीवादी आतंकी, और जनता की एकता को छिन्न-भिन्न करने की गतिविधियों में संलिप्तता के प्रमाणों के बावजूद संघ परिवार के संगठनों पर कभी पाबन्दी नहीं लगती।
आरएसएस पर दो बार प्रतिबन्ध लगा भी है, तो अपवादिक स्थितियों में। पहली बार 1948 में जब महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश में हिन्दू महासभा और आरएसएस के लोगों की संलिप्तता स्पष्ट तौर पर सामने आयी थी। सरदार पटेल ने गृहमंत्री के तौर पर आरएसएस पर यह कह कर प्रतिबन्ध लगाया था कि देश से हिंसा और नफ़रत की ताक़तों को जड़ से उखाड़कर फेंकने के लिए यह प्रतिबन्ध लगाया गया है। लेकिन 1949 में ही यह प्रतिबन्ध आरएसएस के सरसंघचालक द्वारा कुछ दिखावटी वायदों के आधार पर हटा लिया गया था! लेकिन उसके बाद भी आरएसएस लगातार जनता की एकजुटता को धार्मिक आधार पर तोड़ने की अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी साज़िशों में लगातार लगा रहा है। दूसरी बार प्रतिबन्ध इन्दिरा गाँधी सरकार ने आपातकाल के दौरान लगाया था, जब कई संगठनों पर प्रतिबन्ध लगा था, जो इन्दिरा गाँधी सरकार के ख़िलाफ़ थे।
आये दिन देश के तमाम हिस्सों से ख़बरें आती हैं कि फलाँ जगह आरएसएस सदस्य बम बनाने के प्रयास करते हुए विस्फोट में घायल हुआ या मारा गया। आये दिन भाजपा के नेता कैमरे पर बयान देते पकड़े जाते हैं कि कई जगह उन्मादी झुण्डों के ज़रिए मुसलमानों की हत्या करवाने में उन्होंने अगुवाई की, यानी उनकी लिंचिंग करवायी, राजस्थान का भाजपा का एक नेता सीधे कैमरे पर बोलता है कि उसने अब तक पाँच लोगों की लिंचिंग (झुण्ड द्वारा हत्या) करवायी है और आगे भी करवायेंगे और इसके लिए उसने अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को खुला हाथ देकर बताया है कि लोगों को “मारो, ज़मानत हम करवायेंगे।” क्या यह आतंकवाद की श्रेणी में, देश के संविधान के उल्लंघन की श्रेणी में, देश की जनता की एकता को तोड़ने की श्रेणी में नहीं आता है? क्या किसी भी धार्मिक अल्पसंख्यक संगठन का कोई व्यक्ति इस प्रकार की कार्रवाई करता तो भारत सरकार उसे प्रतिबन्धित नहीं करती, उसे फ़ौरन आतंकवादी, पाकिस्तान-समर्थक आदि घोषित नहीं करती?
जब भी संघ परिवार के किसी संगठन के लोग सीधे तौर पर ऐसी आतंकी गतिविधियों में, धार्मिक कट्टरपन्थी बयान देने और जनता को धार्मिक हिंसा के लिए भड़काने, हत्या और बम-विस्फोट में पकड़े जाते हैं, तो उसे एक या दो उन्मादी सदस्यों का काम बताकर आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठनों को दोष से बरी कर दिया जाता है। 1948 में लगे प्रतिबन्ध के दौरान भी पटेल आरएसएस के नेता गोलवलकर से दो बार मिले और जब 1949 में गोलवलकर ने यह आश्वासन दे दिया कि वे अपने संगठन के अतिवादी लोगों से बात करेंगे और उन पर नियंत्रण करेंगे और आरएसएस महज़ सांस्कृतिक काम करेगा, तो यह प्रतिबन्ध हटा लिया गया! क्या जवाहरलाल नेहरू और पटेल इतने नादान थे कि वे नहीं जानते थे कि आरएसएस के कुछ पागल उन्मादी ऐसी आतंकी घटनाओं को अंजाम नहीं देते हैं, बल्कि आरएसएस की विचारधारा और राजनीति ही ऐसी है, जो संगठित तौर पर और सोचे-समझे तौर पर ऐसी घटनाओं को अंजाम देती है? जानते थे। लेकिन इसके बावजूद आरएसएस से प्रतिबन्ध हटा लिया गया क्योंकि वह भारतीय पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत था। ज़रा सोचिए, यदि किसी धार्मिक अल्पसंख्यक या सरकार व व्यवस्था-विरोधी संगठन का कोई एक पागल या उन्मादी व्यक्ति भी ऐसी किसी कार्रवाई में संलिप्त पाया जाता है, तो उस पूरे संगठन के साथ भारत की पूँजीवादी व्यवस्था क्या बर्ताव करती है? कल्पना करिए कि आये दिन देश के अलग-अलग इलाक़ों में किसी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपने घरों में देसी बम बनाते पकड़े जायें, घायल हों या मारे जायें तो फ़ासीवादी मोदी सरकार उनके साथ क्या बर्ताव करेगी? लेकिन अगर आरएसएस के सदस्य ऐसा करते पकड़े जाते हैं, बम विस्फोट करवाते, हिंस्र बयान देते, लिंचिंग करवाने की बात को स्वीकार करते, क़ब्रों से औरतों को निकालकर बलात्कार करने का आह्वान करते पकड़े जाते हैं तो उसे किसी एक व्यक्ति द्वारा की गयी पागलपन-भरी या उन्मादी हरकत बताकर संघ परिवार को इस दोष से बरी कर दिया जाता है और हमें याद दिलाया जाता है कि संघ परिवार तो बस सांस्कृतिक कार्रवाई करता है! सच्चाई सभी जानते हैं कि इनकी संस्कृति क्या है और इनकी कार्रवाइयाँ क्या हैं।
पूँजीवादी क़ानून औपचारिक तौर पर दावा करता है कि उसके समक्ष सभी समान हैं। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? नहीं! यह हमारे देश में और ख़ास तौर पर भाजपा सरकार के दौर में एक खोखले दावे से ज़्यादा और कुछ भी नहीं है। पीएफ़आई पर प्रतिबन्ध लगाने में मोदी सरकार के लिए आतंकवाद तो केवल बहाना है, आम जनता असली निशाना है। इसे दो बातों से समझिए।
यूएपीए के तहत पीएफ़आई पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए जो आदेश जारी हुआ है, उसमें यूएपीए की ही धाराओं के अनुसार प्रतिबन्ध की कोई ठोस वजह और सबूत नहीं बताये गये हैं। अगर आज भारत की न्यायपालिका में निष्पक्षता का ढोंग करने की भी ताक़त बची होती तो ऐसा आदेश कुछ मिनट भी अदालत में नहीं टिक सकता है। वास्तव में, पीएफ़आई एक धार्मिक कट्टरपन्थी और अतिवादी संगठन है, इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन मोदी सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगाने का काम इतनी आनन-फ़ानन में क्यों किया है कि अपने आरोप-पत्र भी ढंग से नहीं बनाये?
इसे समझने के लिए मसले के दूसरे पहलू पर आते हैं। कुछ समय पहले अमित शाह और गृह मंत्रालय ने दावा किया था कि नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (सीएए और एनआरसी) के विरुद्ध देशभर में जो ज़बर्दस्त प्रतिरोध आन्दोलन हुआ था, उसके पीछे पीएफ़आई का हाथ था। सच्चाई यह है कि पीएफ़आई की इतनी ताक़त ही नहीं है कि वह सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन जैसा विशाल और ताक़तवर आन्दोलन कर सके, जिससे कि भाजपा सरकार कुछ समय के लिए हिल गयी थी। कई जगहों पर पीएफ़आई के लोग भी आन्दोलन में घुसने का काम कर रहे थे, लेकिन यह आन्दोलन पीएफ़आई के नेतृत्व में नहीं था। अलग-अलग जगहों पर यह आन्दोलन स्वत:सफूर्त रूप से खड़ा हुआ था और अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग स्थानीय संगठन इसमें केन्द्रीय भूमिका में थे। कई जगहों पर तो कोई संगठन भी मौजूद नहीं था और केवल लोगों ने आरज़ी तौर पर अगुवाई का काम करने के लिए कोई व्यक्ति या किसी कमेटी को चुन लिया था।
दूसरी बात, जो कि मोदी सरकार को सबसे ज़्यादा चुभ रही थी कि यह सिर्फ़ मुसलमान आबादी का आन्दोलन नहीं था, बल्कि तेज़ी से इसमें हर तबक़े और समुदाय से आने वाले जागरूक, जनवादी और तरक़्क़ीपसन्द लोग शामिल होते जा रहे थे। क्योंकि आम हिन्दू मेहनतकश जनता को भी यह पता चल रहा था कि असम में एनआरसी के लागू होने की क्या क़ीमत व्यापक हिन्दू आबादी को भी चुकानी पड़ी थी। बहरहाल, यह आन्दोलन स्वत:स्फूर्तता के तत्व के हावी रहने और एक निश्चित संगठित नेतृत्व और दिशा के अभाव में विसर्जित हो गया। कोविड ने इसमें एक तात्कालिक भूमिका निभायी हालाँकि आन्दोलन को बहुविध रूपों में जारी रखने का जो काम होना चाहिए था, वह नहीं हो सका। लेकिन इन सबके बावजूद मोदी सरकार को अपने पूरे कार्यकाल में इतनी बड़ी चुनौती कभी नहीं मिली थी। अब मोदी-शाह निज़ाम का मक़सद है कि ऐसे सभी लोगों को मज़ा चखाया जाये और “अनुशासित” किया जाये जो उसके लिए दिक़्क़तें पैदा करते हैं। इसलिए बहाना पीएफ़आई का है, लेकिन वास्तव में इसके तहत तमाम आम लोगों को भी निशाना बनाया जायेगा, एक आतंक का माहौल तैयार किया जायेगा और यह सन्देश सम्प्रेषित किया जायेगा कि जो भी मोदी सरकार की मुख़ालफ़त करेगा, उसे इसी प्रकार प्रताड़ित किया जायेगा।
इस पूरे मसले पर क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग की अवस्थिति यह है कि यदि सरकार वाक़ई देश की “अखण्डता”, जनता की एकता, आदि को बचाने के लिए परेशान है, तो उसे केवल एक धर्म के कट्टरपन्थ और अतिवाद को निशाना बनाने के बजाय हर धर्म के कट्टरपन्थ और अतिवाद को निशाना बनाना चाहिए और ऐसे सभी संगठनों को प्रतिबन्धित करना चाहिए जो धार्मिक कट्टरपन्थी विचारधारा और आतंकी गतिविधियों में लिप्त हैं और सेक्युलरिज़्म और जनवाद के उसूलों के ख़िलाफ़ हैं। सिर्फ़ एक धर्म के कट्टरपन्थ और अतिवाद को निशाना बनाने का मतलब केवल उस विशिष्ट धर्म के समुदाय को निशाना बनाना है। अगर सरकार की वाक़ई मंशा आम तौर पर धार्मिक कट्टरपन्थ और अतिवाद पर लगाम कसने की होती तो सबसे पहले ऐसे सबसे बड़े संगठन आरएसएस को प्रतिबन्धित किया जाता, लेकिन ज़ाहिरा तौर पर यह नहीं हो सकता है क्योंकि आज संघ परिवार से जुड़ी पार्टी भाजपा की ही सरकार है! ऐसे में, हमें इस मसले पर मोदी सरकार और संघ परिवार की सच्चाई को जनता के सामने लाना चाहिए और इनके दोमुँहेपन को बेनक़ाब करना चाहिए। हमें बताना चाहिए कि धार्मिक कट्टरपन्थ के ख़िलाफ़ इनके मुँह से बात कुछ शोभा नहीं देती क्योंकि ये स्वयं धार्मिक कट्टरपन्थी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की विचारधारा को मानते हैं और इनके संगठन स्वयं ही फ़ासीवादी आतंक को फैलाने में शुरू से लगे रहे हैं।
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थ और आतंकवाद का विरोध करता है और मानता है कि तमाम अल्पसंख्यक समुदायों में अगर धार्मिक कट्टरपन्थ और अतिवाद का असर मौजूद होता है, तो उसकी वजह भी राज्यसत्ता द्वारा फैलाये जाने वाले आतंक में है और उसके बहुसंख्यवाद द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों को अलगावग्रस्त किये जाने में है। जिस देश का प्रधानमंत्री दंगाइयों को “पोशाक से पहचानने” जैसे बयान देता हो, एक मन्दिर के शिलान्यास और भूमि-पूजन में शामिल होता हो, अपनी हिन्दू पहचान को बार-बार रेखांकित करता हो, उस देश में क्या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक अपने आपको अलगावग्रस्त महसूस नहीं करेंगे? यदि उनके कुछ हिस्से अपने में सिमटने लगते हैं, अपनी धार्मिक पहचान के इर्द-गिर्द गोलबन्द होने लगते हैं और कालान्तर में उनमें धार्मिक कट्टरपन्थियों का असर होता है, तो क्या इस पर कोई ताज्जुब किया जा सकता है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग धर्म को राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण रूप से अलग करके पूरी तरह से एक निजी मसला बनाये जाने का पक्षधर है। कोई भी शक्ति सीधे या घुमा-फिराकर, किसी भी रूप में धर्म को राजनीति और सामाजिक जीवन से जोड़ती है, उसे किसी भी प्रकार की गोलबन्दी या संगठन का आधार बनाती है, तो उसे प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए और मज़हब को सही मायने में पूरी तरह से नागरिकों की ज़ाती ज़िन्दगी का मसला बनाया जाना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक आरएसएस जैसे संगठन भी समाज में जनता की एकता को तोड़ते रहेंगे और पीएफ़आई जैसे संगठन भी। हमें समझ लेना चाहिए कि हिन्दू मुसलमान का, मुसलमान हिन्दू का दुश्मन नहीं है। बल्कि आम मेहनतकश हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, दलितों, सवर्णों, सभी के दुश्मन लुटेरे और शोषक वर्ग के लोग हैं, चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, सिख हों, या ईसाई हों, सवर्ण हों या दलित हों।
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग तात्कालिक तौर पर सरकार से यह माँग उठाता है कि सिर्फ़ पीएफ़आई ही नहीं, बल्कि आरएसएस समेत, हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थी और अतिवादी संगठन पर प्रतिबन्ध लगाये, जिसके लिए पर्याप्त कारण व प्रमाण मौजूद हैं। साथ ही, पीएफ़आई पर निशाना साधने के नाम पर बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करना तत्काल बन्द किया जाना चाहिए और गिरफ़्तार लोगों को निष्पक्ष सुनवाई का हक़ मिलना चाहिए।
दूरगामी तौर पर, सर्वहारा वर्ग एक क्रान्तिकारी फ़ासीवाद-विरोधी जनान्दोलन को खड़ा करने को ही वह रास्ता मानता है जिसके ज़रिए फ़ासीवादी मोदी सरकार और फ़ासीवादी संघ परिवार के नापाक मंसूबों को नाकाम किया जा सकता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि फ़ासीवाद के मौजूदा दौर में किसी प्रकार के पूँजीवादी जनवाद की स्थापना करना कोई रणनीतिक लक्ष्य हो ही नहीं सकता है। आज का अभूतपूर्व रूप से मानवद्रोही, परजीवी, संकटग्रस्त पूँजीवाद फ़ासीवाद और अन्य प्रकार की धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियाओं को अपनी नैसर्गिक गति से पैदा करता है और पूँजीपति वर्ग के ग़ैर-फ़ासीवादी हिस्से भी सत्ता में होने पर फ़ासीवादी शक्तियों के विरुद्ध कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं करने वाले हैं। आज यह बात हमेशा से ज़्यादा लागू होती है कि फ़ासीवाद जब सत्ता में नहीं होता तो भी बुर्जुआ वर्ग के लिए ज़ंजीर में बँधे कुत्ते के समान उसकी आवश्यकता होता है। इसलिए फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय का सवाल अब एक सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति से जाकर जुड़ता है।
हमें पीएफ़आई पर प्रतिबन्ध की पूरी राजनीति के पीछे मोदी-शाह सरकार के असली इरादे को समझना चाहिए, आपस में सभी धर्मों के मेहनतकशों-मज़दूरों को अपनी एकता बनानी चाहिए, धर्म को पूरी तरह से निजी मसला मानना चाहिए और फ़िरकापरस्त ताक़तों को अपने बीच फूट डालने का मौक़ा बिल्कुल नहीं देना चाहिए। हम यह मौक़ा इन ताक़तों को देते रहे हैं, इसीलिए आज पूँजीपति वर्ग के मालिकों, ठेकेदारों, बिचौलियों और अमीरज़ादों के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई कमज़ोर है। हमें लूटने वाले आपस में धर्म का भेदभाव नहीं करते, बस उसका अपनी राजनीति चमकाने में इस्तेमाल करते हैं। ये एक-दूसरे के दशहरा मेलों और इफ़्तार पार्टियों में इकट्ठा होते हैं और हमारी नादानी पर हँसते हैं और हमारी खिल्ली उड़ाते हैं कि धर्म के नाम पर, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर हमें वे कितनी आसानी से बाँट लेते हैं। वे जानते हैं कि वे हमें बाँटकर ही हम पर राज कर सकते हैं। हमें उनकी इस साज़िश को समझना चाहिए और आगे उसे कामयाब नहीं होने देना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2022


 

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