दलित उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाओ!
राजस्थान में स्कूली छात्र इन्द्र मेघवाल की हत्या बढ़ती जातीय नफ़रत का नतीजा है

बिगुल संवाददाता

बीते 13 अगस्त को राजस्थान के जालौर से एक दिल दहलाने देने वाली घटना सामने आयी है जिसमें 10 वर्ष के एक दलित छात्र को उसके अध्यापक ने इतना पीटा कि उसकी मौत हो गयी। उस बच्चे की ग़लती सिर्फ़ इतनी थी कि उसने अपने एक जातिवादी अध्यापक के मटके से पानी पी लिया था। उस मासूम बच्चे को यह पता नहीं था कि औपनिवेशिक ग़ुलामी से भारत की आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी भारतीय समाज ब्राह्मणवाद-जातिवाद के कोढ़ से ग्रस्त है। ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ और ‘हर घर तिरंगा’ की देश-व्यापी चीख़-पुकार के बीच उसे लगा होगा कि उसे किसी भी मटके से पानी पी लेने की आज़ादी है और उसे इस ग़लतफ़हमी की क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
यह घटना ब्रिटिश ग़ुलामी से भारत की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने से महज़ दो दिन पहले की है। एक ओर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘हर घर तिरंगा’ और ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ जैसे जुमलों से आज़ादी की वर्षगांठ को धूमधाम से मनाने का आह्वान कर रहे हैं और देश का खाता-पीता मध्य वर्ग आज़ादी के जश्न की तैयारियों में डूबा हुआ है लेकिन दूसरी ओर भारत देश के कई तबक़े ऐसे हैं जो हज़ारों साल से ग़ुलामी की ज़ंजीरों में आज भी जकड़े हुए हैं। उन्हीं में देश की ग़रीब दलित आबादी है जो हर दिन आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त है।
इस घटना ने एक बार फिर से यह साफ़ कर दिया है कि मोदीराज ने सवर्णवादी मानसिकता के फलने फूलने के लिए खाद-पानी देने का काम किया है और ऐसा माहौल तैयार किया है कि सवर्णवादी गुण्डे बेख़ौफ़ घूम सकें। और इसीलिए, 2014 के बाद से दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। वहीं, राजस्थान में कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ‘सुशासन’ की असलियत भी सबके सामने है। राजस्थान में पिछले तीन साल के आँकड़े बताते हैं कि यहाँ दलित उत्पीड़न की घटनाओं की बाढ़-सी आ गयी है। महज़ तीन साल में दलित उत्पीड़न के क़रीब 21000 मामले दर्ज हुए हैं। तुलनात्मक आँकड़ों की बात करें तो दलितों पर होने वाले अत्याचार के मामले हर साल 23 फ़ीसदी की दर से बढ़ रहे हैं। राजस्थान की कांग्रेस सरकार दलित उत्पीड़न के मामलों पर अंकुश लगाने में नाकामयाब रही है।
साथ ही साथ, जालौर के जातिवादी मास्टर छैलसिंह के ज़ुल्म का मामला हिन्दू “एकता” के तमाम ठेकेदारों के मुँह पर तमाचा है। ऐसी घटनाएँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल जैसे स्वयम्भू पहरेदारों की असलियत भी उजागर कर देती हैं। ऐसी दलित उत्पीड़न की सभी घटनाओं पर संघ परिवार अक्सर मौन रहता है हालाँकि हाथरस बलात्कार जैसी घटनाओं में इसका घोर दलित विरोधी चेहरा बेनक़ाब भी हो जाता है। संघ परिवार की दलितों के प्रति नफ़रत मुस्लिमों के प्रति उसकी नफ़रत से किसी मायने में कम नहीं है। ये वही लोग हैं जो कठुआ में एक मासूम बच्ची के बलात्कारियों और हत्यारों के समर्थन में तिरंगा मार्च निकाल रहे थे। दलितों के ख़िलाफ़ इस तरह खुलकर सामने आने से इनकी तात्कालिक राजनीतिक मजबूरियाँ इन्हे रोकती हैं, लेकिन हाथरस काण्ड जैसी घटनाओं से इनकी घिनौनी असलियत सबके सामने आ ही जाती है।
इन्द्र मेघवाल की बर्बर हत्या कोई अपवाद नहीं बल्कि जहानाबाद, बथानी टोला, खैरलांजी, मिर्चपुर, भगाणा, हाथरस, उन्नाव इत्यादि जैसे हत्याकाण्डों-नरसंहारों और बलात्कार जैसे बर्बरतम अपराधों की लम्बी फ़ेहरिस्त में एक कड़ी है। इन सब घटनाओं की तरह यह घटना भी दिखा रही है कि सवर्णवादी वर्चस्व के बर्बरतम रूपों का सामना ग़रीब, मेहनतकश दलितों को ही करना पड़ता है। हालाँकि, जातिगत अपमान का सामना तमाम दलित नौकरशाहों, नेताओं और अन्य उच्चवर्गीय दलितों को भी करना पड़ता है पर इस तरह की जातिगत उत्पीड़न की बर्बरतम घटनाएँ ज़्यादातर मेहनतकश दलितों के ख़िलाफ़ ही होती हैं। लुब्बे-लुबाब ये कि अगर आँकड़ों को उठाकर देखा जाये तो जातिगत उत्पीड़न के बर्बरतम रूपों का सामना 100 में से 99 मामलों में ग़रीब मेहनतकश दलितों को ही करना पड़ता है।
यहाँ पर यह साफ़ कर देना भी जरूरी है कि हालाँकि इन्द्र मेघवाल की हत्या एक सवर्ण जाति से आने वाले व्यक्ति ने की है लेकिन आँकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि दलितों के विरुद्ध होने वाली ज़्यादातर बर्बर घटनाएँ आज पिछड़ी जातियों के उच्चवर्गीय हिस्सों, विशेष तौर पर, धनी कुलकों-फ़ार्मरों, सूदख़ोरों आदि द्वारा अंजाम दी जा रही हैं। ये आँकड़े उन लोगों को आईना दिखाने का काम करते हैं जो बहुजन एकता (दलित-ओबीसी) का नारा बुलन्द करते रहते हैं। साफ़ तौर पर, पिछले तीन-चार दशकों ने अस्मितावादी बहुजनवाद की सीमाओं को स्पष्ट तौर पर दिखला दिया है। इसलिए ब्राह्मणवाद और सवर्णवाद का जवाब बहुजन अस्मितावाद नहीं बल्कि मेहनतकशों की वर्ग एकता है।
साथ ही, यह घटना संविधान के प्रति अन्धश्रद्धा रखने वाले विशेष तौर पर मध्यवर्गीय व उच्चमध्यवर्गीय दलितों के एक हिस्से व अन्य लोगों की आँखे खोलने के लिए भी काफ़ी है जो यह मानते हैं कि मौजूदा संविधान के ज़रिए एक समतामूलक समाज का निर्माण हो सकता है। ये लोग यह नहीं जानते हैं कि एक वर्ग विभाजित समाज में सारे क़ानून-संविधान शासक वर्ग के हितों के अनुरूप बनते हैं। भारतीय राज्य सत्ता में बैठा पूँजीपति वर्ग जातिवाद को ग़रीब दलितों तथा अन्य जाति के मज़दूरों के श्रम को लूटने और अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के एक उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल करता है और साथ ही इसे व्यापक मेहनतकश जनता को जाति के आधार पर बाँटने के लिए भी इस्तेमाल करता है। इसलिए मौजूदा बुर्जुआ संविधान के ज़रिए जातिवाद को ख़त्म करना और दलितों की मुक्ति का विचार शेख़चिल्ली का सपना है, और कुछ नहीं।
एक महत्वपूर्ण बात यहाँ समझना ज़रूरी है। समाज में पिछले तीन दशकों के दौरान जातिवाद और जातिगत वैमनस्य बढ़ने का एक व्यापक ऐतिहासिक सन्दर्भ भी है। यह सन्दर्भ है नवउदारवाद की नीतियों की शुरुआत के बाद से देशभर में बेरोज़गारी का बढ़ना, रोज़गार के बचे-खुचे अवसरों का समाप्त होना, महँगाई का बढ़ना और सामाजिक असुरक्षा और अनिश्चितता का एक विकराल माहौल तैयार होना। इस माहौल में मोदी सरकार के आने के बाद से विशेष तौर पर काफ़ी तेज़ बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले कुछ सालों में ही करोड़ों रोज़गार छीन लिये गये हैं। वहीं कृषि के पूँजीवादी संकट ने मध्य जातियों की आबादी को भारी तादाद मे क़र्ज़, बर्बादी और ग़रीबी की गर्त में धकेला है और खेती से बेदख़ल किया है। नतीजतन, रोज़गार के पहले से तेज़ी से कम हो रहे अवसरों के लिए उम्मीदवारों की कहीं ज़्यादा भीड़ खड़ी है। शासक वर्ग द्वारा इस असुरक्षा और अनिश्चितता के फलस्वरूप पैदा हुई अन्धी प्रतिक्रिया के इस माहौल का फ़ायदा उठाने के लिए साम्प्रदायिकता तथा ब्राह्मणवाद व जातिवाद को बढ़ावा दिया जाता है और व्यापक ग़ैर-दलित बेरोज़गार व ग़रीब आबादी के सामने धार्मिक अल्पसंख्यकों व दलितों को नक़ली दुश्मन के रूप मे खड़ा किया जाता है। इन दोनों औज़ारों का मोदी सरकार ने बख़ूबी इस्तेमाल किया है ताकि व्यापक मेहनतकश जनता अपनी तकलीफ़ों के असली कारणों को समझने की बजाय जातिगत व धर्मगत आधार पर आपस में ही लड़ पड़े।
इसके विरोध में अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच द्वारा दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र में प्रदर्शन भी आयोजित किये। दिल्ली में प्रदर्शन के शुरू होते ही सभी को डिटेन कर लिया गया और देर शाम तक पुलिस स्टेशन में बिठाये रखा। अलग-अलग जगह वक्ताओं ने बात रखते हुए बताया कि आज दलित उत्पीड़न की तमाम घटनाओं के ख़िलाफ़ हमें सभी मज़दूरों-मेहनतकशों की वर्ग एकजुटता बनाकर सड़कों पर उतरना होगा; अस्मितावादी राजनीति को कचरे की पेटी में फेंकना होगा, व्यवहारवादी आवेदनबाज़ी का भण्डाफोड़ करना होगा और रोज़गार, महँगाई, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और व्यापक मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी से जुड़े हर सवाल पर पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष करना होगा क्योंकि वर्ग एकजुटता पर आधारित ऐसे ही संघर्षों के ज़रिए ही पूँजीवादी ब्राह्मणवाद और जातिवाद को फ़ैसलाकुन शिकस्त दी जा सकती है। आज हमें यह भी समझना होगा कि ग़रीब मेहनतकश ग़ैर-दलित आबादी के भीतर जातिवादी ब्राह्मणवादी विचारों के प्रभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष करके उसे ख़त्म करना भी तभी सम्भव होगा जबकि सभी जातियों की ग़रीब मेहनतकश निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को रोज़गार, चिकित्सा, शिक्षा, महँगाई आदि के ठोस व जीवन्त मुद्दों पर समूची पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जागृत, गोलबन्द और संगठित किया जाये। अगर व्यापक मेहनतकश आबादी में व्याप्त जातिवादी संस्कारों को दलित बनाम ग़ैर-दलित, या दलित बनाम ओबीसी जैसे अस्मितावाद का मुद्दा बनाया जाता है और जातिगत अस्मिताओं के टकराव को बढ़ावा दिया जाता है तो इससे समस्या का समाधान नहीं होगा बल्कि समस्या और उलझती चली जायेगी और इसका नुक़सान मुख्य रूप से व्यापक दलित आबादी और सामान्य रूप से समूची मेहनतकश आबादी को उठाना पड़ेगा।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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