आटा-चावल, दाल-तेल-सब्ज़ियों की क़ीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी
जनता पर तेज़ होती महँगाई की मार

केशव आनन्द

‘बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ का जुमला उछालकर सत्ता में आने वाली मोदी सरकार के आने के बाद जनता ने कभी महँगाई कम होती तो नहीं देखी, पर अपनी थाली में खाने की चीज़ें कम होती ज़रूर देखी हैं। 2014 के बाद पहले से जारी लूट को ही मोदी सरकार ने बढ़ाते हुए महँगाई की रफ़्तार को और भी तेज़ कर दिया। अब आलम यह आ गया है कि आटा, चावल, दाल, तेल पर भी जीएसटी लगाकर यह सरकार जनता की जेब पर डाका डालने की तैयारी में है। 18 जुलाई 2022 से मोदी सरकार ने खाने की बुनियादी चीज़ों पर पाँच प्रतिशत जीएसटी लगाने का फ़ैसला लिया है। इसके बाद से 25 किलो/25 लीटर से कम अनाज और तेल के दाम महँगे हो जायेंगे। ग़ौरतलब है कि इस बढ़ी हुई महँगाई का सबसे बड़ा और सबसे बुरा असर आम मेहनतकश आबादी पर पड़ेगा।
केन्द्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क बोर्ड ने बताया है कि 25 किलो से कम सभी प्री पैकेज्ड फ़ूड पर पाँच प्रतिशत जीएसटी लगायी जायेगी। इस नियम के मुताबिक़ 25 किलो से कम कोई भी खाद्य पदार्थ, जिसपर किसी भी संस्था का लेबल लगा है, वह अब महँगा हो जायेगा। खाद्य पदार्थों पर जीएसटी लगने के बाद मुख्यतः आटा, चावल, दाल, तेल, पनीर, दही जैसी चीज़ें महँगी होंगी। अब इस बात को समझने में कोई मानसिक कसरत करने की ज़रूरत नहीं है कि जीएसटी की इस नयी प्रणाली के आने से सबसे बड़ी मार किस पर पड़ेगी। ज़ाहिर है देश की आम मेहनतकश आबादी पर, जिसकी आय का एक बड़ा हिस्सा अनाज और सब्ज़ियाँ ख़रीदने में ही ख़र्च हो जाता है, जिसके लिए यह योजना मुसीबतों का पहाड़ लेकर आयेगी। पेट्रोल, डीज़ल, सिलेण्डर की क़ीमतों को आसमान पर ले जाने के बाद अब मोदी सरकार अवाम की थाली से अनाज भी ग़ायब कर रही है। लोगों की आय के मुक़ाबले महँगाई की बढ़ने की रफ़्तार कहीं ज़्यादा अधिक है। एक तरफ़ जहाँ नौकरियों की कमी के कारण बेरोज़गारों की संख्या बढ़ती जा रही है, और आम मेहनतकश आबादी सस्ती से सस्ती क़ीमतों पर अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए मजबूर है, वहीं दूसरी ओर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों की क़ीमतें बढ़ाकर सरकार ने मज़दूरों-मेहनतकशों पर दोहरा हमला किया है।
जनता को भरमाने के लिए यह तर्क गढ़ा जाता है कि अप्रत्यक्ष कर बढ़ाकर सरकार जनता के लिए काम करेगी। उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ, शिक्षा, रोज़गार जैसी चीज़ें मुहैया करायेगी। लेकिन मौजूदा हालात तो यह बताते हैं कि जनता से लूटा हुआ पैसा या तो पूँजीपतियों को अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए दिया जाता है, नहीं तो जनहित के नाम पर हमारे देश के नेतागण इन पैसों को डकार जाते हैं। वास्तव में, अप्रत्यक्ष कर तो मूलत: आम मेहनतकश जनता की मज़दूरी या वेतन से ही कटौती होते हैं और उन्हें पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाना चाहिए। जहाँ तक जनता की बुनियादी सुविधाओं की बात है, तो क्या बड़े-बड़े पूँजीपतियों और धन्नासेठों पर अतिरिक्त कर लगाकर जनता की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं की जानी चाहिए? क्या लोगों की आय के हिसाब से उनसे लिये जाने वाले करों का बँटवारा नहीं किया जाना चाहिए? हालाँकि यह बात दीगर है कि इन पूँजीपतियों के पास जो मुनाफ़ा आता है, वह भी मज़दूरों के श्रम की लूट के ज़रिए ही आता है। पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली मोदी सरकार आज मज़दूरों-मेहनतकशों की थाली से दाल-रोटी छीनकर पूँजीपतियों की थाली में मुनाफ़ा परोसने का काम कर रही है।
अब जनता इन मुद्दों पर सवाल न कर सके, इसके लिए उन्हें धर्म की अफ़ीम दी जा रही है। उन्हें धर्म के नशे में डुबोकर उनके जीवन की बुनियादी ज़रूरतों पर एक-एक करके हमला किया जा रहा है। संघ और मोदी सरकार द्वारा लगातार हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दों को उठाकर उन्हें असल मुद्दों से भरमाया जा रहा है। उन्हें ये बताया जा रहा है कि उनके जीवन की तमाम समस्याओं के ज़िम्मेदार दूसरे धर्म के लोग हैं। राम मन्दिर, लव जिहाद और नमाज़ रोकने सरीखे तमाम मुद्दे असल में और कुछ नहीं बल्कि जनता को आपस में बाँटने की कोशिशें हैं। ये रक्तपिपासु भेड़िये धर्म के नाम पर दंगे कराते हैं, साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने वाले लोगों को प्रोत्साहन देते हैं, ऐसी भीड़ इकट्ठा करते हैं, जो लोगों की पहचान देखकर उनका क़त्ल कर देती है। और इन दंगों की आग में आम घरों के ही बेटे-बेटियाँ झुलसते हैं। और इन्हीं मुद्दों की आड़ में यह सरकार जन-विरोधी, मज़दूर-विरोधी नीतियाँ बनाती है, बेहिसाब महँगाई बढ़ाती है, हमारे बच्चों के लिए रोज़गार के अवसर ख़त्म करती है, और पूँजीपतियों द्वारा उनके शोषण-उत्पीड़न के द्वार खोल देती है। और हमें यह बताया जाता है कि यह सब-कुछ “देशहित” में हो रहा है।
इसलिए आज यह और भी अधिक ज़रूरी हो जाता है कि इन नक़ली मुद्दों में न उलझकर अपने असल मुद्दों को पहचाना जाये। क्योंकि जब महँगाई बढ़ती है, तो वह धर्म या जाति देखकर नहीं बढ़ती। जब बेरोज़गारी का संकट आता है, तो वह लोगों के धर्म या जाति को नहीं देखता। हाँ, पर वह उनके वर्ग को ज़रूर देखता है। अगर आप ग़रीब हैं, तो बेरोज़गारी और महँगाई आपको ही प्रभावित करेगी, न कि किसी पूँजीपति या धन्नासेठ को। इसलिए आज अपने असल मुद्दों को पहचानकर उसके लिए संघर्ष करने की ज़रूरत है। अपनी वर्ग एकजुटता बनाते हुए सरकार से अपने हक़ों को माँगने की ज़रूरत है, केवल तभी हम ख़ुद के लिए और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर कल की कल्पना कर सकते हैं।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022


 

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