द्रौपदी मुर्मू बनीं देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति
क्या इससे आम मेहनतकश आदिवासियों की जीवन स्थिति में कोई बदलाव आयेगा?
सार्थक
हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू जीत हासिल कर भारत की 15वीं राष्ट्रपति बन गयी हैं। राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू ने विपक्ष के उम्मीदवार यशवन्त सिन्हा (जो पहले ख़ुद भाजपा के वरिष्ठ नेता और कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं) को भारी मतों से परास्त किया। इस तरह द्रौपदी मुर्मू देश के सर्वोच्च संवैधानिक ओहदे पर बैठने वाली दूसरी महिला और प्रथम आदिवासी बन गयीं। द्रौपदी मुर्मू ओड़िशा के मयूरभंज ज़िले के रायरंगपुर शहर से आती हैं और सन्थाल जनजाति से ताल्लुक़ रखती हैं।
द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। पहला, इसके ज़रिए मोदी और भाजपा को आदिवासी कल्याण के हितेषी के रूप में स्थापित करना। वैसे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ परिवार मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी बहुल इलाक़ों में लम्बे समय से काम कर रहे हैं और अपनी जड़ों का काफ़ी गहराई तक विस्तार कर चुके हैं। झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल चुनाव क्षेत्रों से भाजपा को अच्छी चुनावी सफलता भी मिलती रही है। लेकिन साथ ही इन इलाक़ों में बड़ी पूँजी की लूट भी बढ़ती जा रही है, आदिवासियों का शोषण, विस्थापन और उत्पीड़न भी बढ़ता जा रहा है। बड़ी पूँजी के हाथों उजड़ रहे आदिवासियों के बीच भाजपा के ख़िलाफ़ एक ग़ुस्सा भी है। आदिवासी समुदाय से आने वाली महिला को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने इस ग़ुस्से पर ठण्डा पानी छिड़कने का प्रयास किया है। साथ ही यह चाल आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव में आदिवासी वोट बैंक को भाजपा के पक्ष में सुरक्षित रखने में भी बड़ी भूमिका निभायेगा। दूसरा, द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने को न केवल आदिवासी समाज के लिए गर्व की बात बतायी जा रही है बल्कि इसे ओड़िशा राज्य के लिए भी बड़े गर्व का विषय बताया जा रहा है। इसे ओड़िशावासियों के लिए ‘मोदी जी का तोहफ़ा’ कहा जा रहा है। इसके पीछे भाजपा की मंशा साफ़ है – 2024 के लोकसभा और ओड़िशा विधानसभा के चुनाव। पिछले कुछ सालों में भाजपा का ओडिशा की चुनावी रणभूमि में तेज़ी से विस्तार हुआ है। 2019 लोकसभा चुनावों में इसने 21 में से 8 सीट अपने नाम कर लीं। 2017 के पंचायत चुनावों में भी भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर ओड़िशा में भाजपा अपनी लोकप्रियता का विस्तार करने के प्रयास में है।
जहाँ एक ओर भाजपा सरकार और गोदी मीडिया अपनी पीठ थपथपाते नहीं रुक रहे हैं वहीं दूसरी ओर तथाकथित प्रगतिशील दायरों के अस्मितावादी बुद्धिजीवी भी इसे एक स्वागतयोग्य क़दम बताते हुए द्रौपदी मुर्मू को मुबारकबाद और भाजपा को इस मेहरबानी के लिए धन्यवाद देते नहीं थक रहे हैं। अस्मितावादी राजनीति की दलदल में गर्दन तक धँसे बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता इसे आदिवासी समाज के लिए एक क्रान्ति तक की संज्ञा दे रहे हैं। ऐसा दिखाया जा रहा है जैसे द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासियों के साथ सदियों से हो रहा शोषण, उत्पीड़न और भेदभाव अब ख़त्म हो जायेगा। द्रौपदी मुर्मू 2000 से 2009 तक विधायक रहीं और 2000 से 2004 के बीच ओड़िशा की बीजेडी-भाजपा गठबन्धन सरकार में अलग-अलग विभागों में मंत्री भी रही हैं। उसके बाद 2015 से 2021 तक मुर्मू झारखण्ड की राज्यपाल रहीं। वैसे तो अस्मितावादियों के आकाश कुसुम की अभिलाषाओं पर पानी फेरने के लिए बस यह एक छोटा तथ्य काफ़ी है कि इतने लम्बे समय तक राजनीति के उच्च पायदानों में सक्रिय रहने के बावजूद उनके अपने पैतृक गाँव तक बिजली महज़ एक महीने पहले ही पहुँची है, और वह भी उनको राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किये जाने के बाद। ख़ैर, अभी इस विषय पर एक सरसरी नज़र डालते हैं कि अपने अब तक के राजनीतिक सफ़र के दौरान द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासियों पर हो रहे शोषण या उत्पीड़न के सवाल पर क्या रुख़ अपनाया। इससे अस्मितावादियों के ख़याली पुलाव में कितना वज़न है उसका एक पैमाना मिल जायेगा।
2 जनवरी 2006 ओड़िशा के आदिवासियों के लिए एक काला दिन है। इस दिन जाजपुर ज़िले के कलिंग नगर इलाक़े में टाटा स्टील के ज़बरन भूमि अधिग्रहण और नाकाफ़ी मुआवज़े के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे 15 आदिवासियों को पुलिस ने गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। कई मृत शरीरों को बुरी तरह से विकृत करके उनके परिजनों को सौंपा गया। मरने वालों में दो आदिवासी महिलाएँ भी थीं। पूरे देश में कम्पनी-सरकार की मिलीभगत से अंजाम दी गयी इस बर्बरता के ख़िलाफ़ रोष था। ओड़िशा में इस समय सत्ता में बीजेडी-भाजपा गठबन्धन सरकार थी और द्रौपदी मुर्मू भाजपा की टिकट पर विधायक थीं। आदिवासियों के इस नरसंहार पर द्रौपदी मुर्मू ने एक लफ़्ज़ तक नहीं कहा और एक अवसरवादी चुप्पी साधे रहीं।
2003 में बीजेडी भाजपा की गठबन्धन सरकार ने वेदान्ता अलुमिना के साथ नियमगिरि पहाड़ों से बॉक्साइट के खनन और पास ही एक रिफ़ाइनरी बनाने के लिए समझौता ज्ञापन पर अपनी मोहर लगा दी। आनन-फ़ानन में इस परियोजना को पर्यावरण मंज़ूरी भी दे दी गयी और उस इलाक़े में ज़बरन भूमि अधिग्रहण और जंगल की तबाही शुरू हो गयी। इसके साथ ही डोंगरिया कोंध समुदाय का वेदान्ता विरोधी आन्दोलन शुरू हो गया जो आज तक जारी है। जब यह पूरा प्रकरण शुरू हुआ तब द्रौपदी मुर्मू राज्य कैबिनेट मंत्री थीं। जब यह आन्दोलन अपने शिखर पर था और राज्य की तरफ़ से दमन का पाटा चलना भी शुरू हो चुका था तब भी मुर्मू विधायक थीं। द्रौपदी मुर्मू ने राज्य के एक विशिष्टतः असुरक्षित जनजातीय समूह पर हो रहे इस दमन के ख़िलाफ़ क्या किया? कुछ नहीं। हर बार की तरह इस बार भी वो मूक दर्शक बनी रहीं। वह देखती रहीं किस तरह पूँजीपतियों के हितों को साधने के लिए सरकार सैकड़ों कोंध नौजवानों पर ज़ुल्म ढा रही थी। आज तक इनमें से कई नौजवान यूएपीए और देशद्रोह के फ़र्ज़ी केसों के तहत सलाख़ों के पीछे हैं।
2008 का कन्धमाल दंगा आज़ाद भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों पर हुए सबसे हिंसक दंगों में से एक है। भाजपा, आरएसएस, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के द्वारा प्रायोजित इन दंगों में 600 गाँव उजाड़े गये, 60000 से ज़्यादा लोग बेघर हो गये और सरकारी सूत्रों के अनुसार ईसाई समुदाय के 39 लोग मारे गये जिनमें से ज़्यादातर दलित थे। इन दंगों के ख़िलाफ़ कुछ बोलना तो दूर द्रौपदी मुर्मू इन दंगो में भाजपा के आरोपियों के बचाव का प्रयास कर रही थीं।
2015 में द्रौपदी मुर्मू झारखण्ड की राज्यपाल बनीं। 2016 में रघुवर दास की भाजपा सरकार ने क़ानूनी तौर पर आदिवासियों से ज़मीन छीनकर पूँजीपतियों को सौंपने के लिए छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम और सन्थाल परगना काश्तकारी अधिनियम में अहम संशोधन करने के प्रयास किये। सरकार की इन नीतियों के ख़िलाफ़ भी द्रौपदी मुर्मू ने मुँह नहीं खोला। अन्ततः जनता के जुझारू प्रतिरोध ने भाजपा सरकार को क़दम पीछे हटाने पर मजबूर किया। लेकिन कूपमण्डूक अस्मितावादी और आदिवासी बुद्धिजीवी इस बिल के रद्द होने का श्रेय भी द्रौपदी मुर्मू को दे रहे हैं। छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम और सन्थाल परगना काश्तकारी अधिनियम से छेड़छाड़ के ख़िलाफ़ जो ग़ुस्सा झारखण्ड के आदिवासियों में था उसके फलस्वरूप झारखण्ड में स्वतः स्फूर्त तरीक़े से पथलगाड़ी आन्दोलन शुरू हुआ। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए भाजपा सरकार ने तुरन्त ही एक व्यापक दमन चक्र चलाया और हज़ारों आदिवासियों को गिरफ़्तार कर लिया और उनमें से सैंकड़ों को नक्सली बताते हुए उन पर यूएपीए और देशद्रोह के फ़र्ज़ी मुक़द्दमे चलाये। उनमें से ज़्यादातर आज भी जेल में ही हैं। क्या द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासियों पर हो रहे इस अत्याचार के ख़िलाफ़ कुछ किया या कुछ बोला? नहीं। उन्होंने हमेशा की तरह इस बार भी सुनहरी चुप्पी बनाये रखी। जब गोदी मीडिया एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने पर जश्न मना रहा था और उस जश्न में अस्मितावादी बुद्धिजीवी भी तमक (पारम्परिक सन्थाली बाद्य यंत्र) पीटने में मग्न थे, उसी समय सिलगर, हासदेओ, नेतरहाट की हज़ारों आदिवासी महिलाएँ वहाँ चल रहे ज़बरन विस्थापन और सत्ता के दमन के ख़िलाफ़ सड़कों पर थीं। उसी समय देश की विभिन्न जेलों में हज़ारों आदिवासी नौजवान झूठे आरोपों के तहत और बिना किसी जाँच या सुनवाई के सड़ रहे थे। पूरे ब्राह्मणवादी कर्म-काण्ड और राजकीय तामझाम से द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति भवन में गृह प्रवेश तो हो गया, मगर क्या उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार पर कुछ बोला? नहीं। न ही वह इस पर कभी कुछ बोलेंगी।
कुछ लोग अस्मितावादियों के खोखले आशावाद का बस इस तर्क से विरोध कर रहे हैं कि राष्ट्रपति तो महज़ एक कठपुतली होता है, उसके पास कोई वास्तविक शक्ति होती नहीं है, वह तो बस एक ‘रबर स्टैम्प’ है। सवाल यहाँ यह नहीं है कि पहचान की राजनीति राज्यसत्ता के किस पायदान पर खेली जा रही है और यह कौन-सी पार्टी खेल रही है। बुनियादी सवाल पहचान की राजनीति पर ही है, चाहे वो किसी भी पद के लिए हो और किसी भी पार्टी द्वारा हो। दमित-उत्पीड़ित अस्मिताओं के कुछ प्रतिनिधि अगर चुनकर विधायक, सांसद, कैबिनेट मंत्री या प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं तब भी उन दमित समुदायों का उद्धार नहीं होने वाला है। जिस मयूरभंज ज़िले से ख़ुद द्रौपदी मुर्मू आती हैं, उस ज़िले में आज़ादी के बाद कुल 13 सांसदों में से 12 सांसद आदिवासी समुदायों से हैं और अलग-अलग बुर्जुआ पार्टियों का प्रतिनिधित्व किया है। लेकिन मयूरभंज की सामाजिक आर्थिक स्थिति पर एक नज़र डालें तो हम पाते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जैसे सभी ज़रूरी पैमानों पर यह ओड़िशा के सबसे पिछड़े ज़िलों में आता है। मयूरभंज की साक्षरता दर राज्य और राष्ट्रीय दर से कहीं नीचे है और यहाँ स्कूल की पढ़ाई आधे में छोड़ना एक बड़ी समस्या है। पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों में 74 प्रतिशत बच्चे आदिवासी समुदाय से आते हैं। इस ज़िले के ठाकुरमुण्डा ब्लॉक में महिला साक्षरता दर 25 प्रतिशत से भी कम है। मयूरभंज के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और अगर आदिवासी बच्चों की बात की जाये तो यह दर बढ़कर 65 प्रतिशत हो जाती है। पिछले 70 सालों से आदिवासी सांसद और विधायक चुनने के बाद भी आदिवासियों के बच्चों के लिए आज तक अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था क्यों नहीं है?
अस्तित्व में आने के बाद से ही झारखण्ड की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। आदिवासियों के लिए एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर 2000 में बिहार से अलग होने के बाद झारखण्ड के छः मुख्यमंत्रियों में से पांच आदिवासी और एक दलित रहे हैं। लेकिन आज भी झारखण्ड में आदिवासियों और दलितों की हालत वैसी ही बनी हुई है जैसी 25 साल पहले थी। झारखण्ड बनने के महज़ तीन महीने बाद ही राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू लाल मराण्डी (जो सन्थाल समुदाय से आते हैं) के समय 8 आदिवासियों को पुलिस की गोली से भून डाला गया। ये आदिवासी कोएल कारो जलविद्युत प्रकल्प से होने वाले विस्थापन के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे थे। झारखण्ड की सभी सरकारों ने उसके बाद राज्य की समस्त मेहनतकश जनता के बुनियादी अधिकारों को बर्बरता से कुचलते हुए राज्य के संसाधनों को तेज़ी से देशी-विदेशी पूँजी के हाथों सौंपने का काम किया है।
द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद मेहनतकश आदिवासियों की स्थिति भी उतनी ही बदलेगी जितनी रामनाथ कोविन्द के राष्ट्रपति बनने के बाद मेहनतकश दलितों की बदली थी या एपीजे अब्दुल कलाम के राष्ट्रपति बनने के बाद मेहनतकश मुसलमानों की बदली थी। 2017 से 2022 के बीच जब रामनाथ कोविन्द राष्ट्रपति थे उन्हीं पाँच सालों के दौरान 347 दलितों ने गटर और सेप्टिक टैंकों में दम तोड़ दिया। यह तो महज़ सरकारी आँकड़ा है और मौतों के असली आँकड़े इससे कई गुना ज़्यादा ही होंगे। जब कोविन्द राष्ट्रपति थे उस दौरान न ही मेहनतकश दलितों का जातिगत उत्पीड़न कहीं कम हुआ न ही उन्हें ग़रीबी और भुखमरी से कोई निजात मिली। उल्टे राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार इस अवधि में दलितों के ख़िलाफ़ हो रहे अपराध में बढ़ोत्तरी हुई।
इतना तो तय है कि राज्यसत्ता में भागीदारी से दमित-उत्पीड़ित समुदायों की आम मेहनतकश जनता की जीवन स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। यहाँ हमें इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि बुर्जुआ सत्ता सिर्फ़ और सिर्फ़ पूँजीपति वर्ग के हितों की ही सेवा करती है। दमित-उत्पीड़ित समुदायों के कुछ व्यक्तियों या उनके कुछ उच्चवर्गीय हिस्सों की राज्यसत्ता में हिस्सेदारी से राज्यसत्ता का चरित्र नहीं बदलता है। वह तब भी पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती है। होता महज़ यह है कि दमित-उत्पीड़ित समुदायों के प्रतिनिधि इस बुर्जुआ राज्य मशीनरी का अंग बन जाते हैं और राज्यसत्ता के आधार और अवलम्बों का विस्तार करने में मदद करते हैं।
आदिवासी समुदाय के शोषण और उत्पीड़न का सवाल सीधे जाकर इस पूँजीवादी व्यवस्था और इसकी राज्यसत्ता से जुड़ता है। बहुआयामी ग़रीबी (बहुआयामी ग़रीबी न सिर्फ़ व्यक्तिगत आय बल्कि जीवन स्थिति, शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि को भी ध्यान में रखते हुए निर्धारित होती है) पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 27 प्रतिशत आबादी बहुआयामी ग़रीबी का शिकार है। लेकिन आदिवासियों के मामले में यह आँकड़ा 50 प्रतिशत से ज़्यादा है। आदिवासियों की बहुसंख्या आज गाँव या शहरों में उजरती श्रम करके ही अपना पेट पालती है। यहाँ उसका शोषण गाँव के धनी किसान और कुलक करते हैं या शहरों में छोटे-बड़े पूँजीपति। इसलिए अकेले आदिवासी समुदाय सिर्फ़ अपने जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ते हुए अपने शोषण और उत्पीड़न को ख़त्म नहीं कर सकते हैं। इसके लिए मेहनतकश आदिवासी जनता को आम मज़दूर मेहनतकश जनता के साथ वर्गीय एकता बनाते हुए अपने संघर्षों को व्यापक पूँजीवाद विरोधी जन आन्दोलन के साथ जोड़ना पड़ेगा।
रही बात द्रौपदी मुर्मू की तो किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाला कोई भी व्यक्ति अगर एक फ़ासीवादी पार्टी का वरिष्ठ नेता रहा हो और अपनी फ़ासीवादी पार्टी के कुकृत्यों पर कभी सवाल तक न उठाया हो, तो वह व्यक्ति भी फ़ासीवादियों के मानवद्रोही अपराधों में समान रूप से भागीदार है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि वह व्यक्ति ख़ुद उन अपराधों में प्रत्यक्ष रूप से लिप्त रहा है या नहीं। हर फ़ासीवादी के कपड़े आदिवासियों, दलितों, मुसलमानों और आम मेहनतकश जनता के ख़ून से लथपथ होते हैं, चाहे वह किसी भी समुदाय से आता या आती हो। किसी के राष्ट्रपति बनने के बाद भी ख़ून के ये दाग़ नहीं धुलने वाले हैं। अस्मितावाद का काला चश्मा पहने राजनीतिक मोतियाबिन्द के शिकार जो बुद्धिजीवी किसी फ़ासिस्ट से यह आस लगाये बैठे हैं कि वह किसी दमित समुदाय से आने के कारण उस दमित समुदाय का उद्धार कर देगा या देगी, आने वाले समय में वर्ग संघर्ष की भट्टी में उनका सही इलाज जनता ही कर देगी।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन