हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कमाण्डर-इन-चीफ़ चन्द्रशेखर आज़ाद के 106वें जन्मदिवस (23 जुलाई) पर
अपनी क्रान्तिकारी विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लो!

करन इन्सान

क्रान्तिकारियों के अमर बलिदान और उनके वीरतापूर्ण संघर्ष की विरासत को अपने-अपने हितों के अनुसार इस्तेमाल करने की कोशिशें हर दौर में होती रही हैं। आज भी सत्ता में बैठी फ़ासीवादी भाजपा सरकार व संघी तत्व चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारी शहीदों को भगवा रंग में रंगने की हर सम्भव कोशिशें कर रहे हैं। इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने से लेकर रंगमंच जैसे माध्यमों के ज़रिए आज़ाद और भगतसिंह जैसे नायकों की विरासत को विकृत करने का काम संघी फ़ासीवादी तेज़ी से करने में जुट गये हैं। बहुचर्चित काकोरी एक्शन के नायक शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ जैसे जाँबाज़ों की शहादत को भी यह साम्प्रदायिक शक्तियाँ अँधेरे में धकेलने के हर सम्भव प्रयास कर रही हैं क्योंकि इन दोनों शहीदों की दोस्ती देश की अवामी एकता का ऐतिहासिक प्रतीक बन चुकी है और आज हर जगह, जहाँ-जहाँ भी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी व हिन्दुत्व विचारक वी.डी. सावरकर को क्रान्तिकारियों के समकक्ष रखने की कुत्सित कोशिशें की जाती हैं, वहाँ बिस्मिल और अशफ़ाक़ की दोस्ती उनके लिए स्वाभाविक रूप से बाधा बनती ही है। आज़ाद के व्यक्तित्व से प्रेरित होने का दम्भ भरने वाली ये प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ उनके विचारों के नयी पीढ़ियों तक पहुँचने से हमेशा ख़ौफ़ज़दा रहती हैं। लेकिन समाज को अपने श्रम के दम पर खड़ा करने वाली आबादी को क्रान्तिकारियों के व्यक्तित्व के साथ-साथ उनके विचारों से भी प्रेरित होना चाहिए। और इसीलिए आज ऐसे वक़्त में चन्द्रशेखर आज़ाद की स्मृति में उनकी शख़्सियत व जिन आदर्शों व मूल्यों के लिए उन्होंने बहादुराना क़ुर्बानी दी उनको जानने के लिए इतिहास के कुछ पन्ने उलटने होंगे।

हिन्दुस्तान के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में क्रान्तिकारी धारा ने बेमिसाल क़ुर्बानियाँ देकर ब्रिटिश-विरोधी व साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की दिशा को लगातार प्रभावित किया। सन् 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेज़ हुकूमत को समय-समय पर पैदा होने वाले क्रान्तिकारी उभारों से ख़तरा महसूस होने लगा और उसने इन्हें कुचल डालने के लिए अनेकों स्तरों पर दमनात्मक कार्रवाइयों को अंजाम दिया। चापेकर बन्धुओं की फाँसी से लेकर 1913-15 के ग़दर आन्दोलन की विफलताओं तक ऐसे अनेकों वीरतापूर्ण संघर्ष क्रान्तिकारियों ने किये।

चन्द्रशेखर आज़ाद उस दौर के क्रान्तिकारी थे जिस वक़्त हिन्दुस्तान का क्रान्तिकारी आन्दोलन काफ़ी तेज़ी से अपना वैचारिक विकास कर रहा था और ग़दर आन्दोलन के क्रान्तिकारियों के दिलेराना ढंग से मौत को गले लगाने वाले अनेकों उदाहरण उस समय मौजूद थे। करतार सिंह सराभा जैसे क्रान्तिकारी की शहादत को इसके एक सर्वोच्च बलिदान के रूप में माना जा सकता है। इसी के साथ ही बोल्शेविक क्रान्ति का प्रभाव भी उस समय काफ़ी तेज़ी से फैल रहा था और इसी कारण से लोगों के राजनीतिक-वैचारिक क्षितिज का विस्तार हो रहा था। एच.आर.ए के संस्थापक सदस्यों जैसे जोगेश चन्द्र चटर्जी और शचीन्द्रनाथ सान्याल ने उस समय समाजवादी विचारों पर अनेकों पुस्तकें पढ़ रखी थीं। अशफ़ाक़ उल्ला ने भी अपनी अनेकों वैचारिक कमज़ोरियों के बावजूद समाजवाद और कम्युनिज़्म के आदर्शों की सराहना की थी। क्रान्तिकारियों के इसी संगठन के एक बेहद कर्मठ और सक्रिय सदस्य चन्द्रशेखर आज़ाद भी थे। आज़ाद बहुत ही अनुशासित जीवन जीने व पार्टी के गोपनीय ढाँचे को हर क़ीमत पर गोपनीय बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध भी रहते थे। यहाँ तक कि लम्बे समय से उनके साथ कार्य करने वाले अन्य साथियों को भी इस बात का पता नहीं होता था कि आज़ाद का घर कहाँ है व उनके माँ-बाप कौन हैं। संकट की घड़ी में भी वे ख़ुद अभावग्रस्त जीवन जीने व अन्य साथियों का ख़्याल रखने को प्राथमिकता देते थे। काकोरी एक्शन में एक के बाद एक साथियों के पकड़े जाने और फाँसी लगने से संगठन लगभग शक्तिहीन हो गया।

1920 का दशक भारत में गम्भीर आर्थिक मन्दी और मज़दूर आन्दोलन के उभार का दशक था। इसी दौर में कम्युनिस्ट रुझान वाली कई मज़दूर यूनियनों का गठन भी हुआ था। नौजवानों के अनेकों आन्दोलनों के कारण पूर्ण स्वराज्य और रैडिकल बदलावों की माँग उठी। कांग्रेस के नेतृत्व के प्रति 1920 के दशक के अन्त के दौर में नौजवानों व क्रान्तिकारियों में गहरा अविश्वास पैदा हुआ और दशक के अन्तिम वर्षों तक आते-आते यह स्थिति काफ़ी गम्भीर रूप धारण कर चुकी थी। इसी माहौल में एच.आर.ए. के युवा सदस्यों जैसे भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, शिव वर्मा, सुखदेव व विजय कुमार सिन्हा के नेतृत्व में पार्टी को पुनः खड़ा करने की योजना बनायी गयी और एच.आर.ए. की केन्द्रीय समिति के गठन के उद्देश्य से 8 और 9 सितम्बर, 1928 को दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला के खण्डहरों में एक मीटिंग हुई जिसमें संयुक्त प्रान्त, बिहार, पंजाब और राजस्थान से कुल दस लोगों ने हिस्सा लिया। इस बैठक में क्रान्तिकारियों ने एक कार्यक्रम निर्धारित किया और पार्टी का अन्तिम उद्देश्य भारत में समाजवाद की स्थापना को रखा और इसी के अनुरूप पार्टी का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया। चन्द्रशेखर आज़ाद इसी पुनर्संगठित पार्टी की सैन्य शाखा के कमाण्डर इन चीफ़ चुने गये थे। इस प्रकार एच.एस.आर.ए. वास्तविक अर्थों में भारत की जनता की आज़ादी के लिए लड़ रहे जाँबाज़ योद्धाओं का ही एक संगठन था। यह सही मायनों में धर्मनिरपेक्षता का अनुसरण करने और समाजवादी व्यवस्था क़ायम किये जाने के पुरज़ोर पक्षधर थे। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल और पब्लिक सेफ़्टी बिल के ज़रिए मज़दूरों की हड़तालों को कुचलने के विरोध में एच.एस.आर.ए. की केन्द्रीय परिषद की बैठक हुई जिसमें तय किया गया कि पार्टी के कुछ लोग असेम्बली हॉल में बम फेंककर अपना विरोध दर्ज करायेंगे और अदालतों को अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का मंच बनायेंगे। चन्द्रशेखर आज़ाद भगतसिंह की पार्टी में ज़रूरत को बहुत अच्छे से समझते थे और उन्हें आशंका थी कि वे भगतसिंह को इस पूरे काण्ड के दौरान खो देंगे। 8 अप्रैल 1929 को जब असेम्बली हॉल में बम के धमाके हुए तो ब्रिटिश साम्राज्य की जड़े हिल गयीं। अनेकों देशी-विदेशी अख़बारों ने इस घटना को कवर किया। बम फेंकते समय भगतसिंह और दत्त ने “इन्क़लाब ज़िन्दाबाद” और “साम्राज्यवाद मुर्दाबाद” के नारे लगाये व लाल पर्चे फेंके जिन पर लिखा हुआ था “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है।”

गाँधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चलाये जा रहे असहयोग आन्दोलन से आज़ाद का जुड़ाव भी रहा था किन्तु बाद में जब गाँधी और कांग्रेस के क्रान्ति-विरोधी समझौतापरस्त चरित्र का पर्दाफ़ाश हुआ तो देशभर के अनेकों क्रान्तिकारी तत्वों को इससे निराशा हाथ लगी जिनमें ख़ुद चन्द्रशेखर आज़ाद भी थे। आज़ाद की पढ़ाई-लिखाई कभी ठीक से नहीं हो पायी लेकिन क्रान्तिकारी स्वभाव होने के कारण और एच.आर.ए. के क्रान्तिकारियों के बीच उस वक़्त काफ़ी प्रचलित रूसी साहित्य और क्रान्ति के विज्ञान के क़रीब आने से वे देश की परिस्थितियों का मूल्यांकन करने में अपने समय के अनेकों क्रान्तिकारी तत्वों से बहुत आगे थे। 1920 के दशक की शुरुआत में ही देशभर के नौजवानों को यह अहसास हो चुका था कि भारत का राष्ट्रीय बुर्जुआ नेतृत्व किसानों के क्रान्तिकारी उभार और मज़दूरों के आन्दोलन से भयभीत हो चुका है अब वह किसानों, मज़दूरों व देश के नौजवानों के साथ विश्वासघात कर रहा है, उनके आन्दोलनों का इस्तेमाल अपने हितों में अंग्रेज़ों से मोलभाव करने के लिए कर रहा है और इन आन्दोलनों के उग्र होने पर अंग्रेज़ों से समझौतापरस्ती कर रहा है। बाद में क्रान्तिकारियों के बीच भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त और भगवतीचरण वोहरा जैसे जोशीले व अध्ययनशील क़िस्म के युवा जुड़े तो उन्होंने आज़ाद सहित पूरे क्रान्तिकारी दल और यहाँ तक कि आन्दोलन के वैचारिक स्तर में एक लम्बी छलाँग लगाने में एक अहम भूमिका अदा की। आज़ाद इन साथियों की मदद से तमाम राजनीतिक और वैचारिक मसलों पर अपनी समझ बनाते थे, महत्वपूर्ण राजनीतिक सामग्री को पढ़वाकर सुनते थे। 

एच.एस.आर.ए. के कमाण्डर के रूप में आज़ाद मरते दम तक एक निडर योद्धा की तरह जिये। 27 फ़रवरी 1931 को एक ग़द्दार द्वारा मुख़बिरी कर दिये जाने के कारण आज़ाद को इलाहाबाद के अल्फ़्रेड पार्क में चारों तरफ़ से अंग्रेज़ पुलिस के सिपाहियों ने घेर लिया जिनसे वह क़रीब घण्टेभर पर लड़ते रहे और अन्त में जब गोलियाँ ख़त्म हो गयीं तो आख़िरी गोली से उन्होंने खुद को मार लिया और शहादत दी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने प्रतिज्ञा ली थी कि वे कभी भी अंग्रेज़ ज़ालिमों के हाथ ज़िन्दा नहीं पकड़े जायेंगे और हुआ भी वही कि वे अपनी आख़िरी साँस तक कभी पकड़े नहीं गये।

आज के दौर में हम मज़दूरों-मेहनतकशों को यह जानना चाहिए कि आज़ादी की लड़ाई में एक धारा क्रान्तिकारियों की भी थी और अंग्रेज़ी हुकूमत की नाक में उन्होंने हमेशा दम करके रखा। वे समाजवाद के उसूलों को मानते थे, मज़दूर पार्टी बनाने का लक्ष्य रखते थे और मज़दूर राज क़ायम करना चाहते थे। उनके इन आदर्शों और विचारों से न सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुकूमत ख़ौफ़ज़दा थी बल्कि देश के पूँजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस का नेतृत्व भी घबराता था। क्योंकि वह समझता था कि अगर आज़ादी के आन्दोलन का नेतृत्व भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला, बिस्मिल जैसे क्रान्तिकारियों की क्रान्तिकारी धारा के हाथों में आया तो भारत की आज़ादी पूँजीपतियों की लक्ष्यपूर्ति से आगे जायेगी और मज़दूर राज और समाजवाद की स्थापना की ओर जायेगी। ये बेहद युवा क्रान्तिकारी थे और अपने विचारधारात्मक-राजनीतिक विकास के आरम्भिक चरणों में थे, हालाँकि इन शुरुआती मंज़िलों में भी उन्होंने अपनी बौद्धिक-वैचारिक शक्ति को दिखला दिया था। लेकिन फिर भी अभी बहुत अनुभव, वैचारिक-राजनीतिक परिपक्वता और कुशलता की आवश्यकता थी और साथ ही कम्युनिज़्म के उसूलों की समझदारी और व्यवहार को विकसित करने में भी अभी लम्बा रास्ता तय करना था, इसलिए वह आज़ादी के आन्दोलन के नेतृत्व से कांग्रेस को हटाने में सफल होने से पहले ही भयभीत अंग्रेज़ सरकार द्वारा कुचल दिये गये और शहीद हुए, जिस पर कांग्रेस ने भी बस घडि़याली आँसू बहाये और एक मौन सहमति दी। वहीं हिन्दू महासभा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे साम्प्रदायिक व हिन्दुत्ववादी संगठनों ने तो इन शहीदों की शहादत पर तालियाँ बजायी थीं। बड़े अफ़सोस की बात है कि आज ये ही फ़ासीवादी सत्ता में बैठे हैं और आज़ाद, भगतसिंह, सुखदेव आदि जैसे क्रान्तिकारियों का नाम अपनी ज़ुबान पर लाकर हमारी क्रान्तिकारी विरासत का अपमान कर रहे हैं। ऐसे में, हमें अपनी इस क्रान्तिकारी विरासत को नये सिरे से ज़िन्दा करना होगा और मौजूदा शोषणकारी व दमनकारी निज़ाम के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष को नये सिरे से संगठित करना होगा।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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