“बुलडोज़र” बन रहा है फ़ासिस्ट हुक्मरानों की दहशत की राजनीति का नया प्रतीक-चिह्न!

शिवानी

भारत के फ़ासिस्ट शासकों ने विशिष्ट तौर पर मुसलमानों और आम तौर पर राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रती मुहिम जारी रखते हुए पूरे देश में ही दहशत फैलाने के इरादे से अब एक नये हथियार के तौर पर “बुलडोज़र” का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। फ़ासीवादी सत्ता बुलडोज़र के ज़रिए समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ सार्वजनिक “सामूहिक दण्ड” और “त्वरित न्याय” का एक वीभत्स तमाशा, एक ‘स्पेक्टकल’ निर्मित कर रही है। उत्तर प्रदेश में फ़ासिस्ट योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार ने बुलडोज़र को “सुशासन” और “क़ानून व्यवस्था” के खोखले जुमलों के पर्याय के तौर पर स्थापित करने के लिए कई मुसलमान नागरिकों और कार्यकर्ताओं के घर ढहाने को ही इस वक़्त अपना प्रमुख एजेण्डा बनाया है। आदित्यनाथ ने कहा भी था कि “हिंसा और तोड़-फोड़” में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ ऐसी कार्रवाई की जायेगी कि वे उदहारण बन जायें और फिर कोई डर के कारण ऐसा न कर सके। उत्तर प्रदेश के बाद अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी “बुलडोज़र राज” के ज़रिए मुसलमान समुदाय को चुप कराने और डराने का काम बेहद मुस्तैदी के साथ अंजाम दिया गया। फ़ासिस्टों के हाथ में अब बुलडोज़र कोई निर्जीव वस्तु मात्र नहीं है, बल्कि फ़ासीवादी राजनीति का नवीनतम प्रतीक-चिह्न बन गया है। ऊपर से तुर्रा यह कि दिन-दहाड़े खुलेआम धड़ल्ले से की जा रही ऐसी ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई को “क़ानून बनाये रखने” और “क़ानून की हिफ़ाज़त करने” का नाम दिया जा रहा है!

“घर वापसी”, “लव जिहाद”, “गौ हत्या” के नाम पर मॉब लिंचिंग आदि के बाद अब “बुलडोज़र” भारतीय फ़ासिस्टों के हाथ में उस उस्तरे का काम कर रहा है जिससे वे अपने ख़िलाफ़ उठ खड़े हो रहे हर प्रकार के विरोध की नस काट रहे हैं। यह बात अब आम हो गयी है कि कोई भी विरोध या प्रदर्शन की घटना होने पर प्रशासन तुरन्त “आरोपी” के घर को अवैध घोषित कर ‘बैक डेट’ में नोटिस जारी करके घर तोड़ने पहुँच जाता है। ज़ाहिरा तौर पर इस वक़्त इस मुहिम में मुसलमान उनके निशाने पर सबसे ऊपर हैं। हालाँकि यह अनायास नहीं है। वास्तव में मुसलमान नागरिकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के घरों-दुकानों पर बुलडोज़र चलाकर आर्थिक व सामाजिक तौर पर उनकी कमर तोड़ने का काम किया जा रहा है। साथ ही, आने वाले दिनों में सीएए-एनआरसी क़ानून को फिर से लाने की मंशा गृहमंत्री अमित शाह पहले ही जता चुका है। ऐसी सूरत में फिर कोई विरोध न उठ खड़ा हो सके इसके लिए भी अभी से ही राज्य मशीनरी डर और ख़ौफ़ का माहौल तैयार कर रही है। बुलडोज़र की राजनीति के पीछे फ़ासिस्ट राज्यसत्ता की यह चिन्ता और सरोकार भी है।

मौजूदा दौर हमारे देश में फ़ासिस्ट मोदी सरकार द्वारा लागू किया जा रहा एक अघोषित आपातकाल है और घोषित तौर पर आतंक का राज है जिसमें “विकास” के हवाई दावों और राष्ट्रवाद के मिथकीय शोर के बीच प्रतिरोध की हर आवाज़ सत्ता द्वारा पाशविक बल प्रयोग कर कुचली जा रही है जिसका नवीनतम अवतार “बुलडोज़र की राजनीति” के रूप में सामने आ रहा है।

2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद से और वर्तमान दौर में भारतीय पूँजीपति वर्ग की सबसे पसन्दीदा पार्टी होने के नाते भाजपा ने सम्पत्तिधारी वर्गों के लिए शोषण, लूट और दमन का रास्ता बिल्कुल साफ़ कर दिया। इस बीच जहाँ कहीं कोई विरोध का स्वर फूटा, वहीं फ़ासिस्ट सत्ताधारियों ने उसे कुचलने का पूरा इन्तज़ाम भी चाक-चौबन्द कर दिया। इसके अलावा, शासन-प्रशासन, नौकरशाही, पुलिस, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया आदि में पहले ही अपने रंगरूटों की सुव्यवस्थित घुसपैठ और इन तमाम बुर्जुआ संस्थाओं के भीतर से फ़ासिस्टीकरण के ज़रिए फ़ासिस्टों ने अपना रास्ता बेहद सुगम बनाया। यही नहीं, सीबीआई, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियाँ आज राजनीतिक विरोधियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, बुद्धिजीवियों आदि को प्रताड़ित करने के हथियार बन चुकी हैं। वहीं भारतीय संविधान के बाहरी खोल को क़ायम रखते हुए बिना किसी प्रत्यक्ष छेड़छाड़ के उसकी अन्तर्वस्तु को अपने हितों के अनुरूप ढालने का काम भी फ़ासीवादी सत्ता ने किया जिसमें संविधान के मूल चरित्र और प्रकृति ने फ़ासिस्टों की स्वयं ही काफ़ी मदद कर दी। यह उन लोगों के लिए भी सबक़ है जो आज संविधान बचाने की गुहार लगा रहे हैं और फ़ासीवाद को “जय संविधान” के हास्यास्पद नारे से हराने की अहमकाना बातें कर रहे हैं।

जैसा कि हमने ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर बार-बार दुहराया है कि फ़ासीवाद दरअसल टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन और एक रुमानी उभार है जो बड़े पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा करता है। भारत में मुसलामानों को छद्म दुश्मन क़रार देकर संघ परिवार और भाजपा द्वारा अपने कैडर और भक्तों को हमेशा ही उनके ख़िलाफ़ दंगे भड़काने और हिंसा करने की खुली छूट दी गयी है। ऐसे लोगों को “फ़्रिन्ज एलिमेण्ट्स” की संज्ञा देकर ऐन मौक़े पर अपना पल्ला झाड़ लेने का स्कोप भी भारतीय फ़ासिस्टों ने बचाकर रखा जबकि सच्चाई तो यह है कि फ़ासीवाद की इन प्रतिक्रियावादी तात्विक शक्तियों को फलने-फूलने की ज़मीन ख़ुद संघ परिवार ही मुहैया करवाता है। मोदी राज के पिछले आठ सालों में तो अनगिनत दंगों, हमलों और हिंसा की वारदातों की फ़ेहरिस्त बनायी जा सकती है जिसमें दंगों के दौरान हिंसा-आगजनी और लूटपाट के पीड़ितों को ही दंगाइयों के रूप में पेश किया गया, उन्हें “क़ानूनी” तौर पर प्रताड़ित किया गया, बिना किसी दलील और अपील के दण्डित कर दिया गया, उनकी सम्पतियाँ ज़ब्त कर ली गयीं और अब उनके घरों को ही बुलडोज़रों से रौंदा जा रहा है। दरअसल आज के दौर में यह “बुलडोज़र” फ़ासिस्ट मशीनरी और शासन व्यवस्था का प्रतीक-चिह्न बन गया है। कहीं “विकास” के नाम पर ग़रीबों के कच्चे मकानों को ढहाने के लिए इन विशालकाय बुलडोज़रों को सड़कों पर दौड़ाया जा रहा है तो कहीं इन्हें “अवैध निर्माण” को ख़त्म करने के नाम पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के घरों-दुकानों को ज़मीन्दोज़ करने के लिए इस्तेमाल में लाया जा रहा है।          

ग़ौरतलब है कि भारतीय फ़ासिस्ट सत्ता इस आतंक-राज को क़ायम करने की शिक्षा-दीक्षा अपने इज़रायली ज़ायनवादी बिरादरों से ग्रहण कर रही है। इज़रायली ज़ायनवादियों द्वारा वर्षों से फ़िलिस्तीनियों के घरों का विध्वंस ऐसे ही जारी है। इज़रायल की ही तरह भारत में फ़ासीवादी सत्ता ने, कुछ विशेषज्ञों के शब्दों में, ‘किलिंग होम’ या फिर ‘डोमिसाइड’ नीति यानी विरोधियों के घर ढहाने की नीति अपनाकर अपने विरुद्ध उठने वाली आवाज़ों को दबाने का नया औज़ार “बुलडोज़र” के रूप में ढूँढ़ निकाला है ताकि अपने विरोधियों को सामाजिक-आर्थिक तौर पर और अरक्षित बनाया जा सके। ‘डोमिसाइड’ की यह रणनीति आम तौर पर युद्धों के दौरान इस्तेमाल में लायी जाती है जिसमें आबादी के नरसंहार के साथ उनके घरों का विनाश भी शामिल होता है। दमन के इस औज़ार का इस्तेमाल इज़रायली सत्ता फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ वर्षों से करती रही है जहाँ घरों के निर्माण को अवैध क़रार देकर 24 घण्टे के भीतर उन्हें ध्वस्त करने के नोटिस दिये जाते हैं और फ़िलिस्तीनियों को या तो ख़ुद ही अपने घरों को तोड़ने के लिए कहा जाता है अन्यथा नगर पालिका उनके घरों को ढहाती है। वास्तव में इज़रायल द्वारा इस नीति के पीछे की मूल वजह फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष और प्रतिरोध को कुचलना ही था। यही काम आज उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ से लेकर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान कर रहे हैं : विरोध और प्रतिरोध की हर आवाज़ को डर और दहशत के साये में इस क़दर डुबो दो कि आइन्दा कोई प्रतिकार करने की गुस्ताख़ी ही न करे!

हालाँकि दण्डात्मक विध्वंस की यह नीति इज़रायल को भारी ही पड़ी है। ज़ायनवादियों की सोच के विपरीत ज़्यादा से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी अपनी ज़मीन पर इज़रायल के क़ब्ज़े के विरुद्ध चल रहे मुक्ति संघर्ष में शामिल हो रहे हैं और इज़रायली उपनिवेशवादियों के ख़िलाफ़ नफ़रत ज़बर्दस्त रूप में बढ़ी है। भारत में भी वर्तमान दौर में “बुलडोज़र राज” स्थापित करके फ़ासीवादी सत्ता हर राजनीतिक विरोध और संघर्ष को कुचलना चाहती है।

भाजपा शासित राज्य सरकारों ने बुलडोज़र की राजनीति पर अमल को नगर निगम के नियमों के उल्लंघन और अवैध निर्माण व अतिक्रमण विरोधी अभियान की संज्ञा दी है! यह ऐसी हास्यास्पद दलील है जिसपर भाजपा के समर्थक भी यक़ीन नहीं करते हैं। “अवैध अतिक्रमण” हटाने के नाम पर मुसलमानों के घरों को गिराने के दण्डात्मक विध्वंस का काम मुख्य तौर पर इस साल अप्रैल में शुरू किया गया। इस वर्ष रामनवमी के अवसर पर हिन्दुत्ववादियों द्वारा निकाले गये जुलूसों में जगह-जगह मुसलमान-विरोधी नारे लगाये गये और भड़काऊ भाषण दिये गये। इसके परिणामस्वरूप कई स्थानों पर झड़पें हुईं। फिर मुसलमान नागरिकों और कार्यकर्ताओं के विरुद्ध प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करते हुए “सामूहिक दण्ड” देने के इरादे से गुजरात और मध्यप्रदेश से लेकर दिल्ली में  सरकारों और नगर पालिकाओं ने मुसलमानों के घरों और दुकानों को बुलडोज़र से सपाट करना शुरू कर दिया। लेकिन इस “बुलडोज़र राज” का चरम उत्तर प्रदेश में देखने को मिला जो अब हिन्दुत्व फ़ासीवाद की सबसे सफल प्रयोगशालाओं में से एक बन चुका है।

ग़ौरतलब है कि दो वर्ष पहले ही उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने ‘यूपी रिकवरी ऑफ़ डैमेज टू पब्लिक एण्ड प्राइवेट प्रॉपर्टी एक्ट’ बनाया था। योगी सरकार ने 2019-20 में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध चले आन्दोलन में शामिल कार्यकर्ताओं और प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई करते हुए सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति को हुए नुक़सान की भरपाई के नाम पर “मुआवज़ा” माँगा था। ज्ञात हो कि उस समय उत्तर प्रदेश प्रशासन द्वारा आन्दोलन में शामिल कार्यकर्ताओं की तस्वीरें, नाम और पतों के साथ जगह-जगह पर लगवा दी गयी थीं जिसका विरोध भी हुआ था। यह पोस्टर और होर्डिंग योगी सरकार द्वारा महज़ पुलिस द्वारा दर्ज की गयी प्राथमिकियों के आधार पर लगवाये गये थे। दोष-सिद्धि की तो बात ही क्या करें! हालाँकि बाद में उच्चतम न्यायलय के एक आदेश के बाद वसूली के सारे नोटिस रद्द कर देने पड़े थे। इस “क़ानूनी” सरदर्द से निपटने के लिए ही योगी सरकार ने बेहद क़ानूनी व संवैधानिक रास्ते से उपरोक्त क़ानून बना दिया!

अब अग्निपथ योजना को लेकर हो रहे विरोध से निपटने के लिए भी योगी सरकार इसी क़ानून के अन्तर्गत प्रदर्शनकारियों से वसूली करने का बन्दोबस्त कर रही है। उत्तर प्रदेश प्रशासन ने कहा है कि सार्वजनिक व निजी सम्पत्तियों को हुए नुक़सान के लिए राज्य सरकार “मुआवज़े” की वसूली करेगी। उत्तर प्रदेश में विशेष तौर पर विरोध और असहमति के स्वरों को ध्वस्त करने के लिए इस नये क़ानून के साथ ही अब बुलडोज़र का इस्तेमाल भी किया जा रहा है। अब तो विरोध-प्रदर्शनों को रोकने के लिए पुलिस व प्रशासन के अधिकारी खुलेआम “बुलडोज़र” की धमकी दे रहे हैं! भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा के विवादित बयान के विरोध में इलाहाबाद में हुए प्रदर्शन में शामिल एक मुसलमान प्रदर्शनकारी के घर को स्थानीय प्रशासन ने आनन-फ़ानन में गिरा भी दिया था।    

मध्य प्रदेश में खरगोन से लेकर दिल्ली में जहांगीरपुरी तक यही बुलडोज़र की राजनीति आज मुसलामानों के दिलोदिमाग़ में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए सड़कों पर अंजाम दी जा रही है। इसका असली “श्रेय” तो योगी आदित्यनाथ को ही जाता है जिसने उत्तर प्रदेश चुनावों में भी बुलडोज़र के चिह्न का काफ़ी इस्तेमाल किया। जगह-जगह “बाबा का बुलडोज़र” वाले बैनरों के साथ सड़कों पर बुलडोज़र निकाले गये। यह प्रतीकवाद दरअसल फ़ासीवादी राजनीति का एक अहम अंग है जो “मज़बूत”, “सख़्त” और “पौरुषपूर्ण” प्रतीकों के मिथक को स्थापित करके आम जनमानस में एक विशिष्ट क़िस्म के नेता की छवि का निर्माण करता है। “बुलडोज़र” का प्रतीक भारतीय फ़ासीवादियों के लिए यही मिथक गढ़ने का काम कर रहा है। उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ “बाबा बुलडोज़र” बन गया है तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान “मामा बुलडोज़र” कहला रहा है।

फ़ासीवादी सरकारें “क़ानून के राज” को क़ायम करने के लिए आम मुसलमानों के घरों पर ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से बुलडोज़र चला रही हैं और पूँजीवादी विपक्षी दलों से लेकर उच्चतम न्यायलय समेत सभी अदालतें तक इस आतंक और दहशत के ताण्डव को मूक दर्शक बने देख रहे हैं। ऐसे हज़ार मामलों में से किसी एक मामले में यदि अदालतें हस्तक्षेप करती भी हैं तो संशोधनवादियों, सामाजिक-जनवादियों समेत पूरा वाम-उदार तबक़ा लहालोट हो उठता है मानो क्या ग़ज़ब का काम किया हो! जिन 999 मामलों में अदालतों की ज़ुबान पर ताले लटके रहते हैं उनको विस्मृति के अँधेरे में धकेल दिया जाता है और उनपर कोई बात भी नहीं होती है। यह भी सोचने वाली बात है कि बुलडोज़र द्वारा ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से मुसल्मानों के घरों को गिराये जाने के एक भी मसले में सर्वोच्च न्यायलय या उच्च न्यायालयों ने स्वतः संज्ञान नहीं लिया। इसके लिए भी पूर्व न्यायाधीशों को सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश से अदालती हस्तक्षेप की गुहार लगानी पड़ी थी। क्या यह मौजूदा न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं बताता? वैसे जब उच्चतम न्यायलय और उच्च न्यायलयों के न्यायाधीश सत्ताधारी पार्टी और उसके नेता-मंत्रियों की प्रशंसा सार्वजनिक मंचों से कर रहे हों और सेवानिवृत्ति के बाद “पुरस्कृत” हो रहे हों तो इस बात का अन्दाज़ा अपने आप ही लगाया जा सकता है कि इन बुर्जुआ संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण किस हद तक हो चुका है। भारतीय संविधान में दर्ज शक्तियों के पृथक्करण की तमाम लफ़्फ़ाज़ियों की हक़ीक़त आज के दौर में सबके सामने खुलकर आ चुकी है। इसके बावजूद किसी एक मामले में अगर अदालत द्वारा सरकारों के “अतिक्रमण-विरोधी” अभियान पर रोक लगायी जाती है तो वाम-उदार दायरा इस क़दर ख़ुशी मनाता है जैसे कि फ़ासीवाद पर ही विजय प्राप्त कर ली हो!

दरअसल यह छद्म आशावाद इस तबक़े के निराशावाद और पराजयबोध से ही पैदा हुआ है। जनसमुदायों की ताक़त में इन्हें भरोसा रह नहीं गया है इसलिए यह हमेशा “ऊपर से” ही किसी करिश्माई हस्तक्षेप की आस लगाये बैठे रहते हैं। इस दायरे में ही कुछ ऐसे भी तथाकथित बुद्धिजीवी हैं जिन्हें भारत की जनता पैदाइशी प्राक-आधुनिक प्रतीत होती है और इसलिए इनके अनुसार उसका फ़ासीवादीकरण होना लाज़िमी है! ऐसे महानुभावों के लिए तो यही कहा जा सकता है कि उन्हें अपने लिए एक शुद्ध-बुद्ध नयी जनता खोज लेनी चाहिए जो निर्मल-अकलुष हो!

आज वास्तविकता यह है कि फ़ासीवादी दमन तंत्र का मुक़ाबला भी क्रान्तिकारी जुझारू मज़दूर आन्दोलन ही कर सकता है। ज़ाहिरा तौर पर यह बात कहनी आसान है लेकिन और कोई ‘शॉर्टकट’ वर्तमान दौर में पसरे पराजयबोध से भी ज़्यादा गहरी निराशा में लेकर जायेगा। आज मज़दूर आन्दोलन में क्रान्तिकारी ताक़तों को संशोधनवादी, सामाजिक-जनवादी, अर्थवादी, ट्रेडयूनियनवादी, अराजकतावादी-संघधिपत्यवादी आदि बुर्जुआ लाइनों से संघर्ष चलाकर सही सर्वहारा लाइन स्थापित करनी होगी। फ़ासीवाद का कोई भी कारगर प्रतिरोध इस कार्यभार की अनदेखी नहीं कर सकता है। इसके अलावा, आज फ़ासीवाद के विरुद्ध मोर्चा खोलने की कोई उम्मीद बुर्जुआ चुनावी दलों से रखना बुर्जुआ उदारतावाद से ग्रस्त होना होगा। पराजयबोध की स्थिति आज यह है कि कई लोगों को उद्धव ठाकरे “क्रान्तिकारी” प्रतीत हो रहा है! कोई ताज्जुब नहीं कि कल योगी आदित्यनाथ के बरक्स इन्हें नरेन्द्र मोदी “प्रगतिशील” और “उदार” नज़र आये!

रही बात न्यायपालिका की तो जैसा कि हमने ऊपर भी इंगित किया है इसका चरित्र तो पहले ही खुलकर सामने आ चुका है। जहांगीरपुरी मामले में तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद बुलडोज़र चलते रहे और अदालत की अवमानना का कोई मुक़दमा तक दर्ज नहीं हुआ। इसके अलावा, जनवादी-नागरिक अधिकार आन्दोलन और आम तौर पर नागरिक समाज की भी हालत इतनी ख़स्ताहाल है कि उनसे किसी अर्थपूर्ण प्रतिरोध की उम्मीद भी आज नहीं रखी जा सकती है। 1960-1970 के दशक में कम से कम यह तबक़ा प्रतिरोध करने के लिए सड़कों पर उतरने की कूव्वत रखता था लेकिन अब इनके चरित्र का क्षरण इस हद तक हो चुका है कि मोमबत्तियों की संख्या में गिरावट जनवादी-नागरिक आदोलन में आयी गिरावट के समानुपातिक है! आज यह कार्यभार भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों और क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन को अपने हाथ में लेना होगा। एक सशक्त जनवादी-नागरिक अधिकार आन्दोलन खड़ा करने की पूर्वशर्त भी यही है। अन्त में, हमें यह बात समझनी होगी कि न तो फ़ासीवाद ही अजेय है और न मौजूदा दौर में क़ायम “बुलडोज़र राज” ही अजेय है। इस दैत्याकार बुलडोज़र को चलाने वाला जो इन्सान है वह सोच सकता है! जर्मनी के सर्वहारावर्गीय कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक कविता की पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं :

जनरल, तुम्हारा टैंक

एक शक्तिशाली वाहन है

वह जंगलों को रौंद देता है

और सैकड़ों लोगों को चपेट में

ले लेता है

लेकिन उसमें एक दोष है

उसे एक चालक चाहिए

जनरल, तुम्हारा बमवर्षक जहाज़

शक्तिशाली है

तूफ़ान से तेज़ उड़ता है वह और

हाथी से ज़्यादा भारी वज़न उठाता है

लेकिन उसमें एक दोष है

उसे एक कारीगर चाहिए

जनरल, आदमी बहुत

उपयोगी होता है

वह उड़ सकता है और

उड़कर मार भी सकता है

लेकिन उसमें एक दोष है

वह सोच सकता है!

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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