उत्तर प्रदेश में निर्माण मज़दूरों की स्थिति है भयावह, संघर्ष का रास्ता चुनना ही होगा
नोएडा की स्थापना के बाद से ही यहाँ पर तेज़ी से निर्माण कार्य हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ से आने वाले मज़दूरों ने नोएडा में बड़े-बड़े भवन, आवासीय परिसर, शॉपिंग मॉल, औद्योगिक इकाइयाँ, स्कूल, हॉस्पिटलों, कारपोरेट ऑफिसों और प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों का निर्माण किया है। उत्तर प्रदेश के इस सर्वाधिक विकसित जिला रोज़गार सहित कई आर्थिक कारणों से देशभर के लोगों को आकर्षित करता है। लेकिन नोएडा की चकाचौंध को जिन मज़दूरों ने अपने मेहनत से क़ायम किया है, वह स्वयं नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं।
जिस तरह से मोदी और योगी सरकार ने पूँजीपतियों को मज़दूरों को लूटने की खुली छूट दे रखी है, मज़दूर आबादी दो तरीक़े से पूँजीपतियों के द्वारा प्रताड़ित हो रही है। पहला, मज़दूरों के हितों की नुमाइंदगी में बनाये गये श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके और दूसरा पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाकर। पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य बढ़ने के कारण चौतरफ़ा महँगाई बढ़ रही है, जिससे मज़दूरों को अपने परिवार के पोषण पर पहले से ज़्यादा खर्च करना पड़ता है।
2019 में जारी आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार भारत में असंगठित क्षेत्र में कुल मज़दूरों का 93 प्रतिशत कार्यरत है। देश में असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की संख्या 45 करोड़ से अधिक है। इतनी बड़ी आबादी को केन्द्र और राज्य सरकारों ने उनके हाल पर छोड़ रखा है।
मौजूदा हालात में मेहनतकश आबादी को चौतरफ़ा परेशानी झेलनी पड़ रही है। हम इस लेख में नोएडा में निर्माण क्षेत्र में काम कर रहे मज़दूरों के बारे में चर्चा करेंगे और जानेंगे कि उत्तर प्रदेश की आर्थिक राजधानी नोएडा को अपनी मेहनत से विकसित करने वाले निर्माण मज़दूरों की ज़िंदगी के हालात कैसे हैं? और इस विकास में उनके महत्वपूर्ण योगदान के बदले उन्हें क्या हासिल हुआ है।
नोएडा का विकास कई चरणों में हुआ है, जब-ब सेक्टरों की स्थापना के लिए निर्माण कार्यों की ज़रूरत पड़ी। बड़े पैमाने पर दूसरे राज्यों से मज़दूरों को लाया गया और उनकी झुग्गियाँ बसायी गईं। जब निर्माण कार्यों की आवश्यकता ख़त्म हो जाती तो इन बस्तियों को अतिक्रमण बताकर उजाड़ दिया गया। इस तरह सड़कों और आवासी परिसरों के किनारे बसे इन झुग्गियों में से किसी की उम्र 6 महीने रही तो किसी एक से दो वर्ष। वर्तमान समय में भी नोएडा के उन्हीं इलाक़ों में निर्माण मज़दूरों की अस्थायी झुग्गियाँ हैं जहाँ निर्माण कार्य जारी हैं।
निर्माण मज़दूरों की मुख्यत: दो तरह की आबादी है, पहले वे लोग जो प्रतिदिन काम की तलाश में लेबर चौक पर जाते हैं। दूसरे, किसी बड़े भवन के निर्माण के लिए काम कर रहे होते हैं। दूसरी तरह के ज्यादातर मज़दूर ठेकेदारों के माध्यम से दूसरे राज्यों से मंगाये जाते हैं और यह कार्य पूरा होने तक भवन के आसपास या उसके परिसर में ही अस्थाई टीन शेड से बने झुग्गियों में रहते हैं। इनकी मज़दूरी भी दिहाड़ी मज़दूरों की तुलना में कम होती है।
वर्तमान समय में दिहाड़ी मज़दूरों को एक दिन के लिए 350 से 400 रुपये तक मिलते हैं, विशेष परिस्थितियों में इन्हें 450-500 रुपये भी मिल जाते हैं। राजगीर मिस्त्री को प्रतिदिन 500 से 600 रुपये मिलते हैं और विशेष परिस्थितियों में यह रुपये मिल जाता है। जबकि लंबे समय तक एक प्रोजेक्ट पर काम करने वाले मज़दूरों को प्रतिदिन 320-360 रुपये ही मिलते हैं। वहीं, राजगीर मिस्त्री को 500-550 रुपये मिलते हैं।
नोएडा में खोड़ा, नंगला, भंगेल और बरोला में मुख्य तौर पर लेबर चौक लगते हैं, इसके अलावा कई छोटे-छोटे चौराहों पर भी लेबर चौक लगते हैं। लेबर चौक पर आने वाले मज़दूरों को मुश्किल से 15-20 दिनों तक काम मिल रहा है। 40 वर्ष से अधिक उम्र के मज़दूरों को अधिकतम 15 दिन ही काम मिल पाता है। लेकिन काम की तलाश में इन्हें प्रतिदिन लेबर चौक आना पड़ता है। काम नहीं मिलने की दशा में आने जाने के किराये का भी नुक़सान होता है।
दिहाड़ी मज़दूर महीने में अधिकतम 8-10 हज़ार रुपये कमा पाते हैं। ज़्यादातर मज़दूर प्रवासी होते हैं और इस कमाई पर ही पूरा परिवार निर्भर रहता है। मज़दूरों को अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा परिवार के खर्च के लिए भेजना पड़ता है। पैसे बचाने के लिए छोटे-छोटे कमरों में 3-4 मज़दूर रहते हैं, खाने पर कम से कम खर्च करते हैं और बेहद ज़रूरी होने पर ही इलाज करवाते हैं। लगातार बढ़ती महँगाई के कारण दिहाड़ी मज़दूरों के लिए बचत कर पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है।
प्रवासी निर्माण मज़दूरों के जीवन का नारकीय परिस्थितियाँ
लेबर चौक पर काम की तलाश में आने वाले मज़दूर अधिकांश झुग्गियों में किराये के कमरे में रहते हैं। लम्बे प्रोजेक्ट पर काम करने वाले मज़दूर बेहद तंग कमरों में पूरे परिवार के साथ गुज़ारा करते हैं। नोएडा के सेक्टर 136 में बड़े पैमाने पर कारेपोरेट ऑफिसों के लिए निर्माण कार्य हो रहे हैं। बिगुल मज़दूर दस्ता की टीम ने ऐसे ही कुछ कमरों का निरीक्षण किया।
कार्यस्थल के परिसर में या ग्राउंड फ़्लोर पर मज़दूरों को रहने के लिए कुछ टीन शेड बना दिया जाते हैं। कमरे की चौड़ाई 6 फ़ीट, लंबाई 8 और ऊंचाई 5 फ़ीट थी। एक कमरे में पति-पत्नी और बच्चों सहित परिवार के 4-5 सदस्य रह रहे थे। कमरे में औसत क़द का व्यक्ति भी खड़ा नहीं हो सकता है। रात में परिवार के अधिकांश सदस्यों को बाहर सोना पड़ता है और खाना भी मज़दूर कमरे के बाहर ईंटों को जोड़ कर बनाते हैं। मई-जून की तपती धूप में टीन शेड के अंदर आग की तरह तपिश होती है, रात में भी मज़दूर बाहर ही सोना पसंद करते हैं। टीन शेड के बने कमरे केवल सामान रखने के काम में आते हैं।
ठेकेदार मज़दूरों के लिए पीने के पानी, शौचालय और नहाने का भी कोई व्यवस्थित इंतज़ाम नहीं करते हैं। महिलाओं को सड़क के किनारे ही खुले में नहाना पड़ता है, बच्चों के लिए किसी आंगनवाड़ी या स्कूल की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। छोटे बच्चे जहाँ माँ काम करती हैं उसके आसपास ही ईंट -पत्थरों से खेलते रहते हैं।
कई बार ठेकेदार मज़दूरों से महीने-दो महीने काम कराने के बाद उन्हें बिना पैसे दिये ही डरा-धमका कर भगा देते हैं। मज़दूरों के पास इस बाद का कोई सबूत नहीं होता कि उनके कितने पैसे किसने हड़पे हैं। पुलिस और श्रम विभाग के तिकड़म में वह फँसना नहीं चाहते क्योंकि यहाँ भी हर कदम पर पैसे ही लगते हैं।
निर्माण मज़दूरों के लिए श्रम क़ानून होते भी हैं?
भारत में अधिकांश श्रम क़ानून संगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर लागू होते हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के लिए जो श्रम क़ानून हैं भी उन्हें लागू करने के प्रति केन्द्र व राज्य सरकारें उदासीन हैं। दिखावे के लिए सरकारों ने कुछ योजनाएँ बना रखी हैं लेकिन उन्हें काग़ज़ों से बाहर कम ही निकाला जाता है। यह तब होता है जब सरकार को अपनी उपलब्धियाँ गिनानी होती हैं।
असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों के लिए रोज़गार की सुरक्षा, कार्यस्थल पर सुरक्षा उपकरणों के इंतज़ाम, वेतन का नियमित भुगतान, सशुल्क छुट्टियाँ, साप्ताहिक अवकाश, आवश्यक भत्ते, न्यूनतम मज़दूरी, पेंशन आदि के मुद्दों पर सरकार गंभीर नहीं है। सरकार इन्हें लागू करने की दिशा में गंभीर प्रयास तक नहीं करती है।
कोई स्पष्ट नियम नहीं होने के कारण असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का वेतन अनिश्चित होता है। काम के अभाव के कारण इनके मोलभाव की क्षमता भी बेहद सीमित होती है। सुविधाएँ देना तो दूर की बात है सरकार और प्रशासन यह जानने का प्रयास भी नहीं करते हैं कि ज़िले या राज्य में निर्माण मज़दूर, पेंटर, राजगीर, दिहाड़ी मज़दूर, बढ़ई कितने हैं?
अशिक्षा और कम राजनीतिक समझ के कारण दिहाडी मज़दूर इस बात से भी अंजान हैं कि सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि उन्हें सुरक्षित रोज़गार मिले और श्रम क़ानूनों के अनुसार वेतन प्राप्त हो। नोएडा के नंगला लेबर चौक पर हमने कई मज़दूरों से बात की किसी के पास भी ई-श्रम कार्ड तक नहीं मिला। ज़्यादातर मज़दूरों ने हमें बताया कि अभी तक किसी भी सरकार योजना का लाभ नहीं मिला है।
उत्तर प्रदेश सरकार की काग़ज़ में दफ़्न योजनाएँ
उत्तर प्रदेश सरकार निर्माण और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए कई योजनाएँ लागू करने का दावा करती है। महज़ औपचारिकता पूरी करने के लिए तैयार किए गये यह योजनाएँ काग़ज़ों में ही दफ़्न हो रही हैं। आम मज़दूर इन योजनाओं के बारे में जानते ही नहीं हैं। शासन या प्रशासन सरकार की योजनाओं और विकास के दावों का तो प्रचार करते हैं। “मज़दूर हितैषी” इन योजनाओं का कोई प्रचार-प्रसार नहीं किया जाता है। इसलिए इनके लाभुकों की संख्या नाममात्र की होती है।
कोरोना काल में सरकार ने उत्तर प्रदेश में रहने वाले 15 लाख दिहाड़ी मज़दूरों और निर्माण क्षेत्र ( रिक्शा वाले, खोमचे वाले, रेवड़ी वाले, फेरी वाले, निर्माण कार्य करने वाले ) 20.37 लाख मज़दूरों को 1,000 रुपये उनकी रोज़मर्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए देने का वादा किया था। इसे सरकार की उपलब्धि के तौर पर तो प्रचारित कर दिया गया। जबकि वास्तविक पात्रों के बेहद छोटे हिस्से को योजना का लाभ मिला।
उत्तर प्रदेश भवन एवं सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड की वेबसाइट के अनुसार सरकार ने भवन एवं निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के लिए 28 योजनाओं को लागू किया है। प्रमुख योजनाओं में दुर्घटना सहायता योजना, गंभीर बीमारी सहायता योजना, अक्षमता पेंशन योजना, औज़ार क्रय सहायता योजना, कौशल विकास तकनीकी उन्नयन एवं प्रमाणन योजना, आवास सहायता योजना, निर्माण कामगार मृत्यु एवं विकलांगता सहायता योजना, महात्मा गांधी पेंशन योजना, आवास सहायता योजना ( मरम्मत हेतु ), आवासीय विद्यालय योजना आदि हैं।
योजनाओं के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार की गंभीरता इसी से स्पष्ट होती है कि विभाग की वेबसाइट पर विकल्प होने के बावजूद भी लाभार्थियों की संख्या के बारे कोई जानकारी नहीं दी गई है। नगला, भंगेल लेबर चौक सहित कई मज़दूरों से बात करने पर भी हमें इन योजनाओं के लाभार्थी नहीं मिले। दरअसल, मज़दूरों को इन योजनाओं के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है।
बढ़ रही है दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्या की दर
दो वर्ष पहले केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने 2019 में हुई आत्महत्याओं के आँकड़े जारी करते हुए बताया था कि दिहाड़ी मज़दूरों के आत्महत्या के दर में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) के आँकड़े के अनुसार 2019 में भारत में दर्ज 1,39,123 आत्महत्याओं में दैनिक वेतन भोगियों की संख्या 23.4 प्रतिशत थी।
एनसीआरबी की रिपोर्ट में आत्महत्या के आँकड़ों को पेशे के अनुसार 9 वर्गों में विभाजित किया गया था। आत्महत्या करने वाले 97,613 पुरुषों में 29,092 दैनिक वेतनभोगी थे। वहीं, 3,467 वेतनभोगी महिलाओं ने भी 2019 में आत्महत्या की थी। ताज़ा आँकड़े अभी जारी नहीं किये गये हैं लेकिन हालात बता रहे हैं कि मज़दूरों के आत्महत्या में गिरावट आने की उम्मीद बेहद कम है।
कार्यस्थल पर भी आये दिन दुर्घटनाओं का शिकार होकर मज़दूरों की मौत होती रहती है। अधिक दबाव पड़ने पर तत्काल में ठेकेदार मुआवज़े के नाम पर परिजनों को दे देते हैं। यह भी बेहद कम मामलों में देखने को मिलता है। अधिकांश घटनाओं के बाद परिजनों को मज़दूरों के केवल शव ही मिल पाता है।
निर्माण मज़दूरों की दुर्दशा का एक बड़ा कारण मज़दूरों में एकता का अभाव है। किसी क्रांतिकारी नेतृत्व की ग़ैरमौजूदगी में मज़दूर अपनी माँगों को लेकर फिलहाल संघर्ष करने की स्थिति में ही नहीं हैं। आवश्यकता है कि एक क्रांतिकारी यूनियन के बैनर तले मज़दूर ख़ुद को एकजुट करें और स्थानीय स्तर पर मज़दूरों की यूनियन बनायी जाए। बिना संघर्ष के निर्माण मज़दूर अपने हालात को नहीं बदल सकते हैं। संघर्षों के लिए एकजुटता ही एकमात्र उपाय है।
मज़दूर बिगुल, जून 2022
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