बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तीन कविताएँ
कसीदा इन्क़लाबी के लिए
अक्सर वे बहुत अधिक हुआ करते हैं
वे ग़ायब हो जाते, बेहतर होता।
लेकिन वह ग़ायब हो जाये, तो उसकी कमी खलती है।
वह संगठित करता है अपना संघर्ष
मजूरी, चाय-पानी
और राज्यसत्ता की ख़ातिर।
वह पूछता है सम्पत्ति से :
कहाँ से आयी हो तुम?
जहाँ भी ख़ामोशी हो
वह बोलेगा
और जहाँ शोषण का राज हो
और क़िस्मत की बात की जाती हो
वह उँगली उठायेगा।
जहाँ वह मेज़ पर बैठता है
छा जाता है असन्तोष मेज़ पर
ज़ायका बिगड़ जाता है
और कमरा तंग लगने लगता है।
उसे जहाँ भी भगाया जाता है,
विद्रोह साथ जाता है और जहाँ से उसे भगाया जाता है
असन्तोष रह जाता है।
कसीदा द्वन्द्ववाद के लिए
बढ़ती जाती है नाइन्साफ़ी आज सधे क़दमों के साथ।
ज़ालिमों की तैयारी है दस हज़ार साल की।
हिंसा ढाढ़स देती है : जैसा है, रहेगा वैसा ही।
सिवाय हुक्मरानों के किसी की आवाज़ नहीं
और बाज़ार में लूट की चीख़ :
शुरुआत तो अब होनी है।
पर लूटे जाने वालों में से बहुतेरे कहने लगे हैं
जो हम चाहते हैं वो कभी होना नहीं।
गर ज़िन्दा हो अब तलक़, कहो मत : कभी नहीं
जो तय लगता है, वो तय नहीं है।
जैसा है, वैसा नहीं रहेगा।
जब हुक्मरान बोल चुके होंगे
बारी आयेगी हुक्म निभाने वालों की।
किसकी हिम्मत है कहने की : कभी नहीं?
ज़िम्मेदार कौन है, अगर लूट जारी है? हम ख़ुद।
किसकी ज़िम्मेदारी है कि वो ख़त्म हो? ख़ुद हमारी।
जिसे कुचला गया उसे उठ खड़े होना है।
जो हारा, उसे लड़ते रहना है।
अपनी हालत जिसने पहचानी, रोकेगा कौन उसे?
फिर आज जो पस्त हैं कल होगी उनकी जीत
और कभी नहीं के बजाय गूँजेगा : आज अभी।
कसीदा कम्युनिज़्म के लिए
यह तर्कसंगत है, हर कोई इसे समझता है। यह आसान है।
तुम तो शोषक नहीं हो, तुम इसे समझ सकते हो।
यह तुम्हारे लिए अच्छा है, इसके बारे में जानो।
बेवक़ूफ़ इसे बेवक़ूफ़ी कहते हैं और गन्दे लोग इसे गन्दा कहते हैं।
यह गन्दगी के ख़िलाफ़ है और बेवक़ूफ़ी के ख़िलाफ़।
शोषक इसे अपराध कहते हैं।
लेकिन हमें पता है :
यह उनके अपराध का अन्त है।
यह पागलपन नहीं
पागलपन का अन्त है।
यह पहेली नहीं है
बल्कि उसका हल है।
यह तो आसान-सी चीज़ है
जिसे हासिल करना मुश्किल है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022
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