पंजाब में ‘‘आप’’ की सरकार बनने से क्या राज्य की जनता के जीवन में कोई वास्तविक बदलाव आयेगा?
पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने जा रही है। दिल्ली के बाद पंजाब में सत्ता पा जाने के बाद लोग-बाग़ आम आदमी पार्टी को कांग्रेस का स्वाभाविक विकल्प और भाजपा का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बताने में लग गये हैं। क्या केजरीवाल की ‘आप’ के आने के बाद पंजाब का कुछ भला हो पायेगा? यह जानने के लिए हमें पाँच साल इन्तज़ार करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। बल्कि हम ‘आप’ के वर्ग चरित्र और केजरीवाल की नीतियों के पिछले इतिहास से ही यह जान सकते हैं कि इनकी नीयत और नियति क्या है, आइए देखते हैं।
पंजाब में ‘आप’ का सत्ता में आने का सबसे प्रमुख कारण है लोगों का कांग्रेस पार्टी व अकाली दल जैसी जनविरोधी और लुटेरी पार्टियों से बुरी तरह से त्रस्त और ऊबा हुआ होना। इस विकल्पहीनता के बीच केजरीवाल व इनके सिपहसलार राघव चड्डा ने मीडिया को साधकर गोयबल्सीय प्रचार मशीनरी से तथाकथित “दिल्ली मॉडल” के झूठ को इतनी दफ़ा दोहराया कि लोगों को यह सच लगने लगा। राज्य की जनता इसे नये विकल्प के तौर पर देखने लगी। और परिणाम हमारे सामने है। ‘आप’ को राज्य विधानसभा की 117 सीटों में से 92 सीटें प्राप्त हुई हैं। असल में यह आम आदमी पार्टी की जीत से ज़्यादा कांग्रेस-अकाली दलों की हार अधिक है। इसकी एक और बड़ी वजह भी है। कांग्रेस द्वारा चन्नी को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया जाना। चुनाव के बाद हुए तमाम सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी कि पंजाब की जट्ट सिख आबादी और विशेषकर इसके कुलक हिस्से को एक मज़हबी सिख यानी दलित मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं था। नवजोत सिंह सिद्धू को इसी कारक को सन्तुलित करने के लिए कांग्रेस ने अपनी नाव में चढ़ा रखा था लेकिन सिद्धू लगातार उसी नाव में नये-नये छेद बनाने में लगे रहे। ऊपर से ‘आप’ ने अम्बेडकर के नाम को भुनाकर दलित वोट का बड़ा हिस्सा भी चन्नी से छीन लिया, जिस पर ख़ुद दलित आबादी को कांग्रेस की आन्तरिक कलह के कारण भरोसा नहीं हो पा रहा था। ‘आप’ को मिला वोट मूलतः कांग्रेस की पराजय ज़्यादा है और ‘आप’ की जीत कम। कांग्रेस अब अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने की कला में, बल्कि कहना चाहिए कुल्हाड़ी पर पाँव मारने की कला में पूरी तरह से पारंगत हो चुकी है। प्रदेश में विकल्पहीनता, जट्ट सिख आबादी द्वारा चन्नी को अस्वीकार किया जाना और अकाली-कांग्रेस रोटेशन से ऊबी पंजाब की जनता को बहलाने में ‘आप’ कामयाब रही।
‘आप’ की राजनीति और इसकी वर्गीय अन्तर्वस्तु की बात की जाये तो इसमें और बाक़ी पूँजीवादी दलों में कोई भी गुणात्मक फ़र्क़ नहीं है। केजरीवाल की राजनीति पूरी तरह से बुर्जुआ सुधारवाद, एनजीओवाद और थोथी जुमलेबाज़ी पर टिकी हुई है। दिल्ली में भी इन्होंने दिल्ली के ठेकेदारों, प्रॉपर्टी डीलरों, दलालों, बड़े व्यापारियों और धन्नासेठों की ही सेवा की है। ‘आप’ पार्टी छोटे-मँझोले पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करती है। पूँजीवादी व्यवस्था के रक्षक और फ़र्ज़ी विकल्प बन बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा भी ये कर ही रहे हैं। और बड़े-छोटे पूँजीपतियों के बीच कोई शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोध भी तो नहीं है। ‘आप’ को वर्ष 2016-17 में 25 करोड़ रुपये तो वर्ष 2019-20 में 37 करोड़ 52 लाख रुपये चन्दा प्राप्त हुआ था। जिसमें से बड़ा हिस्सा टाटा-बिड़ला-अम्बानी-अदानी जैसे कॉर्पोरेट घरानों के उन्हीं चुनावी ट्रस्टों और कम्पनियों से आया जो भाजपा-कांग्रेस और बाक़ी पूँजीवादी दलों को चन्दा देते हैं। इसके अलावा इन्हें छोटे उद्यमियों से भी बेशुमार चन्दा प्राप्त हुआ। आर्थिक नीतियों के मामले में ‘आप’ पूर्णतः नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीतियों से सहमत है, जो कि दिल्ली में फ़ैक्टरी मालिकों को लेबर डिपार्टमेण्ट और सेल्स टैक्स आदि से मिली छूट में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।
पंजाब की जनता के सामने जिस तथाकथित दिल्ली मॉडल का गुणगान किया गया था वह पूरी तरह से बोगस है। कहाँ हैं वो 500 स्कूल और 20 कॉलेज जिनका वायदा इन्होंने 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान दिल्ली की जनता से किया था? हज़ारों अतिथि अध्यापकों, रोडवेज़ चालकों, कण्डक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों को वायदा करके भी क्यों नहीं पक्का किया गया? 8 लाख नये रोज़गार सृजित करने, दिल्ली सरकार के मातहत ख़ाली पड़े 52,000 पदों की भर्ती करने, ठेकेदारी प्रथा ख़त्म करने और सभी श्रम क़ानूनों को लागू करने के वायदे भी इन्होंने पूरे नहीं किये। हाल ही में चली दिल्ली की 22,000 आँगनवाड़ीकर्मियों की जायज़ हड़ताल को तो केजरीवाल सरकार ने तानाशाहाना अन्दाज़ में कुचलना चाहा। इनकी सरकार ने 38 दिन तक चली हड़ताल के दौरान उनसे बात तक नहीं की और जब भण्डा फूटता दिखायी दिया तो भाजपा के साथ मिलकर दिल्ली के उपराज्यपाल के द्वारा इस जुझारू हड़ताल पर हेस्मा/एस्मा लगवा दिया गया। यही है केजरीवाल के जनवाद की असल तस्वीर! यदि दिल्ली के सरकारी स्कूल इतने ही अच्छे हैं तो केजरीवाल व इनके विधायकों के बच्चे इनमें क्यों नहीं पढ़ते? यदि दिल्ली के अस्पताल और मोहल्ला क्लिनिक इतने ही बेहतर हैं तो अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने प्राइवेट अस्पतालों में लाखों-लाख रुपये क्यों ख़र्च किये? जनता को 200 यूनिट “मुफ़्त बिजली” देने का झुनझुना बजाने वाले केजरीवाल जनता पर करों का बोझ बढ़ाकर निजी बिजली वितरण कम्पनियों का तो एक-एक यूनिट का पैसा चुका ही रहे हैं। दिल्ली में बिजली की सरकारी कम्पनियों को निजी हाथों में देने का श्रेय भी केजरीवाल को ही जाता है।
कुछ मॉडल स्कूल और कुछ मोहल्ला क्लिनिक बनाकर इस गिरोह ने उनका इस्तेमाल फ़र्ज़ी प्रोपेगेण्डा मशीनरी चालू कर अपनी छवि चमकाने के लिए किया और देश की जनता को लगा कि केजरीवाल ने दिल्ली में तो कोई क्रान्ति ही ला दी है! केजरीवाल की दिल्ली सरकार ने मार्च 2020 से जुलाई 2021 के बीच ही अपने फ़र्ज़ी प्रोपेगेण्डा विज्ञापनों पर जनता के 490 करोड़ रुपये फूँक दिये। पिछले सात साल का इनका विज्ञापनों का ख़र्च तो हज़ारों करोड़ में बैठता है। यही है “दिल्ली मॉडल” की असलियत! दिल्ली की आम मेहनतकश जनता के भी हालात वही हैं जो देश की मेहनतकश जनता के हैं। निश्चित तौर पर आम आदमी पार्टी ने जो गुल दिल्ली में खिलाये हैं वही गुल यह पंजाब में खिलाने जा रही है।
सीएए-एनारसी-एनपीआर, कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने और राम मन्दिर जैसे तमाम मसलों पर केजरीवाल पूरी तरह से भाजपा की फ़ासीवादी नीतियों के साथ हैं। भाजपा राम मन्दिर के नाम पर लोगों को ठगती है तो केजरीवाल ने हनुमान को अपना इष्ट घोषित कर दिया। ये लोग जनता के पैसे को तीर्थों की सैर और सरकार की पूरी कैबिनेट के साथ बड़े-बड़े स्टेडियमों में पूजा-पाठ पर फूँक रहे हैं। इनके ये सब करतब हिन्दू वोट बैंक को रिझाने के लिए ही तो हैं। केजरीवाल ने लुधियाना में पंजाब के अन्दर हिन्दुओं पर ख़तरे तक की बात कही। यह साम्प्रदायिक कार्ड खेलना ही तो हुआ। केजरीवाल की पतलून के नीचे झाँक रही भगवा निक्कर को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है! भाजपा की बी टीम बनकर भी पाखण्डी केजरीवाल एण्ड कम्पनी समाजवाद के प्रखर चिन्तक और जुझारू योद्धा भगतसिंह की क्रान्तिकारी विरासत को अपनी कुत्सित पूँजीवादी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने से नहीं चूक रही है।
देश की तरह पंजाब की मेहनतकश जनता की असल मुक्ति भी तभी सम्भव हो सकती है जब उत्पादन और राजकाज पर मेहनतकश वर्गों का ही क़ब्ज़ा हो। हमें अपने हक़-अधिकार संगठित होकर संघर्ष किये बिना बिल्कुल भी हासिल नहीं होंगे। पंजाब की जनता को यह बात समझनी ही होगी कि विकल्पहीनता के दौर में तमाम बुरे विकल्पों में से केजरीवाल का विकल्प भी कोई भला विकल्प नहीं है। उम्मीद है पंजाब के हमारे जुझारू और लड़ाकू भाई-बहन इस सच्चाई को समझेंगे और मेहनतकश जनता की अपनी फ़ौलादी एकजुटता क़ायम करने पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित करेंगे।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2022
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन