‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ के बहाने मोदी ने की पूँजीपतियों के मन की बात
अधिकारों को भूल जायें, चुपचाप “कर्तव्यों” का पालन करें!
– आनन्द
देश की आज़ादी के 75 साल पूरे होने के अवसर पर पिछले कई महीनों से मोदी सरकार गाजे-बाजे के साथ ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मना रही है और अगले 25 सालों के दौरान जी-जान लगाकर मेहनत करने के लिए जनता का आह्वान कर रही है। गत 20 जनवरी को ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव से स्वर्णिम भारत की ओर’ नामक कार्यक्रम के दौरान नरेन्द्र मोदी ने जनता के अधिकारों और कर्तव्यों के सम्बन्ध में कुछ बातें कहीं जो आने वाले दिनों की एक तस्वीर पेश करती हैं। मोदी ने कहा, “हमारे समाज में एक बुराई सबके भीतर घर कर गयी है, अपने कर्तव्यों से विमुख होना, अपने कर्तव्यों को सर्वोपरि न रखना। बीते 75 वर्षों के दौरान लोग केवल अधिकारों की ही बात करते रहे, अधिकारों के लिए लड़ते रहे जूझते रहे और समय भी खपाते रहे। अधिकारों की बात कुछ समय के लिए किसी हद तक किसी परिस्थिति में सही हो सकती है। लेकिन अपने कर्तव्यों को पूरी तरह भूल जाना, इस बात ने भारत को कमज़ोर करने में बहुत बड़ी भूमिका निभायी है। भारत ने अपना बहुत बड़ा समय इसलिए गँवाया क्योंकि कर्तव्यों को प्राथमिकता नहीं दी गयी। इन 75 वर्षों में कर्तव्यों को दूर रखने की वजह से जो खाई पैदा हुई है, सिर्फ़ अधिकारों की बात करने से समाज में जो कमी आयी है उसकी भरपाई हम मिल करके आने वाले 25 वर्षों में कर्तव्य की साधना करके पूरी कर सकते हैं।”
मोदी ने इस बयान में भारत के शासक इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग के मन की बात कही है। भारत के हुक्मरानों का यही मानना है कि इस देश के लोग केवल अधिकारों की बात करते रहते हैं और अपने कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभाते। इसका आशय यह है कि देश की जनता को अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना छोड़कर चुपचाप थैलीशाहों की थैली भरने के कर्तव्य की साधना करना चाहिए क्योंकि भारत को (पढ़िए पूँजीपतियों को!) मज़बूत बनाना है। दूसरे शब्दों में, मज़दूरों को अपने काम के घण्टे, न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम, पीएफ़, ईएसआई और यूनियन बनाने, बोलने और विरोध करने के अधिकारों को भूल जाना चाहिए और बिना चूँ तक किये कारख़ानों में दिन-रात खटने का अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यह बयान दिखाता है कि मुनाफ़े की गिरती दर से परेशान भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए अब देश की जनता को बचे-खुचे अधिकार देना भी भारी पड़ रहा है और वह पूँजी की तानाशाही को ज़्यादा से ज़्यादा नंगे रूप में लागू करने की तैयारी कर रहा है।
मोदी को वैसे भी अपने अधिकारों की बात करने वाले और जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लोग फूटी आँख नहीं सुहाते। कुछ समय पहले मोदी ने ऐसे लोगों को ‘आन्दोलनजीवी’ और परजीवी तक कहा था। मानवाधिकारों से तो मोदी और उनकी पार्टी का छत्तीस का आँकड़ा रहा है। पहले ही देश के तमाम सम्मानित मानवाधिकार कर्मी फ़र्ज़ी आरोपों में सालों से जेलों में सड़ रहे हैं। अपने इस ताज़ा बयान से मोदी ने साफ़ इशारा किया है कि अधिकारों की बात करना ही अपने आप में राष्ट्र-विरोधी काम समझा जायेगा क्योंकि इससे राष्ट्र कमज़ोर होता है।
मोदी के बयान से यह भी स्पष्ट है कि भारत का शासक वर्ग अपने निकम्मेपन का ठीकरा जनता के सिर ही फोड़ना चाह रहा है। यानी अगर देश विकास नहीं कर रहा है तो इसके लिए सरकार नहीं बल्कि ख़ुद जनता ही ज़िम्मेदार है क्योंकि वह अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करती है। ग़ौरतलब है कि जनता के कर्तव्यों की बात अक्सर भारतीय राज्य द्वारा जनता को उसके मूलभूत अधिकार प्रदान करने और संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों को पूरा करने के कर्तव्य को पूरा करने में विफलता को छिपाने के लिए की जाती है। भारतीय संविधान में भी मूलभूत कर्तव्यों के प्रावधान आपातकाल के दौरान कुख्यात 42वें संशोधन के तहत जोड़े गये थे ताकि आज़ादी के समय किये गये वायदों को पूरा न कर पाने के लिए जनता को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सके। मूलभूत कर्तव्यों से सम्बन्धित ये प्रावधान वास्तव में निरंकुश सत्ता के प्रति लोगों में वफ़ादारी की भावना पैदा करने के मक़सद से डाले गये थे। इन्दिरा गाँधी के निरंकुश शासन के दौरान किया गया यह संवैधानिक संशोधन आज भारत के फ़ासिस्ट शासकों के लिए वरदान साबित हो रहा है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक वकील ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है जिसमें मूलभूत कर्तव्यों का पालन करना क़ानूनी रूप से बाध्यताकारी बनाने की बात कही गयी है। न्यायालय ने याचिका को स्वीकार करते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों से जवाब देने के लिए कहा है। याचिकाकर्ता ने याचिका में पूर्व सोवियत संघ और चीन का भी उल्लेख किया है। मूलभूत अधिकारों की बजाय मूलभूत कर्तव्यों पर ज़ोर देने वाले लोग अक्सर इस तथ्य का हवाला देते हैं कि सोवियत संघ के संविधान में भी मूलभूत कर्तव्यों से सम्बन्धित प्रावधान थे। लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सोवियत संघ में मूलभूत कर्तव्यों के प्रावधान से पहले जनता को काम करने के अधिकार, आराम करने के अधिकार, बुज़ुर्गों की बेहतर ज़िन्दगी का अधिकार, सार्वभौमिक और समान शिक्षा का अधिकार, स्त्रियों और पुरुषों की बराबरी का अधिकार आदि जैसे बुनियादी अधिकारों के प्रावधान भी संविधान में मौजूद थे जो केवल संविधान के पन्नों में धूल नहीं फाँक रहे थे बल्कि व्यवहार में भी लोगों को ये अधिकार वास्तव में मिले थे। सोवियत संघ की समाजवादी सत्ता ने महज़ तीन दशकों के भीतर ही ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, वेश्यावृत्ति आदि जैसी समस्याओं का समाधान करके दिखाया था। जबकि भारतीय संविधान नागरिकों को उनके बेहद बुनियादी हक़ों, मसलन काम करने का अधिकार, भोजन का अधिकार, आवास का अधिकार, समान और निःशुल्क शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, काम करने की मानवोचित परिस्थितियों के अधिकार आदि की भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता है। ऐसा राज्य जो नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की गारण्टी लेता हो, जो जनता से दूर उस पर हुकूमत करने की बजाय उसकी प्रत्यक्ष भागीदारी से शासन-प्रशासन की गतिविधियाँ चलाता हो, यदि नागरिकों से मूलभूत कर्तव्यों का पालन करने का आग्रह करता है तो बात समझ में आती है। परन्तु एक ऐसे राज्य को नागरिकों से उनके मूलभूत कर्तव्यों का पालन करने की अपेक्षा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है जो स्वयं जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी से मुकर गया है। ऐसी राज्यसत्ता जो जनता की बुनियादी ज़रूरतों तक को पूरा करने के अपने कर्तव्य को पूरा नहीं करती अगर जनता से अपने मूलभूत कर्तव्य को पूरा करने की उम्मीद करे तो इसे प्रहसन ही कहा जायेगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2022
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