बेरोज़गारी के भयंकर होते हालात और रेलवे के अभ्यर्थी छात्रों का आन्दोलन
– वारुणी
बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में रेलवे के एन.टी.पी.सी. के अभ्यार्थी आन्दोलनरत हैं। ज्ञात हो 24 जनवरी को बिहार के पटना, आरा व दरभंगा ज़िले में हज़ारों छात्रों ने बड़े स्तर पर रेल रोको आन्दोलन किया। उसके बाद से यह आन्दोलन अन्य राज्यों में भी फैल गया! लेकिन चूँकि मुख्य रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश के ही छात्रों ने एन.टी.पी.सी. का फ़ॉर्म भरा था, तो ख़ासकर इन राज्यों में छात्रों का आन्दोलन उग्र होता गया। 24 जनवरी को राजेन्द्र नगर टर्मिनल पर और आरा स्टेशन पर क़रीब 7 घण्टे तक छात्रों ने रेलवे को जाम कर दिया। उसके अगले ही दिन पटना में भिखना पहाड़ी, इसके अलावा जहानाबाद, गया, नवादा, नालन्दा, व अन्य कई ज़िलों में छात्रों ने हज़ारों की संख्या में प्रदर्शन किया। बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस आदि जगहों पर भी छात्रों ने अपनी आवाज़ उठायी! इसमें कई जगहों पर आन्दोलन ने हिंसक रूप ले लिया। जहानाबाद में एक ट्रेन को भी आग लगा दी गयी! दूसरी तरफ़ प्रशासन व सरकार द्वारा इस आन्दोलन को रोकने के लिए छात्रों पर बर्बर तरीक़े से लाठीचार्ज किया गया व आँसू गैस के गोले दाग़े गये! कई जगह तो खुलेआम गोलियाँ चलायी गयीं! योगी सरकार के गुण्डा राज में तो यू.पी. पुलिस द्वारा छात्रों को लॉज में से घुसकर निकाला जा रहा था और बेरहमी से पीटा जा रहा था। कई छात्रों को सिर्फ़ शक के आधार पर हिरासत में ले लिया गया! इस आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी! रेलवे बोर्ड ने आन्दोलन में शामिल छात्रों के सम्बन्ध में यह प्रपत्र जारी किया कि जो भी आन्दोलन करते हुए दोषी पाये जायेंगे, उनको ताउम्र रेलवे में नौकरी नहीं मिलेगी! कई कोचिंग संस्थानों के शिक्षकों पर प्राथमिकी दर्ज की गयी है व कई छात्रों को हिरासत में लिया गया है!
छात्रों का यह आन्दोलन उग्र होने का कारण था रेलवे के एन.टी.पी.सी. परीक्षा के परिणामों में बड़े स्तर पर धाँधली! लेकिन सिर्फ़ यहीं तक बात सीमित नहीं है! छात्रों के अन्दर यह रोष क्यों बढ़ता गया इसकी जड़ में सिर्फ़ एन.टी.पी.सी. के पेपर में धाँधली नहीं है। ज्ञात हो कि रेलवे में 2019 में ठीक लोकसभा चुनाव के वक़्त एन.टी.पी.सी. के माध्यम से 35,308 पद के लिए और रेलवे के ही ग्रुप ‘डी’ के लिए लगभग एक लाख तीन हज़ार पदों की रिक्ति निकाली गयी थी। फ़रवरी-मार्च में छात्रों ने इसका फ़ॉर्म भरा। अप्रैल-मई में नयी सरकार बन गयी। जुलाई तक परीक्षा लेने की सम्भावित तारीख़ दी गयी थी लेकिन साल 2019 में परीक्षा नहीं ली गयी। 2019 में एन.टी.पी.सी. में निकली क़रीब 35 हज़ार पोस्ट की रिक्ति के लिए क़रीब 2.5 करोड़ छात्रों ने फ़ॉर्म भरे थे! रेलवे में जूनियर क्लर्क, ट्रेन सहायक, गार्ड, टाइम-कीपर से लेकर स्टेशन मास्टर तक की विभिन्न श्रेणियों में एन.टी.पी.सी. के तहत भर्ती होती है। इन विभिन्न श्रेणियों में नौकरी पाने के लिए दो स्तरीय परीक्षा देनी होती है, पहला सी.बी.टी-1 और दूसरा सी.बी.टी-2। एन.टी.पी.सी. ने पहले ही यह नोटिस निकाला था कि जितनी पोस्ट हैं, उससे 20 गुना ज़्यादा लोगो को सी.बी.टी-2 के लिए चुना जायेगा यानी कि क़रीब 7 लाख लोगों को! उसके बाद 2021 के अप्रैल माह में परीक्षा ली गयी और जब परिणाम निकले तब पता चला कि एक ही छात्र को 4-5 अलग पदों पर चुन लिया गया है जिससे कि प्रतीत तो ऐसा हो रहा है कि 7 लाख लोगों का रिज़ल्ट आया है लेकिन असल में रेलवे बोर्ड ने मात्र 10 गुना रिज़ल्ट दिया है! साफ़ है कि एक ही छात्र को अलग-अलग श्रेणियों में 4-5 पदों पर दोहराया गया है, ऐसे में जब वह छात्र सारे पदों में उत्तीर्ण हो जायेगा, तो रेलवे उसे उन पाँचों पोस्ट पर तो नौकरी नहीं देगा! इसका साफ़ मतलब है कि कई सारे पद ख़ाली रह जायेंगे! और कई छात्रों को सीट ख़ाली होते हुए भी नौकरी नहीं मिलेगी! छात्रों का इस बात को लेकर ग़ुस्सा जायज़ है! हालाँकि रेलवे द्वारा यह अधिसूचना जारी करना कि सी.बी.टी-1 में 20 गुना ज़्यादा रिज़ल्ट दिया जायेगा, यह भी सरकार का एक छलावा ही है ताकि छात्र इस भ्रम में जीते रहें कि सी.बी.टी.-1 पास करने का अर्थ है कि अगर अगली बार वो और कोशिश किये तो उन्हें देर-सवेर नौकरी मिल ही जायेगी! असल में 20 गुना ज़्यादा रिज़ल्ट निकालने से भी सभी उत्तीर्ण अभ्यार्थियों को नौकरी नहीं मिलती क्योंकि पदों की संख्या ही उतनी नहीं थी!
इस आन्दोलन के उठान का दूसरा कारण था रेलवे के ही ग्रुप ‘डी’ की परीक्षाएँ जो पहले एक ही स्तर की होती थीं, अब उनको अचानक दो स्तर में विभाजित कर दिया गया। 2019 में रेलवे के ग्रुप ‘डी’ में 3 लाख पदों पर रिक्ति निकालने की बात मोदी सरकार ने की थी लेकिन तीन साल बीत गये पर कोई परीक्षा की तारीख़ नहीं निकाली गयी। कोरोना के नाम पर सारी परीक्षाओं को स्थगित कर दिया गया। अब जबकि तीन साल बाद परीक्षा की तारीख़ें निकली तो एक नये प्रपत्र के साथ, जिसमें दो स्तर पर परीक्षा करवाने की बात की गयी थी। जो छात्र फ़ॉर्म भरकर एक परीक्षा की तैयारी में लगे थे अब उनको अचानक से दो स्तर पर परीक्षा देने की बात ग़लत लगी। साफ़ है यदि यह नोटिस फ़ॉर्म भरने से पहले निकाला गया होता तो छात्रों में इतना रोष नहीं होता। लेकिन दो स्तर पर परीक्षा करवाने का नोटिस सरकार तभी लायी जब सारे फ़ॉर्म भरे जा चुके थे। इससे ज़ाहिर होता है कि जितने पद ख़ाली थे, उससे कहीं ज़्यादा छात्रों ने फ़ॉर्म भरे थे और यदि पदों की संख्या से ज़्यादा छात्र कट ऑफ़ में नाम ले आते तो सरकार के लिए यह दिक़्क़ततलब बात होती! इसलिए इतनी संख्या में फ़ॉर्म जमा होता देख रेलवे बोर्ड ने दो स्तर पर परीक्षा लेने का तुग़लक़ी फ़रमान जारी कर दिया! लोकसभा चुनाव के वक़्त एन.टी.पी.सी. और ग्रुप ‘डी’ में निकली ‘बम्पर’ वेकेंसी को मोदी सरकार की उपलब्धि के रूप में अख़बारों में छापा गया था परन्तु दूसरी तरफ़ मोदी सरकार के ही अनियोजित लॉकडाउन के कारण लाखों लोगों के छिनते रोज़गार पर कोई मीडिया बात नहीं कर रही थी। इसी लॉकडाउन के दौरान बेरोज़गारी के भयंकर होते हालात का नतीजा था कि रेलवे के इन पदों के लिए बड़ी संख्या में नौजवानों ने आवेदन किया। बेरोज़गारी की हालत से परेशान छात्र रेलवे बोर्ड की नीति को कोस रहे हैं!
छात्रों का यह ग़ुस्सा निकलना लाज़िमी था। ज्ञात हो एन.टी.पी.सी. और रेलवे के ग्रुप ‘डी’ जैसे फ़ॉर्म निम्न-मध्य वर्ग या मेहनतकश वर्ग से आने वाली एक बड़ी आबादी ही भर्ती है। इनमें से ज़्यादातर पद पर फ़ील्ड वर्क का काम होता है और बहुत ज़्यादा योग्यता की माँग नहीं की जाती। कई पदों पर न्यूनतम योग्यता की शर्त 12वीं कक्षा पास होना है। इसलिए इनमें आवेदन करने वाले ज़्यादातर छात्र मज़दूर या निम्न-मध्य वर्ग की पृष्ठभूमि से आते हैं! इनमें से ज़्यादातर या तो 12वीं करके या फिर आई.टी.आई. या पॉलिटेक्निक करके प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने में लग जाते हैं! तैयारी में ये नौजवान अपनी पूरी उम्र खपा देते हैं लेकिन कइयों को सिर्फ़ सड़कों पर धक्के खाना ही नसीब होता है! कई छात्र निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं! कई ऐसे होते है जो थक हारकर कहीं किसी फ़ैक्टरी में कुशल या अर्ध कुशल मज़दूर की तरह खटते हैं! ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में धाँधली हुई हो! यह लगभग हर बार की दास्तान है! रिक्ति निकलने से लेकर फ़ॉर्म भरने, परीक्षा देने, परिणाम आने और नियुक्ति होने तक कभी 8 तो कभी-कभी 10 साल से ऊपर भी लग जाते हैं! एक तरफ़ भर्ती करने से लेकर नियुक्ति की प्रक्रिया में इतनी अनियमितता है तो दूसरी तरफ़ सरकारी नौकरियों में ही कटौती की जा रही है! सातवें वेतन आयोग के आँकड़ों के मुताबिक़ 1995 में केन्द्र सरकार के अलग-अलग विभागों में (सैन्य बलों को छोड़कर) कुल नौकरी करने वालों की संख्या 39 लाख 82 हज़ार थी, वह 2011 में घटकर 30 लाख 87 हज़ार पर आ गयी। एसएससी-सीजीएल के लिए 2012 की तुलना में 2020 में केवल 40 प्रतिशत भर्तियाँ बची हैं। आईबीएसपी-पीओ में 2012 की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत भर्तियाँ बची हैं। फ़ासीवादी मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी भर्तियों में तो और कमी आयी है। 2014-15 में देशभर में कुल 1,13,524 सरकारी भर्तियाँ हुईं तथा पब्लिक सेक्टर में कुल 16.91 लाख लोग कार्यरत थे, वह 2016-17 में घटकर एक लाख और 15.23 लाख पहुँच गयीं।
जो भी बचे खुचे पद हैं, उनमें भी अब ज़्यादातर लोगों को ठेके पर बहाल किया जा रहा है और स्थायी प्रकृति का काम होते हुए भी स्थायी नियुक्ति नहीं दी जा रही। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी (सी.एम.आई.ई.) की रिपोर्ट के अनुसार 75 प्रतिशत से अधिक कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है। दूसरी तरफ़ उदारीकरण-निजीकरण की मुहिम जो कि कांग्रेस के कार्यकाल से शुरू हुई थी उन्हीं नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से आगे बढ़ाने का काम मोदी सरकार ने किया है। इन्हीं नीतियों के आने के बाद से युवाओं के लिए सरकारी नौकरियों के अवसर कम होने लगे। और जिस प्रकार मोदी सरकार एक-एक करके सरकारी नौकरियों में कटौती कर रही है और बचे-खुचे सरकारी विभागों को औने-पौने दामों में पूँजीपतियों को बेच रही है, इससे साफ़ है कि आने वाले दिनों में रोज़गार का यह संकट और गहराने वाला है। सरकारी और स्थायी नौकरियाँ कम होने वाली हैं और इसकी जगह ठेका, संविदा और पीस रेट लेने वाला है। मतलब साफ़ है कि अब काम की कोई गारण्टी नहीं होगी।
वैसे ही कोरोना काल की पहली लहर में अनियोजित लॉकडाउन के कारण लगभग 12 करोड़ नौजवानों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। जिनकी नौकरी बची भी रही, उन्हें कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया गया। यह सिलसिला अभी तक चल ही रहा है! मोदी सरकार जो ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘स्टार्ट अप इण्डिया’ जैसे जुमलों का ख़ूब गुब्बारा फुलाया करती थी, उसकी सच्चाई यह है कि देश का हर पाँचवा डिग्री होल्डर रोज़गार के लिए भटक रहा है। देश में ग्रेजुएट बेरोज़गारों की तादाद सवा करोड़ के ऊपर पहुँच चुकी है। अण्डर ग्रेजुएट नौजवानों में औसत बेरोज़गारी की दर 24.5 प्रतिशत पहुँच चुकी है। मतलब यह कि देश का हर चौथा डिग्रीधारी बेरोज़गार है। वहीं 21-24 साल के नौजवानों में यह स्थिति और भी गम्भीर है। इस आयु वर्ग का हर दूसरा नौजवान स्नातक की डिग्री लिये बेरोज़गार घूम रहा है। सी.एम.आई.ई. ने दावा किया है कि 2021 के अगस्त में देश में 15 लाख से अधिक लोगों ने अपनी नौकरी खो दी। इसी रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 2021 के दिसम्बर में शहरी बेरोज़गारी दर बढ़कर 9.3 प्रतिशत हो गयी, जो पिछले महीने में 8.2 प्रतिशत थी, जबकि ग्रामीण बेरोज़गारी दर 6.4 प्रतिशत से बढ़ कर 7.3 प्रतिशत हो गयी।
हर बार की तरह इस बार भी संघी फ़ासीवादियों द्वारा नौजवानों को हिन्दू-मुस्लिम-गाय-पाकिस्तान-चीन आदि में उलझाने की कोशिश तो की गयी परन्तु वे नाकामयाब रहे। इस बार बड़े स्तर पर छात्रों का ग़ुस्सा सड़कों पर हुजूम की तरह बह निकला लेकिन इस आन्दोलन को जल्द ही शान्त करवाने के लिए सरकार ने एक जाँच कमेटी बैठाने की घोषणा कर दी। परन्तु हमें यह समझना होगा कि यह छात्रों को सिर्फ़ एक झुनझुना पकड़ा दिया गया है। इस कमेटी की रिपोर्ट कब आयेगी, कब संशोधित परिणाम जारी किये जायेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं! आज सरकारी नौकरी में घटते अवसर, सरकारी पदों पर नियुक्ति में अनियमितता और प्रतियोगी परीक्षाओं में धाँधलियों का यह सिलसिला इसलिए जारी है क्योंकि छात्र-मज़दूर विरोधी यह फ़ासीवादी मोदी सरकार निजीकरण जैसी नीतियों को खुलेआम लागू कर रही है। इसलिए आज अपने विशिष्ट मुद्दों तक छात्रों के इस आन्दोलन को सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि इस आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए सरकार पर यह दबाव बनाना चाहिए कि वह निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों पर रोक लगाये। जब तक हम इस माँग को नहीं उठायेंगे तब तक परीक्षाओं में धाँधली, सरकारी पदों में कटौती, नियुक्ति की प्रक्रिया में अनियमितता – यह सब बदस्तूर जारी रहेगा! उदारीकरण-निजीकरण की यह नीतियाँ इस पूँजीवादी व्यवस्था की ही देन हैं! और बुर्जुआ वर्ग की तमाम पार्टियाँ चाहे वह कोई भी पार्टी हो, सत्ता में आने पर इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ायेंगे। इसलिए हमें इस भ्रम में भी नहीं जीना चाहिए कि यदि कोई और पार्टी की सरकार बनी तो शायद कुछ बदलाव हो। पूँजीवादी व्यवस्था की यही गति है। इस पूँजीवादी व्यवस्था में सभी को सम्मानजनक रोज़गार के अवसर मिल पाना नामुमकिन है।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2022
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