तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल
उपलब्धियाँ और सबक़ (पहली क़िस्त)

– आनन्द सिंह

महान जन चित्रकार चित्तप्रसाद का वुडकट प्रिंट – तेलंगाना

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चले तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष (तेलुगु में ‘तेलंगाना रैतुंगा सायुध पोराटम’) की शानदार विरासत को भारत के हुक्मरानों द्वारा साज़िशाना ढंग से छिपा देने की वजह से देश के अन्य हिस्सों में आमजन तेलंगाना के किसानों और मेहनतकशों की इस बहादुराना बग़ावत से अनजान हैं, हालाँकि तेलंगाना में यह शौर्यगाथा लोकसंस्कृति के तमाम रूपों में जनमानस के बीच आज भी ज़िन्दा है। दोड्डी कोमरैय्या और चाकलि ऐलम्मा जैसे किसान विद्रोहियों की गिनती तेलंगाना के नायकों और नायिकाओं में होती है। इस शानदार संघर्ष पर तेलुगू में कई फ़िल्में भी बन चुकी हैं जिनमें कृष्ण चन्दर के हिन्दी उपन्यास ‘जब खेत जागे’ पर आधारित और गौतम घोष के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘मा भूमि’ (हमारी ज़मीन) सबसे बेहतरीन है।
तेलंगाना के किसानों के इस वीरतापूर्ण संघर्ष की शुरुआत के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर उसकी शानदार विरासत, उसकी उपलब्धियों और उससे निकलने वाले सबक़ से पाठकों को परिचित कराने के मक़सद से हम ‘मज़दूर बिगुल’ में एक विशेष लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जो जगह की सीमा को देखते हुए दो क़िस्तों में प्रकाशित किया जायेगा। पहली क़िस्त में हम तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष की पृष्ठभूमि, उसकी शुरुआत, निज़ाम की रियासत द्वारा उसके दमन के बावजूद उसके अग्रवर्ती विकास की चर्चा करेंगे। दूसरी क़िस्त में हम देखेंगे कि कैसे हैदराबाद रियासत के भारत में विलय के बाद भारत की बुर्जुआ राज्यसत्ता द्वारा तेलंगाना संघर्ष को फ़ौज के सहारे कुचल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद किसानों का सशस्त्र संघर्ष 3 वर्षों तक जारी रहा और किस प्रकार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने इस दौरान वाम और दक्षिणपन्थी विचलन के बीच झूलते हुए अन्तत: निहायत ही शर्मनाक ढंग से भारत की बुर्जुआ सत्ता के सम्मुख बिना शर्त आत्मसमर्पण करते हुए इस ऐतिहासिक संघर्ष को वापस ले लिया और उसके साथ ही साथ हम उस संघर्ष की उपलब्धियों, उससे निकलने वाले सबक़ और आज के दौर में उसकी प्रासंगिकता की चर्चा करेंगे। इस लेख में कई तथ्य पी. सुन्दरैय्या की किताब ‘तेलंगाना पीपल्स स्ट्रगल एण्ड इट्स लेसन्स’ से लिये गये हैं, हालाँकि हमारा विश्लेषण बिल्कुल अलग है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारत से ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने अगर आनन-फ़ानन में वापस जाने का फ़ैसला किया तो इसकी सबसे बड़ी वजह उस समय देश की विस्फोटक परिस्थितियाँ थीं। आज़ाद हिन्द फ़ौज के अधिकारियों पर मुक़दमे के बाद पूरे देश में ज़बर्दस्त आक्रोश, नौसेना में बग़ावत, तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष, तेभागा व पुनप्रा-वायलार में किसान विद्रोह, देश के विभिन्न हिस्सों में मज़दूरों के जुझारू आन्दोलन जैसी घटनाओं ने अंग्रेज़ों को यह यक़ीन दिला दिया था कि अब भारत पर शासन करना उनके बस में नहीं है। लेकिन विडम्बना यह है कि देश की आज़ादी के ठीक पहले घटी इन ऐतिहासिक घटनाओं की चर्चा इतिहास की किताबों में नहीं के बराबर मिलती है। आज़ादी के बाद सत्ता में आये भारतीय बुर्जुआ वर्ग के नुमाइन्दों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत भारत की जनता की इन शौर्य गाथाओं को विस्मृति के अँधेरे में डाल दिया ताकि लोग हुक्मरानों की जनद्रोही हरकतों से अनजान रहें। इनमें से तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष सबसे अहम और बेमिसाल था क्योंकि यह बहादुराना संघर्ष आज़ादी मिलने के बाद भी 4 वर्षों तक जारी रहा और उसने न सिर्फ़ हैदराबाद के निज़ाम की क्रूर निरंकुश सामन्ती सत्ता का बल्कि आज़ाद भारत की बेरहम बुर्जुआ सत्ता का भी घोर जनविरोधी चरित्र सबके सामने उभार कर रख दिया था।
तेलंगाना किसान संघर्ष कई चरणों से होकर गुज़रा था। शुरुआत में जागीरदारों, देशमुखों और ज़मीन्दारों के बढ़ते ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ किसानों की कुछ माँगों को लेकर शुरू हुआ आन्दोलन देखते ही देखते हैदराबाद के निज़ाम की निरंकुश सामन्ती सत्ता के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया। निज़ाम की पुलिस, फ़ौज और रज़ाकार नामक इस्लामिक कट्टरपन्थी सेना द्वारा बर्बर दमन की कोशिशों के बावजूद इस सशस्त्र संघर्ष की आग बुझने की बजाय नये-नये इलाक़ों में फैलती चली गयी। सितम्बर 1948 में भारतीय सेना ने हैदराबाद को भारतीय यूनियन में मिलाने के बाद किसान विद्रोह का दमन शुरू कर दिया जिसकी वजह से संघर्ष का एक नया दौर शुरू हो गया। निज़ाम के सशस्त्र बलों को धूल चटाने वाले बहादुर कम्युनिस्ट और किसान लड़ाकों ने ताक़तवर भारतीय सेना से भी जमकर मुक़ाबला किया और अन्त तक हार नहीं मानी, भले ही उनके नेतृत्व ने शर्मनाक ढंग से आत्मसमर्पण कर दिया। इस संघर्ष के विराट स्वरूप का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके दौरान तेलंगाना के 16 हज़ार वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में 3 हज़ार गाँवों में रहने वाली क़रीब 30 लाख की आबादी ने सामन्ती भूस्वामियों को उनके महलनुमा घरों (गडी) से शहरों की ओर खदेड़कर ख़ुद को क्रान्तिकारी ग्राम राज्यों में संगठित कर लिया था। इस संघर्ष का केन्द्र तेलंगाना के नालगोण्डा, वारंगल और खम्मम ज़िलों में था, हालाँकि तेलंगाना के कई अन्य ज़िले भी इसकी चपेट में आ चुके थे। जन कमेटियों की निगरानी में क़रीब 10 लाख एकड़ की ज़मीन किसानों के बीच बाँटी गयी थी। वेट्टी (जबरिया श्रम व्यवस्था) का ख़ात्मा कर दिया गया था, खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ा दिया गया था और न्यूनतम मज़दूरी को सख़्ती से लागू किया जाता था। इस संघर्ष के दौरान क़रीब 4 हज़ार कम्युनिस्ट और किसान विद्रोहियों ने जान गँवायी और क़रीब 10 हज़ार विद्रोहियों को 3 से 4 साल तक जेल में रहना पड़ा था।

निज़ाम का निरंकुश सामन्ती शासन और किसानों व मेहनतकशों की बदहाली

तेलंगाना किसान सशस्त्र विद्रोह जिस क्षेत्र में हुआ वह हैदराबाद रियासत के अन्तर्गत आता था जो भारत की आज़ादी के समय मौजूद 565 रियासतों में सबसे बड़ी थी। इस रियासत की स्थापना मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य के विघटन के दौर में दक्कन क्षेत्र में मुग़लों के सूबेदार मीर क़मरुद्दीन ख़ान (आसफ़ जाह) ने 1724 में की थी। चूँकि आसफ़ जाह ने निज़ाम-उल-मुल्क की उपाधि ली थी जिसकी वजह से इस रियासत को निज़ामशाही के नाम से जाना जाता है। निज़ामों ने मराठाओं के साथ संघर्ष किया और दक्षिण भारत के बड़े हिस्से पर अपना क़ब्ज़ा जमाया तथा भारत में अंग्रेज़ों का प्रभुत्व स्थापित होने के बाद उनकी मातहती को स्वीकार करके अपनी निरंकुश सामन्ती सत्ता को क़ायम रखा। तेलंगाना विद्रोह के समय हैदराबाद की रियासत में तीन भाषायी क्षेत्र थे, जिनमें क़रीब 50 फ़ीसदी क्षेत्र आज के तेलंगाना में आता था जिसमें 8 तेलुगु भाषी ज़िले और हैदराबाद शहर शामिल थे, 28 फ़ीसदी क्षेत्र मराठवाड़ा में आता था जिसमें 5 मराठी भाषी ज़िले शामिल थे और 22 फ़ीसदी क्षेत्र कर्नाटक में आता था जिसमें 3 कन्नड़ भाषी ज़िले शामिल थे।
तेलंगाना संघर्ष के समय हैदराबाद की रियासत के क़रीब 5 करोड़ 30 लाख एकड़ की ज़मीन के 60 फ़ीसदी हिस्से पर राज्य सरकार की भूराजस्व व्यवस्था (दीवानी या ख़ालसा) लागू थी। इन इलाक़ों में रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत सरकारी अधिकारी कर वसूलते थे। इस कर वसूली में देशमुख, सरदेशमुख, देशपाण्डे, देसाई और सरदेसाई जैसी उपाधि वाले बिचौलियों की अहम भूमिका होती थी। इन बिचौलियों ने किसानों से धोखाधड़ी करके उनकी हज़ारों एकड़ ज़मीन हड़पकर अपनी सम्पत्ति बना ली थी और किसानों को काश्तकार के रूप में तब्दील कर दिया था। इस प्रकार के भूस्वामी अधिकांशत: रेड्डी और वेलमा जातियों से आते थे। इन भूस्वामियों ने कितने बड़े पैमाने पर ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया था इसका अन्दाज़ा इसी से लग जाता है कि तेलंगाना संघर्ष से पहले जन्नारेड्डी प्रताप रेड्डी परिवार जैसे भूस्वामी हुआ करते थे जिनके पास डेढ़ लाख एकड़ तक की ज़मीन का मालिकाना हुआ करता था और उनके पास 750 एकड़ ज़मीन पर आम का बाग़ हुआ करता था।
हैदराबाद रियासत की ज़मीन के तीस फ़ीसदी हिस्से पर जागीरदारी व्यवस्था क़ायम थी। आसफ़ जाही निज़ाम अपने विश्वासपात्रों (जिनमें मुसलमान और हिन्दू दोनों शामिल थे) को फ़ौजी एवं अन्य सेवाओं के बदले जागीरों के रूप में कुछ गाँवों में भूराजस्व वसूलने का अधिकार दिया करते थे। समय बीतने के साथ ही ये जागीरें ख़ानदानी होने लगीं। जागीरदारों को कुछ प्रकार के कर वसूलने का भी अधिकार था और वे पुलिस एवं न्यायिक कार्यों को भी अंजाम देते थे। जागीरदारों के अतिरिक्त गाँवों में कुछ पारम्परिक हिन्दू शासक भी हुआ करते थे जो निज़ाम के दौर से पहले से उन इलाक़ों की शासन व्यवस्था का हिस्सा थे। ऐसे भूस्वामियों को संस्थानम कहा जाता था और निज़ाम ने वार्षिक पेशगी के बदले उन्हें मान्यता प्रदान की थी। रियासत की ज़मीन के क़रीब दस फ़ीसदी हिस्से पर निज़ाम की निजी मिल्कियत थी जिसे सर्फ़ ख़ास कहा जाता था। इस ज़मीन से निज़ाम को हर साल तक़रीबन 2 करोड़ रुपये की सालाना आमदनी होती थी जो उसके और उसके परिवार की विलासिता में ख़र्च होता था। इसके अलावा निज़ाम को क़रीब 70 लाख रुपये की अतिरिक्त राशि रियासत के ख़ज़ाने से दी जाती थी।
हैदराबाद की रियासत में ख़ास तौर पर जागीरदारी और ख़ालसा के इलाक़ों में किसानों का ज़बर्दस्त शोषण और उत्पीड़न होता था। किसानों को उन्हीं की ज़मीन से बेदख़ल करके उन्हें काश्तकार बनाना आम बात थी। ख़ासतौर पर तेलंगाना के इलाक़े में भूस्वामियों का आतंक अपने चरम पर था। इसी इलाक़े में कुख्यात वेट्टी प्रथा प्रचलित थी जिसके तहत सभी जातियों और पेशों के लोगों को भूस्वामियों के यहाँ मुफ़्त सेवाएँ देनी पड़ती थी। हर दलित मज़दूर परिवार से कम से कम एक व्यक्ति को वेट्टी के लिए भेजना होता था। चमड़े का काम करने वाले मादिगा जाति के लोगों को जूते और बैग जैसे चमड़े के सामान भूस्वामियों को मुफ़्त में देने होते थे। इसी प्रकार बढ़ई, लोहार, नाई, धोबी, ताड़ी निकालने जैसे पेशों में लगे लोगों को भूस्वामियों को मुफ़्त में सेवाएँ देनी पड़ती थीं। जब राजस्व, पुलिस, वन, एक्साइज़ व अन्य विभागों से अधिकारी गाँव का दौरा करते थे तो ग्रामवासियों को उनको भी मुफ़्त में सेवाएँ देनी पड़ती थीं। इसी प्रकार वारंगल और नालगोण्डा इलाक़ों में आदिवासी भगेला प्रथा के तहत भूस्वामियों के यहाँ क़र्ज़ के बदले पीढ़ी-दर-पीढ़ी विभिन्न प्रकार की सेवाएँ देनी पड़ती थीं। सबसे बुरी स्थिति महिलाओं की थी। तमाम लड़कियों को भूस्वामियों के घर पर दासी के रूप में रहना पड़ता था। जो महिलाएँ भूस्वामियों के खेतों में काम करती थीं उन्हें पूरी तरह से भूस्वामियों के रहमोकरम पर रहना होता था। खेत में काम करते समय वे अपने बच्चों को दूध तक नहीं पिला सकती थीं। भूस्वामियों को महिलाओं का यौन शोषण करने का पूरा अधिकार प्राप्त था।
हालाँकि हैदराबाद की रियासत में केवल 12 फ़ीसदी लोग ही उर्दूभाषी थे जो हैदराबाद शहर में रहते थे और शेष 88 फ़ीसदी लोग तेलुगु, मराठी और कन्नड़ बोलने वाले लोग थे, लेकिन स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम केवल उर्दू होता था जिसकी वजह से ग़ैर उर्दूभाषी अधिकांश आबादी को शिक्षा के कोई अवसर उपलब्ध नहीं थे। महिलाएँ तो शिक्षा के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं। इसी वजह से साक्षरता की दर मात्र 6 फ़ीसदी थी। शासन-प्रशासन का काम भी केवल उर्दू में हुआ करता था। पहले विश्वयुद्ध के समय हैदराबाद में तेलुगु, मराठी और कन्नड़ भाषाओं में एक भी अख़बार नहीं हुआ करता था। इस प्रकार हैदराबाद रियासत की बहुसंख्यक आबादी को न सिर्फ़ आर्थिक रूप से शोषण और उत्पीड़न झेलना पड़ता था बल्कि भाषायी और सांस्कृतिक भेदभाव व उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता था।
इसके अलावा तेलंगाना के क्षेत्र में उस समय क़रीब 500 कारख़ाने भी हुआ करते थे जिनमें लगभग 28 हज़ार मज़दूर काम किया करते थे। ये कारख़ाने टेक्सटाइल्स, खनन, काग़ज़, इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में थे और उनके मालिकों को निज़ाम की सत्ता भारी पैमाने पर सब्सिडी और बेहद सस्ती दर पर क़र्ज़ देती थी। मज़दूरों को अधिकतम 15 रुपये प्रति माह मज़दूरी मिलती थी। सरकारी विभागों में क़रीब दो लाख मुस्लिम काम करते थे क्योंकि निज़ाम ‘अन्नल मुल्की’ (मुस्लिम शासक हैं) के तहत प्रशासन के कामों में मुस्लिमों को वरीयता देता था। हालाँकि इन कर्मचारियों की तनख़्वाह भी अधिकतम 30 रुपये प्रतिमाह हुआ करती थी। बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी क़ालीन बनाने, कपड़े पर छपाई, हैण्डलूम आदि जैसे काम करके बड़ी मुश्किल से अपना गुज़ारा करती थी। ग़ौर करने वाली बात यह है कि निज़ाम के ख़िलाफ़ बग़ावत में बड़ी संख्या में मुस्लिम मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों और मध्यवर्ग के प्रगतिशील मुस्लिमों ने भी हिस्सा लिया था।

तेलंगाना में आन्ध्र महासभा का उभार

ग़ौरतलब है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी ने अपना समझौतावादी रुख़ दिखाते हुए हैदराबाद जैसी रियासतों के राजे-रजवाड़ों के ख़िलाफ़ वहाँ की आबादी को एकजुट, लामबन्द और संगठनबद्ध करने में लम्बे समय तक कोई पहल नहीं की। हैदराबाद में निज़ाम की निरंकुश सत्ता से कुछ नागरिक अधिकारों व प्रशासनिक सुधारों की माँग के साथ 1928 में तेलंगाना के इलाक़े में श्री माडपाटि हनुमन्त राव के नेतृत्व में कुछ बुद्धिजीवियों ने आन्ध्र महासभा नामक संगठन की स्थापना की। इसी तर्ज़ पर मराठी भाषी क्षेत्रों में महाराष्ट्र परिषद और कन्नड़ भाषी क्षेत्रों में कन्नड़ परिषद की भी स्थापना की गयी।
हालाँकि आन्ध्र महासभा की शुरुआत महज़ प्रस्ताव पास करने वाले और आवेदन करने वाले एक सुधारवादी संगठन के रूप में हुई, परन्तु तेलंगाना में निज़ाम की निरंकुश सामन्ती सत्ता और भूस्वामियों द्वारा किसानों, मज़दूरों और मेहनतकशों के बढ़ते शोषण और उत्पीड़न के साथ ही यह संगठन जल्द ही लोगों की जनवादी आकांक्षाओं की नुमाइन्दगी करने वाले एक जुझारू जनसंगठन में तब्दील होता गया। 1940 तक आते-आते श्री रवि नारायण रेड्डी, बद्दम येल्ला रेड्डी और डी. वेंकटेश्वर राव जैसे इस संगठन के कई जुझारू नेता भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में भी शामिल हो गये और हैदराबाद रियासत में पार्टी की नियमित इकाई काम करने लगी जिसके बाद से इसका चरित्र और अधिक जुझारू व निज़ाम-विरोधी होता चला गया। 1944 के भोंगीर सम्मेलन में आन्ध्र महासभा में फूट हो गयी जिसके बाद संगठन का ग़ैर-कम्युनिस्ट नरमपन्थी धड़ा अलग हो गया और कुछ समय बाद वह राज्य कांग्रेस में शामिल हो गया। इस प्रकार आन्ध्र महासभा में कम्युनिस्टों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो गया। आन्ध्र महासभा में कम्युनिस्टों की मौजूदगी की वजह से यह संगठन गाँव-गाँव तक फैल गया और वेट्टी के ख़ात्मे, काश्तकारों की बेदख़ली ख़त्म करने, जोती जा रही ज़मीन पर पट्टे के अधिकार, जागीरदारी के ख़ात्मे, करों व लगान में भारी कटौती, खेतों का अनिवार्य सर्वेक्षण जैसी जुझारू माँगें उठाने लगा।
दूसरे विश्वयुद्ध में 1941 में सोवियत संघ के शामिल होने के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने एक ग़लत लाइन अपनाते हुए ब्रिटिश-विरोधी जन कार्रवाइयों को स्थगित करने का फ़ैसला किया जिसकी वजह से वह राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के इस महत्वपूर्ण दौर में देश के कई हिस्सों में आम जन से अलग-थलग पड़ने लगी। ग़ौरतलब है कि पार्टी ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ जैसे जुझारू जनान्दोलन में भी भागीदारी नहीं की थी क्योंकि उसका यह मानना था कि उस समय आन्दोलन छेड़ने से सोवियत संघ का गठबन्धन कमज़ोर पड़ जायेगा और फ़ासिस्टों को बढ़त मिलेगी। देश के स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा इस ग़लत लाइन के बाद पार्टी कीनिष्क्रियता के बावजूद तेलंगाना में पार्टी और आन्ध्र महासभा के कार्यकर्ता इस दौर में भी किसानों के बीच लगातार सक्रिय रहे और वेट्टी के ख़ात्मे, अवैध वसूली, करों में कटौती, बेदख़ली जैसे मुद्दे उठाते रहे और कई जगहों पर वह किसानों को उनका हक़ दिलाने में सफल भी रहे जिसकी वजह से लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता बरक़रार थी। गाँवों में लोग आन्ध्र महासभा की इकाई को प्यार से संघम कहते थे।

जुझारू संघर्ष की शुरुआत

1945 में आन्ध्र महासभा के खम्मम सम्मेलन में निज़ाम की निरंकुश सामन्ती सत्ता और जागीरदारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया गया। आने वाले दिनों के जुझारू संघर्ष की तैयारी के लिए गाँव-गाँव में संघम के कार्यकर्ता वालण्टियर दस्ते बनाकर लोगों को लाठी व गुलेल चलाने का प्रशिक्षण देने लगे। उसी साल नालगोण्डा ज़िले के जनगाँव तालुका (जो आज वारंगल ज़िले में आता है) के पालाकुर्ती नामक गाँव में एक घटना घटी जिसने समूचे तेलंगाना के किसानों में नयी ऊर्जा का संचार किया। कुख्यात देशमुख विस्नूर रामचन्द्र रेड्डी ने पालाकुर्ती गाँव में रहने वाली राजका (धोबी) जाति की एक महिला चाकलि ऐलम्मा, जो संघम की सदस्य थी, की चार एकड़ की ज़मीन हड़पने के मक़सद से अपने गुण्डों को रात में ऐलम्मा के खेत से फ़सल काट लाने को भेजा। लेकिन ऐलम्मा ने संघम की मदद से गुण्डों से निपटने की पहले से ही पूरी तैयारी कर रखी थी। संघम के सदस्यों की लाठियाँ देखते ही देशमुख के गुण्डे नौ दो ग्यारह हो गये। उसके बाद संघम के सदस्यों ने खेत से फ़सल काटकर ऐलम्मा के घर पहुँचा दी। यह तेलंगाना के किसानों की बहुत बड़ी जीत थी जिसने तेलंगाना किसान संघर्ष में बहुत बड़ी भूमिका निभायी। इसके बाद से संघम को गुट्टपाला (लाठी) संघम के नाम से पुकारा जाने लगा क्योंकि अब संघम के सदस्य भूस्वामियों के गुण्डों का मुक़ाबला लाठी, गुलेल और पत्थर से करने लगे थे। गाँव-गाँव तक फैले इन संघमों में ऐलम्मा जैसी महिलाएँ बड़ी संख्या में हिस्सा लेने लगीं और पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर वे अन्त तक लड़ीं। पहले उनके हथियार मूसल और मिर्च हुआ करते थे, लेकिन जैसे-जैसे संघर्ष सशस्त्र रूप धारण करने लगा उन्होंने बन्दूक़ चलाना भी सीखा और पहले निज़ाम की फ़ौज से और बाद में भारतीय सेना से भी लोहा लिया।

सशस्त्र विद्रोह की चिंगारी

वैसे तो 1940 के दशक की शुरुआत से ही तेलंगाना के किसानों ने आन्ध्र महासभा के नेतृत्व में सामन्ती भूस्वामियों के ख़िलाफ़ संघर्ष शुरू कर दिया था, परन्तु जिस घटना को तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष की चिंगारी माना जाता है वह 4 जुलाई 1946 को जनगाँव तालुका के ही एक अन्य गाँव कडावेण्डी में घटती है। चाकलि ऐलम्मा की ज़मीन न हड़प पाने से बौखलाए विस्नूर रामचन्द्र रेड्डी ने उस घटना के बाद अपने नियंत्रण वाले तमाम गाँवों में संघम के कार्यकर्ताओं को गुण्डों से पिटवाया और उसने पुलिस की मदद से उनपर फ़र्जी मुक़दमों में फँसाने की चाल चली। उस दिन कडावेण्डी गाँव में संघम के कार्यकर्ताओं के घर पर गुण्डों ने हमला किया जिसके विरोध में गाँव के लोगों ने संघम के नेतृत्व में लाठियाँ, गुलेल लेकर एक जुझारू जुलूस निकाला। जब यह जुलूस रेड्डी के महलनुमा घर (गडी) के पास पहुँचा तो उसके गडी के पास छिपे गुण्डों ने लोगों पर गोलीबारी करनी शुरू कर दी। इस गोलीबारी में गाँव की संघम का नेता दोड्डी कोमरैय्या मारा गया और कई लोग ज़ख़्मी हो गये। लेकिन इसके बावजूद ग्रामवासी डटे रहे। आसपास के गाँवों से भी लोग सैकड़ों की संख्या में इकट्ठा हो गये। लोग इतने ग़ुस्से में थे कि उन्होंने गडी में आग लगा दी। यह ख़बर सुनकर देशमुख के बेटे बाबूराव ने भयानक हथियारों से लैस गुण्डों की फ़ौज के ज़रिए गाँव वालों पर हमला करने की योजना बनायी। लेकिन गाँव वालों के आक्रोश को देखकर गुण्डे रफ़ूचक्कर हो गये। इसके बाद गाँव में पुलिस आ गयी और उसने संघम के कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन गुण्डों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी।
दोड्डी कोमरैय्या की शहादत के बाद किसान विद्रोह जंगल की आग की तरह तेलंगाना के अन्य हिस्सों, ख़ासकर नालगोण्डा, वारंगल और खम्मम ज़िलों तक फैलने लगा। लोग बैठकों और जुलूसों में कोमरैय्या की बहादुरी और शहादत के गीत गाने लगे, ‘अमरजीवी दोड्डी कोमरैय्या ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने लगे और भूस्वामियों के गडी के सामने जुलूस निकालकर लाल झण्डा गाड़ने लगे तथा वेट्टी, अवैध वसूली तथा बेदख़ली के ख़ात्मे की माँग करने लगे। इन जुलूसों में चाकलि ऐलम्मा के बहादुराना संघर्ष के गीत भी गाये जाते थे और उनमें बड़ी संख्या में महिलाएँ भी हिस्सा लेती थीं। इस तूफ़ानी जनान्दोलन का असर यह हुआ कि इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाले 300-400 गाँवों में वेट्टी प्रथा का ख़ात्मा हो गया और भूस्वामी या तो दुम दबाकर शहरों की ओर भाग खड़े हुए या फिर गाँव में भीगी बिल्ली बनकर रहने लगे। सरकार के अधिकारी इन गाँवों से कर वसूली करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे।

विद्रोह को कुचलने की तमाम कोशिशों के बावजूद संघर्ष फैलता चला गया

तेलंगाना किसान विद्रोह की फैलती आग से घबराकर निज़ाम ने इस आन्दोलन को बलपूर्वक कुचलने की ठानी और विद्रोह से प्रभावित गाँवों में सशस्त्र बलों की टुकड़ियाँ जाने लगीं। जब ये टुकड़ियाँ गाँवों में जातीं तो किसानों और मज़दूरों का नेतृत्व छिप जाता और टुकड़ियों के वापस लौटते ही वह फिर गाँवों में आ जाता। यहाँ तक कि लोग अदालत के आदेश को भी मानने से इन्कार करने लगे। इसके बाद निज़ाम की फ़ौज गाँवों में ही कैम्प लगाकर रहने लगी और दिन-रात विद्रोही नेताओं की खोजबीन करने लगी। इससे बचने के लिए पुरुष गाँव से दूर खेतों में रात बिताने लगे और फ़ौजियों से बचने के लिए महिलाएँ एकसाथ समूह में सोने लगीं।
निज़ाम की सत्ता द्वारा तेलंगाना के किसानों और मज़दूरों के विद्रोहों का बलपूर्वक दमन करने की तमाम कोशिशों के बावजूद विद्रोह लगातार नये इलाक़ों में फैलता गया। इसी बीच 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ और तमाम राजे-रजवाड़ों को यह विकल्प दिया गया कि वे या तो भारत में शामिल हों या पाकिस्तान में शामिल हों या फिर स्वतंत्र रहने का फ़ैसला करें। हैदराबाद के निज़ाम ने स्वतंत्र रहने का फ़ैसला किया और आज़ाद हैदराबाद बनाने का ऐलान किया। ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस पार्टी निज़ाम पर भारत में शामिल होने का दबाव डालने के लिए सत्याग्रह शुरू करने के लिए मजबूर हुई। इस नयी परिस्थिति का लाभ उठाते हुए कम्युनिस्ट पार्टी और आन्ध्र महासभा के लोग भी निज़ाम-विरोधी आन्दोलन में शामिल होकर उसका आधार विस्तारित करने लगे। निज़ाम ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए अपनी फ़ौज के अतिरिक्त अपने पालतू इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लीमान (जो आज़ादी के बाद अपना रूप बदलकर आज भी ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लीमान के नाम से तेलंगाना व कुछ अन्य राज्यों में सक्रिय है) की सेना का इस्तेमाल करने की योजना बनायी। क़ासिम रज़वी के नेतृत्व में रज़ाकारों की इस निजी सेना ने निज़ाम की फ़ौज के साथ मिलकर तेलंगाना के गाँवों में आतंक का राज क़ायम कर दिया। रज़ाकारों ने बड़े पैमाने पर लूटपाट, हत्या, बलात्कार और यंत्रणा का सहारा लिया। उनके आतंक के ख़ौफ़ से कांग्रेस सहित तमाम बुर्जुआ संगठनों के लोगों और धनिक आबादी को हैदराबाद की रियासत से बाहर अन्य प्रान्तों में पनाह लेनी पड़ी। तेलंगाना में रज़ाकारों का सामना केवल कम्युनिस्ट और आन्ध्र महासभा के लोग कर रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी ने निज़ाम की सामन्ती सत्ता के ख़िलाफ़ फ़ैसलाकुन विद्रोह का ऐलान किया और गाँवों में लोगों से किसी भी प्रकार के ज़बरिया श्रम और अवैध वसूली से इन्कार करने का आह्वान किया। इसके अलावा सरकार और बड़े भूस्वामियों की फ़ाज़िल ज़मीन और अनाज के भण्डारों पर क़ब्ज़ा करके गाँव के ग़रीबों में बाँट दिया गया। इस बीच भारत की बुर्जुआ राज्यसत्ता ने निज़ाम के साथ स्टैण्ड-स्टिल समझौता कर लिया और किसान विद्रोह को कुचलने के लिए निज़ाम की सेना को हथियारों की आपूर्ति करने लगी। निज़ाम की सेना और रज़ाकारों से निपटने के लिए गाँवों में गुरिल्ला दस्ते (दलम) बनाये गये जिनमें दो हज़ार से दस हज़ार तक लोग शामिल हुए और जिनको राइफ़ल, रिवॉल्वर आदि चलाने का बाक़ायदा प्रशिक्षण दिया जाता था। इनकी मदद से क़रीब तीन हज़ार गाँवों में ग्राम राज्य कमेटियों की स्थापना की गयी जो भूमि वितरण, शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य ग्रामीण सेवाओं की निगरानी करती थी। इन ग्राम राज्य कमेटियों के ज़रिए तेलंगाना के 3 हज़ार गाँवों में क़रीब दस लाख एकड़ की ज़मीन और खेतीबाड़ी के उपकरण तथा मवेशी ग़रीबों में बाँटे गये। खेत मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ायी गयी। इस पूरे संघर्ष के दौरान जात-पात के बन्धनों को भी तोड़ने की पहल की गयी और छुआछूत जैसी प्रथाओं पर लगाम लगी। ग्राम राज्य कमेटियों में महिलाओं की भी पूरी भागीदारी होती थी। ये कमेटियाँ लोगों के पारिवारिक व विवाह तथा तलाक़ सम्बन्धी विवादों का निपटारा भी करती थीं।
13 सितम्बर 1948 को भारतीय सेना ने ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद में घुसकर पाँच दिनों के भीतर निज़ाम को हैदराबाद का भारत में विलय करने पर मजबूर कर दिया। भारत की बुर्जुआ राज्यसत्ता ने निज़ाम को उसके विशेषाधिकारों व प्रिवी पर्स को सुरक्षित रखने का पूरा आश्वासन दिया। भारत के संविधान में निज़ाम को राज प्रमुख का दर्जा तक दिया गया। निज़ाम के किसी भी अधिकारी को कोई सज़ा नहीं दी गयी। रज़ाकारों के मुखिया क़ासिम रिज़वी तक को भी उतनी सख़्त सज़ा नहीं दी गयी जिसका वह हक़दार था। हैदराबाद के भारत में विलय के दो सप्ताह के भीतर ही भारतीय सेना अपने असली उद्देश्य यानी तेलंगाना में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जारी किसान विद्रोह को कुचलने में जुट गयी।

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मज़दूर बिगुल, अगस्त 2021


 

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