मज़दूर आन्दोलन में नौसिखियापन और जुझारू अर्थवाद की प्रवृत्ति से लड़ना होगा
– सनी सिंह
हाल ही में दिल्ली से लगे कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के कार्यकर्ता नौदीप कौर और शिवकुमार को हरियाणा पुलिस ने गिरफ़्तार किया और उनका हिरासत के दौरान भयानक दमन किया गया। नौदीप कौर को न सिर्फ़ बेरहमी से पीटा गया बल्कि पुरुष पुलिस वालों द्वारा उनके गुप्तांगों पर प्रहार किया गया। शिवकुमार को पुलिस ने गैर क़ानूनी तरीके से हिरासत में रखकर पीटा और गिरफ़्तारी के लम्बे समय बाद काफ़ी विरोध होने पर उनकी मेडिकल जाँच करायी गयी। शिवकुमार के पैरों के नाखून तक नीले पड़ गये हैं। नौदीप कौर के ऊपर कई फ़र्ज़ी मुक़दमे डाले गये पर मीडिया और सोशल मीडिया के कारण बने दबाव में करीब एक महीने बाद उन्हें हरियाणा-पंजाब कोर्ट से ज़मानत मिल गई। शिवकुमार को अभी भी ज़मानत नहीं मिली है।
इस पुलिसिया दमन का पुरज़ोर विरोध होना चाहिए। पूँजीवादी सरकार, पुलिस और मालिकान मज़दूरों के हर उभार को कुचलना और उसके नेताओं को गिरफ़्तार कर, डराकर चुप कराना चाहते हैं। कुण्डली में मालिकों के संगठन कुण्डली इण्डस्ट्रिसल एसोसिएशन ने बाउंसरों की क्विक रेस्पोंस टीम बनायी है जो कि मज़दूरों के हर प्रतिरोध को कुचलने का काम करती है। 28 दिसम्बर को ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के नेतृत्व में मज़दूर बकाया पैसा माँगने के लिए जब एक फैक्ट्री के आगे एकजुट थे तो उनपर बाउंसरों की क्विक रेस्पोंस टीम ने गोली चलायी। परन्तु पुलिस ने बाउंसरों और मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं की।
गुडगाँव और मानेसर के औद्योगिक क्षेत्र व देश में विकसित हो रही नयी औद्योगिक पट्टियों की तरह कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में भी पुलिस-मालिक गठजोड़ व बाउंसरों और स्थानीय मकानमालिकों के दम पर मज़दूरों के हर प्रतिरोध को बर्बर तरीके से कुचल दिया जाता है। दिल्ली एनसीआर से लेकर चेन्नई, गुजरात तक में दमन के तरीके अमेरिकी पूँजीपतियों की पिंकर्टन एजेंसी के गुण्डों द्वारा शिकागो के मज़दूर आन्दोलन को तोड़ने के प्रयासों की याद दिलाता है। इस दमन का प्रतिरोध करने के लिए मज़दूर वर्ग को गोलबन्द करना होगा।
नौदीप और शिवकुमार की गिरफ़्तारी और पुलिस उत्पीड़न का देशभर में व्यापक विरोध हुआ, ख़ासकर इसलिए कि उनकी गिरफ़्तारी को किसानों के आन्दोलन से जोड़कर देखा गया। इस दमन-उत्पीड़न का प्रतिरोध आज का ज़रूरी सवाल है, लेकिन मज़दूर आन्दोलन के नज़रिए से कुछ और बेहद बुनियादी सवाल हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए, मगर अक्सर नहीं किया जाता है। हमें इस घटना के विस्तार में जाकर ये सवाल भी पूछने चाहिए कि क्यों नौदीप कौर और शिवकुमार की गिरफ़्तारी के बाद कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों का प्रतिरोध संगठित नहीं हो सका? इन मज़दूर नेताओं की अगुवाई में चल रहा आन्दोलन इनकी गिरफ़्तारी के बाद बिखर गया और उन्हें केवल जनवादी अधिकार संगठनों व अन्य मज़दूर संगठनों का समर्थन मिला। (किसान संगठनों ने भी गिरफ़्तारी की निन्दा की, लेकिन बहुत बाद में चौतरफ़ा दबाव बनने के बाद।)
इसका जवाब तभी मिल सकता है जब हम ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ की राजनीति, सांगठनिक लाइन व प्रचार के तौर-तरीक़ों पर नज़र डालें। इस प्रक्रिया में ही यह साफ़ हो जाएगा कि ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ की राजनीति दुस्साहसवादी और अर्थवादी है व सांगठनिक समझदारी में नौसिखियापन मौजूद है। यह मज़दूर आन्दोलन को नुक्सान पहुँचाने वाली प्रवृत्ति है जिससे दृढ़ता के साथ वैचारिक संघर्ष चलाया जाना चाहिए।
मज़दूर अधिकार संगठन के संघर्ष का घटनाक्रम
बकौल नौदीप कौर ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ 3 साल से सोनीपत ज़िले में आने वाले कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा है। अभी तक संगठन की इतनी ताक़त और स्थिति नहीं थी कि वे मज़दूरों के बकाये पैसे दिलाने के लिए लड़ें। यह स्थिति तब बनी जब धनी किसानों के आन्दोलन के दौरान सिंघू बॉर्डर पर किसान आबादी का भारी जमावड़ा हुआ। ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ धनी किसान आन्दोलन के समर्थन में सिंघू बार्डर पर मौजूद रहा। किसान आन्दोलन से मिली ताक़त (यानी किसान आन्दोलन के कार्यकर्ताओं के साथ) से वे मज़दूरों की बकाया राशि दिलवाने का काम कर सके। मज़दूरों की बकाया रकम दिलवाने के बैनर के साथ ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ ने सिंघू बॉर्डर पर तम्बू लगाया था। किसान आन्दोलन का जमावड़ा बिलकुल औद्योगिक क्षेत्र के बीचोबीच ही पड़ता है। पत्रकार मनदीप पुनिया ने ‘ट्रॉली टाइम्स’ में ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के बारे में लिखा है कि मज़दूरों का बकाया दिलवाने में किसान भी फ़ैक्ट्रियों में जा रहे थे। 2 दिसम्बर को एक किसान संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ इस संगठन ने मज़दूरों के रिहायशी इलाक़े से सिंघू बॉर्डर पर लगे मंच तक जुलूस निकाला। इसके बाद से ही नौदीप कौर और उनके साथियों को करीब 300 मज़दूरों के बकाया पैसे दिलवाने में सफलता मिली। इस प्रक्रिया में 28 दिसम्बर को उनके संगठन की टोली की क्विक रेस्पोंस टीम से भिड़न्त भी हुई जिसमें बाउंसरों ने फ़ायरिंग भी की। आगामी 12 जनवरी को बकाया दिलवाने के ऐसे एक और अभियान में पुलिस ने नौदीप कौर को गिरफ़्तार कर लिया। इस दौरान नौदीप कौर को पुलिस ने बेरहमी से मारा-पीटा जिस पर मज़दूरों ने भी पुलिस पर पलटवार किया। इस गिरफ्तारी के बाद मज़दूरों का बकाया दिलवाने का यह अभियान रुक गया। कुण्डली में मज़दूरों की ओर से नौदीप और शिवकुमार की रिहाई के लिए कोई प्रदर्शन नहीं हुआ। ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के लोग सिंघू बॉर्डर के मंच पर केवल अपनी बात रखते रहे और सोशल मीडिया व जनसंगठनों के साथ मिलकर उनकी रिहाई के लिए प्रेस कांफ्रेंस व जन्तरमन्तर पर अन्य संगठनों के साथ प्रदर्शन आयोजित करते रहे।
अब हम ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ की राजनीति पर बात करेंगे जिससे आज मज़दूर आन्दोलन के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ निकलते हैं।
‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के नेतृत्व ने किसान आन्दोलन की लहर पर सवार होकर मज़दूरों का पैसा दिलवाया। ‘ट्रॉली टाइम्स’ में ही आये लेख में नौदीप कौर कहती हैं कि किसानों की वजह से क्विक रेस्पोंस टीम और हिन्दू जागृति मंच (स्थानीय मकानमालिकों का संगठन) अब हमें परेशान नहीं करता और हम मज़दूरों का पैसा दिलवाने में कामयाब हुए हैं। ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के फ़ेसबुक पेज पर पड़े वीडियो में भी दिखता है कि नौदीप कौर और उनके साथ 20 से लेकर 50 मज़दूर कई फैक्ट्री गेटों पर मज़दूरों का पैसा दिलवाने के लिए गेटों पर प्रदर्शन करते रहे। इन आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष में भी इस संगठन में दुस्साहसवाद झलकता है जो जनता को संगठित किये बिना ही संघर्ष में कूद पड़ते हैं। केवल किसान आन्दोलन के भरोसे 20-25 मज़दूरों के साथ सोनीपत के कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में पुलिस-प्रशासन-मालिक-मकानमालिक गठजोड़ से जीता नहीं जा सकता है। उनकी गतिविधियों को देखें तो साफ़ हो जाता है कि ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ सुव्यवस्थित योजना के तहत मज़दूरों का राजनीतिक प्रशिक्षण करने की जगह उत्तेजनापूर्ण क़दमों के जरिए मज़दूरों को संगठित करना चाहता है। यह पहली बार नहीं है जब ऐसा हुआ हो। लॉकडाउन के वक्त मज़दूरों को बकाया पैसा दिलवाने पर भी ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ ने जुझारू अभियान चलाया था जिसे हिन्दू जागृति मंच के गुंडों के दमन के बाद रोकना पड़ा था। हिन्दू जागृति मंच मालिकों से चन्दा लेने वाला इलाक़े के मकानमालिकों का संगठन है। उस दौरान भी ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के कार्यकर्ता को हिन्दू जागृति मंच के गुण्डों ने अगवा कर लिया था और बाद में पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था।
दूसरा, पूरा घटनाक्रम बताता है कि ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ मज़दूरों को राजनीति के आधार पर संगठित किये बिना केवल उनकी आर्थिक माँगों पर ही जुझारू आन्दोलन कर रहा था। धनी किसानों के आन्दोलन की मुख्य माँग, यानी लाभकारी मूल्य की माँग, मज़दूर हितों के ख़िलाफ़ जाती है, फिर भी उस आन्दोलन का समर्थन करना भी संगठन में राजनीतिक चेतना की कमी की ओर इशारा करता है। सोनीपत के कई मज़दूर ख़ुद पंजाब, हरियाणा में इन धनी किसानों के खेतों में लूटे जाते हैं। हैरत की बात यह यह कि ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के सदस्य ही पंजाब और हरियाणा के कुलकों और धनी किसानों को सामन्त बताते हैं और इनके ख़िलाफ़ “मज़दूर, किसान, निम्नपूँजीपति और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग” को संगठित करने की बात करते हैं। नौदीप कौर अम्बानी को अमरीका का दलाल बताती हैं और भारत की उत्पादन प्रणाली को अर्द्धऔपनिवेशिक अर्द्धसामन्ती मानती हैं। परन्तु यहाँ तो कुछ और ही नज़ारा था। अगर ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के कार्यकर्ताओं के मूल्यांकन के अनुसार देखें, तो वे सामन्तों की सहायता से राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग (सोनीपत के छोटे औद्योगिक पूँजीपति) के खिलाफ़ आर्थिक संघर्ष लड़ रहे थे! भारत को अर्द्धसामन्ती अर्द्ध औपनिवेशिक सामाजिक संरचना मानने वालों को धनी किसान आन्दोलन के समर्थन को सही ठहराने के प्रयास में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। खुद ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के ही सदस्यों के अनुसार वे किसान आन्दोलन से पहले सुषुप्त थे और किसान आन्दोलन के चलते उनमें हरकत आयी। ‘मज़दूर बिगुल’ में हम इस कुलक आन्दोलन पर तमाम क्रान्तिकारी संगठनों की गलत अवस्थिति की आलोचना लगातार लिखते रहे हैं। वैसे नौदीप कौर ज़मानत मिलने के बाद अकाली दल और दिल्ली गुरुद्वारा कमिटी के नेताओं से ‘जो बोले सो निहाल…’ के नारों के बीच सम्मानित भी हुईं। यह इनकी राजनीतिक अवसरवादिता को बताता है। ख़ैर, इस अवसरवादिता पर हम आगे विस्तारपूर्वक लिखेंगे, फिलहाल लेख के मूल सवाल पर वापस लौटते हैं।
तीसरी बात यह कि मज़दूर आन्दोलन में मज़दूर नेताओं की गिरफ़्तारी तो हमेशा ही होती है परन्तु अगर कोई संगठन किसी गिरफ़्तारी के बाद आन्दोलन को जारी न रख पाये तो वह संगठन नौसिखियापन का शिकार है। ऊपर बताये घटनाक्रम से यह भी साफ़ है कि ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ किसान आन्दोलन की लहर पर सवार था और नौदीप कौर की गिरफ़्तारी के बाद तुरन्त ही आन्दोलन बिखर गया। संगठन के पास नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद भी संघर्ष को चलाने की कोई योजना नहीं थी। ऐसा केवल एक बार नहीं बल्कि दो बार हो चुका है। दोनों बार ही मज़दूरों के बीच आन्दोलन पूरी तरह बिखर गया।
कुल मिलाकर कहें तो ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के नेतृत्व में चला आन्दोलन दुस्साहसवाद, जुझारू अर्थवाद और सांगठनिक तौर पर नौसिखियापन का शिकार रहा है। लेनिन ने सांगठनिक नौसिखियापन को दुस्साहसवाद और अर्थवाद की अभिव्यक्ति कहा था। एक इस्पाती क्रान्तिकारी संगठन राजनीतिक संघर्ष को स्थायित्व, ऊर्जा और निरन्तरता प्रदान करता है परन्तु नौसिखियापन इसे स्थापित नहीं होने देता है। लेनिन ‘क्या करें’ पुस्तक में बताते हैं कि अर्थवादी ‘रोबोचेयो देलो’ पंथी नौसिखुआपन के चलते ही ऐसे संगठन को गैरज़रूरी मानते हैं जो “राजनीतिक असन्तोष, विरोध और क्रोध के हर प्रकार के सभी रूपों को एक लड़ी में पिरोकर उन्हें एक संयुक्त आक्रमण का रूप दे सके, जो पेशेवर क्रान्तिकारियों का संगठन हो और जिसका नेतृत्व समस्त जनता के सच्चे राजनीतिक नेता करते हों।… संगठन के स्वयंस्फूर्त ढंग से विकसित होते जा रहे रूपों की पूजा करना, इसे न महसूस करना कि हमारा सांगठनिक काम कितना संकुचित और निम्न कोटि का होता है और इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में हम अभी तक कितने “नौसिखुए ढंग से” काम कर रहे हैं – यह न महसूस करना, मैं कहता हूँ, सचमुच हमारे आन्दोलन की एक बीमारी बन गया है।”
आगे लेनिन विस्तार से स्पष्ट करते हैं कि नौसिखियापन क्या होता है। हम यह बड़ा उद्धरण इसलिए दे रहे हैं क्योंकि यह ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के काम के तरीक़ों की ग़लती को स्पष्ट कर देता है। लेनिन 1894 से 1901 के काल के एक लाक्षणिक सामाजिक जनवादी मण्डल के कार्य का संक्षिप्त विवरण देते हैं और बताते हैं कि इस दौर में छात्र-युवाओं में मार्क्सवाद का काफ़ी प्रभाव था। लेनिन के अनुसार “ये नये योद्धा बहुत ही भौंडे हथियार और प्रशिक्षण लेकर मैदान में उतरते थे। … छात्रों का मण्डल सदस्यों से कोई सम्पर्क नहीं होता, जिसका दूसरे नगरों के मण्डलों से, यहाँ तक कि उसी शहर के अन्य भागों के मण्डलों से (या दूसरे विश्वविद्यालयों के मण्डलों से) कोई सम्पर्क नहीं होता, जो क्रान्तिकारी कार्य की विभिन्न शाखाओं का संगठन नहीं करता, जो थोड़े बहुत लम्बे समय के लिए भी कार्य की कोई विधिवत योजना नहीं बनाता, ऐसा मण्डल झट मज़दूरों से सम्पर्क क़ायम करके काम शुरू कर देता है, मण्डल धीरे-धीरे अपना प्रचार कार्य और आन्दोलन कार्य बढ़ाता जाता है, अपने काम से वह मज़दूरों के अपेक्षाकृत बड़े हिस्सों की और पढ़े-लिखे वर्गों के भी कुछ लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर लेता है, जिनसे उसे पैसे भी मिल जाते हैं और जिनमें से “समिति” युवाओं के नये दल भर्ती कर लेती है। समिति की (या संघर्ष करने वाली लीग की) आकर्षण शक्ति बढ़ जाती है,उसका कार्य क्षेत्र विस्तृत हो जाता है और उसका काम बिलकुल स्वयंस्फूर्त ढंग से फैल जाता है। वे ही लोग, जो एक साल या चन्द महीने पहले छात्र मण्डल की सभाओं में बोला करते थे… जिन्होंने मजदूरों के साथ सम्पर्क कायम किया था … प्रदर्शन संगठित करने की बातें करने लगते हैं और अन्त में खुली जंग शुरू कर देते हैं (यह खुली जंग परिस्थितियों के अनुसार कई रूप ले सकती है, जैसे पहले आन्दोलनात्मक पर्चे का प्रकाशन, या पत्र के पहले अंक का निकलना, या पहले प्रदर्शन का संगठित किया जाना।) और आम तौर पर पहली कार्रवाई ही फ़ौरन पूरी तरह असफल हो जाती है। फ़ौरन और पूरी तरह इसलिए कि यह खुली जंग एक लम्बे और दृढ़ संघर्ष की किसी सुव्यवस्थित और अच्छी तरह से सोच-विचार कर बनायी गयी और क़दम-ब-क़दम तैयार की गयी योजना का परिणाम नहीं थी, बल्कि वह केवल मण्डलों के परम्परागत काम के स्वयंस्फूर्त विकास का परिणाम थी; कारण कि लगभग हर जगह पुलिस स्वभावतया स्थानीय आन्दोलन के मुख्य नेताओं को जानती थी, क्योंकि उन्होंने अपने स्कूली ज़माने में ही “नाम कमा लिया था” और पुलिस सिर्फ़ इस इन्तज़ार में रहती थी कि उचित अवसर आये तो छापा मारे। …पुलिस ने “हर तरह के अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित अपने खुफ़िया एजेंटों, गुप्तचरों और राजनीतिक पुलिस वालों के दस्ते जगह-जगह तैनात कर दिय। नित नयी जगहों पर छापे मारे जाने लगे, उनकी लपेट में इतने अधिक लोग आये और स्थानीय मण्डलों का इस बुरी तरह सफ़ाया हुआ कि आम मज़दूरों से उनका एक-एक नेता छिन गया। आन्दोलन ने इतना असंगठित और इतना अविश्वसनीय रूप से छुटपुट रूप धारण किया कि काम में क्रम और तालमेल बनाये रखना बिलकुल असम्भव हो गया था। स्थानीय नेताओं का बुरी तरह इधर-उधर बिखरे रहना, मंडलों का सांयोगिक गठन, सैद्धान्तिक, राजनीतिक तथा संगठनात्मक प्रश्नों के सम्बन्ध में प्रशिक्षण का अभाव और संकुचित दृष्टिकोण – ये तमाम बातें इन परिस्थितियों का लाज़िमी कारण थीं जिनका हमने ऊपर वर्णन किया है।’’
नौसिखियापन के बारे में जो उदाहरण लेनिन लाक्षणिक छात्र मण्डल के बारे में देते हैं वह ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के ऊपर भी लागू होता है। लेनिन के अनुसार यह सांगठनिक नौसिखियापन राजनीति में अर्थवाद की ही उपज होता है। लेनिन के अनुसार “नौसिखियापन अर्थवाद से सम्बन्धित है, और जब तक हम अर्थवाद को आम तौर पर (अर्थात मार्क्सवादी सिद्धान्त की, सामाजिक जनवादी संगठन की भूमिका की और उसके राजनीतिक कार्यों की संकुचित धारणा को) दूर नहीं करते, तब तक हम संगठनात्मक कार्य की संकीर्णता को दूर नहीं कर सकेंगे। ये कोशिशें दो तरह से प्रकट हुई हैं। कुछ लोग यह कहने लगे: अभी तक आम मज़दूरों ने उन व्यापक तथा जुझारू राजनीतिक कार्यभारों को ख़ुद पेश नहीं किया है, जिनको क्रान्तिकारी लोग उनपर “लादने” की कोशिश कर रहे हैं, फिलहाल मज़दूरों को तात्कालिक राजनीतिक माँगों के लिए लड़ते जाना चाहिए, उन्हें “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” जारी रखना चाहिए (और सम्भवत: जनआन्दोलन की “आसानी से समझ में आ जाने वाली” इस समझ के अनुरूप ऐसा संगठन भी होना चाहिए जिसे एकदम अप्रशिक्षित नौजवान भी “आसानी से समझ सकें”)। दूसरे लोग जो धीरे-धीरे चलने से कोसों दूर रहते हैं यह कहने लगे: “राजनीतिक क्रान्ति करना” सम्भव और आवश्यक है, परन्तु उसके लिए सर्वहारा को दृढ़ और अटल संघर्ष की प्रशिक्षा देने वाला क्रान्तिकारियों का कोई मज़बूत संगठन बनाने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरी बस इतना है कि अपनी पुरानी परिचित “सहज प्राप्य” लाठी उठाओ और बढ़ चलो। रूपक के फेर में न पड़कर यदि हम अपनी बात सीधे-सीधे कहें, तो इसका मतलब यह है कि हमें आम हड़ताल का संगठन करना चाहिए, अथवा “उत्तेजना पैदा करने वाले आतंकवादी कार्यों” के ज़रिए मज़दूर आन्दोलन की “आत्माविहीन” प्रगति को बढ़ावा देना चाहिए। ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ, अवसरवादी और “क्रान्तिवादी”, प्रचलित नौसिखुएपन के आगे शीश नवा रही हैं, दोनों में से कोई भी यह नहीं मानती कि इस नौसिखुएपन को दूर किया जा सकता है, दोनों में से कोई भी यह नहीं समझती कि हमारा प्राथमिक तथा सबसे आवश्यक व्यवहारिक कार्यभार क्रान्तिकारियों का एक ऐसा संगठन खड़ा करना है जो राजनीतिक संघर्ष की शक्ति, उसके स्थायित्व और उसके अविराम क्रम को कायम रख सके।”
‘मज़दूर अधिकार संगठन’ की राजनीति में हावी जुझारू अर्थवाद और “क्रान्तिकारी” प्रवृत्ति व उनका सांगठनिक नौसिखुआपन उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है।
आज भारत में मज़दूर आन्दोलन देश स्तर पर बिखराव का शिकार है। क्रान्ति की शक्तियों पर प्रतिक्रान्ति की शक्तियाँ हावी हैं। इसके बावजूद मज़दूरों के संघर्ष अविराम जारी हैं। परन्तु तमाम विजातीय प्रवृत्तियों का समय-समय पर मज़दूर आन्दोलन में उभार होता है जिसके चलते आन्दोलन बिखरता रहता है। सीटू, एटक और एक्टू के अवसरवाद की संगठित क्षेत्र के मज़दूरों में पकड़ है तो साथ ही मज़दूर आन्दोलन में नवसंशोधनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद और दुस्साहसवाद की विजातीय प्रवृत्तियाँ भी पैदा होती रही हैं। इन सभी राजनीतिक प्रवृत्तियों की जड़ में अर्थवाद ही है। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जिससे मज़दूर आन्दोलन को निजात दिलाने हेतु राजनीतिक संघर्ष चलाना चाहिए। मज़दूर आन्दोलन में स्वत:स्फूर्तवाद के पुजारी इतिहास में अपने आप विलीन हो जाते हैं परन्तु इस प्रवृत्ति को हमें सचेतन कुचल देना चाहिए और कहीं भी इसे जमने नहीं देना चाहिए। नौदीप कौर और शिवकुमार की हिम्मत को सलाम और उनकी रिहाई की लड़ाई लड़ते हुए व उनके जनवादी अधिकारों का समर्थन करते हुए भी हम उनके संगठन के राजनीतिक विचलन से संघर्ष चलाने को बाध्य हैं।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2021
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