गूगल के कर्मचारियों ने बनायी अपनी यूनियन
क्या इस पहल का विस्तार दूसरी दैत्याकार टेक्नोलॉजी कम्पनियों में भी होगा?
– अखिल
इसी साल 4 जनवरी को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय आई.टी. (सूचना प्रौद्योगिकी) कम्पनी, गूगल और इसकी मूल कम्पनी, अल्फ़ाबेट के 400 से अधिक स्थायी कर्मचारियों ने अपनी पहली यूनियन, अल्फ़ाबेट वर्कर्स यूनियन (AWU) की घोषणा की, जिसकी सदस्यता अब लगभग 800 हो गयी है। गूगल के दुनिया भर में स्थित केन्द्रों में 2,00,000 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें अलग-अलग तरह के काम करने वाले स्थायी, अस्थायी और ठेका कर्मचारी शामिल हैं। इस संख्या को देखते हुए 800 कर्मचारियों की यह यूनियन बेहद छोटी बात लग सकती है, लेकिन ऐसा है नहीं।
ऐसा नहीं है कि गूगल या आई.टी. उद्योग की यह कोई पहली यूनियन है। इससे पहले भी गूगल में यूनियनें बनती रही हैं, चाहे वह 2019 में गूगल के पिट्सबुर्ग सेन्टर के 80 ठेका कर्मियों द्वारा संगठित होने की कोशिश हो, 2019 में ही कम्पनी के माउण्टेन व्यू, कैलिफ़ोर्निया स्थित मुख्यालय के 2,000 से अधिक कैफ़ेटेरिया कर्मचारियों का संगठित होना हो, या 2017 में वहाँ के सिक्योरिटी गार्डों का संगठित होना हो। लेकिन, अल्फ़ाबेट वर्कर्स यूनियन अपनी तरह की पहली यूनियन है। इसके तीन कारण हैं। पहला यह कि इसे गूगल और अल्फ़ाबेट के स्थायी आई.टी. कर्मचारियों ने बनाया है और फ़ेसबुक, अमेज़न, ऐपल, नेटफ़्लिक्स, गूगल जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय आई.टी. कम्पनियों, जिन्हें एक साथ फ़ाँग (FAANG) कम्पनियाँ भी कहा जाता है, के लिए यह बिल्कुल नयी बात है।
दूसरा, यह यूनियन केवल स्थायी आई.टी. कर्मचारियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें किसी भी तरह का काम करने वाले अस्थायी और ठेका कर्मचारी भी शामिल हो सकते हैं। इस मामले में यह यूनियन पारम्परिक यूनियनों से हटकर है।
तीसरा, इस यूनियन के गठन का कारण केवल वेतन आदि जैसे आर्थिक मसले ही नहीं हैं बल्कि राजनीतिक मसले भी हैं। इसके मुख्य मसले हैं – समावेशी और न्यायपूर्ण कार्य स्थितियाँ; उत्पीड़न, दुर्व्यवहार, भेदभाव और बदले की कार्रवाई करने वालों पर सख़्ती; जनसमुदायों के ख़िलाफ़ जाने वाले प्रोजेक्टों पर काम करने से इन्कार करने की आज़ादी; स्थायी, अस्थायी, ठेका और विभिन्न प्रकार के काम करने वाले सभी कर्मचारियों को बराबर सहूलियतें।
यह यूनियन कम्युनिकेशन वर्कर्स ऑफ़ अमेरिका नामक यूनियन के समर्थन से बनी है, जो अमेरिका के संचार और मीडिया उद्योग के कर्मचारियों की सबसे बड़ी यूनियन है। यूनियन का गठन और घोषणा भले ही 4 जनवरी को हुई, लेकिन इसकी गुप्त तैयारियाँ साल 2019 के अन्त से ही चल रही थीं और इसके हालात तो बहुत पहले से ही तैयार हो रहे थे। गूगल में प्रतिरोध की आवाज़ें बहुत पहले से उठती रही हैं।
आइए इसकी कुछ मिसालें देखते हैं। 2010 में गूगल अपने सोशल मीडिया नेटवर्क गूगल प्लस को लेकर एक नीति लाया, जिसके तहत इसका इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों के लिए अपने असली नाम का इस्तेमाल करना लाज़िमी था। इस नीति का गूगल के कर्मचारियों ने ज़बर्दस्त विरोध किया, इसे लोगों की निजता के साथ खिलवाड़ बताया और ख़ासकर समलैंगिक और अन्य यौन रुझान वाले लोगों के लिए इसे ख़तरनाक क़रार दिया। इस विरोध के कारण गूगल को यह नीति वापिस लेनी पड़ी। 2018 में हज़ारों कर्मचारियों ने गूगल द्वारा अमेरिका के रक्षा विभाग के प्रोजेक्ट मैवेन पर काम करने का विरोध किया। इस प्रोजेक्ट के तहत गूगल के कर्मचारियों को ड्रोन की आर्टिफ़िशियल इण्टेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि) को बेहतर बनाना था ताकि ड्रोन की निशाना साधने की क्षमता बढ़ सके। इन ड्रोनों का इस्तेमाल अमेरिका आतंकवाद ख़त्म करने और लोकतंत्र फैलाने के नाम पर दूसरे देशों के निर्दोष लोगों के क़त्लेआम के लिए करता है। कर्मचारियों के प्रतिरोध के कारण गूगल को रक्षा विभाग के साथ इस प्रोजेक्ट पर काम करने का इक़रारनामा रद्द करना पड़ा। 2018 में ही जब गूगल के बड़े अधिकारी के ख़िलाफ़ एक कर्मचारी के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप लगे और गूगल ने दोषी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय पैसों के लेन-देन से मामला रफ़ा-दफ़ा करवाने की कोशिश की तो कम्पनी के दुनिया भर में स्थित केन्द्रों के लगभग 20,000 कर्मचारियों ने प्रतिरोध मार्च निकाला।
कर्मचारियों द्वारा यह आरोप भी लगाये जाते रहे हैं कि आवाज़ उठाने वाले कर्मचारियों के ख़िलाफ़ गूगल बदले की कार्रवाई कर रहा है। पिछले साल, जब आर्टिफ़िशियल इण्टेलिजेंस के नैतिक और सामाजिक दुष्प्रभावों पर अनुसंधान पत्र लिखने के चलते गूगल ने टिमनित गेबरू नामक कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया तो इसका अन्य कर्मचारियों ने पुरज़ोर विरोध किया और कम्पनी को खुला पत्र लिखकर इस पर स्पष्टीकरण देने की माँग की। इसके अलावा, 6 जनवरी को अमेरिका की संसद, कैपीटॉल, में भूतपूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प के समर्थकों की हिंसा और उत्पात के बाद भी गूगल द्वारा ट्रम्प को प्रतिबन्धित न करने का वहाँ के कर्मचारियों ने विरोध किया। इसी तरह समय-समय पर गूगल के कर्मचारी अपनी आवाज़ बुलन्द करते रहे हैं।
आज दुनिया भर में फ़ासीवादी-अर्द्धफ़ासीवादी ताक़तें उभार पर हैं और कई देशों में तो बाक़ायदा सत्तासीन हैं, मसलन हमारे अपने देश में। इन ताक़तों के उभार में यूट्यूब, फ़ेसबुक, व्हॉट्सऐप, ट्विटर जैसी आई.टी. सेवाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है। झूठे साम्प्रदायिक प्रचार से लेकर दंगे करवाने तक में आर.एस.एस. जैसे फ़ासिस्ट संगठन इनका बख़ूबी इस्तेमाल करते रहे हैं, यह मुज़फ़्फ़रनगर और दिल्ली के सुनियोजित दंगों में स्पष्ट देखा जा चुका है। इसी तरह का इस्तेमाल अन्य देशों में भी फ़ासिस्ट ताक़तें अपने झूठे प्रचार के लिए कर रही हैं। लेकिन, यह सेवाएँ प्रदान करने वाली कम्पनियाँ इन ताक़तों पर रोक नहीं लगातीं, इनके ख़िलाफ़ की गयी शिकायतों को नज़रन्दाज़ करती हैं और ज़्यादातर मामलों में इन्हें खुला हाथ देती हैं। इसके विपरीत उन लोगों की पहुँच को कम करने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाये जाते हैं, जो जनता के हक़ों की बात करते हैं। इसके अलावा, ये कम्पनियाँ इनकी सेवाओं का इस्तेमाल करने वाले लोगों की निजता की धज्जियाँ उड़ाती हैं, उनकी निजी जानकारी सरकारों को मुहैया करती हैं और यह जानकारी विज्ञापन कम्पनियों को बेचती हैं। ज़ाहिर है कि इन कम्पनियों से इसके अलावा किसी चीज़ की उम्मीद करना मूर्खता होगी। इनका जनाधिकारों से क्या लेना-देना! इन कम्पनियों का भी एकमात्र लक्ष्य मुनाफ़ा कमाना है। इसके लिए उन्हें अलग-अलग देशों, ख़ासकर तीसरी दुनिया के देशों, की सरकारों से कम से कम लागत में अपने केन्द्र स्थापित करने और बेरोकटोक सस्ते श्रम का शोषण करने की अनुमति चाहिए और साथ ही, लोगों की निजी जानकारी पर एकाधिकार क़ायम करने के लिए खुला हाथ चाहिए। और, एक हाथ ले दूसरे हाथ दे की तर्ज़ पर सरकारें इनकी मदद करती हैं और ये सरकारों की। ऐसे में, अगर गूगल के भीतर से इसके ख़िलाफ़ संगठित आवाज़ उठ रही है तो यह अच्छी बात है। गूगल में यूनियन की शुरुआत से फ़ेसबुक आदि जैसी अन्य कम्पनियों में भी आई.टी. कर्मचारियों को संगठित होने की प्रेरणा मिलेगी। अमेज़न में भी अनेक दमनकारी कोशिशों के बावजूद यूनियन बनाने के प्रयास आगे बढ़ रहे हैं।
गूगल जैसी कम्पनियाँ यूनियन न बनने देने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाती हैं। हाल में एक रिपोर्ट में यह बात सामने आयी कि गूगल ने पिछले दिसम्बर में आईआरआई कंसंल्टेंट्स नाम की एक फ़र्म की सेवाएँ लीं जिसका काम ही है यूनियन बनाने की राह में रोड़े अटकाना। यह फ़र्म सक्रिय कर्मचारियों की जासूसी करके उनकी पर्सनालिटी, स्वभाव, सोच, पारिवारिक पृष्ठभूमि, पति या पत्नी की नौकरी, आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य की समस्याओं, नैतिकता, नौकरी में अनुशासन के इतिहास, यूनियन सम्बन्धी सक्रियता आदि के बारे में फ़ाइल तैयार करके कम्पनी को देती है। बताया जाता है कि गूगल की यूनियन में शामिल होने से कर्मचारियों को दूर करने के लिए इस फ़र्म को कई मिलियन डॉलर का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया है।
गूगल जैसी दैत्याकार आई.टी. कम्पनियों में कर्मचारियों का यूनियन में संगठित हो पाना हमेशा मुश्किल रहा है। गूगल जैसी कम्पनियाँ अपना ज़्यादातर काम स्थायी कर्मचारियों से न करवाकर अस्थायी और ठेका कर्मचारियों से करवाती हैं। इसमें भी उनकी पहली पसन्द भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश होते हैं। यहाँ ये छोटी-छोटी आई.टी. कम्पनियों के मार्फ़त बेहद कम लागत पर अपना काम करवा लेती हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि इन कम्पनियों के कर्मचारियों और गूगल के कर्मचारियों के वेतन और अन्य सहूलियतों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होता है। गूगल के स्थायी कर्मचारियों को अन्य कर्मचारियों से काफ़ी ज़्यादा वेतन मिलता है। ऐसे में स्थायी कर्मचारियों का यूनियन में संगठित होने काफ़ी मुश्किल होता है और उसमें अन्य प्रकार के और अन्य देशों के कर्मचारियों को शामिल करना भी टेढ़ी खीर है। ऐसे में देखना होगा कि गूगल के कर्मचारियों की यह पहल सफल हो पाती है या नहीं।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021
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