पूँजीवादी व्यवस्था लील रही मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ
– रूपा
पिछली 19 जनवरी को गुजरात के सूरत शहर में किम-माण्डवी रोड पर फुटपाथ पर सो रहे 18 मज़दूरों पर ट्रक चढ़ गया जिससे 15 मज़दूरों की मौत हो गयी। बाक़ी मज़दूर भी गम्भीर रूप से घायल हुए। ये सभी मज़दूर राजस्थान के थे, जो अपने और अपने परिवार का पेट भरने के लिए सूरत गये थे। दिन-भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद वे फुटपाथ पर ही सोते थे। उन्हें क्या पता था कि जिस देश में लाखों तैयार फ़्लैट ख़ाली पड़े हुए हैं, वहाँ उन जैसे मज़दूरों के लिए फुटपाथ पर भी जगह नहीं है।
मज़दूरों के साथ हुई यह घटना कोई पहली नहीं है और न ही आख़िरी! हर वर्ष सैकड़ों बेघर ग़रीब फुटपाथ पर सोते हुए गाड़ियों से कुचल कर मारे जाते हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था आये दिन अनेकों तरीक़े से मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ लील लेती है। इस देश में करोड़ों लोगों के रहने लायक़ कोठियाँ, बंगले और फ़्लैट ख़ाली पड़े रहते हैं, मगर 18 करोड़ लोग सड़कों के किनारे सोते हैं और 18 करोड़ से भी ज़्यादा लोग गन्दी झुग्गियों में रहने के लिए मजबूर हैं।
दूसरी घटना कर्नाटक की राजधानी बेंगलूर के पास शिवमोगा की है जहाँ विस्फोटक से भरे ट्रक में धमाका होने से दस मज़दूरों की मौत हो गयी। ये सभी मज़दूर बिहार के थे। ये भी अपनी रोज़ी के लिए बेंगलुरु गये थे। भारत में कितने लोगों को इस घटना के बारे में पता चला होगा। गोदी मीडिया को मसालेदार ख़बरों से ही फुर्सत नहीं, तो क्यों मामूली इन्सानों की ख़बरें दिखाये। दूसरी ओर अगर देश में किसी सेलिब्रिटी को दिन में तीन बार छींक आ जाये तो भी पूरे देश में हंगामा मच जाता है!
दोनों दुर्घटनाओं में मरने वाले लोग वे प्रवासी मज़दूर हैं जो दो वक़्त के खाने के लिए रोज़गार की तलाश में सैकड़ों मील दूर दूसरे प्रान्तों में भटकने को मजबूर होते हैं। यही वे प्रवासी मज़दूर हैं जो मोदी सरकार के पागलपन भरे लॉकडाउन के दौरान सैकड़ों मील पैदल चलकर घर गये, 600 से ज़्यादा मज़दूर रास्ते में ही जान गँवा बैठे। मज़दूरों के साथ ऐसी घटना न पहली है न आख़िरी। हर साल न जाने कितने बेघर ग़रीब फुटपाथ पर सोते हुए अमीरों की कारों के नीचे कुचले जाते हैं।
केवल सरकारी आँकड़ों के अनुसार हर साल 48 हज़ार श्रमिकों की मौत काम और जीवन की ख़राब परिस्थितियों के कारण हो जाती है। ये मौतें कोई मामूली दुर्घटना नहीं बल्कि इस बेशर्म सिस्टम द्वारा किया गया नरसंहार है। आये दिन मज़दूर फ़ैक्ट्रियों में दुर्घटनाओं से मरते रहते हैं, कहीं आग लगने से, कहीं गैस लीक होने से तो कहीं पटाखे व विस्फोटक बनाने वाली कम्पनी में धमाकों से, लेकिन इससे ना तो किसी चैनल को टीआरपी मिल सकती है और ना ही ये ख़बर बाहर लाने से फ़ैक्ट्री मालिक को कुछ फ़ायदा हो सकता है। उल्टे अक्सर ऐसी ख़बरों को दबाने की पूरी कोशिश की जाती है, ताकि कहीं इस व्यवस्था की नंगी सच्चाई न सामने आ जाये। ज़्यादातर मामले तो पुलिस प्रशासन को खिला-पिलाकर रफ़ा-दफ़ा कर दिये जाते हैं। सैकड़ों मज़दूर ऐसे भी होते हैं जिनकी मौत के बारे में उनके घरवालों तक ख़बर ही नहीं पहुँचती। मुआवज़ा तो बहुत दूर की बात है।
जिस गुजरात मॉडल का शोर मचाकर नरेन्द्र मोदी ने सरकार बना ली, उसका एक नमूना सूरत की यह घटना भी है। यह कैसा विकास है, जहाँ मेहनत-मज़दूरी करके अपना तथा अपने परिवार का ख़र्च चलाने वाले मज़दूरों को रात फुटपाथ पर गुज़ारनी पड़ती है। ऐसी जगहों पर 12-12 घण्टे काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जहाँ मज़दूरों की सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम नहीं होता। आये दिन किसी का हाथ कट जाता है, तो कोई जलकर मर जाता है। लेकिन सरकार ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए और दोषियों को सज़ा देने के लिए कोई क़ानून नहीं बनाती। उल्टे मोदी सरकार ने तमाम श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर दिया ताकि मुनाफ़ाख़ोर मज़दूरों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण कर सकें।
मज़दूरों की ज़िन्दगी की क़ीमत इस व्यवस्था में कुछ नहीं होती। वे महज़ इस व्यवस्था को ज़िन्दा रखने के औज़ार हैं। उन्हें उतना ही मिलता है, जितने में वे मुश्किल से ज़िन्दा रह सकें।
अगर हम एक संवेदनशील इन्सान हैं तो ज़रूर ही हमें शोषण पर आधारित इस व्यवस्था को ख़त्म करने के बारे में सोचना होगा क्योंकि जबतक यह व्यवस्था रहेगी तब तक सूरत और शिवमोगा जैसी हज़ारों बर्बर घटनाएँ होती रहेंगी। इसका एकमात्र विकल्प यही हो सकता है कि सभी संसाधनों पर श्रम करने वाले लोगों का हक़ हो, ना कि चन्द पूँजीपतियों का। सारी व्यवस्था के केन्द्र में लोग हों। तभी हम मानवता के भविष्य की एक सुखद कल्पना कर सकते हैं।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन