हमारा आन्दोलन दबाया नहीं जा सकता
(मरीया प्रिलेज़ायेवा की पुस्तक ‘लेनिन कथा से’)
…मण्डली की बैठक नेवा पार के इलाक़े में मैकेनिकल फ़ैक्टरी के फ़िटर इवान बाबुश्किन के घर में हो रही थी। नेवा के पार बहुत-से कारख़ाने और फ़ैक्टरियाँ थीं। सुबह अभी झुटपुटा ही होता था कि उनके भोंप गूँजने लगते। मज़दूर मुँह अँधेरे ही काम के लिए चल पड़ते और रात होने पर घर लौटते। सूरज कभी देखने को न मिलता। कितना अन्धकारपूर्ण जीवन था! पर हमेशा तो ऐसे नहीं रहा जा सकता था!
मज़दूर पुलिस से छिपकर फ़िटर बाबुश्किन के घर में इकट्ठा होते और अपनी स्थिति पर विचार करते।
इस शाम वे वहाँ बैठे निकोलाई पेत्रेविच की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिन्हें उनके सामने भाषण करना था। निकोलाई पेत्रेविच और कोई नहीं, स्वयं व्लादीमिर इल्यीच ही थे।
मगर वह मज़दूर मण्डली में क्योंकर आये?
इसलिए कि वह मज़दूरों को मार्क्स के विचारों व सिद्धान्तों के बारे में बताना चाहते थे। मार्क्स ने कहा था: मज़दूर ही वह शक्ति हैं, जो समाज का पुनर्निर्माण करने में समर्थ है। अगर मज़दूर चाहेंगे और फ़ैक्टरी मालिकों और ज़ार के विरुद्ध खड़े हो सकेंगे, तो कोई भी उन्हें नहीं झुका सकता। इसका मतलब है कि मज़दूरों को संगठित करना है, लक्ष्य तय करना है और उसकी ओर बढ़ना है। मज़दूरों का लक्ष्य एक ही हो सकता है। वह है सत्ता अपने हाथों में लेना, मेहनतकशों का राज्य स्थापित करना।
यह सबसे शानदार राज्य होगा, जिसमें सारा समाज न्याय पर आधारित होगा। और मार्क्स ने इसे कम्युनिस्ट समाज कहा था।
पहली पुस्तक
उस समय पीटर्सबर्ग में नेवा पार की इवान बाबुश्किन की मण्डली के अलावा मज़दूरों की दूसरी भी कई मार्क्सवादी मण्डलियाँ थीं। पीटर्सबर्ग आने के पीछे व्लादीमिर इल्यीच का मुख्य उद्देश्य क्रान्तिकारी-मार्क्सवादियों के साथ सम्पर्क स्थापित करना था।
साथियो, व्लादीमिर इल्यीच ने कहा, हमें मार्क्स के विचारों का सभी मज़दूरों के बीच प्रचार करना है। हमें मज़दूरों के साथ एकबद्ध होना है, और क्रान्ति की तैयारी करनी है।
इस तरह क्रान्तिकारी संघ की स्थापना हुई, जिसे बाद में ‘मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली लीग’ कहा जाने लगा। पहले ‘संघर्ष लीग’ केवल पीटर्सबर्ग में ही थी, बाद में उसे दूसरे शहरों में भी स्थापित किया गया।
किन्तु व्लादीमिर इल्यीच का काम इन मण्डलियों का नेतृत्व करना ही नहीं था। दिन में, शाम को और यहाँ तक कि कभी-कभी रात गये भी वह लिखते रहते थे। वह जो किताब लिख रहे थे, वह पूँजीपतियों के लिए बेहद ख़तरनाक थी। वह मज़दूरों को बताती थी कि पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ़ सही और संगठित ढंग से संघर्ष कैसे किया जाये।
शीघ्र ही व्लादीमिर इल्यीच की पुस्तक पूरी हो जायेगी और मार्क्सवादी साथी उसे गुप्त रूप से छापकर मज़दूर मण्डलियों के बीच बाँट देंगे।
रात काफ़ी हो गयी थी। सामने के घर की बत्तियाँ बुझ चुकी थीं। व्लादीमिर इल्यीच ने कलम रखी और खड़े होकर तीन डग भरे। कमरा छोटा-सा ही था, पर उन्हें चहलकदमी करना पसन्द था।
रास्ता एक ही है। रूसी मज़दूर विजयी कम्युनिस्ट क्रान्ति की ओर ले जाने वाले खुले राजनीतिक संघर्ष के इस सीधे रास्ते से चलेंगे, यही वह इस समय सोच रहे थे और यही उन्होंने पुस्तक में भी लिखा था। उनकी पुस्तक रूसी मज़दूरों को विजयी कम्युनिस्ट क्रान्ति के लिए आह्वान करती थी। अभी तक कभी किसी ने रूसी मज़दूरों का ऐसा साहसिक आह्वान नहीं किया था।
उस समय व्लादीमिर इल्यीच की अवस्था सिर्फ़ चौबीस साल की थी! वह अभी बिल्कुल युवा थे। मगर जानते बहुत थे और उनका दृढ़ विश्वास था कि रूसी मज़दूर क्रान्ति करके रहेंगे।
चार परचे
पुलिस घर-घर जाकर विद्रोह करने वालों को पकड़ रही थी और हाथ पीठ के पीछे बाँधकर थाने ले जा रही थी।
“मालिक का गोदाम तोड़ा था? तोड़ा था। चलो जेल में।”
“मैनेजर के दफ़्तर को आग लगायी थी? चलो जेल में।”
बाबुश्किन प्रतीक्षा कर रहा था कि जल्दी ही उसकी भी बारी आयेगी।
रात गये किसी के एक ख़ास ढंग से दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आयी।
यह व्लादीमिर इल्यीच थे। पाले से आपाद-मस्तक सफ़ेद। यहाँ तक कि भौंहों पर भी बर्फ़ की धूल जम गयी थी। ओवरकोट उतारकर ठण्ड से जमे हाथों को मलते हुए और साथ ही कमरे में चहलकदमी करते हुए वह पूछने लगे:
“हाँ, तो बताइये, कैसे शुरू हुआ? मज़दूरों को क्या भुगतना पड़ा?”
बाबुश्किन व्लादीमिर इल्यीच के सामने अपना सारा दिल उँड़ेलकर रख देना चाहते थे। कल कारख़ाने में हुए विद्रोह, गोदाम के तोड़े जाने और मैनेजर के दफ़्तर को आग लगाये जाने की याद स्मृति में अभी ताज़ा थी। गोदाम तोड़ने और दफ़्तर को आग लगाने के लिए ही तो आज पुलिस मज़दूरों को गिरफ़्तार कर रही थी।
“नहीं, चेतनाशील मज़दूरों का संघर्ष दंगे-उत्पातों के ज़रिये नहीं चलाना चाहिए,” व्लादीमिर इल्यीच ने कहा। “इस बारे में परचा निकालना होगा।”
और दोनों मेज़ के पास बैठ गये और दबी आवाज़ में विचार-विमर्श करने लगे कि परचे में क्या लिखना है, कि संघर्ष की घड़ी आ गयी है और ख़ुद अपने अलावा और कोई मज़दूरों को इस ग़ुलामी से मुक्ति नहीं दिलायेगा। मगर संघर्ष दंगे-फ़सादों के ज़रिये नहीं, बल्कि संगठित तरीक़े से करना है।
रात काफ़ी हो गयी थी। बाबुश्किन की नज़र लेनिन की तेज़ी से चलती कलम पर टिकी हुई थी। अचानक सिर झुककर मेज़ से टकराते-टकराते बच गया:
“नहीं, कोई बात नहीं। बस यूँ ही!”
“यूँ ही ऊँघने लगे थे,” व्लादीमिर इल्यीच हँस पड़े। “बेहतर होगा कि सो जाइए। सुबह भोर में काम पर जाना होगा।”
बाबुश्किन ने कुछ नहीं कहा और सो गये। व्लादीमिर इल्यीच परचे की नक़ल करने लगे। नक़ल साफ़-साफ़ और बड़े अक्षरों में करनी थी, ताकि मज़दूर आसानी से पढ़ सकें। एक के बाद एक करके उन्होंने चार परचे लिख डाले।
तभी अचानक फ़ैक्टरी का भोंपू बजने लगा, जिसकी आवाज़ सारे आकाश, सारी बस्ती में गूँजती हुई बाबुश्किन के घर की बर्फ़ से ढँकी खिड़की से भी टकरायी।
नेवा पार की सारी बस्ती जग गयी।
“बाबुश्किन, उठने का समय हो गया है,” व्लादीमिर इल्यीच ने जगाते हुए कहा।
बाबुश्किन चौंककर बैठ गये और आँखें मलने लगे कि कहीं व्लादीमिर इल्यीच को सपने में तो नहीं देख रहे हैं। मगर फिर मेज़ पर पड़े चार परचों पर नज़र पड़ी, तो रात की सब बातें याद हो आयीं।
“इन्हें मज़दूरों के बीच बाँटना है,” व्लादीमिर इल्यीच ने कहा। “अफ़सोस है कि और नहीं लिख सका।”
वे घर से निकल पड़े। आकाश में धूमिल, नीले तारे अभी भी टिमटिमा रहे थे। चिमनियों से धुएँ के सफ़ेद बादल उठ रहे थे। सड़क पर मज़दूरों की काली छायाएँ दौड़ रही थीं। व्लादीमिर इल्यीच और बाबुश्किन जाकर उनके बीच खो गये।
बाबुश्किन ने जेब से परचे निकाले और चुपके से जान-पहचान के मज़दूरों को दे दिये। वे पढ़ने के बाद दूसरे मज़दूरों को दे देंगे।
“हमारा पहला आन्दोलन-परचा है। सफलता की कामना करता हूँ, बाबुश्किन, ” व्लादीमिर इल्यीच ने कहा।
हमारा आन्दोलन दबाया नहीं जा सकता
8 दिसम्बर, 1895 को नदेज़्दा क्रूप्स्काया के घर में ‘संघर्ष लीग’ की बैठक थी। लीग ने ग़ैरक़ानूनी अख़बार ‘रबोचेये देलो’ (मज़दूर ध्येय) निकालने का फ़ैसला किया था। बैठक में पहले अंक के लिए एकत्र सामग्री पर विचार होना था। सभी मुख्य लेख, जोशीले और निर्भीक लेख, व्लादीमिर इल्यीच ने लिखे थे।
यह तय किया गया कि अख़बार को किसी गुप्त छापाख़ाने में छापा जाये। फ़िनलैण्ड की खाड़ी के तट पर, पीटर्सबर्ग के बाह्यांचल में एक ऐसा छापाख़ाना था।
सारी सामग्री अनातोली वानेयेव को दे दी गयी। यह 23 वर्षीय विद्यार्थी तनमन से क्रान्तिकारी कार्य को अर्पित था। व्लादीमिर इल्यीच सबसे उत्तरदायित्वपूर्ण काम उसी को सौंपा करते थे। कल वानेयेव लेखों को छापाख़ाने में ले जायेगा और शीघ्र ही मज़दूरों के हाथों में उनका पहला अख़बार होगा।
बैठक काफ़ी देर से ख़त्म हुई। सभी अपने-अपने घरों को चल दिये।
व्लादीमिर इल्यीच वहीं बैठे रहे। वह नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना के साथ बातें कर रहे थे। मगर बातें थीं कि ख़त्म ही नहीं होती थीं। साथियों की चर्चा चलती, तो व्लादीमिर इल्यीच हर किसी में कोई न कोई विशेषता खोज लेते और उसकी तारीफ़ के पुल बाँध देते। वह लोगों से प्यार करते थे। चर्चा मज़दूरों की भी चली। कैसी उनमें ज्ञान-पिपासा है! बाबुश्किन को ही लें। कितने योग्य और प्रतिभावान हैं—
“अच्छा, नाद्या, अब चलूँगा,” व्लादीमिर इल्यीच ने आख़िरकार कहा। “कल फिर आऊँगा।”
सड़कें सुनसान थीं। इक्की-दुक्की बत्तियाँ ही जल रही थीं। उनके धूमिल उजाले में भी तारे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे। व्लादीमिर इल्यीच घोड़ाट्राम में पब्लिक लाइब्रेरी तक पहुँचे। यहाँ भी नीरवता थी। वह अकेले थे। बर्फ़ के बोझ से अलेक्सान्द्रिन्स्की पार्क के लिण्डन वृक्षों की टहनियाँ झुक गयी थीं। तभी कोई टहनी टूटी और उससे सूखी बर्फ़ हवा में बिखर गयी। व्लादीमिर इल्यीच इस समय अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में थे।
कुछ समय पहले उन्होंने गोरोख़ोवाया सड़क पर एक मकान में कमरा किराये पर लिया था। भेदिये प्रायः उनका पीछा करते थे, इसलिए सावधानी के लिए प्रायः पता बदलते रहना पड़ता था।
घर पहुँचने पर वह दबे पाँव अपने कमरे में घुसे, ताकि मालकिन जाग न जाये। अभी सोने की इच्छा नहीं थी। सोचा कि क्यों न कुछ पढ़ लिया जाये। व्लादीमिर इल्यीच ने अपनी अगली किताब के लिए सामग्री चुनी और पढ़ाई में इतना डूब गये कि समय का भी ख़याल न रहा। घड़ी पर देखा, तो दो बजने वाले थे।
“अब सोना चाहिए,” उन्होंने मन ही मन कहा, पर फिर पढ़ने में मशगूल हो गये।
दो बजे किसी ने घण्टी बजायी।
व्लादीमिर इल्यीच एकाएक कुछ समझ न पाये और आश्चर्य के मारे कान लगाकर सुनने लगे।
सबसे पहले दरबान घुसा, जो चमड़े का कोट और एप्रन पहले था। उसके पीछे-पीछे बिना कोई आवाज़ किये सिविल वर्दी में दो आदमी व्लादीमिर इल्यीच के कमरे में दाखि़ल हुए। उनके पीछे पुलिस का अफ़सर था।
“गिरफ़्तारी का वारण्ट है।”
सिविल वर्दी वाले आदमी कमरे की तलाशी लेने लगे। किताबों को उलटा-पलटा, बिस्तर उठाकर देखा, अँगीठी और अँगीठी की चिमनी में झाँका।
व्लादीमिर इल्यीच बिना कुछ कहे दीवार के पास खड़े रहे।
वह अपने साथियों के बारे में सोच रहे थे। वे कहाँ हैं? गिरफ़्तार वह अकेले हुए हैं या साथी भी? और नाद्या? क्या हमारा आन्दोलन ख़त्म हो गया है? “नहीं, अब हमें ख़त्म नहीं कर सकते,” व्लादीमिर इल्यीच ने सोचा। “हमारा आन्दोलन दबाया नहीं जा सकता! हम नहीं होंगे, तो दूसरे सैकड़ों-हज़ारों मज़दूर उठ खड़े होंगे, रूस का सारा मज़दूर तबक़ा उठ खड़ा होगा!”
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020
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