फ़ासीवाद को मज़दूर वर्ग के काडर आधारित आन्दोलन के नेतृत्व में जनप्रतिरोध के रास्ते ही हराया जा सकता है
– श्रवण यादव रतलामी
ये समझना ज़रूरी है कि “फ़ासीवाद” महज़ दक्षिणपन्थी ताक़तों या अपने अन्य विरोधियों के लिए विशेषण या गाली के रूप में इस्तेमाल होने वाली भड़ास वाली चलताऊ शब्दावली नहीं है, बल्कि राजनीतिक अर्थशास्त्र में इस्तेमाल होने वाली एक क्लासिकीय शब्दावली है। “फ़ासीवाद” का अर्थ है वित्तीय पूँजी की निरंकुश तानाशाही, उसका काडर आधारित सामाजिक आन्दोलन, व जिसका आधार मुख्यतः टटपुँजिया वर्ग और मध्यवर्ग के बीच होता है, व इसके अलावा मज़दूर वर्ग के एक छोटे से हिस्से के बीच भी मौजूद होता है।
इसीलिए फासिज़्म को मज़दूर वर्ग के काडर आधारित आन्दोलन के नेतृत्व में होने वाले जनप्रतिरोध के रास्ते ही पराजित किया जा सकता है, न कि सोशल इंजीनियरिंग के अवसरवादी जुगाड़ों से या फिर चुनाव के महज़ चंद हफ़्ते/महीने पहले अवतरित होकर जनता से किए जाने वाले हवा हवाई वायदों से। फ़ासिस्टों का आन्दोलन ज़मीन पर अनवरत जारी रहता है भले ही उनकी सत्ता रहे या न रहे, अपनी शाखाओं, मंडलियों, यूथ क्लबों, सरस्वती शिशु मंदिरों के रूप में, राम मंदिर आन्दोलन, गौ रक्षा आन्दोलन, उग्र राष्ट्रवादी गोलबन्दी, अल्पसंख्यक विरोधी विद्वेष, स्वदेशी जागरण मंच आदि के रूप में, देशभर में कार्यरत संघ के दर्जनों अनुषांगिक संगठनों के द्वारा। इस आन्दोलन का चरित्र घोर ब्राह्मणवादी और स्त्रीद्वेषी है, लेकिन फिर भी इस आन्दोलन की जड़ें पिछड़ी व दलित जातियों, आदिवासियों और स्त्रियों तक भी पहुँच बना चुकी हैं। ऐसे फ़ासिस्ट आन्दोलन को हराने के लिए जिस फ़ासीवाद विरोधी काडर आधारित आन्दोलन की दरकार है उसकी उम्मीद फलाना जाति या ढिमका मज़हब या फलाना सम्प्रदाय के वोटों की ठेकेदारी के भरोसे रहने वाले संगठनों और नेताओं से की ही नहीं जा सकती।
पिछली एक सदी के भीतर जिन जिन देशों में फ़ासिस्ट आन्दोलन का विस्तार हुआ, वहाँ उनके विरुद्ध हुए सफल/असफल प्रतिरोधों से हमें यह सीख तो मिलती ही है कि चुनावी जुगाड़ या सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे रहकर फासिज़्म का बाल भी बांका नहीं हो सका है। मज़दूर वर्ग का काडर आधारित संगठन, मेहनतकश तबक़ों के जीवन से जुड़े असली मुद्दों पर खड़ा आन्दोलन, मेहनतकश वर्ग की सामाजिक संस्थाओं का निर्माण, व सड़कों पर फ़ासिस्ट गुंडावाहिनियों के विरुद्ध सतत् जुझारू जनप्रतिरोध खड़ा करके ही फ़ासिज़्म को पराजित किया जा सकता है। एक छोटे से उदाहरण के रूप में लें तो बिहार सहित पूरे देश में बेरोज़गारी ऐतिहासिक स्तर पर है, और यह रोज़गार का संकट व्यवस्था का ढाँचागत संकट है। ये जनता का एक जेन्युइन मुद्दा है जो सीधे-सीधे उसके सर्वाइवल से जुड़ा है। सोचिए जो भीड़ चुनाव के चंद हफ़्तों पहले किए जाने वाले दस लाख नौकरियों के वादे पर भारी संख्या में चुनावी रैलियों में स्वतःस्फूर्त उमड़ सकती है, यदि उस जनसमूह को बेरोज़गारी के मुद्दे पर, एक सतत् जनान्दोलन में मोबिलाइज़ किया जाये तो क्या ज़मीन पर फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ हवा भिन्न नहीं होगी? चुनावी वायदों से इतर, यदि उन्हें एक ऐसे आन्दोलन के लिए मोबिलाइज़ किया जाये जो हर नागरिक के लिए रोज़गार की माँग को मूलभूत संविधानिक अधिकार में शामिल करने जैसी ठोस माँग पर आधारित हो, और ऐसे आन्दोलन के रास्ते सत्ता की चूलें हिलाने का प्रयास किया जाये तो ज़मीन पर मौजूद फ़ासिस्ट आन्दोलन बेशक काउण्टर किया जा सकता है। और ये बस एक छोटा सा उदाहरण है, ऐसे अनेकों मुद्दे हैं जो आम जनता के जीवन में मुँह बाए खड़े हैं, और पूँजीवाद के आर्थिक संकट के इस दौर में जनता पर ऐतिहासिक विपदा बन कर टूट पड़े हैं। वित्तीय पूँजी इस आर्थिक संकट के ख़िलाफ़ होने वाले जनविद्रोह को कुचलने के लिए ही फ़ासीवादी आन्दोलन को पोषित करती है। पर इस आर्थिक संकट को राजनीतिक संकट में अभिव्यक्त करने व इससे जुड़े जनता के मुद्दों को आन्दोलन का रूप देने की असफल सी कोशिश भी ये तथाकथित विपक्षी पूँजीवादी पार्टियाँ नहीं करेंगी क्योंकि बेरोज़गारी, ठेका मज़दूरी, मिनिमम वेज, सार्वभौमिक स्वास्थ्य जैसे मुद्दे आज पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचागत मुद्दे हैं और इन पर होने वाले आन्दोलन संसद विधानसभा की तमाम पक्ष-विपक्ष की पूँजीवादी पार्टियों के वर्ग हितों के विरुद्ध चले जाते हैं।
(फ़ेसबुक से साभार)
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020
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