प्रधानमंत्री आवास योजना की असलियत
जुमले ले लो, थोक के भाव जुमले…
– अनुपम
प्रधानमंत्री आवास योजना के पाँच साल पूरे हो चुके हैं। इस योजना की शुरुआत साल 2015 में की गयी थी और इसके तहत 2022 तक देश में दो करोड़ मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया था। कुछ समय पहले केन्द्रीय वित्त मंत्री ने दावा किया कि इस योजना के तहत 12 लाख नये घर बनेंगे और 18,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन होगा ताकि हाउसिंग और रियल एस्टेट सेक्टर में तेज़ी आये और लाखों बेरोज़गारों को रोज़गार मिल जाये। इस ख़बर के अनुसार ग्रेटर नोएडा के हज़ारों लोग पीएम आवास योजना द्वारा जारी सूची में अपने नाम दर्ज करवा चुकने के बावजूद अभी तक इस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। हालत यह है कि उनके पास योजना द्वारा लोन की पहली क़िस्त तो पहुँच गयी है लेकिन दूसरी क़िस्त पहुँच ही नहीं रही। तो ऐसे में ज़ाहिर है कि लगातार योजना के अन्तर्गत की जा रही नयी-नयी घोषणाएँ आँकड़ों को बढ़ाने का ही एक नुस्ख़ा है जिसपर अमल करके यह दिखा दिया जायेगा कि सरकार ने लाखों बेघरों को घर दे दिया है लेकिन वास्तव में कितनों को लाभ वास्तव में मिलेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है।
दूसरी बात यह कि योजना का लक्ष्य वास्तविक बेघरों को घर देना है ही नहीं। इस योजना के मूल दस्तावेज़ में ही लिखा है कि इसका उद्देश्य कमज़ोर आय वर्ग के लोगों को शहर या गाँव में सस्ती दर पर घर उपलब्ध कराना है। यानी कि यदि आपके पास अपनी नियमित आय के स्रोत का कोई प्रमाण-पत्र है तो ही आप इसके बारे में सोच सकते हैं। जिन लोगों के आय के स्रोत अनिश्चित हैं, जो किसी फ़ैक्ट्री या ऑफ़िस में संविदा या ठेके पर काम करते हैं, या सड़क पर ठेला या खोमचा लगाते हैं, उनके लिए इस योजना में कोई जगह नहीं। क्या झुग्गियों में रहने वाली देश की 24 प्रतिशत आबादी के लिए यह मुमकिन है कि वह मँहगाई के इस दौर में हर महीने कुछ राशि ऋण भरने के लिए अपनी आय से निकाल सके।
ग़रीब आदमी जिसकी थाली से दाल, प्याज और आलू एक-एक करके ग़ायब होते जा रहे हैं, वह हर महीने एक हज़ार रुपये भी अपनी ज़ेब से निकालने से पहले हज़ार बार सोचेगा। लेकिन सरकारें ये सब सोचकर योजनाएँ नहीं बनाती, वे अपने वोट बैंक के अनुरूप योजनाएँ बनाती हैं, इस योजना में भी नाम ग़रीब का है लेकिन उसके लाभार्थी केवल निम्न और उच्च मध्यम वर्ग के गिने-चुने हुए लोग है। बाक़ियों के लिए उसके मकान हज़ारों बीमारों पर एक अनार की तरह हैं जिसके पीछे लोग अपने अराजनीतिक समझ के कारण पागल हैं। उन्हें योजना के तहत बस इतनी छूट दी गयी है कि वे फ़ार्म भरें और फिर सूची में अपना नाम ढ़ूँढ़ते फिरे। नाम छाँटने के भी अपने जातीय और वर्गीय समीकरण हैं। स्थानीय निकायों की कृपा पर भी काफ़ी कुछ निर्भर करता है। ऐसे में अन्ततः यही होता है कि सूची में उन्हीं लोगों के नाम आते हैं जो पार्षद या प्रधान के क़रीबी होते हैं, उनके नाम नहीं आते जो वास्तव में उस योजना के लिखित मानकों के अनुसार भी सभी आवेदकों में उसके हक़दार हों।
उसके बाद निर्माण योजनाओं में घपलों की तो कोई थाह ही नहीं है। बिल्डर, अधिकारी, मंत्री सभी पैसे खाते हैं, किसके पास कितनी राशि पहुँचेगी, इसकी कोई गारण्टी कोई नहीं लेता। उसकी निगरानी, चौकसी और सुनवाई करने का कोई सिस्टम बनाया ही नहीं गया है। आये दिन रोज ही आवास योजनाओं में धाँधली की ख़बरें आती रहती है। मगर ये ख़बरें न केवल दबा दी जाती है, बल्कि उसके साथ ही में यह भी ख़बर मोटे-मोटे अक्षरों में छापी जाती है कि आवास योजना के तहत लोग कितना अधिक लाभान्वित हो रहें हैं। जबकि सच्चाई यह है कि कहीं से बेघरों की संख्या में कमी आने के कोई आसार आँकड़ों में न तो नज़र आते हैं और न ही ऐसा कहीं दिखाई पड़ता है कि सड़क पर सोने वालों की संख्या में कोई कमी आयी हो। बल्कि लॉकडाउन के बाद से देखे गये सड़कों के नज़ारे से तो ऐसा लगता है कि यह संख्या बढ़ी ही है।
तो यह है प्रधानमंत्री आवास योजना, जिसके ढ़िढ़ोरे के पीछे की सच यह है कि यदि योजना बहुत अच्छे से लागू भी होती है तो भी कुल दो करोड़ परिवारों को ही मकान मिलने वाला है और वह भी 2022 तक। योजना के मूल दस्तावेज़ में 25 जून 2015 से 31 जून 2022 तक इतने ही घर बनवाने का लक्ष्य इस योजना के अन्तर्गत रखा गया था। 2014 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में झुग्गियों में रहने वाली आबादी की संख्या 30 करोड़ से भी ज़्यादा है, तो इनमें से दो करोड़ लोगों को अगर घर मिल भी जाता है तो उसे सबको घर मिलना तो क़तई नहीं कह सकते। ऐसे में इसका नारा ‘हाउसिंग फॉर ऑल (सभी के लिए घर)’ जनता के जले पर नमक छिड़कना ही है।
इन योजनाओं को चलते रहने से रियल एस्टेट से जुड़े पूँजीपति भी ख़ुश ही रहते हैं। उन्हें अगर सीधे ही सरकार से कालोनियाँ बनाने का ठेका मिल जाये, तब तो उनकी बाँछें ही खिल जाती हैं। बाद में उनके द्वारा बनाये गये इन सस्ते घरों की छतें या दीवार गिरने से कोई बच्चा-औरत या मर्द मर जाता है, तो इससे भी उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इससे भी उनकी साख़ पर भी कोई बट्टा तो लगने से ही रहा क्योंकि लोगों को लगता है कि कम पैसे में बने घर का जल्दी जर्जर होना लाज़िमी है। उन्हें यह नहीं मालूम होता है कि उसी घर के निर्माण के लिए ऊपर से कितने पैसे आवण्टित हुए हैं और कितनी सब्सिडी उन्हें मिली है। इन्हीं सब कारणों से वे आन्दोलन या किसी क़िस्म का विरोध भी अक्सर नहीं करते, और जनदबाव के अभाव में फिर घटिया निर्माण की कोई जाँच नहीं होती।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020
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