एक बार फ़िर देश को दंगों की आग में झोंककर चुनावी जीत की तैयारी
घनघोर आर्थिक संकट में घिरी पूँजीवादी व्यवस्था के इससे उबरने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार रिकार्डतोड़ भ्रष्टाचार, भीषण महँगाई और बढ़ती बेरोज़गारी के कारण लगातार अलोकप्रिय होती जा रही है, लेकिन मुश्किल यह है कि किसी भी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिए कोई मुद्दा नहीं है। इसलिए 2014 के लोकसभा चुनाव करीब आने के साथ ही सारे चुनावी मदारी अपने असली एजेण्डे पर लौट रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी, यूपीए सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता और संकट का लाभ उठाना चाहती है लेकिन भाजपा के नेताओं- मन्त्रियों ने पिछले डेढ़ दशक में केन्द्र की सत्ता और कई राज्यों में सत्ता में रहने के बाद भ्रष्टाचार के ऐसे रिकार्ड बनाये हैं कि इस मुद्दे को उठाने की उनकी हिम्मत ही नहीं है। पूँजीवादी दायरे में आर्थिक संकट से उबरने का रास्ता किसी पार्टी के पास नहीं है। भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों को कोई भी पार्टी नहीं छोड़ सकती। मुनाफ़े की गिरती दर ने पूँजीपति वर्ग के लिए कल्याणकारी नीतियों को लागू कर पाना और भी असम्भव बना दिया है। ऐसे में, सरकार में बैठे लोग न तो बेरोज़गारी पर काबू कर सकते हैं और न ही महँगाई और भ्रष्टाचार पर। जो भी पार्टी सत्ता में आयेगी उसे भी इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाना है। ऐसे में, किसी भी पार्टी के लिए किसी तरह के लोकलुभावन नारे देना नामुमकिन है। तो फिर, बाँटो और राज करो के अलावा उनके पास चुनाव जीतने का और कोई हथकण्डा बचता ही नहीं है।
गुजरात के कत्लेआम के सरगना नरेन्द्र मोदी को आगे करके भाजपा एक बार फिर से राम मन्दिर, उग्र हिन्दुत्व और इस्लामी आतंकवाद के मुद्दे की तरफ लौट रही है, तो उत्तर प्रदेश में सपा ने मुस्लिम वोटों को बटोरने के लिए उसके साथ नूरांकुश्ती का पुराना खेल फिर शुरू कर दिया है। बसपा जैसी जाति-आधारित राजनीति करने वाली पार्टियाँ दलितवाद के एजेण्डे को एक बार फिर से पूरी ताक़त के साथ उछालने में लग गयी हैं; राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उद्धव ठाकरे की शिवसेना फिर से ‘मराठी माणूस’ का राग अलापने लगी हैं; असम से लेकर गुजरात तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी धर्मों के कट्टरपन्थी और कठमुल्ले सक्रिय हो गये हैं।
पिछले फरवरी में भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कुम्भ मेले में घोषणा की कि भाजपा अयोध्या में राम मन्दिर बनाने के प्रति कटिबद्ध है, और वह इसे एक राजनीतिक मुद्दा मानती है, देश के गौरव का मुद्दा मानती है और वह यह मन्दिर बनाकर ही रहेगी। कुम्भ मेले में ही विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल ने कहा कि देश के हिन्दू सरकार को चेतावनी दे रहे हैं कि छह महीने के भीतर सरकार ने अगर एक कानून पास करके अयोध्या में मन्दिर निर्माण की शुरुआत की आज्ञा नहीं दी तो एक बार फिर से हिन्दुओं का एक आन्दोलन शुरू किया जायेगा जो कि 1990 के कारसेवा आन्दोलन से भी बड़ा और भयंकर होगा। नरेन्द्र मोदी को प्रधामंत्री का दावेदार बनाने के बाद से इस अभियान में और तेज़ी आ गयी। गुजरात में कई फर्ज़ी मुठभेड़ों के आरोप में जेल में रह चुके पूर्व मंत्री और मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाने के बाद से भाजपा लगातार प्रदेश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटी है। इसमें उसे मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी तथा बेटे की सरकार से पूरी मदद मिल रही है। पिछले 17 अगस्त को विहिप नेता अशोक सिंघल ने मुलायम सिंह के घर पर मुलाकात करने के बाद बयान दिया कि सपा सरकार 84 कोसी परिक्रमा के लिए सहमत हो गयी है। लेकिन अगले ही दिन मुलायम ने इसका खण्डन कर दिया और फिर सरकार ने इस पर रोक लगा दी। उसके बाद फिर वही सब नाटक शुरू हुआ जिसे देखने के अब इस देश के लोग आदी हो चुके हैं। फैज़ाबाद और अयोध्या के आसपास पुलिस की घेरेबन्दी, विहिप के लोगों की गिरफ़्तारी और दोनों ओर से उग्र बयानबाज़ियाँ। मज़े की बात यह है कि 84 कोसी यात्रा हर साल की तरह इस बार भी मई में शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो चुकी है। मगर विहिप का मकसद इसे अयोध्या के आसपास के 12 ज़िलों में निकालकर धार्मिक उन्माद पैदा करना था। ऐसे नाटकों से जनता जिस तरह ऊबी हुई है और अतीत में ऐसे कार्यक्रमों का जो हश्र हुआ उसे देखते हुए इस बार भी मामला टायं-टायं फिस्स ही होना था लेकिन सपा ने उसे ऑक्सीजन दे दी है।
असल में, भाजपा के निचले काडर भी पिछले 10 वर्षों से जारी भाजपा की दुर्गत से ऊब गये हैं। पूरे देश में भाजपा कांग्रेस को पटखनी देने के लिए जो भी जुगत भिड़ाती है, वह अन्त में उसके ऊपर ही कहर बरपा कर देती है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ज़्यादा उछल-कूद मचायी तो व्यापारी गडकरी की बलि चढ़ गयी। सरकारी सौदों और ख़रीद में घोटालों की बात की तो उसके ही कई मन्त्री चपेट में आ गये! इसलिए अब फ़ासीवादी मानसिकता वाले भाजपा काडरों (जिसमें कि छोटे व्यापारियों, व्यवसायियों और उनके लुच्चे-लम्पट लौण्डों की जमात सबसे प्रमुख है) में यह राय बनने लगी है, कि बाकी सारे मुद्दे बेकार हैं और वास्तव में एक ही मुद्दे को लेकर देश में ध्रुवीकरण कराया जाना चाहिए – मुसलमान-विरोध और राम मन्दिर। ज़मीनी धरातल पर भाजपाइयों ने संघ परिवार के बाकी संगठनों के साथ मिलकर ऐसे प्रयास शुरू भी कर दिये हैं, और ऐसे प्रयोग का केन्द्र इस समय उत्तर प्रदेश बन रहा है, क्योंकि भाजपा को यह बात समझ में आ चुकी है कि 80 सांसदों वाले उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी लहर भड़काये बगै़र केन्द्र की सत्ता में आने का सपना सपना ही रह जायेगी। यही कारण है कि पिछले दो से तीन वर्षों में उत्तर प्रदेश के कई शहरों में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की भरपूर कोशिशें की गयीं, जैसे कि बरेली, फैज़ाबाद, गोरखपुर आदि। ऐसे ही प्रयास राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी जारी रहे।
भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेण्डे की तरफ खिसकने की प्रक्रिया और उसकी सफलता की सम्भावना बढ़ाने की प्रक्रिया को हमेशा की तरह न सिर्फ़ हिन्दू कट्टरपन्थी ताक़तें बल दे रही हैं, बल्कि मुस्लिम कट्टरपन्थी ताक़तें भी इसमें पूरी मदद कर रही हैं। क्योंकि वास्तव में जब भी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद पनपता है, तो उससे केवल बहुसंख्यवादी हिन्दुत्व फ़ासीवाद को ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यवादी इस्लामी कट्टरपन्थी फ़ासीवाद को भी खाद-पानी मिलता है। पूँजीवादी व्यवस्था का संकट बढ़ने से एक ख़तरा इस्लामी कट्टरपन्थियों के सामने भी पैदा हो गया था। ये सारे कठमुल्ले जानते हैं कि अगर व्यवस्थागत संकट बढ़ेगा तो जनता वर्गीय गोलबन्दी की तरफ आगे बढ़ सकती है। अगर हिन्दू और मुसलमान ग़रीब जनता अपने आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर एकजुट और गोलबन्द होने लगे तो हिन्दुत्वादी कट्टरपन्थियों के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरपन्थियों की दुकानें भी तो बन्द हो जायेंगी। इसलिए इसी समय सारे मुस्लिम कट्टरपन्थी भी जाग उठे हैं। वे ऐसे बयान क्यों दे रहे हैं? ताकि मज़दूरों, आम मेहनतकश जनता और विशेष तौर पर जो एक बड़ी टटपुँजिया वर्गों की आबादी इस देश में है, उसे धार्मिक और साम्प्रदायिक लाइन पर बाँटा जा सके। फिर से दंगे भड़कें, फिर लाशों से सड़कें पट जायें, फिर से महिलाओं के साथ बलात्कार हो, फिर से मेहनतकशों का क़त्ल और विस्थापन हो! और एक बार फिर से ‘ख़ून की बारिश से वोटों की फसल लहलहाए।’ हम मज़दूर साथियों और आम मेहनतकशों से पूछते हैं कि ऐसे भड़काऊ बयानों पर अपने ख़ून में उबाल लाने से पहले ख़ुद से पूछियेः क्या ऐसे दंगों में कभी तोगड़िया, ओवैसी, राज ठाकरे, आडवाणी या मोदी जैसे लोग मरते हैं? क्या कभी उनके घर की औरतों के साथ बलात्कार, उनके घर के बच्चों का क़त्ल होता है? नहीं साथियो! इसमें हम मरते हैं, हमारे लोगों की बेनाम लाशें सड़कों पर पड़ी धू-धू जलतीं हैं। सारे के सारे धार्मिक कट्टरपन्थी तो भड़काऊ बयान देकर अपनी ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा, पुलिसवालों और गाड़ियों के रेले के साथ अपने महलों में वापस लौट जाते हैं! और हम? हम उनके झाँसे में आकर अपने ही वर्ग भाइयों से लड़ते हैं! और इसका फ़ायदा किसे मिलता है? इसका फ़ायदा मिलता है इस देश की सत्ता पर विराजमान हिन्दू और मुसलमान शासकों को, मन्त्रियों-नेताओं को, व्यापारियों- व्यवसायियों को, तरह-तरह के दलालों, ठेकेदारों को और पूँजीपति घरानों को!
एक तरफ जहाँ भाजपा जैसी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें एक बार फिर से धार्मिक कट्टरपन्थी फ़ासीवादी उन्माद भड़काकर, दंगे फैलाकर, और जनता की लाशों पर रोटी सेंकते हुए सत्ता में आने की तैयारी में लगी हुई हैं, वहीं कांग्रेस ने भी नरम हिन्दू कार्ड खेलने के साथ ही मुसलमानों को भरमाने के उपक्रम भी शुरू कर दिये हैं। सबसे अच्छी नीति उसके लिए यही है कि सेक्युलरिज़्म की बातें करते हुए, जब ज़रूरत हो तो हिन्दुओं को रिझाने के लिए कुछ कदम उठा दो, और जब ज़रूरत पड़े तो अपने आपको साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का एकमात्र विकल्प साबित कर दो। इसके साथ उसने खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसी कुछ लोकलुभावन नीतियों की बात भी शुरू कर दी है। लेकिन कांग्रेस ने अपने सारे पत्ते खोलने की बेवक़ूफ़ी नहीं की है। भाजपा अगर हिन्दुत्व के मुद्दे पर खुलकर वापस लौटती है, तो कांग्रेस इसका भी लाभ उठाने की कोशिश करेगी। कुल मिलाकर साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और दंगों का फ़ायदा अगर भाजपा को मिलेगा तो कांग्रेस को भी मिलेगा।
आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, मेहनतकशों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2013
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