कोरोना महामारी के बीच मोदी सरकार का श्रम क़ानूनों पर बड़ा हमला

– अंगद

जहाँ एक तरफ़ आर्थिक संकट और कोरोना महामारी के इस दौर में मेहनतकश आबादी पहले ही बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी से परेशानहाल है वहीं दूसरी तरफ़ मोदी सरकार पूँजीपतियों को मज़दूरों के ख़ून का एक-एक कतरा निचोड़ लेने के लिये बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने में बुलेट ट्रेन की स्पीड से लग गयी है। वैसे तो उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही श्रम क़ानूनों को कमज़ोर बनाने का काम अन्य सरकारों ने भी किया है लेकिन मोदी सरकार उन्हें पूरी तरह ख़त्म कर देने पर आमादा है।
सितम्‍बर के महीने में संसद द्वारा पारित कृषि सम्‍बन्‍धी विधेयक पर मीडिया में जमकर चर्चा हुई, लेकिन उसी दौरान पारित श्रम क़ानूनों से जुड़े तीन विधेयकों पर हमेशा की तरह चुप्‍पी पसरी रही । इन तीन श्रम विधेयकों में पहला ‘औद्योगिक सम्बन्ध संहिता विधेयक 2020’, दूसरा ‘आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता विधेयक 2020’ और तीसरा ‘सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2020’ शामिल हैं। फ़ासिस्ट मोदी सरकार ने इन विधेयकों को विपक्ष की ग़ैर-मौजूदगी में राज्यसभा में तानाशाहाना तरीक़े से पारित किया। हालाँकि मेहनतकशों के लिए वैसे भी विपक्ष का कोई मायने ही नहीं था क्योंकि मौजूदा विपक्ष भी सत्ता में रहते हुए लगभग ढाई दशक तक उदारीकरण की इन्ही मज़दूर-विरोधी नीतियों को लागू करता रहा है।
पारित किये गये विधेयकों में पहला ‘औद्योगिक सम्‍बन्‍ध संहिता विधेयक 2020’ के मुताबिक 300 से कम मज़दूरों वाले कारख़ानों को ‘स्थायी आदेश’ (स्टैण्डिंग ऑर्डर) तैयार करने की आवश्यकता नहीं है। जबकि पहले यह छूट 100 से कम मज़दूरों वाले कारख़ानों को ही थी। ‘स्थायी आदेश’ तैयार करने का मतलब होता है, औपचारिक रूप से कारख़ाने की आचार नियमावली। इसको ख़त्म करने का मतलब है कि मालिक मज़दूरों से मनमानी शर्तों पर काम लेंगें और मज़दूर किसी भी प्रकार के शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं कर सकता। यह विधेयक मालिकों को पूरी छूट देता है कि वे कभी भी मज़दूरों को कम्पनी से निकाल सकते हैं और कम्पनी बन्द कर सकते हैं। पहले 100 से कम मज़दूरों वाली कम्पनियों को छँटनी व कम्पनी बन्द करने के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी, अब इस क़ानून के बनने के बाद यह सीमा बढ़ाकर 300 कर दी गयी है।
इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि मज़दूर 60 दिनों की नोटिस के बिना कोई हड़ताल नहीं कर सकते। साथ ही राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण या अन्य न्यायाधिकरण के समक्ष क़ानूनी कार्रवाई के दौरान और इस कार्रवाई के 60 दिन बाद तक किसी भी प्रकार की हड़ताल नहीं की जा सकती। इस तरह यह क़ानून न केवल पूँजीपतियों को मज़दूरों से मनमानी शर्तों पर काम लेने की छूट देगा बल्कि मज़दूरों के हड़ताल करने के अधिकार को भी ख़त्म कर देगा। ज्ञात हो की पहले सिर्फ जनोपयोगी आवश्यक सेवाओं जैसे कि बिजली, पानी, टेलीफोन, प्राकृतिक गैस आदि पर ही यह कानून लागू था और इसके लिए भी दो हफ़्ते पहले नोटिस देने की आवश्यकता थी। ज़ाहिर है कि अब मोदी सरकार मज़दूरों के सारे श्रम अधिकारों को छीन कर पूँजी की नग्न लूट और तानाशाही को लागू करने पर आमादा है। और अगर कोई मज़दूर इसका विरोध करता है या हड़ताल पर जाता है तो उसे भी गैर-क़ानूनी करार देने की पूरी तैयारी इस मज़दूर-विरोधी सरकार ने कर रखी है।
इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि फ़ैक्ट्री का मालिक सिर्फ़ उसी मज़दूर यूनियन की बात सुनेगा जिसमें कारख़ाने के 51 प्रतिशत मज़दूर सदस्य होंगें। यानी पूँजीपतियों द्वारा दलाल ट्रेडयूनियन पालकर मज़दूरों के वास्तविक हितों की लड़ाई लड़ने वाली यूनियन को निष्प्रभावी बनाने का उपाय भी इस विधेयक में मौजूद है। दूसरा विधेयक ‘सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2020’, ‘कर्मचारी भविष्य निधि एक्ट 1952’, ‘मातृत्व लाभ एक्ट 1961’, ‘असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा एक्ट 1961’ सहित नौ क़ानूनों की जगह लेगा। इस विधेयक में नेशनल सिक्योरिटी बोर्ड बनाने का प्रस्ताव है। इसमें यह बात कही गयी है कि यह बोर्ड मज़दूरों की भलाई के लिए योजनाएँ शुरू करने का सुझाव देगा। लेकिन इस सम्बन्ध में इस क़ानून में कोई स्पष्टता नहीं है कि वे वास्तविक सुविधाएँ क्या होंगी जो मज़दूरों को मिलेंगी।
तीसरा विधेयक ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता विधेयक’ है जो व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की परिस्थितियों को विनियमित करने वाले क़ानूनों को समेकित करता है। यह विधेयक असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों जैसे छोटी खदानों, ईंट भट्ठे, निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले और संगठित क्षेत्र के अनौपचारिक तौर पर काम करने वाले मज़दूरों के बारे में कुछ नहीं कहता है।
2008 से जारी विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी अब अपने चरम पर है और कोरोना महामारी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व मन्दी के दौर से गुजर रही है और भारत में इसकी मार सबसे ज़्यादा पड़ी है। अभी ताज़ा आँकड़े के अनुसार इस साल के पहली तिमाही में जीडीपी में करीब 24 फीसदी तक की गिरावट हुईv है। ज़ाहिर है की यह सिर्फ औपचारिक क्षेत्र का आँकड़ा है और इनमें भी वास्तविक उत्पादन क्षेत्र में इससे कहीं ज्यादा की गिरावट हुई है। अगर अनौपचारिक क्षेत्र का वास्तविक आँकड़ा सामने आता तो तस्वीर और भयानक होती। मुनाफ़े की गिरती दर के संकट के ऐसे समय में फ़ासिस्ट/धुर-दक्षिणपंथी सरकारें मज़दूरों के बचे हुए क़ानूनी अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं और हर सम्भव तरीके से नये उत्पादित मूल्य में उनके हिस्से को कम से कम रखने की तमाम कोशिशें करती हैं ताकि मुनाफ़े की इस गिरती दर को वापस पलटा जा सके।
इन सभी मज़दूर-वर्ग विरोधी कानूनी बदलावों के विरोध में तमाम बुर्जुआ और सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ तक चूँ नहीं कर रही हैं। हाल ही में, तीन कृषि अध्यादेशों के ख़िलाफ़ इस्तीफों और हो-हल्ले की ज़बरदस्त राजनीति लोक सभा से लेकर राज्य सभा तक देखी गयी। लेकिन मज़दूरों के मसले पर तमाम दलों की वर्ग अवस्थिति दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जाती है।
मज़दूरों के हितों का दम्‍भ भरने वाली ट्रेड यूनियनों ने भी मज़दूरों के हितों पर फ़ासिस्‍ट सरकार द्वारा किये गए इतने बड़े हमले के ख़ि‍लाफ़ ज़बानी जमा ख़र्च के अलावा कुछ भी नहीं किया। सोचने वाली बात है धनी किसान अपने हितों पर हो रहे हमलों के ख़ि‍लाफ़ आन्‍दोलन कर रहे हैं लेकिन ट्रेडयूनियनें मज़दूरों के हितों की सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं कर रही हैं। मज़दूर साथियों को यह बात अब समझ लेनी चाहिए कि चुनावी पार्टियों और संसदीय वामपन्थियों से जुड़ी हुई ट्रेड यूनियनें – सीटू , एटक, इंटक ,बीएमएस, एचएमएस आदि समझौतापरस्त और दलाल हो चुकी हैं पिछले तीस वर्षों में, जबसे उदारीकरण की नीतियाँ लागू हुई हैं, इन ट्रेडयूनियनों ने मज़दूर विरोधी नीतियों के विरोध में एक दिनी रस्मी हड़ताल जैसी क़वायदें करने के अलावा किया क्या है? श्रम क़ानूनों में तेज़ी से हो रहे बदलावों के विरोध में जब तक मज़दूरों की बड़ी आबादी नहीं खड़ी होगी तब तक वह अपने हक़ों की महफ़ूज़ नहीं रख पाएगी।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2020


 

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