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ट्रॉट-बुण्डवादी क़ौमवादियों का नेतृत्व मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों की टांग तोड़ने के बाद अब आन्दोलन के इतिहास के साथ दुराचार करने की मुहिम में जुटा
सम्पादक मण्डल, ‘मज़दूर बिगुल’
‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की ओर से ‘प्रतिबद्ध’ के फ़ेसबुक पेज पर अभी-अभी एक पोस्ट पड़ी है (http://m.facebook.com/story.php?story_fbid=629710034411845&id=100021185622512, इसका हिन्दी अनुवाद कमेण्ट सेक्शन में देखें), जो हमारे लिए ज़रा भी आश्चर्यजनक या ‘शॉकिंग’ नहीं थी। ख़ास तौर पर पिछले एक वर्ष के दौरान (वैसे इसकी विकास प्रक्रिया पहले से ही जारी थी), इस धारा के भीतर जो क़ौमवादी और भाषाई पहचानवादी भटकाव लगातार फलता-फूलता गया है और एक मुकाम पर पहुँच कर अब जब वह लाइन अपने सांगोपांग रूप में दिखने लगी है तो उसे एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि चाहिए और उसे एक कार्यक्रमगत फ्रेमवर्क चाहिए, ताकि वह अपनी बात को एक “तार्किक निरन्तरता और सुसंगति” दे सके। जब किसी के पास इतिहास नहीं होता है, तो इतिहास निर्मित (construct) करना उसकी मजबूरी बन जाता है। ‘प्रतिबद्ध’ की भी यही स्थिति है, जो कि उनकी इस नयी पोस्ट में पूरी तरह अनावृत्त होकर सामने आ गयी है।
‘प्रतिबद्ध’ की इस छोटी-सी पोस्ट में हमें भविष्य का स्पष्ट दिशा-संकेत मिल जाता है। यह पोस्ट इतिहास की भयंकर दुर्व्याख्या करती है, तथ्यों को सुविधानुसार तोड़ती-मरोड़ती है, और राष्ट्रीय प्रश्न पर अपने क़ौमवादी स्टैण्ड को उचित ठहराने के लिए देश स्तर के बुनियादी अन्तरविरोधों की एक हास्यास्पद समझ प्रस्तुत करती है। अन्तरविरोधों की यह समझ प्रस्तुत करते हुए वह द्वन्द्ववादी पद्धति की भी ऐसी की तैसी कर डालती है। आइए, अब हम सिलसिलेवार देखते हैं कि यह कैसे हुआ है। पहले हम अपनी आलोचना में इसी प्रश्न को लेंगे जिस पर हम पहले भी काफ़ी कुछ लिख चुके हैं, यानी राष्ट्रीय प्रश्न।
भारतीय समाज में बुनियादी अन्तरविरोधों का सवाल और क़ौमी सवाल पर ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की अवस्थिति: मार्क्सवाद से क़ौमवाद और वर्ग सहयोगवाद की ओर विपथगमन
इस पोस्ट में ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप ने बताया है कि भारतीय समाज के तीन बुनियादी अन्तरविरोध हैं:
“1. भारत के मेहनतकश लोगों और साम्राज्यवाद के बीच का अन्तरविरोध
“2. श्रम और पूँजी का अन्तरविरोध
“3. भारतीय राज्य और विभिन्न क़ौमों के बीच का अन्तरविरोध
“अन्तिम अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति कश्मीर और उत्तर-पूर्व के हथियारबन्द राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों के रूप में, बाक़ी बचे भारत में, क्षेत्रीय पार्टियों के उभार, अलग मसलों पर केन्द्र और राज्यों के टकराव के रूप में होती रहती है।” (उपरोक्त पोस्ट से)
अब इस छोटे-से उद्धृत पैराग्राफ़ में की गयी भयंकर मूर्खताओं का एक-एक करके विश्लेषण करते हैं।
मार्क्सवादी विश्लेषण की पद्धति के विषय में सुखविन्दर की समझ का दीवालियापन
इसमें सबसे पहले तो हम पद्धति-शास्त्र (मेथडॉलजी) की एक बचकानी ग़लती की ओर इंगित करना चाहेंगे। जब साम्राज्यवाद से किसी पूरे देश की जनता का अन्तरविरोध होता है और उसमें राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग शामिल होता है और क्रान्ति में चार वर्गों का रणनीतिक संश्रय बनता है, तो हम कहते हैं कि साम्राज्यवाद से उस देश की जनता का अन्तरविरोध होता है। जैसे ही देश की राज्यसत्ता देशी पूँजीपति वर्ग के हाथों में आ जाती है और पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा क्रान्ति का रणनीतिक संश्रयकारी नहीं रह जाता है, यानी कि समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल आ जाती है जिसका तीन वर्गों का रणनीतिक संश्रय होता है, तो साम्राज्यवाद से उस देश की मेहनतकश जनता का अन्तरविरोध बुनियादी तौर पर श्रम और पूँजी के बीच के ही अन्तरविरोध की श्रेणी में ही आता है। देश के भीतर जो पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के भीतर का अन्तरविरोध है, यानी कि श्रम और पूँजी के बीच का जो अन्तरविरोध है, हम साम्राज्यवाद से मेहनतकश जनता के अन्तरविरोध को उससे अलग करके देख ही नहीं सकते, बल्कि यह कह सकते हैं कि उस अन्तरविरोध की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति और रूप साम्राज्यवाद से मेहनतकश जनता के अन्तरविरोध के रूप में सामने आती है। दूसरे शब्दों में, जब तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद देश के बुर्जुआ शासक वर्ग का साम्राज्यवाद के साथ अन्तरविरोध शत्रुवत अन्तरविरोध की श्रेणी से बाहर चला जाता है तो एक शिविर साम्राज्यवाद और देशी पूँजीपति वर्ग का बनता है और दूसरा शिविर मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में जनता के तीन वर्गों का बनता है।
इसलिए राज्यसत्ता में देशी पूँजीपति वर्ग के क़ाबिज़ होने, राजनीतिक स्वतंत्रता के कार्यभार के पूरे होने और समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल आने के साथ साम्राज्यवाद के साथ मेहनतकश जनता के अन्तरविरोध और श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध को दो अलग बुनियादी अन्तरविरोधों के तौर पर गिनना राजनीतिक अर्थशास्त्र और आम तौर पर पद्धतिशास्त्र की एक मूर्खतापूर्ण और बचकानी ग़लती है। इसकी वजह यह है कि राजनीतिक स्वतंत्रता के प्राप्त हो जाने के बाद ऐसे देशों में साम्राज्यवादी हितों की नुमाइन्दगी भी साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर की भूमिका निभाने वाला देशी पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता ही करते हैं, चाहे इस जूनियर पार्टनर और साम्राज्यवाद के बीच अधिशेष विनियोजन में हिस्सेदारी के अनुपात को लेकर कितने ही अन्तरविरोध क्यों न हों। ऐसे सभी सापेक्षिक रूप से पिछड़े उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देशों में देश के पैमाने पर हो रहे अधिशेष विनियोजन और साथ ही दुनिया के पैमाने पर भी हो रहे अधिशेष विनियोजन में हिस्सेदारी को लेकर देशी पूँजीपति वर्ग और साम्राज्यवाद के बीच अन्तरविरोध कितने भी तीखे क्यों न हो जायें, वे शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध की श्रेणी में नहीं आयेंगे, तब तक जब तक कि यह देशी पूँजीपति वर्ग स्वयं एक साम्राज्यवादी पूँजीपति वर्ग न बन गया हो और यह अन्तरविरोध एक शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध, यानी अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का रूप न ले ले। यह मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र और राजनीतिक विश्लेषण की बुनियादी बात है, जिसे ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप का नेतृत्व नहीं समझता है, हालाँकि हमें इसमें कोई ताज्जुब नहीं है क्योंकि मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों की भी इस ग्रुप ने जो समझदारी पेश की है, उसे बेहद उदारता के साथ मूर्खतापूर्ण ही कहा जा सकता है और उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं:
जब ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप और हमारी राहें एक थीं तो साम्राज्यवाद और देशी पूँजीपति वर्ग के साथ उसके रिश्तों के बारे में यह हमारी साझी पोज़ीशन थी और 2017 में साम्राज्यवाद के प्रश्न पर हुई एक अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में हमने अपने अवस्थिति पत्रों में इसे रखा भी था। लेकिन अब इस ग्रुप की अवस्थिति अपने क़ौमवाद के कारण मूर्खतापूर्ण ग़लतियों का समुच्चय बन चुकी है।
भारत में क़ौमी सवाल के विषय में सुखविन्दर के “चमत्कारिक ख़ुलासे”
अब हम दूसरे सवाल पर आते हैं, जो कि ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के मुख्य भटकाव के रूप में सामने आया है, यानी कि, राष्ट्रवादी, बुण्डवादी और त्रॉत्स्कीपन्थी भटकाव, जिसे हमने ट्रॉट-बुण्डवादी भटकाव की संज्ञा दी है। इसके बारे में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं: (http://ahwanmag.com/archives/7567)।
लेकिन अभी हम यह देखेंगे कि इस नयी पोस्ट में यह भटकाव किस प्रकार अपने नग्नतम वर्ग सहयोगवादी रूप में सामने प्रकट होता है।
जैसा कि हमने ऊपर उद्धृत किया है, ये लोग तीसरे बुनियादी अन्तरविरोध के तौर पर देश में राष्ट्रीय प्रश्न को गिनाते हैं, जिसको ये दो हिस्सों में बाँटते हैं: पहला, कश्मीर और उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीय आज़ादी के लिए चल रहा हथियारबन्द संघर्ष और दूसरा, केन्द्रीय राज्यसत्ता और राज्यों की सरकारों के बीच अन्तरविरोध तथा क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी की क्षेत्रीय पार्टियों व बड़ी बुर्जुआज़ी के बीच का अन्तरविरोध। इसमें भी सबसे पहले हम फिर पहले उस पद्धतिशास्त्रीय ग़लती की चर्चा करेंगे, जो कि इन्हें इनकी क़ौमवादी और वर्ग सहयोगवादी कार्यदिशा पर पहुँचाती है।
अगर हम कम्युनिस्ट आन्दोलन में स्थापित माओ द्वारा बार-बार स्पष्ट किये गये बुनियादी अन्तरविरोध के चरित्र को समझते हैं, तो हमें यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि बुनियादी अन्तरविरोध वही हो सकता है जिसमें प्रधान अन्तरविरोध बनने की सम्भावनासम्पन्नता मौजूद होती है। कई सारे ग़ैर-बुनियादी अन्तरविरोध बुर्जुआ समाज में निरन्तर मौजूद रहते हैं और यह एक विशद चर्चा का विषय हो सकता है कि कुछ ग़ैर-बुनियादी अन्तरविरोध इतिहास द्वारा दिये गये बोझ के तौर पर मौजूद होते हैं और कुछ को बुर्जुआ समाज अपनी स्वाभाविक गति से पैदा करता है। अब अगर हम राष्ट्रीय प्रश्न को भारतीय समाज का एक बुनियादी अन्तरविरोध मानते हैं तो तर्कश: हमें मानना पड़ेगा कि यह अन्तरविरोध किन्हीं स्थितियों में प्रधान अन्तरविरोध बन सकता है।
इस पूरी सोच में सबसे पहले तो राष्ट्रीय दमन की कोई मार्क्सवादी समझदारी ही नहीं है। सच यह है कि भारत में राष्ट्रीय दमन का प्रश्न कश्मीर और उत्तर-पूर्व के दमित राष्ट्रों के दमन के रूप में ही मौजूद है। क्षेत्रीय पाटियों के उभार और तमाम सवालों पर केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच मौजूद टकरावों को राष्ट्रीय दमन की संज्ञा देना यह दिखलाता है कि ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप का राष्ट्रीय दमन की मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी अवधारणा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है।
इस मार्क्सवादी अवधारणा के मूल में किसी भी दमित क़ौम की बुर्जुआज़ी का दमित होना (दलाल बुर्जुआज़ी को छोड़कर) शामिल है। राष्ट्रीय दमन की शुरुआत ही दमनकारी क़ौमों व दमित क़ौमों की बुर्जुआज़ी के बीच बाज़ार पर क़ब्ज़े को लेकर होने वाले संघर्ष से होती है। निश्चित तौर पर, यह संघर्ष कालान्तर में पूरी क़ौम को ही अपनी ज़द में ले लेता है, क्योंकि जब बाज़ार पर क़ब्ज़े के लिए दमनकारी क़ौमों की बुर्जुआज़ी दमित क़ौमों की बुर्जुआज़ी पर राजनीतिक रोक और प्रतिबन्ध लगाती है, तो यह दमन भाषाओं पर रोक, धार्मिक स्वतंत्रता पर रोक, आने-जाने की स्वतंत्रता पर रोक, नस्ली रूप में दमन, सांस्कृतिक दमन के विभिन्न रूप, आदि का रूप ले लेता है, जैसा कि स्तालिन ने कहा था।
लेकिन अगर क़ौमी दमन की अवधारणा से दमित क़ौम की बुर्जुआज़ी के दमन को ग़ायब कर दिया जाये, तो क़ौमी दमन की अवधारणा ही बेमानी हो जाती है। क्योंकि फिर सवाल यह उठता है कि दमित क़ौम की बुर्जुआज़ी की अवस्थिति इस क़ौमी दमन पर क्या है? इसका ये ही जवाब हो सकता है कि या तो वह दलाल है (जिस सूरत में मंझोली बुर्जुआज़ी राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग की भूमिका अदा करती है), या राष्ट्रीय है और या फिर उसे राज्यसत्ता में हिस्सेदारी मिल चुकी है। लेकिन यदि उसे राज्यसत्ता में हिस्सेदारी मिल चुकी है, तो फिर वह क़ौम दमित कहला ही नहीं सकती है, चाहे भाषा व संस्कृति के स्तर पर अलग-अलग वजहों से जनता को तमाम रोकों व प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ रहा हो। दूसरे शब्दों में भाषाई दमन या सांस्कृतिक दमन अपने आप में हर सूरत में क़ौमी दमन नहीं होता है। अब सवाल यह उठता है कि कश्मीर और उत्तर-पूर्व की क़ौमों को छोड़कर क्या भारत की अन्य क़ौमों की बुर्जुआज़ी दमित है? क्या क्षेत्रीय पाटियों का उभार किसी दमित बुर्जुआज़ी की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है? क्या विभिन्न मसलों पर केन्द्र और राज्य सरकारों के अन्तरविरोध को क़ौमी दमन के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है? इन सारे नुक्तों पर आप हमारे द्वारा दिये गये उपरोक्त लिंक पर प्रकाशित सुखविन्दर के ट्रॉट-बुण्डवादी क़ौमवाद की पूरी आलोचना को पढ़ सकते हैं।
आज़ादी से पहले भारत की बड़ी बुर्जुआज़ी के जन्म और विकास का एक संक्षिप्त ब्यौरा: एक बहुक़ौमी बड़ी बुर्जुआज़ी के निर्माण की कहानी
भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व में मौजूद भारतीय पूँजीपति वर्ग आज़ादी के पहले या उसके ठीक बाद भी अभी कोई बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग नहीं था और हो भी नहीं सकता था, अन्यथा उसकी स्थिति एक उपनिवेश के पूँजीपति वर्ग की होती ही नहीं। भारत का पूँजीपति वर्ग एक मुख्यत: और मूलत: वाणिज्यिक पूँजीपति वर्ग के रूप में उन्नीसवीं सदी में पैदा हुआ था, हालाँकि उसके विकास की ऐतिहासिक जड़ें अट्ठारहवीं सदी से ही देखी जा सकती थीं। तब भी इसके निवेश का एक हिस्सा उत्पादन में लगा हुआ था, लेकिन अंग्रेज़ी औपनिवेशिक सत्ता ने इसे हर प्रकार से दबाया और कुचला। इसके बावजूद, 1870 के दशक से ही इस पूँजीपति वर्ग का उत्पादन में निवेश बढ़ने लगा था। 1890 के दशक से प्रक्रिया कुछ तेज़ हुई और विशेष तौर पर दो विश्वयुद्धों के दौरान और उनके बीच इस पूँजीपति वर्ग का चरित्र मूलत: और मुख्यत: औद्योगिक पूँजीपति वर्ग का बनने लगा हालाँकि अभी भी उसकी पूँजी का एक विचारणीय हिस्सा वाणिज्य में लगा हुआ था।
जैसे-जैसे उसका औद्योगिक चरित्र ज़्यादा प्रबल होता गया वैसे-वैसे औपनिवेशिक ग़ुलामी से आज़ादी और घरेलू बाज़ार पर अपने नियंत्रण की उसकी चाहत भी बढ़ती गयी। इस पूरी प्रक्रिया को सुमित सरकार, बिपन चन्द्र, सब्यसाची भट्टाचार्य और अमलेन्दु गुहा जैसे इतिहासकारों ने विस्तार से दिखलाया है।
इस बुर्जुआज़ी का क़ौमी मूल क्या था? इसमें गुजराती व मारवाड़ी पूँजीपति वर्ग का दबदबा ज़रूर था, लेकिन इसमें अन्य क़ौमों की बुर्जुआज़ी को नुमाइन्दगी मिलती जा रही थी। आज़ादी के पहले ही इसका चरित्र एक बहुक़ौमी बुर्जुआज़ी का बन चुका था। लेकिन अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी दमन के रहते यह आर्थिक व राजनीतिक तौर पर इस स्थिति में नहीं पहुँच पाया था कि उसे बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग कहा जाये। यह एक बौना और कमज़ोर पूँजीपति वर्ग था, जिसके शरीर पर 200 वर्षों की औपनिवेशिक ग़ुलामी के जन्म-चिह्न साफ़ तौर पर देखे जा सकते थे। यही वजह थी कि 1944 में बम्बई प्लान में ही यह पूँजीपति वर्ग तय कर चुका था कि आरम्भिक पूँजी संचय करने और अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उसे ‘पब्लिक सेक्टर’ पूँजीवाद का रास्ता अपनाना पड़ेगा जिसकी पहचान मूलत: आयात प्रतिस्थापन व राष्ट्रीकरण की नीतियों से होती थी, जिससे कि विदेशी पूँजी पर यह अपनी निर्भरता को कम कर सके और अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को बचाए रख सके। लुब्बेलुबाब यह कि न तो आज़ादी के पहले और न ही आज़ादी के ठीक बाद इस शासक पूँजीपति वर्ग को बड़ी इजारेदार बुर्जुआज़ी की संज्ञा दी जा सकती है। 1947 में जब यह सत्ता में आया तो भी इसे बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग कहना ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की दीवालिया राजनीतिक व ऐतिहासिक समझदारी को दिखलाता है।
दूसरी बात, यह पूँजीपति वर्ग भारत की राज्यसत्ता की राजनीतिक सीमाओं में रहने वाली तमाम क़ौमों के पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधित्व से ही बना था, सिवाय उत्तर-पूर्व की क़ौमों और कश्मीरी क़ौम की बुर्जुआज़ी के। इस पर भी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने काफ़ी काम किया है लेकिन सुमित सरकार, बिपन चन्द्रा, आदित्य मुखर्जी व मृदुला मुखर्जी तथा अमलेन्दु गुहा के शोध को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए जो कि दिखलाता है कि जिस बड़े भारतीय पूँजीपति वर्ग की बात ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप लगातार कर रहा है, वह स्वयं कहीं आसमान से नहीं आया था बल्कि इसी देश की विभिन्न ग़ैर-दमित क़ौमों की बुर्जुआज़ी से ही बना था। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सभी क़ौमों की बुर्जुआज़ी के बराबर प्रतिनिधित्व से कोई बहुक़ौमी बुर्जुआज़ी न कभी बनी है और न बन सकती है क्योंकि पूँजीवादी विकास का नियम ही आर्थिक, क्षेत्रीय, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्तर पर असमान विकास का नियम होता है। और अपनी-अपनी क़ौम की बुर्जुआज़ी के लिए ज़्यादा हिस्सेदारी या बराबर की हिस्सेदारी माँगना कम्युनिस्टों का काम नहीं होता है, बल्कि बुर्जुआज़ी का काम होता है! भारत की बहुक़ौमी बुर्जुआज़ी की तस्वीर इस आँकड़े से ही साफ़ हो जाती है।
यदि उद्योगपतियों की बात करें तो आज 100 सबसे अमीर भारतीयों में 21 गुजराती हैं, 20 राजस्थानी मारवाड़ी व बनिया हैं, 8-8 पंजाब व केरल से हैं, 7 महाराष्ट्र से, 6 कर्नाटक से हैं। इसके नीचे भी अन्य राज्यों से बुर्जुआ वर्ग को प्रतिनिधित्व हासिल है। इसी प्रकार निर्माण आदि के क्षेत्र में भी बुर्जुआज़ी में अलग-अलग क़ौमों की बुर्जुआज़ी से हिस्सेदारी को दिखलाया जा सकता है। कृषि व सम्बन्धित क्षेत्र के सबसे बड़े 26 पूँजीपतियों में महाराष्ट्र व गुजरात के 4-4, पंजाब के 3, हरियाणा के 2, राजस्थान के 2, तमिलनाडु के 2, आन्ध्र प्रदेश के 2 पूँजीपति शामिल हैं। अगर 100 शीर्ष के पूँजीपतियों की बात करें, तो इसमें भी अलग-अलग क़ौमों की बुर्जुआज़ी की हिस्सेदारी को दिखलाया जा सकता है। लुब्बेलुबाब यह कि अपने जन्म से ही भारत की बड़ी इजारेदार शासक बुर्जुआज़ी एक बहुक़ौमी बुर्जुआज़ी है, न कि कोई ऐसी इजारेदार बुर्जुआज़ी जिसका कोई क़ौमी मूल या पहचान ही न हो, जैसा कि सुखविन्दर को लगता है।
इसलिए सबसे पहले तो ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप को भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन और पूँजीपति वर्ग के निर्माण और संघटन के इतिहास का संजीदगी से अध्ययन करना चाहिए, ताकि इन्हें समझ में आये कि इनका यह कुत्सित ‘बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग’ आया कहाँ से है!
आज़ादी के बाद भारत की शासक बुर्जुआज़ी का सफ़रनामा
हम अगर भारत के आज़ादी के बाद के इतिहास को देखें तो पहले दशक में पूँजीवादी विकास का जो स्तर था उसमें अभी कृषि क्षेत्र की बुर्जुआज़ी और छोटी क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी बहुत कम विकसित हुई थी और वह कम विकसित छोटी क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी या तो बुर्जुआ वर्ग की मुख्य पार्टी कांग्रेस के भीतर कुछ प्रेशर ब्लॉक्स के रूप में मौजूद थी या दक्षिण भारत में कुछ छोटी-छोटी पार्टियों के रूप में मौजूद थी। 1960 के दशक में पूँजीवादी विकास यानी कि उस दौर में जारी औद्योगिक-वित्तीय विकास और साथ ही प्रशियाई पथ के भूमि सुधार का वह संस्करण जो कि भारत में लागू किया जा रहा था, वह गति पकड़ चुका था। और इसके साथ ही विभिन्न रूपों में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार आता है।
ये क्षेत्रीय पार्टियाँ फिर राज्यों के स्तर पर 1967 में सत्ता में भी आती हैं, हालाँकि इनमें से संसदीय वामपन्थियों व “समाजवादियों” को क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं कहा जा सकता है। इनके सत्ता में आने के बाद चाहे पानी का सवाल हो, राज्यों के पुनर्गठन-सम्बन्धी विवादों का सवाल हो, भाषा का सवाल हो, राज्यों के अधिकार के सवाल हों या जो भी ऐसे सवाल थे, वे सारत: क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी के और उसके साथ ग्रामीण बुर्जुआज़ी के केन्द्र की सत्ता पर हावी बड़ी बुर्जुआज़ी के साथ अन्तरविरोधों की ही अभिव्यक्ति थे। यह अन्तरविरोध था देश के पैमाने पर हो रहे अधिशेष विनियोजन में हिस्सेदारी को बढ़ाने को लेकर, न कि क़ौमी दमन के ख़िलाफ़। देश के शासक पूँजीपति वर्ग में स्वयं इन सभी क़ौमों की बड़ी बुर्जुआज़ी को अलग-अलग अनुपात में हिस्सेदारी हासिल थी। इसलिए यहाँ क़ौमी दमन की बात करने का कोई मतलब ही नहीं बनता है।
1960 के दशक से लेकर आज तक ऐसे विभिन्न आन्दोलनों का अगर हम सिंहावलोकन करें तो इन क्षेत्रीय पार्टियों ने इन विभिन्न आन्दोलनों में लोकरंजक नारे देकर और क़ौमी जनभावनाओं को उभाड़ कर उन्हें केन्द्र में मौजूद बड़ी बुर्जुआज़ी के साथ मोलभाव के बटखरे के रूप में इस्तेमाल किया। राष्ट्रीय उत्पीड़न के अन्तरविरोध हमेशा ही अपनी तार्किक परिणति के तौर पर आगे बढ़ते हुए राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के रूप में फूट पड़ते हैं जिसमें कि एक रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी के नेतृत्व में जनता के अन्य तीन वर्ग राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई लड़ते हैं। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राष्ट्रों को छोड़कर, भारत में पिछले 70 वर्षों में कहीं भी वे राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के रूप में नहीं फूटे हैं। बल्कि इसके विपरीत क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी ने जनता के सभी बुनियादी सवालों पर, जैसे कि रोज़गार के सवाल, काले क़ानूनों के सवाल, भूमि सुधार के सवाल, बड़े पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता के साथ ही स्टैण्ड लिया है और उसके साथ खड़े होकर जनता का दमन किया है।
यह पिछले सात दशकों की सच्चाई है जो कि भारतीय इतिहास का कोई भी विद्यार्थी जानता है। यदि कश्मीर व उत्तर पूर्व की क़ौमों को छोड़कर अन्य क़ौमें वास्तव में दमित होतीं, तो क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी और उसकी पार्टियों का राजनीतिक आचरण ऐसा नहीं होता और ये अन्तरविरोध कहीं न कहीं अपने आपको राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के रूप में अभिव्यक्त करते। यदि ऐसा नहीं हुआ है, तो ज़ाहिर है कि इसकी वजह यही है कि इन क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी को भी राज्यसत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त है, हालाँकि वह उससे असन्तुष्ट रहती है और समय-समय पर उस भागीदारी को बढ़ाने के लिए जद्दोजहद करती रहती है और चूँकि कई मामलों में यह क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी क़ौमों की बुर्जुआज़ी के रूप में संगठित है, इसलिए वह इस जद्दोजहद में जनता के बीच क़ौमी भावनाओं को भड़काने और भुनाने का काम भी करती है, ताकि उसे इस मोलभाव में बटखरे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। प्रतीतिगत यथार्थ को सारभूत यथार्थ समझने वाला कोई उथला व्यक्ति भी इसे क़ौमी दमन समझने की भूल नहीं कर सकता है।
दूसरी बात, ख़ास तौर पर 1970 के दशक से लेकर आज तक केन्द्र और राज्य की सत्ता में इन सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने, जो कि क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग और क्षेत्रीय ग्रामीण पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, बड़ी बुर्जुआज़ी की पार्टी कांग्रेस और आगे चलकर भाजपा के साथ गठबन्धन सरकारें बनायी हैं, भागीदारी की है और एकमत हो कर बुर्जुआ नीतियों को लागू किया है। यदि ये क़ौमें दमित होतीं तो यह सम्भव ही नहीं होता। क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी व बड़ी बहुक़ौमी बुर्जुआज़ी के बीच के अन्तरविरोध ज़्यादा से ज़्यादा अपने आपको इस राजनीतिक रूप में अभिव्यक्त करते हैं, कि उनके चुनावी गठबन्धन बनते-बिखरते रहते हैं। लेकिन यदि यह क़ौमी दमन का सवाल होता तो ये कभी न कभी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के रूप में प्रकट होते। लेकिन चूँकि झगड़ा ही लूट के माल में बँटवारे के अनुपातों को लेकर है, इसलिए यह अपने चरम पर पहुँचकर भी किसी न किसी समझौते में प्रकट होता है, जिसकी एक अभिव्यक्ति नये-नये चुनावी गठबन्धन के बनने या बिखरने में प्रकट होती है।
तो फिर भारत की बहुक़ौमी बड़ी बुर्जुआज़ी और क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी के बीच के अन्तरविरोध का चरित्र क्या है?
तो फिर सवाल यह उठता है कि भारत में तमाम क्षेत्रीय पूँजीपति वर्गों और बहुक़ौमी बड़ी इजारेदार बुर्जुआज़ी के बीच के अन्तरविरोध का चरित्र क्या है? यह अन्तरविरोध वही है जो कि हमेशा ही पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया में छोटी पूँजी और बड़ी पूँजी, इजारेदार पूँजी और ग़ैर-इजारेदार पूँजी, खेतिहर पूँजी और औद्योगिक-वित्तीय पूँजी के बीच अनिवार्य रूप से पैदा होता ही है। क्यों? क्योंकि पूँजीवादी विकास अपनी प्रकृति से ही असमान विकास होता है और यह अपेक्षा करना ही अवैज्ञानिक और अनैतिहासिक है कि पूँजीपति वर्ग के कई धड़े नहीं होंगे, उनमें अन्तरविरोध नहीं होंगे।
एक बहुक़ौमी देश में ये क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी अक्सर ही अपने आपको क़ौमी आधार पर संगठित करती है, बड़ी बुर्जुआज़ी से मोलभाव की अपनी ताक़त को बढ़ाने के लिए ये अक्सर ही जनता की क़ौमी भावनाओं को उभाड़ती है और उनका इस्तेमाल करती है। वह बुर्जुआ क़ौमवाद का सहारा लेकर बड़ी इजारेदार बुर्जुआज़ी (जिसमें कि स्वयं उसकी क़ौम का बड़ा पूँजीपति वर्ग भी शामिल है) पर दबाव बनाती है, कि लूट के माल में उसकी हिस्सेदारी बढ़ायी जाये।
आज कृषि अध्यादेशों पर संघवाद और प्रान्तीय अधिकारों को लेकर हो-हल्ला मचाते हुए और जनता की क़ौमी भावनाओं को उभाड़ते और भुनाते हुए, जो तमाम क्षेत्रीय बुर्जुआ पाटियाँ हैं, वे यही कर रही हैं। यह सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं होता रहा है, बल्कि दुनिया के सभी पूँजीवादी देशों में होता रहा है। आज के समय में भी पूँजीपति वर्ग के भीतर बड़े इजारेदार पूँजीपति और ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति वर्ग, खेती के पूँजीपति वर्ग और औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के, बड़ी पूँजी और छोटी पूँजी, व्यापारिक पूँजी और औद्योगिक वित्तीय पूँजी के बीच अन्तरविरोध मौजूद हैं और तमाम बहुक़ौमी देशों में इनका इस्तेमाल बुर्जुआज़ी के तमाम धड़े क़ौमी रंग देकर भी करते हैं, मसलन कनाडा में क्यूबेक की बुर्जुआज़ी, स्पेन में कातालूनिया की बुर्जुआज़ी और ब्रिटेन में स्कॉटिश बुर्जुआज़ी। इसका यह अर्थ नहीं है कि आज क्यूबेक दमित क़ौम है या स्कॉटिश क़ौम दमित क़ौम है।
ताज्जुब की बात यह है कि हमारे देश में इस राग में सुर मिलाने कुछ नरोदवादी कम्युनिस्ट और ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के क़ौमवादी भी पहुँच गये हैं। इसलिए यहाँ पर ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप अपने क़ौमवाद में अन्धा होकर पूँजीपति वर्ग के आन्तरिक अन्तरविरोधों जैसे कि बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग और क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग, खेतिहर पूँजीपति वर्ग और औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग आदि के अन्तरविरोधों को क़ौमी अन्तरविरोध के तौर पर देख रहा है। संघवाद, प्रान्त के अधिकार आदि को पवित्र वस्तु बना दिया गया है जो कि ख़ुद इनके क़ौमवादी विपथगमन की ही अभिव्यक्ति है। ये अन्तरविरोध क़ौमी अन्तरविरोध नहीं हैं बल्कि बुर्जुआज़ी के विभिन्न ब्लॉकों के बीच मौजूद अन्तरविरोध हैं और यह बुर्जुआज़ी के विभिन्न धड़ों का काम है कि इनके आधार पर क़ौमी भावनाओं को भड़काया और भुनाया जाये, न कि कम्युनिस्टों का।
इसे एक दूसरे रूप में भी समझा जा सकता है। वर्ग संघर्ष का बुनियादी तर्क यह बताता है, और हम पिछली पूरी शताब्दी का भी एक सिंहावलोकन करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ भी राष्ट्रीय दमन का सवाल मौजूद रहा है वह अन्ततोगत्वा अलग होने सहित आत्मनिर्णय के अधिकार के इर्द-गिर्द व्यापक जनलामबन्दी और दीर्घकालिक राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की दिशा में ही विकसित हुआ है, चाहे वह जीता जा सके या न जीता जा सके। भारत में कश्मीर और उत्तर-पूर्व के अलावा कहीं भी किसी भी क़ौम की नुमाइन्दगी करने वाली किसी भी राजनीतिक शक्ति ने आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग नहीं की है और पिछले 60 वर्षों के भीतर इनमें से किसी का भी संघर्ष राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की दिशा में विकसित होने का संकेत तक नहीं दे रहा है। ज़ाहिर है कि यहाँ हम राजनीति की मुख्य धारा से कटे हुए चन्देक अतिरेकपन्थी अलगाववादी गुटों की बात नहीं कर रहे हैं, जोकि पूँजीवाद के मातहत हर क़ौम में मौजूद होते हैं। जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, हर आन्दोलन जो क़ौमी भावनाओं को लोकरंजक नारों के ज़रिये भड़काकर क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी खड़ा करती रही है, उनका अन्त एक समझौते के रूप में होता रहा है जिसमें कि क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी व बड़ी इजारेदार बुर्जुआज़ी के बीच राजनीतिक व आर्थिक शक्ति की हिस्सेदारी का क़रारनामा बदल जाता रहा है।
एक और नुक्ता जो यहाँ अहम है वह यह है कि अगर किसी बुर्जुआज़ी का चरित्र राष्ट्रीय है और वह राष्ट्रीय उत्पीड़न-विरोधी संघर्ष को नेतृत्व दे रही है, तो वह केवल अपने देश में सत्तारूढ़ बड़ी बुर्जुआज़ी के विरुद्ध ही नहीं संघर्ष करेगी बल्कि उस बड़ी बुर्जुआज़ी के साथ दुनिया के पैमाने पर वरिष्ठ साझीदार के तौर पर जुड़े हुए साम्राज्यवाद का भी वह विरोध करेगी और उसके ख़िलाफ़ भी संघर्ष करेगी। जबकि हम देखते हैं कि नवउदारवाद के बुनियादी नीतिगत प्रश्न पर ये क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग पिछले 30 वर्षों से लगातार भारत की बड़ी बुर्जुआज़ी और साम्राज्यवाद के साथ खड़ा है। और कई जगह तो ये क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी इस साम्राज्यवादी एजेण्डा को कहीं ज़्यादा मुस्तैदी के साथ लागू करती रही है। अगर आर्थिक धरातल पर देखें तो इस क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी का जो आर्थिक साम्राज्य है उसका भारतीय बहुक़ौमी बड़ी बुर्जुआज़ी और साम्राज्यवादी बुर्जुआज़ी के साथ कोई चीन की दीवार जैसा बँटवारा नहीं है। बहुत सारे औद्योगिक उपक्रमों में ये क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ और साथ ही देशी बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग के साथ पूँजी और तकनोलॉजी के लेन-देन को खुले तौर पर और बड़े पैमाने पर कर रहा है।
इतने तथ्यों के आधार पर विश्व इतिहास और हमारे देश के इतिहास के कुछ बुनियादी तथ्यों की भी समझदारी रखने वाला और मार्क्सवादी विश्लेषण की पद्धिति से परिचित कोई औसत समझ का मार्क्सवादी भी यह नतीजा निकाल सकता है कि भारत की क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी कुल निचोड़े गये अधिशेष में भागीदारी के लिए बड़ी बुर्जुआज़ी से मोलतोल करती है और अपनी कम आर्थिक ताक़त होने के चलते बेहतर स्थिति में मोलतोल करने के लिए लोकरंजक नारे देकर जनता में राष्ट्रीय भावानाओं को उभाड़ती है। किसी भी तरीक़े से उनको दमित क़ौम की बुर्जुआज़ी मानना और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का संश्रयकारी मानना सीधे-सीधे वर्ग सहयोगवाद के मलकुण्ड में मुँह के बल जाकर गिरना होगा।
अपने दीवालिया विश्लेषण को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने में डर क्यों रहे सुखविन्दर?
अब आते हैं इस सवाल पर कि किस तरह से ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप अपनी ग़लत समझदारी से भी कोई ऑपरेटिव पार्ट या कार्यक्रमगत नतीजे निकालने से भाग खड़ा होता है। इनका कहना है कि क्षेत्रीय पाटियों का उभार और अलग-अलग मसलों पर केन्द्र और राज्य का टकराव क़ौमी दमन की अभिव्यक्ति है। यदि ऐसा है तो कोई भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी इस अन्तरविरोध से अपने लिए कार्यक्रमगत कुछ ठोस नतीजे निकालेगा। यह कार्यक्रमगत ठोस नतीजा यह होगा कि ये क्षेत्रीय पार्टियाँ और क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी जिनकी कि ये क्षेत्रीय पार्टियाँ नुमाइन्दगी करती हैं, क़ौमी सवाल के हल होने की मंज़िल तक, रणनीतिक संश्रयकारी होंगे।
इस तर्क से अब तक सुखविन्दर को हरसिमरत कौर से मुलाक़ात कर लेनी चाहिए थी और इस संश्रय के साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर विचार शुरू कर देना चाहिए था और साथ ही डीएमके के स्टालिन, एमडीएमके के वाइको, पीएमके के रामादॉस, तेलुगूदेशम के चन्द्राबाबू नायडू, उड़ीसा के नवीन पटनायक, महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे/राज ठाकरे, झारखण्ड के हेमन्त सोरेन को भी ऐसी बैठकों का न्यौता भेज देना चाहिए था! तो आप देख सकते हैं कि सुखविन्दर की स्थिति अपने दीवालिया कार्यक्रम से कुछ दीवालिया नतीजे निकालने लायक़ भी नहीं है!
हमने बार-बार लेनिन, स्तालिन आदि से उद्धृत करके इन्हें बताने की कोशिश की कि यदि कहीं केवल भाषाई दमन मौजूद भी हो, तो वह अनिवार्यत: हर सूरत में क़ौमी दमन नहीं होता है, जैसा कि लेनिन ने ‘एक क़दम आगे दो क़दम पीछे’ में बताया है। बावजूद इसके सुखविन्दर अब भी उस बात को दुहराए चले जा रहे हैं कि अगर कहीं भाषाई दमन है तो वह अनिवार्यत: क़ौमी दमन ही है। इसमें वह दक्षिण भारत की भाषाओं से लेकर पंजाब और महाराष्ट्र तक की भाषाओं को हिन्दी द्वारा उत्पीड़ित भाषा का दर्जा देते हैं और न केवल इतना करते हैं, इस तर्क की हास्यास्पदता को अति की सीमा तक पहुँचाते हुए और भाषाशास्त्र और भारतीय भाषाओं के विकास के ऐतिहासिक तथ्यों की रेड़ मारते हुए यह स्थापना देते हैं कि हिन्दी एक ऐसी हत्यारी भाषा है जो हिन्दी पट्टी की तमाम बोलियों (जिन्हें सुखविन्दर भाषा ही मानते हैं) की हत्या करके विकसित हुई है! अब हम यहाँ इस मूर्खतापूर्ण अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक तर्क के खण्डन के विस्तार में नहीं जायेंगे और आपको इसके पहले ही विस्तार से किये गये खण्डन की ओर सन्दर्भित कर देंगे (http://ahwanmag.com/archives/7567)।
लेकिन यहाँ हम एक दूसरे बिन्दु की ओर इंगित करना चाहेंगे। सुखविन्दर के आकलन और स्थापना के हिसाब से दक्षिण भारत से लेकर उत्तर की पूरी हिन्दी पट्टी और बंगाल, पंजाब आदि में भाषाई उत्पीड़न है और हिन्दी भाषा का चरित्र एक उत्पीड़क वर्चस्वकारी भाषा का है और चूँकि भाषाई उत्पीड़न राष्ट्रीय उत्पीड़न ही है इसलिए पूरा भारत उत्पीड़ित राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं का एक समुच्चय बनता है। अब इन सभी राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं में राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध लाज़िमी तौर पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का कार्यभार बनता है। इन सभी इलाक़ों का राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग सुखविन्दर का रणनीतिक मित्र बनता है! दूसरे शब्दों में कहा जाये कि भारतीय क्रान्ति इन सभी राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का कुल योग है! और इन सभी क्रान्तियों में चार वर्गों का रणनीतिक संश्रय बनेगा! फिर यह बात समझने में आचार्य वृहस्पति और शुक्राचार्य की संयुक्त मेधा भी चकरा जायेगी कि फिर भारत में सुखविन्दर तीन वर्गों के रणनीतिक संश्रय पर आधारित समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल क्यों मानते हैं!?
कहा जा सकता है कि सुखविन्दर की जो ‘भारत की समाजवादी क्रान्ति’ है वह भारत के सभी राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का कुल योग है! गम्भीर राजनीतिक बहसों में कोई व्यक्ति शायद जानबूझकर लतीफ़े नहीं सुनाता, लेकिन कुछ बातें लतीफ़े बन जाती हैं। इतिहास के एक दिलचस्प तथ्य को याद करें। 1970 के दशक के अन्त से लेकर 1990 के दशक की शुरुआत तक केरल में के. वेणु के नेतृत्व में सीआरसी सीपीआई (एमएल) नामक एक धारा का उदय हुआ था जो कई चरणों में अपनी अवस्थितियों को बदलते हुए इस नतीजे पर पहुँची थी कि भारत की नवजनवादी क्रान्ति यहाँ के अलग-अलग राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों/राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियों का कुल योग होगी। फिर इससे मिलती-जुलती अवस्थितियाँ दक्षिण के कुछ और छोटे-छोटे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों ने अपनायी थीं। उन सभी समेत के. वेणु की धारा को विसर्जित होने में एक दशक जितना समय भी नहीं लगा।
सुखविन्दर की विडम्बना यह है कि वह वेणु से भी दो क़दम आगे जाने की हठ ठाने हुए हैं। वेणु ने तो कई राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के कुल योग को राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति या नवजनवादी क्रान्ति कहा था, लेकिन सुखविन्दर के तर्क के हिसाब से भारत के सभी राष्ट्रों के, जो कि सारे के सारे दमित हैं, के मुक्ति संघर्ष का कुल योग भारत की समाजवादी क्रान्ति होगी! मार्क्सवाद की जितनी भी समझदारी है उसके हिसाब से समाजवादी क्रान्ति की इस नयी अवधारणा को हम तो बिल्कुल ही नहीं समझ पाये और हमें लगता है कि अगर कोई तल्लीन होकर समझने की कोशिश करेगा तो आगरा या बरेली भी पहुँच सकता है।
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन और समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल मानने वाली धारा के इतिहास का मूर्खता और उद्दण्डता भरा विकृतिकरण
‘प्रतिबद्ध’ की इस नयी पोस्ट के शुरुआती हिस्से में भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल मानने वाली धारा के विकास और उसकी समस्याओं की चर्चा करते हुए तथ्यों के साथ भयंकर तोड़-मरोड़ की गयी है। निश्चय ही इसमें कुछ चीज़ें नाजानकारी की हो सकती हैं। उस सूरत में भी इतिहास के तथ्यों के प्रति किसी नये व्यक्ति को एक विनम्र रवैया अपनाना चाहिए न कि उद्धत और अहम्मन्य रवैया।
लेकिन हमारा यह कहना है कि यह नाजानकारी का मामला नहीं है। समाजवादी क्रान्ति की जिस धारा की चर्चा सुखविन्दर ने की है, उसके साथ उन्होंने लगभग सत्रह-अट्ठारह साल का समय बिताते हुए कई-कई बार आन्दोलन के इतिहास पर केन्द्रित लम्बे-लम्बे अध्ययन शिविरों में शिरकत की है। उसके बावजूद यह आधारहीन और तथ्यहीन दावा करना कि इस पूरी धारा ने बस समाजवादी क्रान्ति की कार्यदिशा दी, लेकिन उसे ज़मीनी तौर पर लागू करने की बजाय, केवल एकतरफ़ा बहसों में वक़्त ज़ाया करती रही, यह दिखलाता है कि या तो इन अध्ययन शिविरों में सुखविन्दर ऊँघते रहे थे, या आज अपनी क़ौमवादी अवस्थिति के लिए वैधीकरण पैदा करने की ख़ातिर वह इतिहास के साथ दुराचार कर रहे हैं।
भाकली (माले) की एक धारा की विशिष्टता ही यह थी कि उसने उत्पादन सम्बन्धों और भारतीय राज्य के चरित्र पर सैद्धान्तिक शोध-अध्ययन के कामों के साथ बुनियादी वर्गों के बीच ज़मीनी कामों पर बराबर का ज़ोर देने का सवाल उठाया था और न केवल सवाल उठाया था बल्कि इस सवाल उठाने के पहले भी हम कम से कम रामनाथ के नेतृत्व वाली भाकली (माले) पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि उसने समाजवादी क्रान्ति की लाइन पर पहुँचने के बाद केवल “एकतरफ़ा” बहस करने को अपना कार्यभार बना लिया था। दरअसल इतिहास के इस विकृतिकरण के पीछे हम सुखविन्दर के निहित उद्देश्यों को स्पष्ट देख सकते हैं।
जिस व्यक्ति के ज़मीनी राजनीतिक कामों का इतिहास कुछ न रहा हो, जो क़ौमी सवाल पर चल रही बहस में पिछले एक वर्ष में और आज किसानी के सवाल पर जारी बहस में उठाये गये एक-एक मुद्दे पर लाजवाब हुआ है और पतली गली से दायें-बायें निकल लेने की कोशिश करता रहा है, वह पिछले कुछ दिनों से एक नया तर्क गढ़ रहा है कि “ये लोग तो सिर्फ़ किताबी बहसें चलाते रहते हैं, हम ज़मीनी काम कर रहे हैं!” जिस हद तक पंजाब में ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप ने कुछ जनसंगठन बनाये और कुछ जनकार्रवाइयाँ कीं, वह भी शुरू के दौर में सुखविन्दर को कुछ साथियों ने उँगली पकड़कर सिखाया है (पंजाब के पुराने साथी इस तथ्य की ताईद कर सकते हैं)। वह व्यक्ति आज ज़मीनी काम का महारथी होने का दावा कर रहा है!
यही नहीं, अपने तर्कों को वैध ठहराने के लिए वह यहाँ तक दावा कर रहा है कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन में तो बहसों की कोई परम्परा है ही नहीं और बहस करना ही ग़लत होता है! सिर्फ़ इसलिए कि बहस से आज अपने पलायन को सही ठहरा सके!
समाजवादी क्रान्ति की धारा के इतिहास की चर्चा करते हुए स्वयं इस व्यक्ति को दर्जनों बार पढ़ाया गया है और आन्दोलन के सभी पुराने लोग जानते हैं कि रामनाथ के नेतृत्व में संगठन बिहार के और पूर्वी उतर प्रदेश के क्षेत्र में अपने कुछ कठिनतम दौरों में भी कुछ जनकार्रवाइयाँ चला रहा था, भले ही उनका दायरा छोटा हो और स्तर नीचा। समाजवादी क्रान्ति की लाइन निकलने के पहले ही 1981 से नौजवान संगठन बनाकर रामनाथ के नेतृत्व वाली धारा ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के छह ज़िलों में कुछ ज़मीनी काम किये थे जिसमें कि नौजवान संगठन का बैनर होते हुए भी बुनियादी वर्गीय मद्दों पर जनता को लामबन्द करने के कुछ प्रयोग किये गये थे।
समाजवादी क्रान्ति की लाइन आने के बाद बेशक एक छोटी-सी ताक़त के कन्धों पर एक बहुत बड़ा काम आन पड़ा था कि पूरे देश की कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी धारा के समक्ष इस लाइन को रखा जाये और वह एक लम्बा इतिहास है कि किस तरह कई सेमिनारों और लम्बी-लम्बी वार्ताओं के ज़रिये वर्षों तक यह काम चलता रहा। उसी बहस के प्रभाव में पंजाब में राष्ट्रवादी भटकाव की शिकार अजमेर सिंह की धारा से टूटकर कुछ लोगों ने इन्क़लाबी कम्युनिस्ट पार्टी बनायी और फिर भाकली (माले) के साथ उसकी सांगठिनक एकता हुई। यही वह दौर था जब भाकली (माले) के भीतर की एक धारा ने एक तरफ़ पंजाब के निष्क्रिय पड़े घर-घोंसलावादियों और दूसरी ओर अकादमिक बौद्धिकतावाद के शिकार एक ब्लॉक के विरुद्ध चार वर्षों तक लम्बा संघर्ष चलाया। और वह धारा इस संघर्ष के साथ-साथ समाजवादी क्रान्ति की लाइन पर ज़मीनी कार्यों को संगठित करने के उद्यम में लगी रही, बावजूद इसके कि संगठन के भीतर ही परिस्थितियाँ बहुत प्रतिकूल थीं। बहुत कठिन आन्तरिक सांगठनिक संघर्षों व मतभेदों के बावजूद, 1986 से 1989 तक का यह दौर क्रान्तिकारी भर्ती, आन्दोलनों और सांगठनिक विस्तार का दौर था।
यही वह धारा थी जिसने रामनाथ के नेतृत्व में काम करने के अपने पूरे अनुभवों के आधार पर न केवल उस संगठन के बल्कि पूरे भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की सांगठनिक लाइन पर सवाल उठाया और लम्बी बहस चलायी और जनवादी केन्द्रीयता के अपने द्वारा प्रतिपादित मानकों का पालन करते हुए कार्यकर्ता सम्मेलन की माँग की। लेकिन इस माँग को न माने जाने और नतीजतन समाधान की कोई सूरत न निकलने के बाद अपनी अलग राह पकड़ी।
1991 से लेकर आज तक के दौर का जब हम सिंहावलोकन करते हैं तो विचारधारा, कार्यक्रम, विश्व परिस्थितियों के मूल्यांकन, विगत सर्वहारा क्रान्तियों के अनुभवों के समाहार और पार्टी निर्माण एवं गठन के कार्यभार के ठोसीकरण (concretization) के कार्यभार को अंजाम देने की प्रक्रिया में इस धारा ने वैचारिक विकास की एक महत्वपूर्ण यात्रा कई मुकामों से होते हुए तय की। लेकिन यह उद्धत नौबढ़ व्यक्ति जैसा बताने की और तथ्यों पर जिस तरह से धूल और राख डालने की कोशिश कर रहा है, उसके विपरीत सभी सैद्धान्तिक अध्ययनों, शोधों और वैचारिक संघर्षों व राजनीतिक बहस-मुबाहसों के साथ-साथ यह धारा समाजवादी क्रान्ति की लाइन को अमल में लाने, सर्वहारा वर्ग व अन्य बुनियादी वर्गों को इस लाइन पर संगठित करने के प्रोपगैण्डा व एजिटेशन के ठोस नारे सूत्रबद्ध करने और बुनियादी वर्गों की लामबन्दी के ठोस मुद्दों को सूत्रबद्ध करने और इसे लेकर प्रयोग करने में लम्बे समय से लगी रही है।
सैद्धान्तिक तौर पर इस धारा ने माओ के योगदानों को माओवाद के रूप में सूत्रबद्ध किया, पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का अध्ययन करते हुए आज के दौर के कार्यभारों के रूप में नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के कार्यभारों को ठोस रूप दिया, ‘इस्क्रा’ मॉडल के एक मज़दूर अख़बार के इर्द-गिर्द एक नयी बोल्शेविक पार्टी के निर्माण करने की अवधारणा को अमली जामा पहनाया। साथ ही, इस धारा ने पार्टी निर्माण और पार्टी गठन के द्वन्द्व में आज के सन्धिबिन्दु पर पार्टी निर्माण के पहलू के प्रधान होने की सोच को पेश किया। नवउदारवाद के दौर में साम्राज्यवाद की राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति पर शोध-अध्ययन करके यह धारा अपनी निष्पत्तियों को निरन्तर पेश करती रही और 2017 तक उसका एक सांगोपांग स्वरूप पेश किया। इसी तरह अतीत की सर्वहारा क्रान्तियों का विश्लेषण और समाहार और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास के विश्लेषण और समाहार की प्रक्रिया को भी इस धारा ने निरन्तर आगे बढ़ाया। अब सुखविन्दर के इस दावे की भी क़रीबी से पड़ताल करते हैं कि क्या यह धारा केवल “एकतरफ़ा” बहसों में लगी रही है?
यहाँ भी यह व्यक्ति अपने समकालीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इतिहास के तथ्यों के साथ दुराचार कर रहा है। हम तथ्यों पर एक संक्षिप्त निगाह डालें तो यह बात साफ़ हो जाती है। शुरुआती संकट के लगभग पाँच वर्षों के बाद रामनाथ के नेतृत्व की भाकली (माले) से निकली हुई इस धारा ने 95-96 में ही औद्योगिक मज़दूरों के भीतर जनदिशा के कुछ महत्वपूर्ण प्रयोगों की शुरुआत की थी। रेल मज़दूरों का एक मोर्चा और एक जनसंगठन के स्तर पर काम किया था और तराई क्षेत्र के कई कारख़ानों में कारख़ाना मज़दूरों के भीतर काम किया था। बेशक इन प्रारम्भिक प्रयोगों के दौरान इस धारा को अर्थवाद के भटकाव और झटकों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उसका समाहार करके जल्दी ही नये स्तर पर प्रयोगों की शुरुआत हो गयी। उस पूरी यात्रा को हम अगर ऐतिहासिक कालक्रम से बयान करें तो कई पृष्ठ ख़र्च हो जायेंगे। हम सीधे आज की स्थिति पर आते हैं। जो अवधारणा आज से 20 वर्षों से पहले इस धारा ने प्रस्तुत की थी, उस आधार पर देश के कई औद्योगिक क्षेत्रों और कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में भी मज़दूर वर्ग को पेशागत और इलाक़ाई आधार पर संगठित किया, कई क़िस्म के मज़दूरों के बीच काम संगठित किया, जनसंगठन खड़े किये, मज़दूर अख़बार के इर्द-गिर्द उन्नत-चेतस मज़दूरों के मण्डल बनाये, क्रान्तिकारी भर्ती की, अपनी नयी समाजवादी क्रान्ति की सोच के हिसाब से मज़दूर इलाक़ों में वैकल्पिक संस्थाओं का निर्माण किया।
किसी गम्भीर बहस में इस प्रकार अपनी सांगठनिक व आन्दोलनात्मक उपलब्ध्यिों को गिनाना हमें अप्रियकर लगता है, लेकिन कई बार इतिहास का विकृतिकरण करने वाले बौने नौबढ़ों को बेनक़ाब करने के लिए यह अप्रिय कार्य भी करना पड़ता है। अकेले पिछले पन्द्रह वर्षों के भीतर सांगठनिक कार्यों के अतिरिक्त देश के विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में इस धारा की जो आन्दोलनात्मक कार्रवाइयाँ रही हैं, उन्हें कोई भी इस धारा के मज़दूर अख़बार की फ़ाइलों में ही नहीं, बल्कि बुर्जुआ मीडिया के अख़बारों, चैनलों, वेबसाइटों आदि पर भी देख सकता है और उनका पूरा कालानुक्रम तैयार कर सकता है।
यहाँ एक और बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है। आपके किसी से चाहे जितने मतभेद हों, लेकिन उसके बारे में तथ्यों को विकृत करना और झूठ बोलना हद दर्जे की बेईमानी होती है। रामनाथ के नेतृत्व वाली भाकली (माले) से 1998 में एक और धारा अलग हुई थी। उनसे हमारे भी कुछ गम्भीर मतभेद हैं लेकिन हम यह क़तई नहीं कह सकते कि वे किताबी या निठल्ले लोग हैं। यह एक सच्चाई है कि छात्रों-युवाओं के अतिरिक्त औद्योगिक मज़दूर वर्ग के भीतर उन्होंने भी काम संगठित किया है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस धारा द्वारा मज़दूर वर्ग में काम के तरीक़ों और पार्टी के निर्माण और गठन के सवाल पर स्वयं हमारे उनसे कई गम्भीर मतभेद हैं। लेकिन इस सच्चाई को नकारना हद दर्जे की बेईमानी होगी कि इस धारा ने भी अपनी समझदारी के अनुसार मज़दूर वर्ग में कामों को संगठित किया है।
लेकिन सुखविन्दर भाकली (माले) और उससे निकली विभिन्न धाराओं द्वारा ज़मीनी स्तर पर किये गये ठोस कामों, आन्दोलनों आदि को नकार कर इस पूरी धारा के इतिहास के साथ भयंकर दुराचार करते हैं, ताकि यह सिद्ध कर सकें कि इस धारा के इतिहास में ज़मीनी काम तो उन्होंने ही शुरू किया है। ऐसे में, बड़े ताज्जुब की बात है कि इन महोदय को ख़ुद कभी उन चीज़ों का सामना नहीं करना पड़ा जो कि ज़मीनी स्तर पर काम करने की शुरुआत करने वाले हर राजनीतिक कार्यकर्ता को करना पड़ता है, मसलन, जेल, लाठी, मुक़दमे, गुण्डों से टकराहट, इत्यादि! इनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत के समय इनके साथ काम करने वाले कई साथी इस तथ्य को पुष्ट कर सकते हैं।
न चाहते हुए भी हमें एक कहावत याद आ रही है कि सावन के महीने में एक सियार का जन्म हुआ, और भादो में भयंकर बाढ़ आयी, तो सियार ने कहा कि इतनी भारी बाढ़ तो मैंने पूरे जीवन में नहीं देखी थी। कुछ नौबढ़ सोचते हैं कि इतिहास उन्हीं के जागने के साथ जागता है और उन्हीं के आँखें मूँदने के साथ आँखें मूँद लेता है। दिलचस्प बात तो यह है कि जिस व्यक्ति का राजनीतिक जीवन ही उस धारा के साथ शुरू हुआ जो एक पैस्सिव रैडिकल निकृष्ट बौद्धिकतावाद की शिकार धारा थी जिससे हमने 1989 में ही पिण्ड छुड़ा लिया था, और जिस व्यक्ति ने क़रीब एक दशक तक का वक़्त उस बौद्धिकतावादी धारा के साथ बिताया (जो कि आज विसर्जित हो चुकी है), वह व्यक्ति आज न जाने किन-किन मोर्चों पर जनता के बीच अपने काम करने की परी-कथाएँ लोगों को सुनाता है और ये दावे पेश कर रहा है कि अन्य लोग तो केवल किताबी और बहसू हैं, समाजवादी क्रान्ति की लाइन पर जनदिशा के सफल प्रयोग तो उसने किये हैं! अब इस झूठ के बारे में भला हम क्या कहें! हम तो इसे भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की दुर्वस्था का ही एक लक्षण मानते हैं कि इस क़िस्म के नौबढ़ और बौद्धिक बौने और दिन के उजाले जैसे ऐतिहासिक तथ्यों को नकारने वाले व्यक्ति को भी पीछे चलने वाले कुछ लोग मिल जाते हैं।
इतिहास का यह संक्षिप्त विवरण हमने सुखविन्दर के झूठों को नंगा करने के लिए किया है। लेकिन मुख्य सवाल यह है ही नहीं। कम्युनिस्ट आन्दोलन की एक लम्बी परम्परा रही है कि जब भी कोई व्यक्ति विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रश्नों पर आपके सामने सवाल खड़ा कर देता है, तो आपको उसका उत्तर देकर अपनी स्थापना को पुष्ट करना पड़ता है। मार्क्सवाद का यही मानना है कि विज्ञान का विकास व्यवहार-सिद्धान्त-व्यवहार की अन्तहीन प्रक्रिया में होता है और सैद्धान्तिक दायरे के भीतर वाद-विवाद या वैचारिक टकराव के द्वारा होता है। इसमें भी अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन से उदाहरण गिनाने की आवश्यकता नहीं है। पूरा इतिहास यही रहा है। ठण्डे दौर हों या संघर्षों और आन्दोलनों के दौर हों, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच राजनीतिक वाद-विवाद चलते ही रहे हैं। लेकिन इन वाद-विवादों में भी संजीदा कम्युनिस्टों ने अपने आन्दोलन के इतिहास के प्रति एक ईमानदार और संजीदा रवैया अपनाया है।
आम तौर पर, इतिहास के तथ्यों का विकृतिकरण और उन्हें तोड़ना-मरोड़ना विचलनों व विपथगमन की शिकार हो चुकी विजातीय प्रवृत्तियों के उन लोगों की निशानी रही है, जो कि अपने विचलनों के लिए वैधीकरण की तलाश कर रहे होते हैं। सुखविन्दर की स्थिति भी आज यही हो गयी है। अपने क़ौमवादी, ट्रॉट-बुण्डवादी विचलन के बौद्धिक वैधीकरण और कम से कम आभासी तौर पर उसे तार्किक निरन्तरता और सुसंगति देने की कवायद में वह आज इतिहास और विशेष तौर पर समाजवादी क्रान्ति की धारा के इतिहास के बारे में बेईमान और भद्दे क़िस्म के विकृतिकरण करने को मजबूर हो गये हैं।
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन
‘प्रतिबद्ध’ के फ़ेसबुक पेज पर डाली गयी पोस्ट का हिन्दी अनुवाद
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महान नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के साथ भारत में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक नयी धारा अस्तित्व में आई। नक्सलबाड़ी ने भारत की मेहनतकश, शोषित, उत्पीड़ित जनता के मन में मुक्ति की नयी उम्मीद जगाई थी। पर नक्सलबाड़ी के साथ अस्तित्व में आया क्रान्तिकारी कैंप खुद को एक पार्टी में संगठित न कर सका। भारतीय समाज, इसके बुनियादी अन्तरविरोध, यहाँ क्रान्ति की मंज़िल के बारे में इसकी समझ वस्तुगत वास्तविकताओं के अनुसार नहीं थी। इस खेमे के ज़्यादातर ग्रुपों ने भारत को एक अर्द्ध-सामन्ती-अर्द्ध औपनिवेशिक देश करार दिया और इसे नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल में माना। भारतीय क्रान्ति का यह फ्रेम भारत के उत्पादन संबंधों के किसी ठोस अध्ययन पर आधारित नहीं था, बल्कि काफ़ी हद तक चीनी क्रान्ति की नक्ल की कोशिश थी। जबकि 1967 के भारत और 1949 से पहले के चीन की कोई तुलना नहीँ की जा सकती थी।
भारत के नवजनवादी क्रान्ति के इस फ्रेम पर 1970 के दशक से ही सवाल उठने लगे थे। ये सवाल कुछ व्यक्तियों ने भी किये और कुछ कम्युनिस्ट संगठनों ने भी। इनमें से कुछ संगठनों ने भारत की वस्तुगत स्थितियों का पता लगाने की दिशा में, नवजनवादी क्रान्ति के कट्टर मत से पीछा छुड़ाने की दिशा में प्रशंसनीय काम किया। इनमें मुख्य तौर पर राम नाथ के नेतृत्व वाली भारत की कम्युनिस्ट लीग माले और पंजाब में बनी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का नाम लिया जा सकता है। रामनाथ के नेतृत्व वाली भाकली 1983 में और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी (पंजाब) 1985 में इस नतीजे पर पहुँचीं कि भारत में पूँजीवादी उत्पादन संबंध मुख्य बन चुके हैं, भारत साम्राज्यवाद से राजनीतिक तौर पर आज़ाद देश है जो कि समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रवेश कर चुका है।
भारतीय समाज, यहाँ के उत्पादन संबंधों, यहाँ के बुनियादी अन्तरविरोधों को समझने की दिशा में यह एक दुरुस्त कदम था। पर नयी अस्तित्व में आयी समाजवादी क्रान्ति की इस धारा ने भारतीय क्रान्ति की अपनी समझ को व्यवहार में लागू करने, बुनियादी वर्गों ख़ासकर औद्योगिक सर्वहारा को संगठित, लामबन्द करने, भारतीय क्रान्ति की अपनी समझ पर कोई नमूने का आन्दोलन खड़ा करने की कोई संजीदा कोशिश करने के बजाये बहसें करने (जो कि ज़्यादातर एक तरफ़ा बनकर रह जाती थीं) को अपना एकमात्र काम बना लिया।
बाद में यह धारा भी टूट बिखराव का शिकार हुई। इ.क.पी पंजाब का तो कोई अस्तित्व ही न रहा। इसका बचा-खुचा हिस्सा वापस नवजनवादी क्रान्ति के प्रोग्राम पर चला गया।
चाहे नवजनवादी क्रान्ति वाली धारा हो चाहे समाजवादी क्रान्ति वाली भारतीय समाज को totality में समझने में असफल रहीं। खासकर बहुराष्ट्रीय भारत में राष्ट्रीय प्रश्न को समझने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। समाजवादी क्रान्ति वालों ने भारतीय समाज को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण छलाँगें लगायीं, लेकिन इस धारा के ज़्यादातर ग्रुप भी एक जगह जाकर रुक गये। भारत में राष्ट्रीय मसले को समझने को या तो इन्होंने कोई तवज्जों ही नहीं दी या फिर गलत ढंग से समझा और गलत नतीजे निकाले, जो कि काफ़ी हद तक भारतीय शासकों द्वारा किये जाने वाले राष्ट्रीय दमन को मान्यता देने की ओर जाते हैं।
बहुराष्ट्रीय भारत में राष्ट्रीय प्रश्न के प्रसंग में समाजवादी क्रान्ति की लाइन के further विकास की दरकार थी, पर इस धारा के ज़्यादातर ग्रुप एक खास मकाम पर रुक गये और बहुराष्ट्रीय भारत में राष्ट्रीय प्रश्न को समझने में विफल रहे। इन साथियों के सामने अभी रास्ता खुला है कि इस मामले में अपनी समझ विकसित, दुरुस्त कर लें, नहीं तो ये दिन ब दिन अधिक से अधिक अप्रासंगिक होते जायेंगे।
हमारा मानना है कि आज भारतीय समाज के तीन बुनियादी अन्तरविरोध हैं
1. भारत के मेहनतकश लोगों और साम्राज्यवाद के बीच का अन्तरविरोध
2. श्रम और पूँजी का अन्तरविरोध
3. भारतीय राज्य और विभिन्न कौमों के बीच का अन्तरविरोध
अन्तिम अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति कश्मीर और उत्तर-पूर्व के हथियारबन्द राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों के रूप में, बाकी बचे भारत में, क्षेत्रीय पार्टियों के उभार, अलग मसलों पर केन्द्र और राज्यों के टकराव के रूप में होती रहती है।
तीन कृषि अध्यादेशों के विरुद्ध उठा जन उभार जिसका मुख्य केन्द्र आज पंजाब बना हुआ है इसी अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति है।
इस अन्तरविरोध को समझे बगैर, इस में से ज़रूरी कार्यभार निकाले बगैर भारत में सर्वहारा क्रान्ति कभी भी सफल नहीं हो सकती। इसलिए सभी क्रान्तिकारी संगठनों को इस सवाल को संजीदगी से address करना चाहिए। एक दोस्ताना माहौल में आपसी संवाद के दरवाज़े खोलने चाहिए। एक-दूसरे से सीखते हुए किसी सही नतीजे पर पहुँचा जा सकता है।