संवैधानिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए लड़ने के साथ-साथ संविधान के बारे में सोचने के लिए कुछ अहम सवाल
– कविता कृष्णपल्लवी
आज फ़ासिस्ट इस देश के संविधान को भी व्यवहारतः ताक पर रखकर हमारे अतिसीमित, रहे-सहे जनवादी अधिकारों पर भी डाका डाल रहे हैं और देश में लाखों-लाख लोग इन संवैधानिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए सड़कों पर उतर कर लड़ रहे हैं। ऐसे में तय ही है कि हम उन अधिकारों के लिए अवाम के साथ मिलकर लड़ेंगे और फ़ासिस्टों को बेनक़ाब करने के लिए संविधान का हवाला भी देंगे, लेकिन इस प्रक्रिया में संविधान को जनवाद की “पवित्र पुस्तक” या “होली बाइबिल” कत्तई नहीं बनाया जाना चाहिए, इसका आदर्शीकरण या महिमामण्डन करना एक भयंकर अनैतिहासिक और आत्मघाती ग़लती होगी।
किसी भी बुर्जुआ जनवादी देश की आम जनता को अपने जनवादी अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के आदर्शों को सन्दर्भ-बिन्दु बनाना चाहिए जो तर्कणा-आधारित इहलौकिकता (सेकुलरिज़्म) और जनवाद की अवधारणा पेश करते हैं न कि किसी देश-विशेष के संविधान को। दुनिया का ज़्यादा से ज़्यादा जनवादी अधिकार देने वाला बुर्जुआ जनवादी देश भी अपनी जनता को उतने जनवादी अधिकार नहीं देता जितना अपने संविधान में दावे और वायदे करता है।
“हम भारत के लोग…” — भारतीय संविधान की प्रस्तावना के ये शब्द हूबहू वही हैं जिससे 1787 के फिलाडेल्फिया कन्वेंशन ने अमेरिकी संविधान की शुरुआत की थी। गौरतलब है कि इस कन्वेंशन में न तो काली आबादी का प्रतिनिधित्व था न ही इस संविधान को लागू करते हुए अमेरिकी गणराज्य ने दासता का उन्मूलन किया। दासता का उन्मूलन अश्वेत दासों के अनथक संघर्षों के फलस्वरूप एक शताब्दी बाद हुआ। अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित “हम संयुक्त राज्य के लोग” में स्त्रियों की आधी आबादी भी शामिल नहीं थी, क्योंकि उस समय उन्हें मताधिकार भी प्राप्त नहीं था।
संविधान में आदर्शों की चाहे जितनी लम्बी-चौड़ी लफ़्फ़ाज़ी की जाये, संविधान में लिख देने मात्र से जनता को अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते। हाँ, जिन अधिकारों को जनता लड़कर हासिल करती है, उनमें से कई को शासक वर्ग संविधान में संहिताबद्ध करने के लिए बाध्य हो जाता है। यानी जिन देशों में जनता क्रान्तिकारी संघर्षों की लम्बी प्रक्रिया में जनवादी अधिकार हासिल करती है उन देशों के सामाजिक ताना-बाना में जनवाद के तत्व रच-बस जाते हैं और बुर्जुआ संविधान भी किसी हद तक इस स्थिति को प्रतिबिम्बित करने लगते हैं। पश्चिम के जिन देशों में बुर्जुआ जनवाद ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ की ऐतिहासिक प्रक्रिया से गुज़रकर स्थापित हुआ, वहाँ के सामाजिक ताना-बाना और जनता की चेतना में जनवाद के मूल्य रचे-बसे हैं और इसलिए वहाँ के संविधान किसी हद तक इस वस्तुगत स्थिति को प्रतिबिंबित करते हैं। हालाँकि उन देशों में भी जब संकट के बादल गहराते हैं तो बुर्जुआ वर्ग जनवाद के संवैधानिक वायदों से मुकर जाता है और अपने वर्गीय अधिनायकत्व को नंगे रूप में लागू करने लगता है।
भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक समाजों की स्थिति कुछ भिन्न है। यहाँ का बुर्जुआ वर्ग ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ की प्रक्रिया से गुजरकर सत्ता में नहीं आया। वह औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ एक रुग्ण-विकलांग-बौना बुर्जुआ वर्ग था जिसने क्रान्ति की जगह ‘दबाव-समझौता-दबाव’ की रणनीति अपनाकर तथा विश्व-परिस्थितियों एवं जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों की कमज़ोरी का लाभ उठाकर सत्ता में आया। यह बुर्जुआ वर्ग अपनी जनता को उतना जनवादी अधिकार भी कत्तई नहीं दे सकता जितना पश्चिम के किसी बुर्जुआ वर्ग ने दिया। यही कारण है कि हमारे देश का संविधान शुरू से अन्त तक कोरी लफ़्फ़ाज़ियों से भरा हुआ है। इन कथित लफ़्फ़ाज़ियों को अगर हम जनवाद के आदर्शों के रूप में पेश करते हैं तो जनता को एक ऐसा संवैधानिक विभ्रम देते हैं कि वह लोक-लुभावन लफ़्फ़ाज़ी के साथ रचे गए संवैधानिक प्रपंच में और अधिक उलझ जाए। दूरगामी तौर पर, आमूलगामी बदलाव के किसी भी संघर्ष के लिए यह आत्मघाती सिद्ध होगा। बेशक, हमें बुर्जुआ संवैधानिक और विधिक दायरे के भीतर अपने जनवादी अधिकारों की ढेरों लड़ाइयाँ लड़नी होती हैं, पर ऐसा करते हुए बुर्जुआ संविधान और बुर्जुआ कानूनों के प्रति जनता में कोई विभ्रम कत्तई नहीं पैदा किया जाना चाहिए। आमूलगामी सामाजिक बदलाव का सीमान्त या क्षितिज जन-समुदाय की निगाहों में बुर्जुआ संविधान या कानून-व्यवस्था बन जाये, ऐसी कोई ऐतिहासिक, आत्मघाती अदूरदर्शिता कदापि नहीं की जानी चाहिए।
उन्नत से उन्नत बुर्जुआ जनवादी संविधान भी बुर्जुआ वर्ग के शासन करने का आधार-ग्रन्थ होता है, वह किसी आमूलगामी सामाजिक-राजनीतिक बदलाव या क्रान्ति की दिशा-निर्देशक संहिता नहीं हो सकता। क्रान्तियाँ संवैधानिक-वैधानिक चौहद्दियों में क़ैद रहकर या किसी संविधान से निर्देशित होकर नहीं चलतीं। वे हमेशा ही इन सीमान्तों का अतिक्रमण करती हैं। अतः, अपने जनवादी और नागरिक अधिकारों के लिए लड़ते हुए हमें बुर्जुआ वर्ग की कमीनगी, कुटिल पाखण्ड और दुरंगेपन और विश्वासघात का भण्डाफोड़ करने के लिए उनके संविधान में उल्लिखित वायदों की बार-बार याद अवश्य दिलानी चाहिए और उन अधिकारों की लड़ाई में संवैधानिक और क़ानूनी रास्तों और निदानों का भी इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन संविधान और कानून-व्यवस्था का महिमा-मण्डन करके जनता में संवैधानिक-विधिक विभ्रम नहीं पैदा करना चाहिए, उसकी क्रान्तिकारी चेतना को कुशाग्र बनाने की जगह कुन्द करने का काम नहीं करना चाहिए। बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट यही काम करते हैं।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि आज हमारी लड़ाई मात्र जनवादी और नागरिक अधिकारों की लड़ाई नहीं है। और यह लड़ाई किसी ‘बोनापार्टिस्ट’ टाइप निरंकुश स्वेच्छाचारी तानाशाह बुर्जुआ सत्ता से है, यह भी बात नहीं है। हमारी लड़ाई सीधे-सीधे फ़ासीवाद से है। हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट अपनी ऐतिहासिक प्रकृति के अनुरूप आचरण करते हुए बुर्जुआ संविधान में उल्लिखित बेहद सीमित और आधे-अधूरे जनवादी और नागरिक अधिकारों को भी निरस्त कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारी तात्कालिक लड़ाई इन साजिशों के ख़िलाफ़ होगी और अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए होगी, पर यह केवल एक तात्कालिक लड़ाई है, फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ जनता की लड़ाई इन्हीं संवैधानिक चौहद्दियों में सीमित कदापि नहीं हो सकती।
इसलिए भारतीय संविधान को वस्तुगत तौर पर भी आदर्शीकृत करने की यदि कोई कोशिश की जाती है तो यह एक प्रतिगामी कदम होगा, संवैधानिक सुधारवाद होगा। इस तात्कालिक लड़ाई के आसन्न मुद्दों पर हम बुर्जुआ जनवादियों और सामाजिक जनवादियों के साथ भी बेहिचक खड़े होंगे, पर उनका अन्तिम लक्ष्य हमारा अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकता। ईमानदार से ईमानदार बुर्जुआ डेमोक्रेट और सोशल डेमोक्रेट इस विभ्रम और यूटोपिया के शिकार होते हैं कि फ़ासीवाद की जगह आदर्श रूप में बुर्जुआ जनवाद की स्थापना की जानी चाहिए। बुर्जुआ जनवाद की सीमान्तों से आगे वे सोचते ही नहीं। सच यह है कि आज उस हद तक भी बुर्जुआ जनवाद की वापसी सम्भव नहीं जैसी आज से 70-80 साल पहले सम्भव थी। पूँजीवाद के ढाँचागत संकट के चलते फ़ासीवाद की जगह यदि कोई बुर्जुआ जनवादी सत्ता बीच-बीच में आयेगी भी तो वह बोनापर्टिस्ट टाइप कोई निरंकुश सत्ता होगी जो जनता को नाम मात्र का ही जनवादी अधिकार देगी, और उस समय भी, फ़ासीवाद एक घोर जन-विरोधी बर्बर शक्ति के रूप में समाज में मौजूद रहेगा और कहर बरपा करता रहेगा। याद कीजिए, कांग्रेस के शासन-काल में भी हिन्दुत्ववादियों का उत्पात जारी रहा है पिछले तीन दशकों के दौरान। और यह भी याद रखिये कि मज़दूरों, मेहनतक़शों, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और क्रान्तिकारी आन्दोलनों को कुचलने में कांग्रेस ने भी कभी कोई कोताही नहीं बरती। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कहा था कि जो फ़ासीवाद से लड़ने की बात करते हुए पूँजीवाद से लड़ने की बात नहीं करता, वह फ़ासीवाद से नहीं लड़ सकता। फिर एक जगह वह यह भी कहते हैं कि जो पूँजीवाद से लड़ने की बात करता है लेकिन फ़ासीवाद से नहीं लड़ता, वह भी वस्तुतः पूँजीवाद से लड़ नहीं सकता।
इन दिनों जनान्दोलनों के दौरान संविधान की प्रस्तावना के पाठ का एक चलन चला हुआ है। ऐसा करके हम कहीं न कहीं जनता के बीच संविधान को “जनवाद के आधार-ग्रन्थ” के रूप में आदर्शीकृत करते हैं और एक विभ्रम पैदा करते हैं। प्रस्तावना कोरी लफ़्फ़ाज़ी है। भारतीय गणराज्य शब्दों के वास्तविक अर्थों में सम्प्रभुता-सम्पन्न है ही नहीं। नव-उदारवाद और फ़ासीवाद के दौर के पहले भी भारत साम्राज्यवादी लूट और दबाव का शिकार था और भारतीय बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवादियों का तब भी जूनियर पार्टनर ही था।
यह समाजवादी भी नहीं है। नेहरूकालीन राजकीय पूँजीवाद को समाजवाद कहना एक मूर्खता होगी। वह “कल्याणकारी राज्य” के बुर्जुआ कीन्सियाई नुस्खों तक को एक सीमित रूप में ही लागू कर पाया। भारतीय संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता ऐतिहासिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता है ही नहीं। वह धर्मनिरपेक्षता को ‘सर्व-धर्म-सद्भाव’ के रूप में परिभाषित करती है। धर्म-निरपेक्षता का मतलब है कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में धर्म की कोई दखल न हो और धर्म के निजी विश्वास के रूप में अनुपालन की नागरिकों को पूरी आज़ादी हो। भारत में ऐसा कभी नहीं रहा। राजनीति, शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में धर्म की दखलंदाजी फासिस्टों के सत्तारूढ़ होने के पहले भी थी, धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में राजकीय एजेंसियों की भी सक्रिय भूमिका हुआ करती थी, शिक्षा और “जन-कल्याण” की तमाम संस्थाएँ धार्मिक सम्प्रदाय चलाया करते थे, राजनीति में धर्म का खुलेआम इस्तेमाल होता था और धार्मिक ध्रुवीकरण की आंच पर कांग्रेस सहित अन्य बुर्जुआ पार्टियाँ भी अपनी रोटियाँ सेंका करती थीं। इसी संविधान के लागू होने के दौरान दलितों और अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न आज़ाद भारत में निर्बाध जारी रहा है। इसी संविधान के प्रावधानों के तहत आपातकाल लागू हुआ था। इसी संविधान के काल में नेहरू ने शेख अब्दुल्ला और नम्बूदिरिपाद की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त किया था। नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और क्रान्तिकारी आन्दोलन का दमन, नेल्ली नरसंहार, नन्दीग्राम, सिंगुर, सलवा जुडूम… – यह सबकुछ इसी संविधान के तहत हुआ।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हमारे देश में ‘संवैधानिक उपचार’ तक सिर्फ़ मुट्ठी भर पढी-लिखी प्रबुद्ध आबादी की ही पहुँच हो पाती है। बहुसंख्यक आम आबादी जैसे-तैसे ‘क़ानूनी उपचार’ तक ही पहुँच पाती है। और औपनिवेशिक कानून-व्यवस्था और पुलिस-प्रशासन के ढाँचे के कारण वहाँ भी उसे न्याय बहुत कम मामलों में ही मिल पाता है। अन्त में, यह भी भूलने की ज़रूरत नहीं है कि संविधान की प्रस्तावना में जिन महत उद्देश्यों की बड़बोली घोषणा की गयी है, वह देश के 15 प्रतिशत अभिजातों द्वारा चुनी गयी संविधान सभा के सदस्यों ने पूरी भारतीय जनता की ओर से कर दी थी। वह संविधान सभा सार्विक मताधिकार के आधार पर चुनी ही नहीं गयी थी। जिस संविधान को कुछ लोग जनवाद की “पवित्र पुस्तक” बताने में लगे हैं, उसमें आदर्शों की तमाम लफ़्फ़ाज़ियाँ दुनिया के विभिन्न संविधानों से कट-पेस्ट करके ले ली गयी हैं,लेकिन जहाँ तक मूल अन्तर्वस्तु का सवाल है, इसकी 395 में से 250 धाराएँ 1935 के उसी ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट’ से से ज्यों की त्यों उठायी गयी हैं, जिसे नेहरू तक ने उस समय ‘गुलामी का काला चार्टर’ कहा था।
यह संविधान राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के तहत ऊँचे आदर्शों और लुभावने वायदों का पूरा झुनझुना बजाता है पर उनके क्रियान्वयन का कोई प्रावधान नहीं करता। सम्पत्ति के ‘पवित्र अधिकार’ को तो हमारे देश में क़ानूनी अधिकार का दर्जा हासिल है लेकिन काम करने या रोज़गार के अधिकार को हमारा संविधान मूलभूत अधिकार का दर्जा नहीं देता, न ही हमारे क़ानून इसकी कोई गारण्टी देते हैं । इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होता कि अपनी गोटी लाल करने के लिए तमाम दलितवादी बुर्जुआ नेता अम्बेडकर की नायक-पूजा और देव-पूजा करते हुए संविधान को अप्रश्नेय “पवित्र पुस्तक” घोषित कर देते हैं और इस बात को सिरे से गोल कर जाते हैं कि 5-6 वर्ष बीतते ही अम्बेडकर का संविधान से पूरी तरह मोहभंग हो गया था और उसे जला देने तक की बात वह करने लगे थे।
लुब्बेलुब्बाब यह कि हमें अपने जनवादी और नागरिक अधिकारों की तथा धर्म-निरपेक्षता की लड़ाई लड़ते हुए संवैधानिक निदानों और प्रावधानों का बेशक भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए, संवैधानिक वायदों-करारों से फ़ासिस्टों के विश्वासघात को भी उजागर करना चाहिए, संविधान-प्रदत्त अतिसीमित जनवादी अधिकारों के भी अपहरण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए, लेकिन ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जिससे इस संविधान का आदर्शीकरण हो और जनता में बेकार के विभ्रम फैलें। जहाँ तक और जब तक गुंजाइश होती है, हम संवैधानिक रास्तों से और संवैधानिक-विधिक दायरे में ही संघर्ष चलाते हैं, पर इन्हें अनुल्लंघनीय लक्षमण रेखा मान लेने का विभ्रम जनता में कत्तई नहीं फैलाया जाना चाहिए। संघर्ष करते हुए जनता इन सीमाओं को खुद पहचानने लगती है और फिर इनके अतिक्रमण की अनिवार्यता को समझने लगती है। तात्कालिक मुद्दों की लडाइयाँ लड़ते हुए हम अपने क्रान्तिकारी शिक्षा और प्रचार के कार्य को इसी दिशा में निर्देशित करते हैं। क्रान्तिकारी बदलाव संविधान और क़ानून की चौहद्दी में क़ैद रहकर नहीं, बल्कि उनको तोड़कर होते हैं। इतिहास में इसका कोई अपवाद नहीं है। हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष भी क्रान्तिकारी संघर्ष की ही एक अविभाज्य कड़ी है, इसे बुर्जुआ जनवाद की फिर से बहाली के यूटोपियाई और असम्भव सुधारवादी लक्ष्य तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2020
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