मेहनतकश साथियो! देश को आग और ख़ून के दलदल में धकेलने की फ़ासिस्ट साज़िश को नाकाम करने के लिए एकजुट होकर आगे बढ़ो!
सम्पादक मण्डल, मज़दूर बिगुल
नरेन्द्र मोदी के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद कहा गया था कि पिछली बार जो काम शुरू किये गये थे इस बार उन्हें पूरा किया जायेगा। पिछले छह महीने इस बात के गवाह हैं कि भाजपा और संघ परिवार ने इस एजेण्डा को आगे बढ़ाते हुए देश को तबाही की राह पर कितनी तेज़ रफ़्तार से बढ़ा दिया है। इन चन्द महीनों में बड़े पैमाने पर निजीकरण शुरू किया गया है, लाखों कर्मचारियों की छँटनी की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है, मज़दूरों-कर्मचारियों के क़ानूनी अधिकारों को छीन लेने के लिए संसद में क़ानून पास किये गये हैं, जमाख़ोरों-मुनाफ़ाख़ोरों को दाम बढ़ाने की छूट देकर जनता पर महँगाई का बोझ लाद दिया गया है, देश की एक बड़ी आबादी को महीनों से क़ैद करके रखा गया है, और धर्म के नाम पर लोगों को बाँटने की सनक में पूरे देश को आग में झोंक देने की साज़िश को अमली जामा पहना दिया गया है। जब छात्रों-नौजवानों की अगुवाई में देशभर का अवाम इस साज़िश को पहचानकर इसके ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ है तो फ़ासिस्ट सत्ता ने उन पर बर्बर दमन ढाना शुरू कर दिया है। जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुलिस ने सरकार के इशारे पर जो दमन का जो ताण्डव रचा उसे कभी भूला नहीं जायेगा।
जो लोग पिछले कई सालों से पिलाये जा रहे ज़हर के नशे में अभी इस ख़तरे को समझ नहीं रहे हैं और इस भ्रम में हैं कि मुसलमानों को “सबक़ सिखाकर” भाजपा आने वाले दिनों में बहुसंख्यकों के लिए अच्छे दिन ले आयेगी, उनके भ्रम भी जल्दी ही टूटेंगे। बहुत-से लोग ख़तरे को तभी भाँप पाते हैं जब डण्डा उनके सिर पर बजने लगता है। जर्मनी में भी एक बड़ी आबादी ऐसे लोगों की थी जो ‘मोदी-मोदी’ की तर्ज़ पर ‘हेल हिटलर’ का नारा तब तक लगाते रहे जब तक कि पूरा देश तबाह नहीं हो गया। हिटलर ने अपने बंकर में चूहे की तरह छुपकर आत्महत्या कर ली, मगर जर्मनी को बरसों तक इस तबाही की मार झेलनी पड़ी। आज हिटलर का नाम जर्मनी ही नहीं पूरी दुनिया में गाली बन चुका है।
ऐसे लोगों से हम यही कहेंगे कि ज़रा याद करो कि “अच्छे दिनों” के कितने बड़े-बड़े वायदे करके मोदी सत्ता में आये थे। नज़र दौड़ाओ देश की हकीक़त पर, आपको क्या नज़र आ रहा है? बिकते सार्वजनिक उद्योग, छिनते रोज़गार, कमरतोड़ महँगाई, बढ़ते दलित-स्त्री-अल्पसंख्यक विरोधी अपराध और धार्मिक आधार पर देश को बाँटने की साजिशें! क्या यही अच्छे दिन हैं? हिन्दू हितों का ढोल बजाने वाले दरअसल अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों और ग़रीबों के ही नहीं बल्कि हिन्दुओं के भी सबसे बड़े दुश्मन हैं। नोटबन्दी, बैंकों के पैसों की लूट, निजीकरण, ठेकाकरण से चन्द धनपतियों को छोड़कर किसका फायदा हुआ है? बेरोज़गारी, महँगाई और गरीबी किसकी कमर तोड़ रहे हैं? निश्चित तौर पर समस्त जनता की, चाहे वे किसी भी जाति-मज़हब-रंग-नस्ल के ही क्यों न हों। भाजपा सरकार देश की जनता के गले में फन्दा बनी समस्याओं का कोई हल नहीं निकाल सकती। यह केवल लोगों को आपस में लड़ाकर पूँजीपतियों की चाकरी बजा सकती है और अपना उल्लू सीधा कर सकती है। इसीलिए हरेक जाति-मज़हब के न्यायप्रिय व्यक्ति को हर तरह के फूटपरस्त और जन-विरोधी कानूनों का विरोध करना चाहिए।
तथाकथित ‘हिन्दू राष्ट्र’ का अपना एजेण्डा लागू करने की भाजपा को ऐसी जल्दी क्यों मची हुई है? इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था अब तक के सबसे गम्भीर संकट में है और ढहने के कगार पर है। चारों ओर से सार्वजनिक संसाधनों की लूट-खसोट मचाकर, झूठे आँकड़े देकर और मीडिया में इसकी चर्चा पर रोक लगाकर सरकार ने हालात का भाँडा फूटने से रोक रखा है ताकि जनता इसके विरोध में सड़कों पर न उतर आये। लेकिन कभी किसी बैंक का भट्ठा बैठने, कभी किसी बड़ी कम्पनी का दिवाला निकलने, तो कभी लाखों की तादाद में लोगों की छँटनी जैसी ख़बरें उभरकर सामने आ ही जाती हैं। बेरोज़गारी विकराल रूप ले चुकी है। मज़दूरों से लेकर पढ़े-लिखे नौजवानों की विशाल आबादी इसकी चपेट में है। महँगाई ने ग़रीबों की कमर तो पहले ही तोड़ रखी थी, अब मध्य वर्ग के निचले तबकों के लिए भी जीना दूभर होता जा रहा है।
सत्ता में बैठे लोग और उनके पीछे बैठे संघ के नेता यह जानते हैं कि जनता के सब्र का प्याला कभी भी छलक सकता है। इसीलिए वे बदहवास हैं और इन विनाशकारी क़दमों को एक के बाद लागू किये जा रहे हैं। नवम्बर में राम मन्दिर का फ़ैसला अपने पक्ष में करवाने के बाद भी समाज में तीखा और उग्र ध्रुवीकरण करने का भाजपा का मंसूबा पूरा नहीं हुआ। असम में एनआरसी का पहला प्रयोग भी उल्टा इनके गले पड़ गया। वर्षों से भाजपा यह प्रचार कर रही थी कि “करोड़ों मुस्लिम घुसपैठियों” के कारण देश में अस्थिरता है और इन्हें निकाल बाहर करने से सब ठीक हो जायेगा। मगर एनआरसी में असम में कुल 19 लाख “बाहरी” पाये गये–और उनमें से भी 13 लाख से ज़्यादा हिन्दू हैं। यह भी तब जब बरसों चली क़वायद में अरबों रुपये ख़र्च करने के बाद भी बड़े पैमाने पर घपले पाये गये। कहीं एक ही परिवार के कुछ सदस्य बाहरी ठहरा दिये गये तो कहीं पूर्व राष्ट्रपति और सेना के अफ़सरों के परिजन ही बाहरी क़रार दिये गये।
अब इसकी काट के लिए ये नागरिकता संशोधन क़ानून ले आये हैं जो सीधे-सीधे धर्म के आधार पर एक समुदाय को नागरिकता से वंचित करता है। यह कितना ख़तरनाक़ क़ानून है इसके बारे में विस्तार से हमने अन्दर के पृष्ठों पर लिखा है। असलियत यह है कि पाकिस्तान, बंगलादेश से प्रताड़ित होकर आने वालों को भारत की नागरिकता देने में अभी भी कोई बाधा नहीं थी। पाकिस्तान, बंगलादेश, अफ़ग़ानिस्तान से आये लगभग दो करोड़ से अधिक शरणार्थियों को अब तक भारत की नागरिकता मिली हुई है। इनमें दो प्रधानमंत्री (आई.के. गुजराल और मनमोहन सिंह) और एक उपप्रधानमंत्री आडवाणी भी शामिल हैं। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों और पंजाब-कश्मीर से बंगाल-त्रिपुरा तक के अनेक शहरों में बड़ी-बड़ी कॉलोनियाँ हैं जो शरणार्थियों के लिए बसायी गयीं। उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) की तराई में उन्हें ज़मीनें दी गयीं। ज़ाहिर है कि मौजूदा क़ानून की वजह से किसी शरणार्थी को नागरिकता मिलने में कोई रुकावट नहीं हुई। उसके बाद भी समय-समय पर भारत में शरण लेने वालों को क़ानून के तहत नागरिकता दी जाती रही है। अब भाजपा जिन शरणार्थियों की बात कर रही है उन्हें भी नागरिकता देने के लिए कोई नया क़ानून बनाने की कोई ज़रूरत नहीं थी। इसका एकमात्र मकसद धर्म के आधार पर भेदभाव को क़ानूनी जामा पहनाकर उसे स्वीकार्य बनाना ही है।
और बात सिर्फ़ नागरिकता क़ानून की नहीं है। एनआरसी, यानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को पूरे देश में लागू करने की बात अमित शाह से लेकर तमाम भाजपायी मुख्यमंत्री कहते रहे हैं। इसका सीधा मतलब होगा कि पूरे देश के लोग अपनी तीन पीढ़ियों के काग़ज़ात जुटाकर लाइन में लगे रहें और जो ये साबित न कर पायें उन्हें नज़रबन्दी गृहों में क़ैद कर दिया जाये। इसके बहाने भाजपा तमाम अल्पसंख्यक आबादी के सिर पर तलवार लटकाये रखना चाहती है ताकि वह चुपचाप मुल्क़ में अपनी दोयम दर्जे की स्थिति को स्वीकार कर लें। लेकिन इसकी मार देश की बहुत बड़ी ग़रीब-मेहनकतकश आबादी पर भी पड़ेगी जिसकी नज़ीर हम असम में देख चुके हैं।
भारत में ‘फूट डालो और राज करो’ का बीज अंग्रेज़ों ने बोया था। उन्हें तब्लीगी जमात, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में आसानी से अपने सहायक भी मिल गये। फूटपरस्ती देश के ख़ूनी विभाजन तक पहुँची। लाखों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी और करोड़ों मासूम अपनी जगह-ज़मीन-संस्कृति और भाषा से कट गये। अंग्रेज़ तो चले गये लेकिन लोगों को आपस में लड़ाने की राजनीति अभी तक चल रही है।
मुस्लिम विरोध और साम्प्रदायिक-जातिवादी और फ़ासीवादी राजनीति भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ व हिन्दू महासभा जैसे इसके पूर्व और मातृ संगठनों का पुराना काम रहा है। फ़ासीवादी राजनीति हमेशा ही सम्प्रदाय-विशेष को मौजूदा समस्याओं का ज़िम्मेदार ठहराती है और दंगों व सरकारी दमन के माध्यम से सामाजिक अस्थिरता पैदा करती है। पूँजीवाद की असल समस्याओं के बरक्स सम्प्रदाय-विशेष के रूप में एक नकली दुश्मन खड़ा कर दिया जाता है और लोगों का ध्यान असल मुद्दों से भटका दिया जाता है। मुनाफ़े की गिरती दर के कारण विकराल रूप धारण करने वाली आर्थिक मन्दी कहीं पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनाक्रोश को भड़का न दे इसीलिए आज कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग की सेवा में जुटी फ़ासीवादी सत्ता जनता को बाँटने और आतंकित करने में जुट गयी है। यह अनायास ही नहीं है कि कुल कॉरपोरेट चन्दे का बड़ा हिस्सा भाजपा की झोली में जा रहा है। फ़ासिस्ट भाजपा सरकार और संघी संगठन अपनी राजनीति और गोयबल्सी दुष्प्रचार से बँटवारे और बर्बादी का ऐसा ताण्डव रच रहे हैं जिससे शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-महँगाई-भ्रष्टाचार-दमन और लूट जैसे जीवन से जुड़े मुद्दों को भूलकर लोग जाति-मज़हब के नाम पर उत्तेजित होकर एक-दूसरे के दुश्मन बन जायें।
लेकिन जिस तरह हर दिन रोज़गार के मौके कम हो रहे हैं, कम्पनियाँ बन्द हो रही हैं, छँटनी हो रही है, सरकारी नौकरियाँ ख़त्म की जा रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को मुनाफ़ा निचोड़ने वाली निजी कम्पनियों के हवाले किया जा रहा है, मुनाफे़ की हवस में पर्यावरण को बर्बाद किया जा रहा है, ऐसे में अगर देश का अवाम इस खुली लूट और डाकेज़नी को रोकने के लिए आपस के नकली भेद भुलाकर सड़कों पर नहीं उतरा तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी। ऐसा न हो कि हमें इन सवालों के जवाब में मुँह छिपाना पड़े कि जब कुछ लोग देश को बचाने के लिए लड़ रहे थे तो हमने क्या किया। जब छात्रों पर लाठियाँ भाँजी जा रही थीं, छात्राओं को बेइज़्ज़त किया जा रहा था, तब हम क्या कर रहे थे? जब मज़दूर अपने अधिकारों के लिये आन्दोलन कर रहे थे तब हम कहाँ थे? जब आत्महत्या के लिए मजबूर ग़रीब किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई में सड़कों पर थे तब हम कहाँ थे, जब स्त्रियों के विरुद्ध बर्बरता का विरोध सड़कों पर हो रहा था, तब हम कहाँ थे?
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019
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