राजनीतिक चेतना बढ़ाओ, संगठित हो, अपने पूरे हक़ के लिए आगे बढ़ो!
मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत से प्रेरणा लो!

 

आज पूरी दुनिया का मज़दूर वर्ग पूँजी की ताक़तों के एकजुट हमले का सामना कर रहा है। दशकों के बहादुराना संघर्षों में जीते गये तमाम अधिकार एक-एक करके उससे छीन लिये गये हैं। भारत जैसे देशों में तो मज़दूरों की भारी आबादी काम के हालात और बर्बर शोषण के लिहाज़ से मानो सौ साल पीछे धकेल दी गयी है। लेकिन अब मज़दूरों ने प्रतिरोध और मुक़ाबला करना भी शुरू कर दिया है। मज़दूर वर्ग के सब्र का प्याला छलक रहा है और जगह-जगह मज़दूरों के ग़ुस्से के विस्फोट से लेकर संगठित आन्दोलन तक की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में पूँजीवादी व्यवस्था की ओर से मज़दूरों को भरमाने-बरगलाने और पानी के छींटे मारकर शान्त करने का काण्ट्रैक्ट लेने वाले नकली वामपन्थी और उनकी यूनियनें भी काफी सक्रिय हो गयी हैं। देश की 45 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत से भी अधिक असंठित मज़दूरों के बीच भी इनकी उछलकूद पहले से बहुत बढ़ गयी है। मज़दूर आन्दोलन को कुछ टुकड़े पाने के चक्कर में उलझाये रखने की अपनी कवायदें उन्होंने तेज़ कर दी हैं। ऐसे वक़्त में, मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत को याद करना और उससे आम मज़दूरों को परिचित कराना बेहद ज़रूरी है।

मई दिवस को अनुष्ठान बना देना मई दिवस के महान शहीदों का अपमान है। मई दिवस मज़दूरों के मक्कार, फ़रेबी, नक़ली नेताओं के लिए महज़ झण्डा फहराने, जुलूस निकालने, भाषण देने की एक रस्म हो सकता है, लेकिन वास्तव में यह उन शहीदों की क़ुर्बानियों को याद करने का मौक़ा है, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी देकर पूरी दुनिया के मज़दूरों को यह सन्देश दिया था कि उन्हें अलग-अलग पेशों और कारख़ानों में बँटे-बिखरे रहकर महज़ अपनी पगार बढ़ाने के लिए लड़ने के बजाय एक वर्ग के रूप में एकजुट होकर अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा। काम के घण्टे कम करने की माँग उस समय की सर्वोपरि राजनीतिक माँग थी। मई दिवस दुनिया के मेहनतकशों के राजनीतिक चेतना के युग में प्रवेश करने का प्रतीक दिवस है।

आज इस बुनियादी बात को ही भुला दिया गया है। चुनावी पार्टियों के पिछलग्गू तमाम ट्रेडयूनियनबाज़ घाघ मदारी भी मई दिवस का परचम लहराते हैं जिनका काम ही मज़दूरों को महज़ दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई में उलझाये रखकर अपना उल्लू सीधा करना है और अपने आकाओं की चुनावी गोट लाल करना है। आज तो हालत यह हो गयी है कि कई एक कारख़ानों के मालिकान भी मई दिवस के दिन मज़दूरों को लड्डू बँटवाते हैं या यूनियन-मैनेजमेण्ट मिलकर प्रीतिभोज का आयोजन करते हैं। मई दिवस के शहीदों का भला इससे बढ़कर भी कोई अपमान हो सकता है? मज़दूर वर्ग को अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद और संसदवाद की चौहद्दी से बाहर निकालकर, व्यापक मज़दूर एकता की ज़मीन पर राजनीतिक संघर्षों को संगठित करने की शुरुआत करके ही आज हम मई दिवस की गरिमा वास्तव में बहाल कर सकते हैं और सही मायने में मई दिवस के महान शहीदों की शानदार परम्परा के सच्चे वारिस बन सकते हैं।

मई दिवस आज घोषणा करने का दिन हम भी हैं इंसान हमें चाहिए बेहतर दुनिया करते हैं ऐलान घृणित दासता किसी रूप में नहीं हमें स्वीकार मुक्ति हमारा अमिट स्वप्न है मुक्ति हमारा गान

मई दिवस
आज घोषणा करने का दिन
हम भी हैं इंसान
हमें चाहिए बेहतर दुनिया
करते हैं ऐलान
घृणित दासता किसी रूप में
नहीं हमें स्वीकार
मुक्ति हमारा अमिट स्वप्न है
मुक्ति हमारा गान

हमें आम मज़दूर साथियों को राजनीतिक संघर्ष और आर्थिक संघर्ष के बीच के अन्तर को अच्छी तरह समझाना होगा। तभी वे मई दिवस के ऐतिहासिक महत्त्व को वास्तव में जान सकेंगे। किसी कारख़ाना या उद्योग में काम करते हुए मज़दूर अपनी पगार, पेंशन भत्ते आदि को लेकर आर्थिक संघर्ष करते हैं और इस दौरान उन्हें अपनी संगठित शक्ति का अहसास होता है तथा वे लड़ना सीखते हैं। अलग-अलग उद्योगों या कारख़ानों के मज़दूर अपने-अपने मालिकों के खि़लाफ़ अलग-अलग आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ते हैं उनकी यह लड़ाई एक समूचे वर्ग के रूप में, समूचे पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ़ नहीं होती। लेकिन साथ ही, वे कुछ ऐसी लड़ाइयाँ भी लड़ना शुरू करते हैं जो समूचे मज़दूर वर्ग की साझा माँगों को लेकर होती हैं – जैसे आवास, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं की माँग, पक्की नौकरी की गारण्टी या ठेका प्रथा की समाप्ति की माँग, सभी मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी तय करने की माँग या काम के घण्टे तय करने की माँग आदि। जब सभी पेशों के मज़दूर इन आम माँगों पर एकजुट होकर लड़ते हैं तो अपने-अपने पेशों से बँधी हुई उनकी संकुचित मनोवृत्ति भी टूटती है और मज़दूर वर्ग के रूप में उनकी व्यापक एकता क़ायम होती है। ये राजनीतिक संघर्ष पूरे पूँजीपति वर्ग और उनकी राज्यसत्ता के खि़लाफ़ समूचे मज़दूर वर्ग को एकजुट कर देते हैं और जनता के अन्य वर्गों के साथ भी उनके मोर्चाबन्द होने का आधार तैयार कर देते हैं। मज़दूर वर्ग के ये राजनीतिक संघर्ष पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता को मजबूर करते हैं कि वह क़ानून बनाकर उनके काम के घण्टे निर्धारित करे, उनकी सेवा-शर्तें तय करे, उनकी नौकरी की सुरक्षा की कमोबेश गारण्टी दे तथा मालिकों के ऊपर क़ानूनी बन्दिशें लगाकर उन्हें मज़दूरों को विभिन्न बुनियादी सुविधाएँ देने के लिए बाध्य करे ताकि संगठित मज़दूरों की शक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के ही सामने अस्तित्व का संकट न खड़ा कर दे। लेकिन किसी भी पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर वर्ग द्वारा लड़कर हासिल किये जाने वाले राजनीतिक अधिकारों की एक सीमा होती है, जो धीरे-धीरे मज़दूर वर्ग के सामने साफ़ होती जाती है। पूँजीवादी जनवाद का असली चेहरा तब पूँजीपति वर्ग की तानाशाही के रूप में सामने आ जाता है। तब मज़दूर वर्ग इस सच्चाई को समझने लगता है कि असली सवाल पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को ही बदल डालने का है और यह काम पूँजीवादी राज्यसत्ता को चकनाचूर किये बिना अंजाम नहीं दिया जा सकता। राजनीतिक संघर्ष करते हुए ही मज़दूर वर्ग अपने ऐतिहासिक मिशन से परिचित होता है और यह समझता है कि सर्वहारा क्रान्ति होकर रहेगी। वह क्रान्ति के विज्ञान को आत्मसात करता है और समाजवादी व्यवस्था के अग्रदूत की भूमिका निभाने के लिए अपने को तैयार करता है।

आर्थिक संघर्ष मज़दूर वर्ग का बुनियादी संघर्ष है। इसके ज़रिये वह लड़ना और संगठित होना सीखता है। मुख्यतः ट्रेडयूनियनें इस संघर्ष के उपकरण की भूमिका निभाती हैं और इस रूप में वर्ग-संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला की भूमिका निभाती हैं। लेकिन आर्थिक संघर्ष मज़दूर वर्ग को सिर्फ़ कुछ राहत, कुछ रियायतें और कुछ बेहतर जीवनस्थितियाँ ही दे सकते हैं। वे अलग-अलग पेशों में बँटे हुए मज़दूरों को उनकी व्यापक वर्गीय एकजुटता की ताक़त का अहसास नहीं करा सकते। न ही वे उन्हें इस बात का अहसास करा सकते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करके अपने को मुक्त करना सम्भव है। केवल राजनीतिक माँगों पर संघर्ष के द्वारा ही ऐसा हो सकता है।

मज़दूर आन्दोलनों का इतिहास और मज़दूर क्रान्ति का विज्ञान हमें बताता है कि आर्थिक संघर्ष कभी भी अपनेआप, स्वयंस्फूर्त ढंग से राजनीतिक संघर्ष में रूपान्तरित नहीं हो जाते। आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ शुरू से ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक संघर्षों को भी चलाये, तभी मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकता है। राजनीतिक संघर्ष तब तक रोज़मर्रा के संघर्षों के अंग के तौर पर प्रारम्भिक अवस्था में होते हैं तभी तक ट्रेडयूनियनों के माध्यम से उनका संचालन सम्भव होता है। एक मंज़िल आती है जब राजनीतिक संघर्ष के लिए सर्वहारा वर्ग के किसी ऐसे संगठन की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है जो सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान की सुसंगत समझदारी से लैस हो। यह संगठन पूँजीवाद के आर्थिक ताने-बाने, राजनीतिक तन्त्र और पूरी सामाजिक संरचना को भलीभाँति समझने के बाद उसके विकल्प का ख़ाक़ा पेश करता है; पूँजीवादी राज्यसत्ता को ध्वस्त करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना करने तथा समाजवाद का निर्माण करने के कार्यक्रम और रास्ते से सर्वहारा वर्ग को शिक्षित करता है और उस रास्ते पर आगे बढ़ने में सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व देता है। ट्रेडयूनियन आज भी वर्ग-संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला है, लेकिन वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के मार्गदर्शन में संगठित पार्टी ही पूँजीवादी व्यवस्था का नाश करके सर्वहारा वर्ग की आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक मुक्ति के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचा सकती है, यही सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान की- मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षा है और बीसवीं सदी के दौरान इतिहास इसे सही साबित कर चुका है। हमें इस शिक्षा को कभी भूलना नहीं होगा।

पिछले बीस वर्षों के दौरान उत्पादन के ढाँचों में बदलाव करके पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग की संगठित शक्ति को बिखराने में काफ़ी हद तक कामयाब हुआ है। कारखानों में अधिकांश काम अब ठेका, दिहाड़ी या कैजुअल मज़दूरों से कराना आम चलन बन चुका है। हमारे देश में आज कुल मज़दूर आबादी का लगभग 93 प्रतिशत तथाकथित असंगठित क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। मज़दूर वर्ग के इस भौतिक बिखराव ने उसकी चेतना पर भी काफ़ी नकारात्मक असर डाला है। वह अपनी ताक़त को बँटा हुआ और पूँजीपति वर्ग की संगठित शक्ति के सामने खुद को कमज़ोर, असहाय और निरुपाय महसूस कर रहा है। आज मज़दूर आबादी को संगठित करने की व्यावहारिक चुनौतियाँ बढ़ गयी हैं और संगठन के पुराने प्रचलित तरीकों और रूपों से काम नहीं चलने वाला है। लेकिन कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं हो सकती कि बुर्जुआ वर्ग द्वारा उपस्थित की गयी चुनौती के सामने सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हाथ खड़े कर दें। हमें मज़दूर वर्ग को संगठित करने के नये रूपों और तरीक़ों को ईजाद करना होगा। दरअसल कारख़ाना-केन्द्रित ट्रेड यूनियनवाद से पीछा छुड़ाये बिना आज मज़दूर आन्दोलन को नये सिरे से संगठित ही नहीं किया जा सकता। मज़दूरों को संगठित करने की तात्कालिक व्यावहारिक चुनौतियों से निपटना मज़दूरों के क्रान्तिकारी हरावलों का काम है। ज़मीनी संगठनकर्ताओं को पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होकर सर्जनात्मक तरीके से संगठन के नये-नये रूप और तरीक़े खोज निकालने होंगे।

अगर आज की परिस्थिति पर थोड़ा गहराई से विचार किया जाये तो हमें वे छुपी हुई क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ नज़र आयेंगी जो आँखों से ओझल होने पर सामने मौजूद फ़ौरी चुनौतियाँ ज़्यादा कठिन लगने लगती हैं। आज के दौर में औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूर वर्ग के काम के जो हालात हैं और पूँजीपतियों का समूचा गिरोह, उनकी सरकारें और पुलिस-क़ानून-अदालतें जिस तरह उसके ऊपर एकजुट होकर हमले कर रही हैं उससे मज़दूर वर्ग स्वयं यह सीखता जा रहा है कि उसकी लड़ाई अलग-अलग पूँजीपतियों से नहीं बल्कि समूची व्यवस्था से है। यह ज़मीनी सच्चाई अर्थवाद के आधार को अपनेआप ही कमज़ोर बना रही है और मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना के उन्नत होने के लिए अनुकूल ज़मीन मुहैया करा रही है। इसकी सही पहचान करना और इस आधार पर मज़दूर आबादी के बीच घनीभूत एवं व्यापक राजनीतिक प्रचार की कार्रवाइयाँ संचालित करना ज़रूरी है। मज़दूरों की व्यापक आबादी को यह भी बताया जाना चाहिए कि असेम्बली लाइन का बिखराव आज भले ही मज़दूरों को संगठित करने में बाधक है लेकिन दूरगामी तौर पर यह फ़ायदेमन्द है। यह मज़दूर वर्ग की ज़्यादा व्यापक एकता का आधार तैयार कर रहा है और कारख़ाना-केन्द्रित और पेशागत संकुचित मनोवृत्ति को दूर करने में भी मददगार साबित होगा। इसने मज़दूर वर्ग की विश्वव्यापी एकजुटता का आधार भी मज़बूत किया है। अब ‘दुनिया के मज़दूरो, एक हो!’ का विश्व ऐतिहासिक नारा एक व्यावहारिक नारे की ओर बढ़ता जा रहा है।

मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी एकता ही आज मई दिवस का सन्देश हो सकता है। इस एकता के बारे में लेनिन के इन उद्धरणों पर ग़ौर किया जाना चाहिए:

“मज़दूरों को एकता की ज़रूरत अवश्य है और इस बात को समझना महत्त्वपूर्ण है कि उन्हें छोड़कर और कोई भी उन्हें यह एकता “प्रदान” नहीं कर सकता, कोई भी एकता प्राप्त करने में उनकी सहायता नहीं कर सकता। एकता स्थापित करने का “वचन” नहीं दिया जा सकता – यह झूठा दम्भ होगा, आत्मप्रवंचना होगी; एकता बुद्धिजीवी ग्रुपों के बीच “समझौतों” द्वारा “पैदा” नहीं की जा सकती। ऐसा सोचना गहन रूप से दुखद, भोलापन भरा और अज्ञानता भरा भ्रम है।”

“एकता को लड़कर जीतना होगा, और उसे स्वयं मज़दूर ही, वर्गचेतन मज़दूर ही अपने दृढ़, अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त कर सकते हैं।”

“इससे ज़्यादा आसान दूसरी चीज़ नहीं हो सकती है कि “एकता” शब्द को गज-गज भर लम्बे अक्षरों में लिखा जाये, उसका वचन दिया जाये और अपने को “एकता” का पक्षधर घोषित किया जाये। परन्तु, वास्तव में, एकता आगे बढ़े हुए मज़दूरों के परिश्रम तथा संगठन द्वारा ही आगे बढ़ायी जा सकती है।” (‘त्रुदोवाया प्राव्दा’, अंक-2, 30 मई, 1914)

मई दिवस का आज एकमात्र यही सन्देश हो सकता है कि वर्ग-चेतन मज़दूरों को आगे बढ़कर, लड़कर, अपने परिश्रम से अपनी एकता हासिल करनी होगी और राजनीतिक संघर्षों के नये सिलसिले का सूत्रपात करना होगा। मज़दूर आन्दोलन को एक बार फिर क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना के एक नये युग में प्रवेश करना होगा और इक्कीसवीं सदी की नयी सर्वहारा क्रान्तियों की तैयारी में जुट जाना होगा।

“इन माँगों में सबसे पहली माँग होगी आठ घण्टे के कार्य-दिवस की आम माँग, जो सभी देशों के सर्वहारा-वर्ग ने की है। इस माँग का सबसे पहले रखा जाना खारकोव के मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी मज़दूर आन्दोलन के साथ एकजुटता के अहसास को दर्शाता है और निश्चित रूप से इसी लिए इस माँग को छोटी-मोटी आर्थिक माँगों से नहीं  मिलाया जाना चाहिए, जैसे- फोरमैन द्वारा अच्छे बर्ताव की माँग या तनख़्वाह में दस फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी की माँग। आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग पूरे सर्वहारा वर्ग की माँग है और सर्वहारा उसे एक-एक मालिक के सामने नहीं बल्कि सरकार के सामने रखता है, क्योंकि ये ही आज के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं। सर्वहारा वर्ग यह माँग समूचे पूँजीपति वर्ग के सामने रखता है जो सभी उत्पादन के साधनों का मालिक है।”

– लेनिन

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल-मई  2013

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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