कश्मीर के मुद्दे पर सोचने के लिए कुछ बेहद ज़रूरी सवाल
मज़दूर साथियो! क्या किसी क़ौम को ग़ुुलाम बनाने की हिमायत करके हम आज़ाद रह सकते हैं?
अभिनव
मोदी सरकार ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 और 35ए को हटा दिया और जम्मू-कश्मीर राज्य को दो हिस्सों में बाँटने का ऐलान कर दिया। जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को ख़त्म कर दिया गया और जम्मू-कश्मीर को दिल्ली व पुदुचेरी की तरह आधे-अधूरे अधिकारों वाली विधानसभा के साथ और लद्दाख को चण्डीगढ़ जैसे विधानसभा रहित केन्द्र-शासित प्रदेश में बदल दिया गया।
पूरे देश में मज़दूर वर्ग समेत सभी लोग इस क़दम पर दो हिस्सों में बँट गये हैं। मोदी सरकार का दावा है कि इस क़दम से कश्मीर सच्चे मायने में पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन जायेगा, वहाँ आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा, बेरोज़गारी ख़त्म हो जायेगी, ”विकास” हो जायेगा, वगैरह। मोदी सरकार यह भी दावा कर रही है कि कश्मीर की जनता उसका समर्थन कर रही है। इस दावे पर तो मोदी के समर्थक भी यक़ीन नहीं करते हैं। निष्पक्ष पत्रकारों व प्रेक्षकों तथा अन्तरराष्ट्रीय टेलीविज़न चैनलों ने इस दावे की पोल खोल दी है। पूरे जम्मू-कश्मीर में आम कश्मीरी इस फै़सले के खिलाफ़ सड़कों पर उतर रहे हैं और उन्हें पैलेट गन और गोलियों का निशाना बनाया जा रहा है। और तो और, कश्मीर के बाहर भी अगर कोई इस एकतरफ़ा और निरंकुश फ़ैसले के विरुद्ध आवाज़ उठाने की कोशिश कर रहा है, तो उसे गिरफ़्तार कर लिया जा रहा है। अगर कश्मीर की जनता इस फै़सले के समर्थन में होती तो पूरे जम्मू–कश्मीर को फ़ौजी छावनी में तब्दील करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। लेकिन मोदी सरकार के बाकी दावों का क्या? क्या वाकई इस फै़सले से जम्मू-कश्मीर का विकास होगा, वहाँ रोज़गार पैदा होंगे, आतंकवाद ख़त्म होगा? मोदी सरकार के इस फैसले पर मज़दूर वर्ग का क्या नज़रिया होना चाहिए? यह सवाल आज के समय का जलता हुआ सवाल है, जिस पर चुप्पी साधने वालों को या ग़लत रुख अपनाने वालों को इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा।
जहाँ तक अनुच्छेद 370 हटाकर विकास करने और रोज़गार पैदा करने के दावों का सवाल है, तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि ये दावे बकवास हैं। अगर ऐसा होना होता तो सबसे पहले बाक़ी हिन्दुस्तान में मोदी सरकार विकास कर देती और रोज़गार पैदा कर देती। लेकिन पिछले पाँच वर्षों में और पिछले 2 माह में हुआ क्या है? सभी मज़दूर और मेहनतकश जानते हैं कि नया रोज़गार पैदा होना तो दूर जो रोज़गार था वह भी छिनता जा रहा है। मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था के मुनाफ़े के संकट ने पिछले चार माह में ही ऐसी मन्दी पैदा की है कि चार लाख से अधिक कामगार अपने काम से हाथ धो चुके हैं। विकास के नाम पर निजीकरण और उदारीकरण की जो आँधी चलायी जा रही है, उससे अम्बानी-अडानी जैसे धनपशुओं की तो तिजोरियाँ भर रही हैं, लेकिन आम मेहनतकश लोगों को महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार की मार का सामना करना पड़ रहा है। मोदी सरकार के झूठे दावों का इतिहास इतना लम्बा हो चुका है कि अब मोदी के मुँह से ”विकास” और ”अच्छे दिन” जैसे शब्द सुनते ही देश में भय और शंका की लहर दौड़ जाती है। कश्मीर के बारे में भी मोदी सरकार के दावे उतने ही झूठे और फ़रेबी हैं। इसलिए इनका खण्डन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इसलिए हम सीधे इस प्रश्न पर आते हैं कि इस फ़ैसले को लागू करने के पीछे मोदी सरकार की मंशा क्या है और इस पर हम मज़दूरों–मेहनतकशों का क्या नज़रिया होना चाहिए। लेकिन इसके लिए सबसे पहले जम्मू-कश्मीर के बारे में कुछ बुनियादी बातें हमें पता होनी चाहिए।
जम्मू-कश्मीर की समस्या का संक्षिप्त इतिहास
सबसे पहले तो हम मज़दूरों को यह पता होना चाहिए कि 15 अगस्त 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ तो जम्मू–कश्मीर उसका हिस्सा नहीं था। वहाँ राजा हरि सिंह की रियासत चलती थी। कश्मीर की रियासत में बहुसंख्यक आबादी मुसलमान थी, जबकि उसका राजा यानी कि हरि सिंह हिन्दू था। कश्मीर के ग़रीब किसान (जिसमें अधिकांश मुसलमान थे, लेकिन हिन्दू भी थे) जम्मू-कश्मीर की सबसे बड़ी और लोकप्रिय पार्टी नेशनल कान्फ़्रेंस के नेतृत्व में हरि सिंह के राज में जारी सामन्ती उत्पीड़न और ज़मींदारी के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे थे। इस पार्टी के नेता थे शेख़ अब्दुल्ला। उनके नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर के किसान ज़मींदारी और ग़ुलामी के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। आज़ादी के समय राजा हरि सिंह भारत में विलय को लेकर आनाकानी कर रहे थे। जबकि शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में नेशनल कान्फ़्रेंस का झुकाव कुछ शर्तों के साथ भारत में विलय की ओर था।
हरि सिंह के तुरन्त तैयार न होने के कारण आज़ादी के ठीक बाद कश्मीर का भारत में विलय नहीं हो सका था। इसी बीच पाकिस्तान ने धार्मिक आधार पर कश्मीर को अपने में शामिल करने के मंसूबे से कश्मीर पर अपनी सेना के समर्थन से कबायलियों के ज़रिये हमला करवाया। इस हमले के ख़िलाफ़ कश्मीरी लोग बहादुरी से लड़े। इस हमले के बाद ही हरि सिंह ने भारत में सशर्त विलय को स्वीकार किया। भारतीय सेना जब 1948 में श्रीनगर पहुँची तो कश्मीरी जनता ने उसका तहेदिल से स्वागत किया, उस पर फूल बरसाये और उसके समर्थन में नारे लगाये। कश्मीर की आम जनता कभी भी पाकिस्तान के इस्लामी राज्य में शामिल नहीं होना चाहती थी क्योंकि ऐतिहासिक तौर पर कश्मीरी जनता कभी भी साम्प्रदायिक चरित्र की नहीं थी। भारत में विलय की सन्धि में यह शर्त शामिल थी कि कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर स्वायत्तता का दर्जा मिलेगा। इस शर्त को शामिल करने का कारण यह था कि कश्मीरी जनता, जिसमें कि कश्मीरी मुसलमान और कश्मीरी हिन्दू पण्डित दोनों ही शामिल थे, अपनी राष्ट्रीय पहचान को क़ायम रखते हुए भारत में शामिल होना चाहती थी और इसीलिए वह विदेशी मसलों व कुछ अन्य मसलों के अतिरिक्त अन्य मसलों में अपनी स्वायत्तता रखना चाहती थी, और यह उसका वाजिब हक़ था। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल इस पर सहमत थे। संघ परिवार और मोदी सरकार सरासर झूठ बोल रही है कि अनुच्छेद 370 ख़त्म करके उसने सरदार पटेल का सपना पूरा किया है। जम्मू-कश्मीर की इस स्वायत्तता के दर्जे को ही कानूनी रूप देते हुए अनुच्छेद 370 बनाया गया था। दूसरे शब्दों में, कश्मीर इसी शर्त के साथ भारत में अपनी इच्छा से शामिल हुआ था कि उसे भारतीय संघ के भीतर स्वायत्तता प्राप्त होगी। यह भारत में विलय की कानूनी सन्धि का अंग था। इस धारा में कोई भी बदलाव तभी किया जा सकता था जबकि कश्मीर की संविधान सभा और बाद में उसकी विधानसभा इसके लिए सहमति देती।
कश्मीर की जनता का बहुसंख्यक मुसलमान आबादी है। इसके बावजूद उसने धार्मिक आधार पर पाकिस्तान के इस्लामिक राज्य में शामिल होने इंकार किया और भारत के औपचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष राज्य में शामिल होना स्वीकार किया। कश्मीरी राष्ट्र का यह फै़सला अपने आप में बताता है कि कश्मीर में इस्लामी कट्टरपंथ का ऐतिहासिक तौर पर कोई गहरा आधार नहीं था। तो फिर कश्मीरी जनता का भारत से अलगाव किस प्रकार शुरू हुआ?
इसकी शुरुआत नेहरू सरकार ने की थी। नेहरू सरकार ने कश्मीर में रैडिकल भूमि सुधार लागू कर ज़मींदारी की जड़ों पर चोट करने वाली और कई जनवादी नागरिक अधिकारों को बहाल करने वाली शेख़ अब्दुल्ला सरकार को असंवैधानिक तरीके से 1953 में बर्खास्त कर दिया और फिर शेख़ अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया जहाँ वह 11 साल तक क़ैद रहे। इसका कारण यह था कि भारत के पूँजीवादी जनवाद के नेहरू के मॉडल में इस प्रकार के जनपक्षधर और प्रगतिशील क़दम शामिल नहीं थे और वह नेहरू के लिए पूरे देश में दिक़्क़त पैदा कर सकते थे। यह कश्मीरी क़ौम के साथ भारत के शासक वर्ग की ग़द्दारी की शुरुआत थी जिसकी वजह से कश्मीरी जनता के भारत से अलगाव की भावना के बीज पड़े। कश्मीर को अलग संविधान, अलग झण्डे और अपना वज़ीरे-आज़म रखने की संवैधानिक आज़ादी थी, पर उसे एक-एक करके छीना जाने लगा। बाद में वज़ीरे-आज़म के पद को सामान्य मुख्यमंत्री के पद में तब्दील कर दिया गया। इसके बाद, वहाँ कांग्रेस ने फ़र्ज़ी चुनाव करवाये और ज़ोर-ज़बरदस्ती के साथ जनता के जनवादी अधिकारों को कुचल दिया। इन सारे कदमों के कारण कश्मीर को मिली स्वायत्तता नाम मात्र की रह गयीं। वास्तव में, स्वायत्तता को धीरे-धीरे करके छीना जाता रहा। इसके कारण कश्मीरी जनता जो कि इस स्वायत्तता की शर्त पर ही भारत में शामिल हुई थी, अपना भरोसा खोती गयी। उसके अन्दर भारत से अलगाव की भावना बढ़ती गयी। 1960 के दशक से ही कश्मीरी जनता के प्रतिरोध को भारत के शासक वर्ग ने फ़ौजी बन्दूकों और बूटों के दम पर कुचला। इसके ख़िलाफ़ जनता में भयंकर आक्रोश पनपा।
इसी आक्रोश का फायदा उठाया इस्लामी कट्टरपंथियों ने और पाकिस्तान ने। 1980 के दशक से पाकिस्तान की शह पर इस्लामी कट्टरपंथी कश्मीर में जड़ें जमाने लगे। वहाँ पर इस दौर में पैदा हुआ आतंकवाद इसी का नतीजा था। शेख़ अब्दुल्ला को नेहरू सरकार ने दो बार जेल में डाला था। दूसरी बार जेल यात्रा से वापस आने के बाद शेख अब्दुल्ला का स्वर नर्म पड़ चुका था। कश्मीरी राष्ट्र की आवाज़ उठाने वाली सेक्युलर नेशनल कॉन्फ़्रेंस समझौतापरस्त हो चुकी थी। ऐसे में कश्मीरी जनता के एक हिस्से ने इस्लामी कट्टरपंथी ताक़तों को समर्थन दिया क्योंकि केवल यही ताक़तें भारतीय राज्यसत्ता के दमन के विरुद्ध लड़ते हुए दिखलाई पड़ रही थीं।
जो भी एक बार भी कश्मीर गया है वह जानता है कि साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपंथ कश्मीरी जनता के स्वभाव में नहीं है। यह भारतीय शासक वर्ग और उसकी राज्यसत्ता का विश्वासघात और दमन था जिसके कारण कश्मीर की जनता में अलगाव की भावना पैदा हुई, और उसी के बीच धार्मिक कट्टरपंथियों ने जड़ें जमायीं और वहाँ पर पाकिस्तान की शह पर आतंकवाद फैला। जो कश्मीरी क़ौम कभी भी इस्लामी कट्टरपंथियों के पक्ष में नहीं रही थी, उसके एक हिस्से के बीच इन कट्टरपंथियों ने जड़ें जमा लीं। इसका ज़िम्मेदार कौन था? भारतीय पूँजीपति वर्ग, उसका विस्तारवाद और उसकी दमनकारी राज्यसत्ता। ज़रा सोचिये मज़दूर साथियो! क्या वजह है कि जिस कश्मीरी जनता ने 1948 में श्रीनगर के लाल चौक पर भारतीय सेना का फूल बरसाकर स्वागत किया था, आज वही भारतीय फ़ौज से नफ़रत करती है और उस पर पत्थर बरसाती है?
1980 के उत्तरार्द्ध और 1990 के दशक में जम्मू-कश्मीर में इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद पाकिस्तान की शह पर जमकर पनपा और भारतीय राज्यसत्ता ने उसका दमन शुरू किया। इस दमन का शिकार आतंकवादी कम हुए और कश्मीरी जनता ज़्यादा हुई। सामूहिक हत्याकाण्ड, बलात्कार, अपहरण, लोगों का ग़ायब होना कश्मीरी जनता के लिए रोज़मर्रा की बात हो गयी। भारतीय फ़ौज द्वारा अंजाम दी जाने वाली ये वारदातें इतनी बढ़ गयीं कि अब भारत सरकार भी ऐसे तमाम हत्याकाण्डों और बलात्कारों से इंकार नहीं कर पाती है। कुनान पशपोरा से लेकर माछिल एनकाउण्टर तक तमाम ऐसी वारदातें कश्मीरी क़ौम के ज़ेहन में ज़ख़्म के समान हैं। यही कारण है कि इस सरकारी आतंकवाद के ख़िलाफ़ वहाँ के अनेक नौजवान आतंकवाद के रास्ते पर गये और अब अनुच्छेद 370 हटाकर भाजपा ने एक बार फिर से ऐसी त्रासदी का रास्ता खोल दिया है। 1990 के दशक के दौरान भारतीय शासक वर्ग ने सैन्य शक्ति के बूते आतंकवाद को तो कुचल दिया, लेकिन कश्मीरी जनता के प्रतिरोध को नहीं। 2009 में माछिल एनकाउण्टर के बाद जो आन्दोलन शुरू हुआ उसके हाथ में न तो बन्दूकें थीं, न रॉकेट लांचर। लेकिन हज़ारों लोग सड़कों पर थे। इस प्रतिरोध का कोई ठोस आकार नहीं था और न ही कोई चेहरा था। आम जनता भारत सरकार के दमन के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आयी थी, बिना किसी आतंकवादी या कट्टरपंथी नेतृत्व या ताक़त के। इस प्रकार फ़ौजी दमन और जकड़बन्दी के ख़िलाफ़ कश्मीरी जनता का प्रतिरोध जारी रहा।
फासीवादी मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाया जाना इस प्रतिरोध को क्रमिक प्रक्रिया में अधिक विस्फोटक रूप देगा। 1950 व 1960 के दशक में नेहरू सरकार द्वारा शुरू किये गये धोखे और दमन के फलस्वरूप कश्मीर में 1980 के दशक में आतंकवाद और इस्लामी कट्टरपंथ पनपा। 2019 में मोदी सरकार द्वारा अपने तात्कालिक हितों के लिए खेले गये इस ख़तरनाक जुए के फलस्वरूप आने वाले समय में इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद के दानव के फिर से उठ खड़ा होने में वक़्त लगेगा, लेकिन इसे रोकना मुश्किल होगा। फ़ौजी बन्दूकों और बूटों के दम पर कोई सरकार डेढ़ करोड़ लोगों को जान से मार नहीं सकती है। न ही उन्हें साल-दर-साल संगीनों में साये में रखा जा सकता है। बड़ी से बड़ी और उन्नत से उन्नत हथियारों से लैस सेनाएँ थक जाया करती हैं। इज़रायल अकल्पनीय दमन और बर्बरता के बावजूद अगर 72 वर्ष में फ़िलिस्तीनी जनता के प्रतिरोध को कुचल नहीं सका, तो यह बात समझी जा सकती है कि कोई भी दमित राष्ट्र लड़ता रहता है; अगर वह जीतता नहीं तो वह हारता भी नहीं है। जहाँ न्याय न हो, वहाँ शान्ति नहीं हो सकती है।
राष्ट्र क्या होता है?
यह भी समझना ज़रूरी है कि कश्मीरी राष्ट्र का आधार इस्लाम धर्म नहीं बल्कि कश्मीरी जनता की साझी संस्कृति, भाषा, खान-पान, पहनावा, इतिहास और अर्थव्यवस्था है। किसी भी राष्ट्र का आधार धर्म नहीं होता, बल्कि एक साझा आर्थिक तंत्र, साझी भाषा व संस्कृति और साझा इतिहास होता है। इस सवाल पर कई अहम लोग भी ग़लत सोच रखते थे, जैसे कि डा. भीमराव अम्बेडकर। उन्होंने भी कश्मीर के विभाजन और कश्मीर घाटी को मुसलमान बहुसंख्या के कारण पाकिस्तान को सौंपने या विभाजन कराकर जनमत संग्रह कराने का समर्थन किया था। धर्म को आधार बनाकर भारत का बँटवारा भी ग़लत था और इस आधार पर कश्मीर घाटी को पाकिस्तान को सौंप देने की वकालत करना भी ग़लत था, ख़ास तौर पर तब, जबकि स्वयं कश्मीर घाटी की आम जनता पाकिस्तान के इस्लामी राज्य में शामिल नहीं होना चाहती थी। कश्मीर के राष्ट्र का आधार कोई धर्म नहीं बल्कि साझी अर्थव्यवस्था, इतिहास, भाषा और संस्कृति तथा क्षेत्र है। इस कश्मीरी राष्ट्र में कश्मीरी मुसलमान और कश्मीरी पण्डित हिन्दू, दोनों ही शामिल हैं। यह सच है कि धार्मिक कट्टरपंथी अलगाववाद और आतंकवाद के दौर में कश्मीरी पण्डितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ और जेकेएलएफ़ (जम्मू–कश्मीर लिबरेशन फ़्रण्ट) व अन्य अलगाववादी इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों के नेतृत्व में उन्हें वहाँ से भगाया गया, उनकी हत्याएँ हुईं, उनके घर और सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। कश्मीरी पण्डितों के साथ यह बर्ताव वास्तव में कश्मीरी राष्ट्र के पूरे संघर्ष के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ। इसने भारतीय राज्यसत्ता को यह मौका दिया कि राष्ट्र के मसले को धर्म और सम्प्रदाय का मसला बना दिया जाये। शायद यह बात बाद में कश्मीरी राष्ट्र के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले जेकेएलएफ़ को भी समझ आयी और उसके नेतृत्व ने आधिकारिक तौर पर कश्मीरी पण्डितों से हुए अन्याय के लिए माफ़ी माँगी और पलायन कर चुके कश्मीरी पण्डित परिवारों को वापस कश्मीर बुलाया। लेकिन तब तक काफी नुकसान हो चुका था। बाद में कई कश्मीरी पण्डित परिवार लौटे लेकिन ज़्यादा कश्मीरी पण्डित नहीं लौटे। इसका एक कारण उनका बुरा अनुभव तो था ही लेकिन साथ ही यह भी था कि कश्मीरी पण्डितों को भारतीय राज्यसत्ता ने विभिन्न इलाक़ों में बसाया, नौकरियाँ और आरक्षण दिये और उन्हें हर प्रकार से लाभार्थी बनाया और इस वजह से वापस लौटने की अब उनके पास कोई वजह नहीं थी। अब अपने भिन्न राष्ट्र के होने की भावना और स्मृतियों के अलावा कश्मीर लौटने का उनका पास कोई भौतिक कारण नहीं था। लेकिन जो कश्मीरी पण्डित आज भी कश्मीर में हैं और जो भी कश्मीरी पण्डित बाद में कश्मीर लौटे, वे आज कश्मीरी मुसलमानों के साथ घुलमिलकर रहते हैं। वे कश्मीरी पण्डित भी मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाये जाने का उसी प्रकार विरोध कर रहे हैं, जिस प्रकार कि अन्य कश्मीरी।
नेहरू सरकार और उसके बाद की कांग्रेसी सरकारों ने कश्मीरी क़ौम के साथ जो धोखा शुरू किया था, मोदी-शाह की जोड़ी ने केवल उसे अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा दिया है। लेकिन यह कश्मीरी जनता के अभूतपूर्व दमन और उत्पीड़न पर आधारित है और भविष्य में यह भारतीय राज्यसत्ता के लिए ऐसी परेशानियाँ पैदा करेगा जिनका समाधान इस व्यवस्था के दायरे में असम्भव होगा।
कश्मीर महज़ कोई ज़मीन का टुकड़ा नहीं है, बल्कि यह उन लोगों से बना है, जो कि इस ज़मीन को आबाद करते हैं; जो सदियों से वहाँ रहते आये हैं, जिनका अपना एक साझा इतिहास, संस्कृति, भाषा, अर्थव्यवस्था रही है। लेकिन भारत में राष्ट्रवाद के नाम पर हमारे बीच ऐसी भावना पैदा की जाती है कि हम कश्मीर को महज़ एक ज़मीन के टुकड़े के तौर पर देखते हैं। भारत का नक्शा दिखाकर हमें बताया जाता है कि कश्मीर भारत-माता का मुकुट है! लेकिन जो लोग उस जगह पर सदियों से रहते आये हैं, जिन्होंने वहाँ फसलें उगाई हैं, उस ज़मीन को आबाद किया है, वहाँ इमारतें खड़ी की हैं, हर चीज़ पैदा की है, उनका क्या? क्या उनका उस ज़मीन पर कोई हक़ नहीं है? ज़रा सोचिये दोस्तो! हम जिस ज़मीन पर अपने पुरखों के समय से जीते, उत्पादन करते, घर बनाकर रहते आये हैं, कल को अगर कोई अमेरिका, ब्रिटेन या चीन आकर उसे छीन ले और दावा करे कि इस ज़मीन पर उसका हक़ है; यह दावा करे कि अब भारत की ज़मीन और भारत की औरतों पर उसका हक़ है (मानो औरतें जीती–जागती इंसान न होकर ज़मीन का कोई टुकड़ा हों!), तो क्या हमें यह स्वीकार होगा? क्या हम इसे बर्दाश्त करेंगे? ज़ाहिर है, नहीं करेंगे और न ही करना चाहिए। बस ऐसा ही कुछ कश्मीरी क़ौम के साथ हो रहा है। जिस स्वायत्तता की शर्त पर वह भारत में शामिल हुई थी, उस शर्त को अन्यायपूर्ण तरीके से रद्द कर भारत का शासक वर्ग कश्मीरी क़ौम के साथ एक भयंकर धोखा कर रहा है। इसे कश्मीरी अवाम भी कभी स्वीकार नहीं करेगा। जब तक यह अन्याय जारी रहेगा, तब तक हम कश्मीर में शान्ति की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। ताज़ा रपटों के आधार पर यह बात साफ़ है कि कश्मीर में हज़ारों की तादाद में जनता सड़कों पर उतरने लगी है। वह दमन और उत्पीड़न से आज़ादी चाहती है। वह फ़ौजी बन्दूकों और बूटों के साये में रह-रह कर थक चुकी है। वह अपने बच्चों और जवानों को पैलेट गन से अन्धा होते देख-देखकर थक चुकी है। वह अपनी ही ज़मीन पर संगीनों और चेकपोस्टों पर अपनी पहचान दिखाते-दिखाते थक चुकी है। क्या भारतीय शासक वर्ग संगीनों की नोक पर कश्मीरी जनता को हमेशा दबाकर रख सकता है? क्या वह डेढ़ करोड़ लोगों की हत्या कर इस मसले का समाधान कर सकता है? नहीं! यह न सिर्फ़ नामुमकिन है, बल्कि यह इस मसले को और भी उलझा देगा। देर-सबेर सेनाएँ थक जाती हैं। लेकिन लड़ती हुई क़ौमें कभी स्थायी रूप से नहीं थकतीं। जब तक दमन और उत्पीड़न जारी रहता है, तब तक वे बीच-बीच में कुछ देर को सुस्ताकर फिर से लड़ने लगती हैं। इसलिए फ़ौजी रास्ते से कश्मीर समस्या का समाधान सम्भव ही नहीं है। अगर होना होता तो अब तक हो चुका होता। दुनिया के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है। सत्तर साल के बयान न किये जा सकने वाले दमन के बावजूद फ़िलिस्तीनी जनता के प्रतिरोध को इज़रायल कुचल नहीं सका। और कश्मीर न तो फ़िलिस्तीन है और न ही भारत इज़रायल। यहाँ तो यह और भी नामुमकिन है।
मज़दूर वर्ग और ‘राष्ट्रवाद’ की सोच
मज़दूर वर्ग का कोई राष्ट्र नहीं होता है। राष्ट्रवाद की विचारधारा का आधार होता है अन्य राष्ट्रों से नफ़रत और घृणा। यह पूँजीपति वर्ग की सोच होती हैा क्योंकि उसके लिए जनता के भीतर वर्ग चेतना को रोकना ज़रूरी होता है, उसके लिए अपना माल बेचने के वास्ते अन्य राष्ट्रों के पूँजीपति वर्ग से प्रतिस्पर्द्धा ज़रूरी होती है, उसके लिए अन्य राष्ट्रों के मज़दूर वर्ग से अपने मज़दूर वर्ग को अलग रखना और उनके भीतर अलगाव की भावना को रखना आवश्यक होता है। लेकिन राष्ट्रवाद से मज़दूर वर्ग को क्या मिलता है? कुछ भी नहीं! जब भी राष्ट्रवाद के नाम पर भारत और पाकिस्तान में युद्ध हुआ तो क्या कोई नेता या नौकरशाह या उनके बच्चे उसमें मरे हैं? क्या सेना के उच्च अधिकारी आम तौर पर ऐसे युद्धों में मरते हैं? क्या आतंकवादी हमलों में कभी अमीरज़ादों की औलादें मरती हैं? अगर अम्बानी–अडानी–टाटा–बिड़ला इतने ही राष्ट्रवादी हैं, तो अपने बच्चों को सेना में क्यों नहीं भेजते? युद्ध से ये सारे जमकर मुनाफ़ा कमाते हैं, क्योंकि युद्ध के समय हथियारों की ख़रीद–फरोख़्त और दलाली में इन्हें ही पैसा मिलता है; भाजपाई तो इसमें सबसे गये–गुज़रे हैं, जिन्होंने कारगिल युद्ध में मारे गये सैनिकों के ताबूत की ख़रीद में भी घपला कर दिया था; युद्ध के दौरान क़ीमतें बढ़ जाती हैं, सट्टेबाज़ी और दलाली का बाज़ार गर्म हो जाता है। युद्ध जिन इलाक़ों पर कब्ज़े के लिए किया जाता है, उनमें भी लूट के लिए बाज़ार और निवेश कर सस्ते श्रम को लूटने और मुनाफ़ा पीटने की आज़ादी इन धनपशुओं को ही मिलती है! ज़रा सोचो कि आज तक ऐसे युद्धों से हम मज़दूरों–मेहनतकशों को क्या मिला? राष्ट्रवाद का बाज़ार गर्म होने से तुम्हें क्या मिला है, मज़दूर भाइयो और बहनो? जब भी ऐसे युद्ध होते हैं, तो देश में आपातकाल लागू कर दिया जाता है; मज़दूरों को 14-14 घण्टे काम के लिए मजबूर किया जाता है; हड़ताल करने या किसी भी रूप में काम के बोझ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को दण्डनीय अपराध बना दिया जाता है। तो मज़दूरों के लिए राष्ट्रवाद का मतलब क्या है? इसका अर्थ है मुँह पर ताले डालकर पूँजीपतियों के लिए हाड़तोड़ मेहनत करना और कोल्हू के बैल के समान खटना!
क्या हम अपने देश से प्यार करते हैं? बिल्कुल करते हैं क्योंकि देश कोई नक्शा नहीं होता, बल्कि उसके मेहनत करने वाले लोगों से बनता है। किसी भी देश का आधार उसकी कुदरत और उसके मेहनतकश लोगों की मेहनत होती है। लेकिन देश से हमारा प्यार अन्य देशों से नफ़रत पर आधारित नहीं होता है, बल्कि उनके साथ भाईचारे पर आधारित होता है। हमारे लिए देश की एकता का अर्थ फ़ौजी बन्दूकों और बूटों के आधार किसी क़ौम को जबरन दबाकर रखना नहीं है। हमारे लिए देश की एकता का अर्थ है सभी मज़दूरों-मेहनतकशों की समानतामूलक एकता, चाहे वे किसी भी क़ौम के हों; हमारे लिए देश की एकता का अर्थ ही हर प्रकार के राष्ट्रीय दमन का ख़ात्मा और देश के सभी राष्ट्रों को बराबर का स्थान। केवल एक ऐसे देश की एकता ही शान्ति और न्याय के साथ बरकरार रह सकती है। क्या कश्मीर के पिछले छह दशक का इतिहास नहीं दिखलाता है कि कश्मीरी जनता के दमन के आधार पर कोई एकता स्थायी नहीं हो सकती है? क्या यह छह दशक का इतिहास दिखलाता नहीं है कि बिना न्याय के शान्ति और एकता क़ायम नहीं रह सकते हैं? इसलिए मज़दूर भाइयो और बहनो! अपने मालिकों द्वारा चलायी जा रही अन्धराष्ट्रवाद की आँधी में बहने से पहले सोचो कि इससे तुम्हें क्या हासिल होगा? बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना मत बनो! हमारी देशभक्ति के अर्थ अलग हैं। वह क़ौमों की बराबरी और हर क़ौम के मज़दूरों–मेहनतकशों की बराबरी पर आधारित है। वह पूँजीपति वर्ग के बाज़ार और मुनाफ़े पर नहीं बल्कि मेहनतकश जनता की मेहनत और देश की कुदरत पर आधारित है।
यह भी समझने की ज़रूरत है साथियो कि इस भाजपाई फासीवादी राष्ट्रवाद का आधार धार्मिक कट्टरपंथ और साम्प्रदायिकता है। यह भी साफ है कि धार्मिक कट्टरपंथ और साम्प्रदायिकता का लाभ भी तुम्हारे मालिकों को ही मिलता है। किसी धार्मिक व साम्प्रदायिक दंगे में कभी कोई मालिक मरा है? किसी दंगे में कभी किसी मालिक का घर जला है? नहीं! इसमें हमेशा हम मरते हैं और हमारे घर जलते हैं! इसका फ़ायदा हमेशा पूँजीपतियों को होता है। जब भी हम धर्म के नाम पर लड़ पड़ते हैं तो फ़ायदा मालिकों और ठेकेदारों को ही मिलता है। इसलिए मज़दूर साथियो, मालिकों-ठेकेदारों की साज़िश से सावधान रहोे। लोगों को क्या खाना है, क्या पहनना है, कौन-सा धर्म मानना है या कोई धर्म नहीं मानना है, यह पूरी तरह से सबका निजी मामला है। इसे हमें सामाजिक या राजनीतिक मसला बनाना ही नहीं चाहिए। मज़दूर वर्ग को इस बुनियादी जनवादी सोच को अपनाना ही होगा, वरना वह मालिकों-ठेकेदारों और उनके टुकड़ों पर पलने वाली राजनीतिक पार्टियों की साजिश का निशाना बनता रहेगा और बेवकूफ़ बनकर अपने ही भाइयों-बहनों की जान लेता रहेगा। बस इतना याद रखना होगा कि हमारा साझा दुश्मन पूँजीपति वर्ग है, चाहे हमारा धर्म या जाति कुछ भी हो। इसलिए अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की लहर में बहने की बजाय ठण्डे दिमाग से सोचो, इसमें हमारा क्या है? इसमें हमें क्या मिलेगा?
कश्मीर के मुद्दे का स्थायी समाधान क्या हो सकता है?
साथियो! हम मज़दूर और मेहनतकश हैं और हमारा कोई एक देश नहीं है। हम किसी भी दमित व उत्पीडि़त राष्ट्र के दमन के ख़िलाफ़ हैं और उसका विरोध करते हैं। कारण यह है कि जो मज़दूर वर्ग अपने पूँजीपति वर्ग द्वारा किसी भी दमित राष्ट्र के दमन का समर्थन करता है, वह स्वयं भी अपने पूँजीपति वर्ग के शोषण, दमन और उत्पीड़न का शिकार होने के लिए अभिशप्त होता है। जो मज़दूर वर्ग किसी अन्य राष्ट्र को ग़ुलाम बनाये जाने का समर्थन करता है या उस पर चुप रहता है, वह स्वयं भी अपने मालिकों और ठेकेदारों की ग़ुलामी करने का मजबूर होता है। कारण यह कि जब पूँजीपति वर्ग राष्ट्रवाद के नाम पर किसी दमित राष्ट्र के दमन और उत्पीड़न को जायज़ ठहराने में कामयाब हो जाता है, तो वह अपने मज़दूर वर्ग के दमन और उत्पीड़न को भी राष्ट्रवाद और ”देशभक्ति” के नाम पर सही ठहराने में सफल हो जाता है। इसलिए अपने देश के पूँजीपति वर्ग द्वारा किसी भी क़ौम के दमन और उत्पीड़न का समर्थन करना वास्तव में मज़दूर वर्ग के लिए आत्मघाती है।
मज़दूरों व मेहनतकशों की लड़ाई न्याय और समानता के लिए है। सिर्फ अपने लिए न्याय और समानता नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए न्याय और समानता। वास्तव में, और किसी प्रकार की न्याय और समानता का अस्तित्व भी सम्भव नहीं है। इसलिए मज़दूर वर्ग कभी भी किसी भी सामाजिक हिस्से या राष्ट्र या जाति के शोषण, दमन और उत्पीड़न का समर्थन नहीं कर सकता है। पूँजीपति वर्ग का राष्ट्रवाद मण्डी में पैदा होता है और इसी राष्ट्रवाद की लहर को सांस्कृतिक तौर पर फैलाकर पूँजीपति वर्ग अपने दमन और शोषण को जायज़ ठहराने का आधार तैयार करता है। वह अन्य राष्ट्रों के दमन और उत्पीड़न के लिए मज़दूर वर्ग में भी सहमति पैदा करने का प्रयास करता है। हमें पूँजीपति वर्ग, मालिकों व ठेकेदारों की इस साज़िश के प्रति सावधान रहना चाहिए। हमें हर कीमत पर हर प्रकार के शोषण, दमन और उत्पीड़न का विरोध करना चाहिए, अन्यथा हम अनजाने ही खुद अपने दमन और शोषण को सही ठहराने की ज़मीन पैदा करेंगे।
इन बातों की रोशनी में हमें सबसे पहले तो कश्मीरी जनता के राष्ट्रीय दमन का विरोध करते हुए जम्मू-कश्मीर से सैन्य तानाशाही शासन को समाप्त करने, सशस्त्र बल विशेष शक्तियाँ अधिनियम (आफ्सपा) को हटाने, कश्मीर से सेना हटाने का समर्थन करना चाहिए। इसके अलावा, हमें जम्मू-कश्मीर में तत्काल स्वतंत्र और निष्पक्ष जनवादी चुनाव की मांग करनी चाहिए ताकि वहाँ की जनता को अपनी विधान सभा चुनने का पूँजीवादी जनवादी अधिकार मिले। साथ ही, हमें समूचे जम्मू-कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर समेत) में जनमत संग्रह की मांग को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उठाना चाहिए; इसके अलावा, हमें जम्मू-कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए। ये सारी वे बुनियादी जनवादी मांगें हैं, जो कि हमें मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी की ओर से उठानी ही चाहिए।
लेकिन कुछ अन्य बातें हैं जिन्हें समझना बेहद ज़रूरी है। साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीपति वर्ग दमित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने की क्षमता खो चुका है। वास्तव में, आज पूँजीपति वर्ग राष्ट्रीय प्रश्न को हल कर ही नहीं सकता है। एक समाजवादी राज्य ही राष्ट्रों को वास्तव में आत्मनिर्णय का अधिकार दे सकता है और राष्ट्रीय दमन का समूल नाश कर सकता है। साम्राज्यवाद के युग का मरणासन्न और परजीवी पूँजीवाद दमित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार दे ही नहीं सकता है। कारण यह कि साम्राज्यवाद के युग में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट सर्वाधिक गम्भीर रूप में और अपने अन्तकारी रूप में प्रकट होता है। लाभप्रद निवेश के अवसर घटते जाते हैं और बाज़ारों के लिए पूँजीवादी देशों में प्रतिस्पर्द्धा गलाकाटू रूप अख़्तियार कर लेती है। ऐसे में, क्षेत्रीय विस्तारवाद भी बढ़ता है और पूँजीपति वर्ग का कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी चरित्र भी अत्यधिक बढ़ता जाता है। इस दौर में सभी दमित अस्मिताओं का उत्पीड़न बर्बरता की नयी सीमाओं को छूने लगता है। चाहे वे प्रवासी हों, दलित हों, स्त्रियाँ हों, आदिवासी हों या फिर दमित राष्ट्र। आज के दौर में पूँजीपति वर्ग से यह उम्मीद करना ही हास्यास्पद होगा कि वह किसी भी दमित राष्ट्र को आत्मनिर्णय का अधिकार देगा। राष्ट्रीय दमन का ख़ात्मा तभी हो सकता है, जबकि समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये मज़दूर वर्ग सर्वहारा सत्ता स्थापित करे और समाजवादी राज्य और अर्थव्यवस्था का निर्माण करे। इतिहास में भी राष्ट्रों को सही मायने में आत्मनिर्णय का अधिकार देकर राष्ट्रीय दमन को ख़त्म करने का काम तभी हुआ है, जबकि मज़दूर वर्ग सत्ता में रहा है। मिसाल के तौर पर, यह काम सबसे शानदार तरीके से सोवियत संघ ने करके दिखलाया। अक्तूबर 1917 में समाजवादी क्रान्ति के बाद रूस में मज़दूर वर्ग ने अपनी सत्ता स्थापित की और रूसी साम्राज्य के सभी राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया।
इससे यह भी साबित हुआ कि अगर राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाता है, उनका दमन समाप्त होता है और उन्हें सही मायने में बराबरी का हक़ मिलता है, तो वे स्वेच्छा से एक समाजवादी राज्य में शामिल होते हैं। ”देश टूट” जाने का भय पूँजीपति वर्ग अपने राष्ट्रवाद के प्रचार द्वारा जनता के दिमाग में बिठाता है क्योंकि उसके द्वारा जारी राष्ट्रीय दमन के कारण देश वास्तव में अन्दर से टूटा हुआ ही होता है और दमित राष्ट्रों को ज़ोर–ज़बर्दस्ती से जोड़कर रखा गया होता है। यह एकता दिखावटी होती है क्योंकि दमित राष्ट्र अपने आपको कभी दिल से देश के अंग के तौर पर स्वीकार नहीं करते हैं। सोवियत संघ ने दिखलाया कि यदि राष्ट्रों का दमन और उनके प्रति बरता जाने वाला असमानता का बर्ताव समाप्त कर सच्चे मायने में एक ऐसे समाजवादी गणराज्य की स्थापना की जाये जिसमें सभी राष्ट्रों को बराबरी का दर्जा मिला हो, तो देश टूटते नहीं बल्कि सभी राष्ट्रों की जनता मिलकर स्वेच्छा से अधिकतम सम्भव बड़े साझा राज्य का निर्माण करती है। इसलिए ”देश टूट जाने” का डर पूरी तरह से बेबुनियाद होता है।
मज़दूर वर्ग तो हमेशा ही स्वेच्छा से बनी एकता के आधार पर बड़े से बड़े राज्य के निर्माण के पक्ष में होता है। आज कश्मीर की ही बात क्यों करें, क्रान्तिकारी मज़दूर पक्ष के तौर पर हम तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की सभी राष्ट्रों को शामिल करने वाले एक समाजवादी गणराज्य के निर्माण के पक्ष में हैं। लेकिन क्या यह ज़ोर–ज़बर्दस्ती के आधार पर किया जा सकता है? क्या ज़ोर–ज़बर्दस्ती से जोड़–गाँठ कर बनाया गया कोई राज्य न्याय और शान्ति के साथ रह सकता है? क्या उस देश में सभी को बराबरी के साथ और शोषण व उत्पीड़न से मुक्त होकर रहने का हक़ मिल सकता है? नहीं! हमारा मानना है कि ऐसा साझा राज्य तभी बन सकता है, जबकि उसके भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले सभी राष्ट्र स्वेच्छा से और समानता के आधार पर एक हों। ऐसी एकता स्थापित की जा सकती है। लेकिन वह पूँजीवाद के रहते सम्भव नहीं है। वह समाजवादी राज्य के साथ ही सम्भव है।
इसलिए जहाँ आज हमें हर कीमत पर कश्मीरी जनता के दमन का विरोध करना चाहिए और वहाँ तत्काल विसैन्यकरण और जनवादी चुनावों की मांग करनी चाहिए, वहीं हमें यह भी याद रखना चाहिए कि किसी भी दमित राष्ट्र को हर प्रकार के राष्ट्रीय दमन से सच्चे तौर पर मुक्ति समाजवादी क्रान्ति के साथ ही मिल सकती है। इसलिए हर दमित राष्ट्र के संघर्ष की डोर को इतिहास ने क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन के साथ अभिन्न रूप से जोड़ दिया है। जहाँ क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन का यह नैतिक और ऐतिहासिक दायित्व है कि वह हर कीमत पर दमित राष्ट्रों के संघर्षों का समर्थन करे, वहीं दमित राष्ट्रों के आन्दोलन के सामने भी यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन के साथ मोर्चा बनाये बग़ैर वह अपने लक्ष्य को शायद ही प्राप्त कर पायेगा। बेशक़ वह हारेगा नहीं और न ही ख़त्म होगा; लेकिन उसका जीतना भी मुश्किल होगा। बीसवीं सदी की समाजवादी क्रान्तियों के लिए यह अनिवार्य था कि वह राष्ट्रीय मुक्ति और जनवादी किसान आन्दोलन का समर्थन करें; इक्कीसवीं सदी के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के लिए यह अनिवार्य है कि वह क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद से रिश्ता कायम करें। यह आज की ठोस सच्चाई है, जिसे समझना मज़दूर क्रान्तिकारियों और साथ ही राष्ट्रीय दमन के विरुद्ध लड़ रही जनवादी शक्तियों के लिए ज़रूरी है।
अन्त में, यह फिर से कहा जाना चाहिए कि सच्चे मज़दूर क्रान्तिकारियों को हर कीमत पर हर प्रकार के राष्ट्रीय दमन का विरोध करना चाहिए और दमित राष्ट्रों के संघर्षों का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए। यदि मज़दूर वर्ग की ताक़तें ऐसा करने में असफल होती हैं और जाने या अनजाने अपने देश के पूँजीपति वर्ग के मुखर या मौन समर्थन की राष्ट्रीय व सामाजिक कट्टरपंथी अवस्थिति अपनाती हैं, तो वह अपने देश के पूँजीपति वर्ग को स्वयं अपना दमन करने का भी लाईसेंस और वैधीकरण प्रदान करती हैं। ऐसी कुछ ताक़तें भारत में भी हैं जिन्होंने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के रद्द होने के बाद ज़ुबान पर ताला लगा लिया है और कश्मीर के मसले पर कुछ भी बोलने से घबरा गयी हैं। ऐसे ग्रुपों व संगठनों को कल इतिहास के कठघरे में खड़ा होकर एक असम्भव सफाई देने का प्रयास करना पड़ेगा। आज हमें धारा के विरुद्ध तैरते हुए कश्मीरी जनता के राष्ट्रीय दमन का विरोध करना होगा और उनके जनवादी हक़ों के संघर्ष का समर्थन करना होगा। केवल तभी हम फासीवादी मोदी सरकार और पूँजीवादी राज्यसत्ता को अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की आँधी चलाकर हर प्रकार के प्रतिरोध व आन्दोलन को कुचलने को सही ठहराने से रोक सकते हैं, उसके सामने एक क्रान्तिकारी चुनौती पेश कर सकते हैं। अन्यथा हम संघर्ष शुरू होने से पहले ही हार जायेंगे। यह हमारा कर्तव्य और दायित्व है कि हम क्रान्तिकारी मज़दूर पक्ष के तौर पर हर प्रकार के दमन और शोषण का विरोध करें और उसके ख़िलाफ़ लड़ें। राष्ट्रीय दमन भी उनमें से एक है। आज वह वक्त आ चुका है कि हम अपनी इस प्रतिबद्धता पर अमल करें और इतिहास द्वारा उपस्थित चुनौती का सामना करें।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2019
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