टेक्सटाइल और तेल मज़दूरों का शानदार संघर्ष और बोल्शेविकों का काम (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-5)
प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम’ के कुछ हिस्सों की श्रृंखला में पाँचवी कड़ी प्रस्तुत है। दूमा रूस की संसद को कहते थे। एक साधारण मज़दूर से दूमा में बोल्शेविक पार्टी के सदस्य बने ए. बादायेव द्वारा क़रीब 100 साल पहले लिखी इस किताब से आज भी बहुत–सी चीज़़ें सीखी जा सकती हैं। बोल्शेविकों ने अपनी बात लोगों तक पहुँचाने और पूँजीवादी लोकतन्त्र की असलियत का भण्डाफोड़ करने के लिए संसद के मंच का किस तरह से इस्तेमाल किया इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। यहाँ हम जो अंश प्रस्तुत कर रहे हैं उनमें उस वक़्त रूस में जारी मज़दूर संघर्षों का रोचक वर्णन होने के साथ ही यह दिखाया गया है कि किस तरह मज़दूरों के दमन के लिएराज्यसत्ता खुलकर पूँजीपतियों का साथ देती है। इससे यह साफ़ हो जाता है कि मज़दूरों को अपने हक़ पाने के लिए किसी क़ानूनी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि अपनी एकजुटता और संघर्ष पर ही भरोसा करना चाहिए। इसे पढ़ते हुए पाठकों को लगेगा कि मानो इसमें जिन स्थितियों का वर्णन किया गया है वे हज़ारों मील दूर रूस में नहीं बल्कि हमारे आसपास की ही हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के लिए इस श्रृंखला को सत्यम ने तैयार किया है।
बजट पारित करने के बाद जून 1914 में राज्य दूमा (संसद) का ग्रीष्मावकाश हो गया। प्रथम विश्व युद्ध के पहले का यह आख़िरी सत्र ऐसे समय में समाप्त हुआ जब पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन का ज्वार उठ रहा था।
पहली मई के ज़बर्दस्त प्रदशनों के बाद ओबुखोव के मज़दूरों को दी गयी सज़ाओं के विरोध में हड़ताल की तैयारियाँ की जा रही थीं। नवम्बर 1913 में इन मज़दूरों पर चले पहले मुक़दमे के समय सेंट पीटर्सबर्ग में कई हड़तालें हुई थीं, और अब मई 1914 में अदालत ने ओबुखोव के मज़दूरों को दो महीने जेल की सज़ा सुना दी थी। उनका दोष बस इतना था कि उन्होंने हड़ताल में हिस्सा लिया था। उनकी सज़ा के विरोध में हुई हड़ताल में एक लाख से भी ज़्यादा मज़दूरों ने पूरे जोशो-ख़रोश के साथ हिस्सा लिया था।
सेंट पीटर्सबर्ग के म़जदूरों की अगली राजनीतिक हड़ताल कीव शहर में बेलिस* मामले में बचाव पक्ष के वकील पर चले मुक़दमे, और पाइप कारख़ाने के एक मज़दूर को दी गयी मौत की सज़ा के विरोध में हुई। उस मज़दूर पर कारख़ाने के शॉप मैनेजर की हत्या का आरोप था। जून में हुई हड़ताल में 30,000 मज़दूरों ने भाग लिया।
* बेलिस एक यहूदी क्लर्क था जिस पर अन्धराष्ट्रवादी और कट्टर मज़दूर-विरोधी संगठन ‘ब्लैक हंड्रेड’ द्वारा गढ़े गये फ़र्ज़ी सबूतों के आधार पर हत्या का मुक़दमा चला था मगर जूरी द्वारा उसे बरी कर दिया गया था। बेलिस की ओर से मुक़दमा लड़ने वाले वकील को भी फ़र्ज़ी मामले में फंसाया गया था।
इझोर्सकी कारख़ाने में हड़ताल
ठीक इसी समय, सेंट पीटर्सबर्ग के अनेक कारख़ानों में लगातार कहीं न कहीं आर्थिक माँगों पर जुझारू संघर्ष जारी थे। इनमें से एक सबसे लम्बी हड़ताल इझोर्स्की कारख़ाने में हुई जिसे नौसेना विभाग चलाता था। आन्दोलन बिजली सप्लाई करने वाले पॉवर स्टेशन में शुरू हुआ जहाँ मज़दूरों ने कई आर्थिक माँगें उठायी थीं। जब इन मज़दूरों में से कई को काम से निकाल दिया गया, तो हड़ताल दूसरे शॉपों में भी फैल गयी, जहाँ मज़दूरों ने मज़दूरी बढ़ाने, आठ घण्टे काम का दिन लागू करने आदि की माँग की। हड़ताल हमारी पीटर्सबर्ग कमेटी की अगुवाई में चल रही थी, और हड़ताली मज़दूरों के बुलावे पर, मैं अलग-अलग कारख़ानों के प्रतिनिधियों से मिलने के लिए कोल्पिनो गया। मीटिंग रात के अँधेरे में एक क़ब्रिस्तान में हुई और यह तय किया गया कि जितने लम्बे समय तक सम्भव हो, दृढ़ता से हड़ताल चलायी जाये।
हड़ताल ने नौसेना में भारी बेचैनी पैदा कर दी थी। कज़्ज़ाक सैनिकों की एक टुकड़ी कोल्पिनो भेज कर कारख़ाने के पास के बैरक में तैनात कर दी गयी थी ताकि “क़ानून-व्यवस्था लागू करने” के लिए तैयार रहे।
अगले दिन मैं कारख़ाने में गया और मैंने पाया कि सैनिक बुलाये जाने को लेकर मज़दूरों में भारी आक्रोश सुलग रहा था। उस दिन हुई मीटिंग में कई मज़दूरों ने जोश और ग़ुस्से से भरे भाषण दिये और सभी मज़दूरों ने संकल्प लिया कि बर्खास्तगी या दमन के बावजूद लड़कर जीत हासिल करेंगे। पार्टी संगठनों ने आर्थिक माँगों को प्रस्तुत करने और चीफ़ मैनेजर की बर्खास्तगी की माँग उठाने वाले पर्चों की तैयारी और उन्हें बाँटने में मदद की। कारख़ानों के मैनेजमेंट ने पर्चे बाँटने से रोकने की कोशिश की और उसके अफ़सरों ने कई जगह मज़दूरों के हाथों से पर्चे छीन लिये। ज़ाहिर है कि इससे मज़दूर और भी उग्र हो गये।
इझोर्स्की कारख़ाने की हड़ताल तीन सप्ताह तक चली और तभी ख़त्म हुई जब मैनेजमेंट ने मज़दूरी बढ़ाने और कई अन्य रियायतें देने का वायदा किया। मैंने इस हड़ताल की चर्चा क्रान्तिकारी उत्साह के इस दौर में एक आर्थिक हड़ताल की सामान्य प्रक्रिया को दिखाने के लिए की है। मज़दूरों और बोल्शेविक पार्टी संगठनों के बीच के करीबी सम्पर्क, बोल्शेविकों के नेतृत्व में मज़दूरों की कार्रवाई और हड़तालों के दमन के लिए सेना को बुलाया जाना उन परिस्थितियों की ख़ासियत थी जिनके तहत मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष उस दौर में चल रहे थे।
प्रान्तीय शहरों में हड़तालें
संघर्ष का विकास सेंट पीटर्सबर्ग तक सीमित नहीं था। सेंट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा ने जो उदाहरण पेश किया था वह पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन को प्रेरित कर रहा था। आर्थिक और राजनीतिक, दोनों तरह की हड़तालें एक शहर से दूसरे शहर तक फैलती जा रही थीं। छोटे शहरों के मज़दूर भी इतने संगठित ढंग से कार्रवाई कर रहे थे जो पहले कभी देखा नहीं गया था और संघर्ष में उनकी दृढ़ता उच्च स्तर की वर्ग चेतना का परिचय दे रही थी। इसलिए, भले ही हड़तालें लगभग हमेशा कुछ ठोस आर्थिक माँगों से जुड़ी होती थीं, लेकिन उनमें राजनीतिक संघर्ष के तत्व भी होते थे।
मॉस्को ज़िले के कपड़ा उद्योग में मई में एक लम्बा विवाद उठ खड़ा हुआ। आन्दोलन की शुरुआत कोस्त्रोमा गुबेर्निया (तहसील जैसा क्षेत्र) में हुई और यह तेज़ी से पास के मॉस्को और व्लादिमीर गुबेर्निया में भी फैल गया जिसमें लगभग एक लाख मज़दूर शामिल थे।
इतनी बड़ी संख्या में कपड़ा मज़दूरों का हड़ताल में भाग लेना एक असाधारण घटना थी, जोकि एक-दूसरे से दूर-दूर स्थित छोटी-छोटी मिलों में काम करते थे। उनकी मुख्य माँग मज़दूरी बढ़ाने की थी, लेकिन अन्य बातों के अलावा, हड़ताली मज़दूर ऐसे पुस्तकालय खोलने की माँग कर रहे थे जहाँ वे ‘प्राव्दा’, ‘प्रॉसवेश्चेन्ये’, ‘वोप्रोसी स्त्राखोवानिया’ (बीमा से जुड़े सवाल) और दूसरे अख़बार व पत्रिकाएँ पढ़ सकें।
बोल्शेविक फ़्रैक्शन ने हड़ताल की अगुवाई की और हर तरह से कपड़ा मज़दूरों की मदद की। दूमा का सत्र समाप्त होते हीख्कोस्त्रोमा गुबेर्निया से चुने गये शागोव ने ज़िले के कारख़ानों का दौरा किया और मज़दूरों का आह्वान किया कि वे संघर्ष जारी रखें। शागोव ने मालिकों के आगे घुटने टेकने की तमाम सलाहों का कड़ा विरोध किया। शागोव का दौरा ऐसे हालात में हुआ जो अब मज़दूर प्रतिनिधियों के लिए आम बात थे। वे जहाँ भी जाते थे, उनके पीछे पुलिस के जासूस लगे रहते थे जो उन घरों में जबरन घुस जाते थे जहाँ वे जाते थे और जिन मज़दूरों से वे बात करते थे उन्हें गिरफ़्तार कर लेते थे।
हड़ताल गर्तियों तक जारी रही, और मज़दूरों के ठोस संगठन और दृढ़ता की बदौलत उसने मालिकों को मज़दूरी बढ़ाने सहित कई समझौते करने के लिए मजबूर कर दिया। मज़दूरों ने लड़ाई का सही समय चुना था क्योंकि मालिकान निज़्नी-नोवगोरोद के आने वाले मेले के लिए तैयार माल इकट्ठा करने में लगे हुए थे।
बाकू के तेल मज़दूरों का संघर्ष
जिस समय मॉस्को ज़िले में टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल जारी थी, ठीक उसी समय सुदूर दक्षिण के बाकू शहर में ऐसी घटनाएँ घट रही थीं जो पूरे मज़दर आन्दोलन के लिए बेहद महत्वपूर्ण थीं। बाकू की हड़ताल काफ़ी लम्बी चली और उसे कुचलने के लिए पूँजीपतियों और ज़ारशाही सरकार ने पूरा ज़ोर लगा दिया। इस हड़ताल ने विश्व युद्ध के ठीक पहले सेंट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों की ऐतिहासिक कार्रवाई की ज़मीन तैयार कर दी।
बाकू के तेल के कुओं में हुई हड़ताल अपनेआप नहीं हो गयी थी। यह कई महीनों से सावधानी के साथ की गयी तैयारी का नतीजा थी। सभी बड़ी फ़र्मों के मज़दूर प्रतिनिधियों को लेकर बनी मज़दूर कमेटियों ने पार्टी संगठनों के साथ सलाह-मशविरा करके मज़दूरी की माँगों और मज़दूरों की स्थितियों से जुड़े दूसरे सवालों के ब्यौरे तैयार कर लिये थे।
हड़ताल का तात्कालिक कारण तेल के कुओं से लगे ज़िले में प्लेग फैलना था। इस भयंकर बीमारी की तबाही के कारण बाकू के मज़दूरों की रिहायशी की दयनीय स्थितियों का सवाल सबके सामने आ गया। बाकू की स्थितियों की जाँच करने वाले वैज्ञानिकों ने बयान दिया कि उन्होंने इतने बुरे हालात कहीं भी नहीं देखे थे – भारत में भी नहीं, जहाँ प्लेग उस समय स्थायी तौर पर फैला रहता था।
आवास का सवाल पहले भी बार-बार उठाया जाता रहा था, और पिछली हड़तालों का ध्यान करके तेल कम्पनियों के मालिक कई बार मज़दूरों के लिए ढंग से रहने लायक़ मकान बनाने का आश्वासन दे चुके थे। लेकिन जैसे ही मज़दूरों का आन्दोलन ढीला पड़ता था, वे फ़ौरन अपने वादे भूल जाते थे।
मई 1914 में प्लेग फैलने के तुरन्त बाद, तेल मज़दूरों की ट्रेड यूनियन ने मालिकों की एसोसिएशन के सामने मकानों का सवाल उठाया। एसोसिएशन ने इस मामले में कुछ भी करने से इंकार कर दिया और साथ ही कई मज़दूरों को गिरफ़्तार भी कर लिया गया। तत्काल कई हल्कों में हड़ताल शुरू हो गयी और जल्द ही इसने आम हड़ताल का रूप ले लिया। करीब 50,000 मज़दूर इसमें शामिल थे जो पार्टी के साथ करीबी सम्पर्क रखने वाली हड़ताल कमेटी की अगुवाई में लड़ रहे थे। कमेटी माँगपत्र जारी करती थी, हड़ताल कोष जुटाने का इन्तज़ाम करती थी और दूसरे ज़रूरी क़दम उठाती थी। मज़दूरों ने माँगों की एक लम्बी सूची पेश की जिसमें 60 से भी ज़्यादा मुद्दे थे। इनमें ख़ास थे : मज़दूरी में बढ़ोत्तरी, बेहतर आवास और भोजन, वेतन से कटौतियों का ख़ात्मा, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, चिकित्सा सहायता, आदि। मज़दूरों के कुछ हिस्सों ने आठ घण्टे के दिन और पहली मई को मज़दूरों की छुट्टी घोषित करने की माँग भी उठायी।
इन माँगों में से कई राजनीतिक प्रकृति की माँगें थी, यह बात हमारे पार्टी संगठनों के लम्बे काम और उनके प्रभाव का नतीजा था। कटौतियों के ख़ात्मे की माँग का ज़िक्र करना ज़रूरी है। मज़दूर इस प्रणाली के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे थे, जिसके ज़रिए मालिकान मज़दूरों को काबू में रखते थे। यह बाकू के मज़दूरों की वर्ग चेतना ऊँची होने का प्रमाण था। मज़दूरों के बीच कई नस्लों के लोग थे – रूसी, आर्मेनियाई, फ़ारसी और तातार – लेकिन पूँजीपतियों के विरुद्ध लड़ाई में उनके बीच लगभग 100 प्रतिशत एकजुटता थी।
तेल कम्पनियों के मालिकों ने सारी माँगों को सीधे खारिज कर दिया और हड़ताल तोड़ने के लिए सारे हथकण्डे अपनाने पर आमादा हो गये। जब मालिकों द्वारा तय समयसीमा के भीतर मज़दूर काम पर नहीं लौटे, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया। उनके पासपोर्ट पुलिस को सौंप दिये गये और उन्हें अपनी अँधेरी कोठरियों को खाली करने का आदेश दे दिया गया। (रूस में उस समय पासपोर्ट के बिना देश के भीतर भी आने-जाने की मनाही थी।) अदालत ने भी फ़ौरन मालिकों की मदद की और तेल के कुओं के इलाक़े में रहने वाले मज़दूरों की बेदखली का हुक़्म जारी कर दिया। अफ़सरों ने कोई कसर नहीं छोड़ी – मज़दूरों की बैरकों से बिस्तर उठा ले गये, चूल्हे तोड़ दिये, बिजली-पानी की सप्लाई काट दी गयी।
पुलिस मालिकों से भी ज़्यादा मुस्तैद थी। बाकू को एक सैनिक छावनी में बदल दिया गया और “आन्तरिक दुश्मन” से लड़ने के लिए घुड़सवार कज़्ज़ाक सैनिकों की छह टुकड़ियाँ वहाँ तैनात कर दी गयीं। ट्रेड यूनियन को कुचल दिया गया, सभी सक्रिय सदस्य गिरफ़्तार कर लिये गये और मज़दूरों की सभी मीटिंगों पर पाबन्दी लगा दी गयी। मार्शल लॉ घोषित कर दिया गया और रात 8 बजे के बाद किसी को बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी।
जून के अन्त में बाकू के मज़दूरों ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जिसमें 20,000 से ज़्यादा लोग शामिल हुए। मज़दूरों की माँगों की तख्तियाँ लिये हुए प्रदर्शनकारी तेल मालिकों की एसोसिएशन के हेडक्वाटर की ओर बढ़ रहे थे। पुलिस मज़दूरों की भीड़ से निपटने में नाकाम रही तो घुड़सवार सैनिकों को बुलाया गया जिन्होंने मज़दूरों को घेर कर तितर-बितर कर दिया। करीब सौ मज़दूरों को एक अहाते में धकेलकर गिरफ़्तार कर लिया गया। केंद्रीय जेल में पहले से सैकड़ों क़ैदी थे; कोठरियाँ भरी हुई थीं और जेल का अहाता मज़दूरों से ठसाठस भरा था। शहर के गवर्नर ने मालिकान को चेतावनी दी थी कि वे फ़ैक्ट्री कमेटियों के गठन, पहली मई की छुट्टी, सबको शिक्षा जैसी ग़ैर-आर्थिक माँगें मानना तो दूर, उन पर पर बातचीत भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन इस चेतावनी की कोई ज़रूरत नहीं थी। मालिकों को किसी भी तरह की माँग मानने का कोई इरादा नहीं था।
हड़ताल के आगे बढ़ने के साथ ही इसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। एक ओर मालिकान और ज़ारशाही सरकार, और दूसरी ओर मज़दूर वर्ग, बेसब्री से संघर्ष की प्रगति पर नज़र रखे हुए थे। बाकू में तेल का उत्पादन अब लगभग पूरी तरह बन्द हो चुका था, और तेल की कमी से कई औद्योगिक संगठनों, ख़ासकर जहाज़ों के मालिकों को चिंता होने लगी थी क्योंकि उनके जहाज़ों को खड़ा करना पड़ सकता था।
ज़ारशाही सरकार का “शान्तिदूत”
ज़ारशाही सरकार ने तय किया कि स्थानीय अधिकारियों द्वारा उठाए गए क़दम बहुत हल्के हैं और सहायक गृह मंत्री, जरनल जुंकोव्स्की को ज़ार के विशेश आदेश पर बाकू भेजा गया। उसे पूर्ण शक्तियां दी गयी हैं और पुलिस विभाग का प्रमुख भी उसके साथ गया।
उनके पहुँचते ही, दमनतन्त्र और तेज़ी से चलने लगा। जनरल ने अख़बारों में हड़तालों की ख़बर देने पर रोक लगा दी, हड़ताल से सम्बन्धित सभी टेलीग्रामों पर सेंसरशिप लागू कर दी, बाकू भेजे जाने वाली सभी धनराशियों की जाँच करायी और हड़तालियों को भेजे गयी सभी राशियाँ ज़ब्त कर लीं। संक्षेप में, जुंकोव्स्की ने “शान्ति बहाली” के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। ज़ारशाही सरकार बाकू के मज़दूरों के दृढ़ प्रतिरोध को तोड़ डालने के लिए तेल कम्पनियों के मालिकों के साथ डटकर खड़ी थी।
सेंट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों का करारा जवाब
इन क़दमों ने रूसी मज़दूरों, और सबसे बढ़कर, सेंट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा के आक्रोश को भी बढ़ाया। बाकू के मज़दूरों ने दूमा धड़े से सहयोग की अपील की और हमने मज़दूरों के समर्थन में सेंट पीटर्सबर्ग में एक प्रदर्शन आयोजित किया।
पुलिस विभाग के डायरेक्टर को भेजी अपनी रिपोर्ट में, खुफ़िया पुलिस ने सेंट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों की कार्रवाई को संगठित करने में हमारी पार्टी के काम का काफ़ी हद तक सही वर्णन किया :
बाकू के तेल क्षेत्रों में हड़ताल इत्तेफ़ाक़ से (?) ऐसे समय में हुइ्र जब क्रान्तिकारी भूमिगत मण्डलियों की गतिविधियाँ तेज़ हो रही थीं जोकि आने वाले महीनों में होने वाली अन्तरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस के लिए मज़दूरों के बीच प्रचार में लगी हुई थीं। उन्हें इस हड़ताल से आन्दोलनात्मक प्रचार चलाने और मज़दूरों को गड़बड़ी के लिए उकसाने का एक बहाना मिल गया और सोशलिस्ट पार्टियों के प्रतिनिधियों ने इस मौक़े का लाभ उठाकर अपने संगठन का काम तेज़ कर दिया ताकि कांग्रेस के लिए प्रतिनिधियों के चुनाव की तैयारी की जा सके।
आगे इस रिपोर्ट में उस समय किये गये प्रचार का ज़िक्र किया गया है :
क़ानूनी सामाजिक-जनवादी अख़बारों में प्रकाशित भड़काऊ क़िस्म के नियमित बुलेटिनों के अलावा, भूमिगत संगठनों के नेताओं ने ऐसे निर्देश जारी किये कि बाकू हड़ताल के महत्व के बारे में मज़दूरों की सभी मीटिंगों में चर्चा की जाये। उम्मीद की जा रही थी कि वर्तमान शासन में मज़दूरों के हालात पर चर्चा करने से मज़दूर वर्ग के दायरों में क्रान्तिकारी भावनाएँ जागेंगी और समाजवाद के आदर्श में मज़दूरों की दिलचस्पी बढ़ाने में मदद मिलेगी।
करीबी निगरानी से पता चला है कि इस काम के मुख्य एजेंट सामाजिक-जनवादी दूमा धड़े के सदस्य बादाएव और उसके साथ काम करने वाले विभिन्न पार्टी सदस्य हैं। उपरोक्त दूमा प्रतिनिधि और उससे जुड़े लोग ज्ञानवर्धक भ्रमण की आड़ में शहर के बाहरी इलाक़ों में मज़दूरों की मीटिंगें करते हैं। इन मीटिंगों में, आने वाली सोशलिस्ट कांग्रेस के लक्ष्यों और कार्यभारों के बारे में विस्तार से बताया जाता है, बाकू की हड़ताल पर चर्चा होती है, और मज़दूरों के अलग-अलग समूहों के बीच एकजुटता क़ायम करने पर ज़ोर दिया जाता है तथा हड़ताल के नैतिक और भौतिक समर्थन के तरीक़़ों पर बात होती है।
जल्द ही बाकू के मज़दूरों के लिए बड़े पैमाने पर चन्दा इकट्ठा किया जाने लगा जिसे हमारे फ़्रैक्शन के पास भेजा जाता था। कई कारख़ानों के मज़दूर अपनी पगार का एक निश्चित हिस्सा देते थे और ‘प्राव्दा’ अख़बार नियमित रूप से मिले हुए धन की सूचियाँ प्रकाशित करता था और साथ ही सहयोग की अपील भी जारी करता था। अफ़सरों और उन्नत मज़दूरों को भी समझ आ गया था कि सहायता की अपील भी क्रान्तिकारी प्रचार का एक तरीक़़ा था।
सेंट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों का क्रान्तिकारी जोश बढ़ने के साथ ही, बाकू के मज़दूरों के लिए चन्दा जुटाने से रोकने की कोशिश होने लगी। सेंट पीटर्सबर्ग शहर के गवर्नर ने आदेश जारी किया कि “शान्ति और क़ानून-व्यवस्था के विपरत उद्देश्यों, जैसे हड़तालियों व निर्वासितों की मदद, सरकार द्वारा लगाये जुर्माने भरने, आदि के लिए किसी भी साधन से” सहयोग इकट्ठा करने की मनाही है। साथ ही अख़बारों में ऐसे सहयोग की अपील प्रकाशित करने की भी मनाही कर दी गयी और इस आदेश का उल्लंघन करने पर 500 रूबल का जुर्माना या तीन महीने तक की सज़ा घोषित की गयी।
‘प्राव्दा’ ने गवर्नर के आदेश को पहले पन्ने पर प्रमुखता से प्रकाशित किया और उसके ठीक नीचे बड़े अक्षरों में मेरा पता और आने वालों (यानी हड़तालियों के लिए सहयोग लाने वालों) से मिलने का समय छाप दिया। चन्दा जुटना कम नहीं हुआ बल्कि और बढ़ गया। आदेश ने बाकू के मज़दूरों के लिए सहयोग जुटाने के प्रयास और तेज़ करने के संकेत का काम किया।
बाकू की हड़ताल के हर दिन के साथ उसके समर्थन में सेंट पीटर्सबर्ग में अभियान तेज़ होता गया। हड़तालियों की बेदखली, शहरनिकाले और गिरफ़्तारियों की ख़बरों के बाद सेंट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों ने जून के अन्तिम दिनों में इसके विरोध में हड़तालें कीं। आन्दोलन की शुरुआत धीमी रही और कुछ ही कारख़ानों में इसका असर हुआ। लेकिन हमारे सभी पार्टी संगठन आन्दोलन को फैलाने और व्यापक कार्रवाई की तैयारी करने में उत्साह के साथ जुट गये।
लेकिन खुफ़िया पुलिस भी सक्रिय थी। बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ की गयीं और सभी मज़दूर सोसायटियों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया गया। उन्होंने पहले मज़दूर शिक्षा सोसायटियों पर ध्यान दिया और सैंप्सोनिएव्सकी मार्ग पर स्थित संगठन को ध्वस्त कर दिया। उस परिसर से करीब 40 लोग गिरफ़्तार किये गये जिनमें से ज़्यादातर पार्टी के सदस्य थे। पुलिस लगभग हर रोज़ दूसरी सोसायटियों पर छापे मारने लगी।
गृहमंत्री मकलाकोव से मुलाक़ात
इन छापेमारियों के बाद, मैंने गृहमंत्री, मकलाकोव से मिलने का समय माँगा। उसने अगले दिन सुबह मुझे बुलाया। मंत्री के घर के बाहर और भीतर वर्दीग्धारी और सादे कपड़ों में पुलिस वालों की कड़ी निगरानी थी। मकलाकोव को ज़ार की पत्नी की ओर से नामांकित किया गया था और वह अपनी वफ़ादारी साबित करने की पूरी कोशिश करता था। उसने पहले ही सभी मज़दूर वर्गीय संगठनों को नष्ट करने की तैयारियाँ कर रखी थीं और छापेमारी में गिरफ़्तार लोगों को रिहा करने से साफ़ इंकार कर दिया। उसने पुलिस का यह आरोप दोहराया कि वहाँ एक ग़ैर-क़ानूनी पुस्तकालय बरामद हुआ था। जब मैंने इस बात पर ज़ोर दिया कि पुलिस की मनमानी रुकनी चाहिए तो उसने घुमा-फिराकर बातों को टाल दिया।
“जिस तरह आपने अपनी पार्टी की शपथ ली है वैसे ही हमने ज़ार के प्रति शपथ ली है और अब उनकी सेवा कर रहे हैं,” मकलाकोव ने कहा, “और हम क्रान्तिकारी आन्दोलन से निपटने के लिए सभी ज़रूरी क़दम उठा रहे हैं।”
फिर उसने मुझे यह दिखाने की कोशिश की कि उसे हमारे संगठन के कामों की कितनी अच्छी जानकारी है। उसने कहा, “मुझे पता है कि आप लोग अंडरग्राउंड काम चला रहे हो, पर्चे छपवाकर बँटवा रहे हो।” उसने अपनी मेज़ की दराज से ताज़ा छपा हुआ एक पर्चा निकाला।
यह पर्चा दो दिन पहले मेरे मकान पर तैयार किया गया था और पिछली रात को ही छापा गया था। ज़ाहिर था कि मकलाकोव ने मुझसे मुलाकात की तैयारी में खुफ़िया पुलिस को हमारी ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों के कुछ सबूत जुटाने का आदेश दिया था। वह साबित करना चाहता था कि खुफ़िया पुलिस की चौकन्नी निगाहों से कुछ बच नहीं सकता, और वह पर्चा सम्भवत: हमारे बीच घुसे एक एजेंट से हासिल किया गया था।
मैंने ऐसा दिखाया जैसे मैं उस पर्चे के बारे में कुछ नहीं जानता हूँ लेकिन मुझे लग गया था कि अब बातचीत जारी रखने का कोई फ़ायदा नहीं है। चलते हुए मैंने कहा, “हम अब दफ़्तर में बैठकर आपसे बात नहीं करेंगे, मज़दूर वर्ग अब मौजूदा सत्ता के विरुद्ध सीधे संघर्ष में सड़कों पर इस सवाल को हल करेगा।”
मकलाकोव के दम्भभरे दावों और पुलिस की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद, सरकार क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास को रोकने में नाकाम रही और कुछ ही सप्ताह में वह इतने बड़े पैमाने पर फैल गया जैसा पहले कभी नहीं था।
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन