सरकारी स्कूलों को सोचे-समझे तरीक़े से ख़त्म करने की साजि़श
प्रवीन
वैसे तो बच्चों की पहली पाठशाला उसका समाज होते हैं। लेकिन एक बच्चे को अक्षर ज्ञान सही से स्कूल में जाने के बाद ही हो पाता है। इसलिए अगर हम स्कूल को बच्चों के ज्ञान का स्त्रोत कहें तो हमें लगता है कि हम इसमें कुछ ग़लत नहीं कह रहे। स्कूल एक ऐसा स्थान होता है, जहाँ बच्चों में सामूहिकता की भावना के साथ-साथ कला और श्रम की संस्कृति भी पैदा होती है। एक स्कूल केवल शिक्षा का ही केन्द्र नहीं होता बल्कि वह बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास को बढ़ावा देने वाला स्थान भी होता है। इसलिए बच्चों की जि़न्दगी में स्कूलों की अहमियत को समझते हुए स्कूलों के ढाँचे को सही से बनाकर रखना किसी भी सरकार की जि़म्मेदारी होती है। क्योंकि जनता के अप्रत्यक्ष कर द्वारा जो सरकारी ख़ज़ाना भरता है उसमें सरकार की जि़म्मेदारी होती है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ जनता को मुहैया करवाये।
उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का असर
आज अगर हम हमारे देश के सरकारी स्कूलों पर एक नज़र दौड़ायें तो हम पाते हैं कि देश के सरकारी स्कूलों को व्यवस्थित तरीक़े से ख़त्म करने का काम हमारे ही देश की सरकारों द्वारा किया जा रहा है। आज भारत के किसी भी राज्य में सरकारी स्कूलों के हालात अच्छे नहीं हैं। वैसे तो देश में सरकारी स्कूलों को ख़त्म करने की योजना 1990 के पहले से ही शुरू हो गयी थी। लेकिन 1990 के दशक की नव उदारवादी नीतियाँ जो देश में लागू हुईं, उसके बाद देश में पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली किसी भी सरकार के लिए इस मुहिम को आगे बढ़ाना और भी ज़्यादा आसान काम हो गया। अब पूँजी के लिए बाज़ार खोल दिया गया और शिक्षा को भी एक बाज़ारू माल बनाने की पहलक़दमी शुरू हो गयी। अब सरकारी स्कूलों को प्लान तरीक़े से ख़त्म करने के साथ-साथ प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दिया जाने लगा। जिसे स्कूल शिक्षा का केन्द्र न रहकर बिज़नेस बनता चला गया। अब पूँजीपति वर्ग ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में भी पूँजी लगानी शुरू कर दी जिससे जल्दी ही पूरे देश में प्राइवेट स्कूलों की बाढ़-सी आ गयी। अब पूँजीपति वर्ग शिक्षा के क्षेत्र में भी मोटा मुनाफ़ा कमाने लगा और स्कूलों को एक बिज़नेस के तौर पर इस्तेमाल करने लगा। आजतक की एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2016 तक भारत के 20 राज्यों के सरकारी स्कूलों में होने वाले एडमिशनों में 1.3 करोड़ की गिरावट दर्ज की गयी है। वहीं दूसरी तरफ़ निजी स्कूलों में इसी दौरान 1.75 करोड़ नये छात्रों ने एडमिशन लिया है। यह आँकड़ा ही महज़ इस बात की पुष्टि करता है कि सरकारी स्कूलों के ढाँचे में सुधार न करने की कोशिश के चलते लगातार उनकी लोकप्रियता में गिरावट आ रही है। जिसके कारण आज एक मज़दूर भी अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूल में भेजने पर मजबूर है। सरकारी स्कूलों के ढाँचे को इस बात से भी जाँचा-परखा जा सकता है कि 2016 की संसद की और 11 जनवरी 2019 की जनसत्ता की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में क़रीब एक लाख से ज़्यादा सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहाँ केवल एक ही टीचर स्कूल चला रहा है। जिसमें पहले नम्बर पर मध्य प्रदेश में ऐसे स्कूलों की संख्या 17,874 है और उत्तर प्रदेश 17,602 संख्या के साथ दूसरे नम्बर पर है। आज भारत में सरकारी स्कूलों के मुक़ाबले निजी स्कूलों की संख्या 450 गुना तेज़ी से बढ़ रही है।
सरकारी स्कूलों की दुर्दशा की कहानी स्कूलों की जुबानी
वैसे तो हमारे देश के सरकारी स्कूलों के हालात से हम सब अच्छे से परिचित हैं। लेकिन फिर भी कुछ आँकड़ों के माध्यम से हम स्कूलों की सच्चाई को ज़मीनी स्तर पर परखने की कोशिश करेंगे। अभी बीबीसी की 6 जनवरी 2019 की ताज़ा रिपोर्ट के आधार पर यू-डायस के आँकड़ों के मुताबिक़ केवल अकेले बिहार राज्य में 13 प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन शून्य है और 171 स्कूलों में 0 से अधिक और 20 से कम है। इसी प्रकार 21 से 30 और 31 से 39 नामांकन वाले प्राथमिक विद्यालयों की संख्या क्रमशः 336 एवं 620 हैं। यहाँ पर महज़ यह बात याद रखने वाली है कि ये आँकड़े पूरे स्कूल के हैं न कि एक क्लास के। वहीं अकेले पटना जि़ले में 133 स्कूल ऐसे हैं जो अत्यन्त कम नामांकन की लिस्ट में शामिल हैं। जहाँ हम 72 साल पहले “आज़ाद” होने का दावा करते हैं वहीं पर आज भी सरकारी स्कूलों के हालात ये हैं कि बिहार के पटना जि़ले में बोरिंग रोड के पास बाँसों पर अटकी फूस की छत के नीचे ज़मीन पर बैठकर बच्चे पढ़ने के लिए शिक्षकों का इन्तज़ार करते रहते हैं। एक तरफ़ जहाँ मोदी सरकार डिजिटल इण्डिया की बात करती है वहीं दूसरी तरफ़ स्कूलों के ये हालात डिजिटल भारत की पोल खोलकर रख देते हैं। इन हालात के चलते कोई यह नहीं चाहेगा कि उनके बच्चे ऐसे स्कूलों में पढ़ने जायें जहाँ शिक्षकों की कमी के साथ-साथ स्कूली ढाँचा ही सुचारू रूप से न चल रहा हो। अभी हाल में सर्वे, सरकारी रिपोर्ट बता रही है कि मौजूद समय में देशभर में सरकारी स्कूलों में दस लाख शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं। इनमें अकेले नौ लाख पद प्राथमिक स्कलों में रिक्त हैं।
स्कूलों के ऐसे हालात के चलते ही बिहार में 2016-17 में जहाँ 1.99 करोड़ बच्चों का नामांकन था वहीं 2017-18 में घटकर 1.8 करोड़ पर आ गया। बिहार राज्य में ही 1173 ऐसे प्राथमिक विद्यालय थे जो भवनहीन और भूमिहीन थे जिनको अब बड़े विद्यालयों के साथ जोड़ दिया गया है। अब सवाल यह उठता है कि भूमिहीन और भवनहीन विद्यालय तो दूसरे विद्यालयों के पास चले गये लेकिन उन विद्यालयों में पढ़ने वाले मासूम बच्चे कहाँ जायें और अब किसके सहारे अपनी पढ़ाई पूरी करें। वहीं देश के उत्तर प्रदेश राज्य की अगर बात की जाये तो लम्बे-चाैड़े वायदे करने वाली योगी सरकार तीर्थ स्थलों के विकास के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा देती है। लेकिन जब शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर ख़र्च करने का समय आता है तो उनके ख़र्च में हर साल कटौती कर दी जाती है। उत्तर प्रदेश में 2016-17 के बजट को देखा जाये तो जहाँ माध्यमिक शिक्षा के लिए 9.5 हज़ार करोड़ और उच्च शिक्षा के लिए 2742 करोड़ रुपये निर्धारित किये गये थे। वहीं 2017-18 के बजट में माध्यमिक शिक्षा के लिए 576 करोड़ और उच्च शिक्षा के लिए 272 करोड़ निर्धारित किये गये। यह अलग बात है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए पिछले साल की तुलना में बजट में 5,867 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी की गयी है। लेकिन माध्यमिक और उच्च शिक्षा में 2016-17 के बजट की बजाय 2017-18 के बजट में 90 फ़ीसदी की कटौती कर दी गयी। जबकि यूपी में प्राथमिक स्कूल में दो लाख चौबीस हज़ार से ज़्यादा पद ख़ाली पड़े हैं। वहीं देश के हरियाणा राज्य की अगर हम बात करें तो “बेटी-बचाओ बेटी-पढ़ाओ” की नौटंकी करने वाली खट्टर सरकार के कार्यकाल में पिछले 4 साल का आँकड़ा यह बताता है कि पिछले 4 सालों में 208 प्राथमिक स्कूल बन्द कर दिये गये। 20 अक्टूबर 2018 की जागरण की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ खट्टर सरकार द्वारा 53 स्कूलों को और बन्द करने का फै़सला लिया गया है। लेकिन इसके विपरीत 4 सालों के दौरान 974 नये मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों को खोला गया है। हरियाणा प्रदेश में 3,500 स्कूल ऐसे हैं जो बिना मुखिया के चल रहे हैं। आज हरियाणा के सरकारी स्कूलों में 40 हज़ार से ज़्यादा शिक्षकों के पद ख़ाली पड़े हैं। जिनको सत्ता में आने वाली कोई भी सरकार भरने का नाम तक नहीं लेती। प्रदेश के सरकारी स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों से खट्टर सरकार आज स्कूलों में पढ़ाई करवाने की बजाय मेलों में प्रसाद बँटवाने तक का काम सौंप देती है। सभी आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि केवल हरियाणा, बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों के ही शिक्षा के मामले में हालात ख़राब नहीं हैं बल्कि आज देश के सभी राज्यों के स्कूलों की स्थिति इन्हीं राज्यों जैसी है। तो ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि सत्ता में बैठी सरकारें सरकारी स्कूलों के ढाँचे में कोई सुधार करना चाहती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज शिक्षा ग़रीब इंसान की पहुँच से लगातार दूर होती जा रही है। अब कहा जाये तो 1990 के दशक की नवउदारवादी नीतियों का असर शिक्षा के क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा है। इस दौरान सत्ता में चाहे कोई भी सरकार आयी हो उन्होंने व्यवस्थित तरीक़े से सरकारी स्कूलों के ढाँचे को ख़त्म करने का काम किया है। जबकि दूसरी तरफ़ प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा देने का काम भी उन्होंने बख़ूबी से किया है।
शिक्षा व्यवस्था के ढाँचे को सही से लागू करवाने के लिए ‘सबको समान एवं नि:शुल्क स्कूली शिक्षा’ ही विकल्प है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनता की एकजुटता वह ताक़त होती है जो सत्ता में बैठी किसी भी सरकार को झुकाने का दम रखती है। ऐसे में जो शिक्षा व्यवस्था एक इंसान को असल में इंसान बनाने का काम करती है। उसे बचाने के लिए आज देश की मेहनतकश अवाम को आगे आने की ज़रूरत है। अगर सरकारी स्कूलों को बचाने का आज हम प्रयास नहीं करेंगे तो आने वाला भविष्य हमारे और हमारे बच्चों के लिए बेहद ख़तरनाक होगा। क्योंकि जब तक हमारे बच्चों को अच्छी शिक्षा ही नहीं मिल पायेगी तब तक हम कैसे कह सकते हैं कि वह अपने भविष्य को सुनिश्चित कर पायेंगे। आज जब देश में हमारे शहीदों के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने की ज़रूरत है और उनका सपना पूरा करने के लिए आगे आने की ज़रूरत है तो ऐसे में बिना शिक्षा हासिल किये वह इस काम को कैसे अंजाम दे पायेंगे। यानी आज वह समाज बदलाव की लड़ाई सही तरीक़े से कैसे आगे बढ़ा पायेंगे। आज हमें शिक्षा के पहलू को हर दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है। इसलिए पूरे देश में एकसमान शिक्षा व्यवस्था लागू करवाने के लिए जनएकजुटता के साथ सत्ता में बैठी किसी भी सरकार पर दबाव बनाने की ज़रूरत है। यूँ तो समान तथा पड़ोस के स्कूल की शिक्षा की पैरवी कोठारी कमीशन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति और सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फै़सले (1993) द्वारा की जा चुकी है परन्तु ये सभी बातें सिर्फ़ काग़ज़ी साबित हुईं। वास्तविकता में कोई क़दम सरकार ने नहीं उठाया। क्योंकि समान स्कूली व्यवस्था लागू कैसे करेंगे, कौन ज़िम्मेदार होगा, यह बात सिरे से ग़ायब थी। और जब इसे व्यावहारिकता का जामा पहनाया गया, यानी क़ानून बना तो सरकार समान स्कूल व्यवस्था की बात को निगल गयी। साफ़ है कि देश के आर्थिक विकास के नाम पर बच्चों के भविष्य का सौदा किया जा रहा है, उनके सपनों को अमीर और ग़रीब में बाँटा जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या इस देश में समान स्कूल व्यवस्था लागू की जा सकती है?
ऐसा करना मुमकिन है। इस बात को सरकार द्वारा बैठायी गयी कमेटियाँ ख़ुद स्वीकार करती आयी हैं, 1966 की कोठारी कमीशन की रिपोर्ट तथा शिक्षा नीति 1968 ने बात की कि अगर सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा पर ख़र्च करती है तो समान स्कूल व्यवस्था के साथ अच्छी उच्च शिक्षा भी प्रदान की जा सकती है। फ़िनलैण्ड, जापान, ब्रिटेन, फ़्रांस, स्केन्डिनेवियन देशों में सरकारें अमीरपरस्ती के बावजूद जनता को नि:शुल्क व समान शिक्षा का अधिकार दे सकती हैं तो ‘डिजिटल इण्डिया’ ‘न्यू इण्डिया’ की नौंटकी किसलिए?
हमें भी यह अधिकार हासिल करना होगा। दिल्ली में चलाया जा रहा ‘स्कूल बचाओ अभियान’ पूरे देश भर में सबको समान एवं नि:शुल्क स्कूली शिक्षा की माँग करता है। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच भी सबको समान एवं निशुल्क स्कूली शिक्षा का अभियान चल रहा है जिसमें तमाम छात्र-युवा और शिक्षकों के संगठन लामबद्ध है। मंच का मक़सद है कि बच्चे के लिए शिक्षा का बुनियादी अधिकार बिना किसी भेदभाव के सुनिश्चित करना सरकार की जि़म्मेदारी है। यह सरकार ख़ुद हमसे वायदे करती आयी है पर हर बार मुनाफ़ाखोर कारपोरेट कम्पनियों को मुफ़्त ज़मीन, टैक्स माफ़ी व बेल आउट पैकेज़ पर सरकारी कोष लुटाया जाता है जो आसमान से नहीं टपकता बल्कि ग़रीब जनता की गाढ़ी कमाई से अप्रत्यक्ष कर वसूल करके यह सरकार हासिल करती है। ज्ञात हो कि कुल सरकारी ख़ज़ाने का लगभग 97 प्रतिशत हिस्सा इस देश की मेहनतकश जनता द्वारा अदा किये गये अप्रत्यक्ष कर (यानी गेहूँ, चावल, माचिस, चीनी, तेल ख़रीदने पर दिये जाने वाले कर) से आता है। ज़ाहिर है कि सरकार महज़ पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है। 1947 से लेकर अबतक सरकारें बदलती रही हैं परन्तु सभी ने शिक्षा को एक नीति के आधार पर अमीरों तक सीमित रखा है। तथा 1990 के बाद से शिक्षा को खुलकर निजी हाथों को बेचने का सिलसिला शुरू हुआ है। आज शिक्षा बाज़ारू माल बन गयी है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019
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