मराठा आरक्षण के मायने
अविनाश
महाराष्ट्र असेम्बली ने 29 नवम्बर 2018, गुरुवार के दिन मराठा जाति को शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग’ की एक नयी कैटेगरी बनाकर 16% आरक्षण पारित किया है। महाराष्ट्र में पहले से आरक्षण 52 प्रतिशत था। जिसके तहत अनुसूचित जातियों के लिए 13 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए 19 प्रतिशत, विशेष पिछड़ा वर्गों के लिए 2 प्रतिशत, विमुक्ता जाति के लिए 3 प्रतिशत, घुमन्तू जनजाति-बी के लिए 2.5 प्रतिशत, घुमन्तू जनजाति-सी (धनगर) के लिए 3.5 प्रतिशत और घुमन्तू जनजाति-डी (वंजारी) के लिए 2 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान था। अब मराठा आरक्षण मिलने के बाद यह 68% तक चला गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मराठा जाति की ही पूरी आबादी को इसका फ़ायदा मिलेगा? आइए मराठा आरक्षण के एेतिहासिक, सामजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलू पर ग़ौर करते हैं और इसकी पड़ताल करते हैं।
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की जनसंख्या लगभग 33 प्रतिशत है और महाराष्ट्र की राजनीति में इस समुदाय का दबदबा है। 200 कुलीन और अतिधनाढ्य मराठा परिवारों का आज प्रदेश के लगभग सारे मुख्य आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रों पर क़ब्ज़ा है। मराठा आबादी के सबसे कुलीन वर्ग के पास अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक और आर्थिक ताक़त का संकेन्द्रण है। प्रदेश के क़रीब 54% शिक्षा संस्थानों पर इनका क़ब्ज़ा है। प्रदेश की 105 चीनी मीलों में से क़रीब 86 का मालिकाना इनके पास है, प्रदेश के क़रीब 23 सहकारी बैंकों के यही खाते-पीते मराठा प्रबन्धक हैं, प्रदेशों के विश्वविद्यालयों में क़रीब 75% प्रबन्धन इनके क़ब्ज़े में है, क़रीब 71% सहकारी समितियाँ इनके पास है। जहाँ तक राजनीतिक ताक़त की बात है तो 1962 से लेकर 2004 तक चुनकर आये 2340 विधायकों में 1336 (यानी 55 फ़ीसदी) मराठा हैं। जिनमें से अधिकांश इन्हीं परिवारों से आते हैं। 1960 से लेकर अब तक महाराष्ट्र के 18 मुख्यमन्त्री में से 10 इनके बीच से ही हैं।
आज ये दो दशक से भी ज़्यादा से आरक्षण की माँग कर रहे हैं। 1990 में मराठा जाति को फ़ॉरवर्ड हिन्दू जाति और समुदाय का घोषित किया गया था और तीन सरकारी रिपोर्ट में मराठा जाति द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित होने की माँग को ख़ारिज़ कर दिया गया था। 2008 में महाराष्ट्र स्टेट बैकवर्ड क्लास कमिशन ने मराठा जाति को ओबीसी में सम्मिलित होने की माँग को ख़ारिज़ कर दिया था। इसके बाद 2014 में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने चुनाव से ठीक पहले मराठा जाति के बीच से वोट बटोरने के लिए मराठा जाति को 16% और मुस्लिमों को 5% आरक्षण देने का लुकमा उछाला था। जिसे कोर्ट ने ख़ुद ही रद्द कर दिया था, क्यूँकि कोर्ट के अनुसार आरक्षण किसी विशेष जातियों को देने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह जाति या जनजाति के समूह को दिया जा सकता जा सकता है, जैसेकि ओबीसी, एससी और एसटी। जुलाई 2016 में जब अहमदनगर के कोपर्दी गाँव में दलित लड़कों द्वारा मराठा जाति की लड़की के साथ बलात्कार और हत्या का मामला सामने आया, तब मराठा जाति तथा व्यापक जनता का इस घटना को लेकर रोष मुख्य तौर पर सामने आया। जिसके बाद पहला क्रान्ति मोर्चा औरंगाबाद जि़ले में हुआ, जहाँ काफ़ी संख्या में लोग पहुँचे और अगले 15 महीनों में 57 मराठा क्रान्ति मोर्चा का आयोजन राज्य की अलग-अलग जगह पर किया गया। आरोपियों को सज़ा देने से इतर इनकी तीन प्रमुख माँग उभरकर सामने आयीं, वे थीं – दलित उत्पीड़न विरोधी क़ानून, 1989 में संशोधन कराया जाये, अन्य पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत मराठा आबादी के लिए सरकारी नौकरी एवं शिक्षा में आरक्षण दिया जाये एवं राज्य द्वारा किसानों से अनाज ख़रीदने के मूल्य, यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की जाये। पर धीरे-धीरे कोपर्दी गाँव में घटी घटना के आरोपियों को सज़ा सुनाने की माँग पीछे हटती गयी और मराठा जाति के बीच 16% आरक्षण की माँग प्रमुख होती गयी। इन प्रदर्शनों की व्यापकता देखकर दो मत उभरकर सामने आ रहे थे। एक मत था कि इनके आयोजन के लिए होने वाले ख़र्च से लेकर इनको अप्रत्यक्ष तौर पर नेतृत्व प्रदान करने का काम प्रदेश की मराठा आबादी के बीच सबसे लोकप्रिय और विगत लोकसभा विधानसभा चुनाव में बुरी तरह असफल रहने वाली एनसीपी यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कर रही है। एनसीपी के लगभग हर छोटे-बड़े नेता ने बिना किसी गाजे-बाजे के इन प्रदर्शनों में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी भी है। भाजपा व शिवसेना में भी हावी मराठा लॉबी ने अपनी तरह से इसका लाभ उठाने का प्रयास किया है। वहीं दूसरी ओर चर्चित अख़बारों और पत्रिकाओं से लेकर बुद्धिजीवियों के एक धड़े का मानना है कि यह स्वतःस्फूर्त आधार पर उभरा एक जनान्दोलन है। पर जहाँ अब तक मराठा आन्दोलन शान्तिपूर्वक निकाला जा रहा था। फडणवीस सरकार ने जब ‘मेगा रिक्रूटमेण्ट ड्राइव’ के तहत 72,000 सरकारी नौकरियों की घोषणा की थी। उसके बाद मराठा जाति के ही काकासाहेब ने 23 जुलाई को ख़ुदकुशी कर ली, जिसके बाद इस आन्दोलन ने एक उग्र रूप धारण कर लिया। इसके अगले हफ़्ते तक इस घटना के चलते 100 गाड़ियों को तोड़ा गया और 4 लोगों के मरने की ख़बर भी आयी। इन आन्दोलनों के चलते फडणवीस सरकार ने ‘मेगा रिक्रूटमेण्ट ड्राइव’ को तब तक के लिए टाल दिया, जब तक मराठा जाति को 16% आरक्षण सुनिश्चित नहीं हो जाता है।
ऐसे में अगर हम आरक्षण की माँग उठाने वाली हाल के कुछ सालों में जातियों को देखें, तो पिछले दो-तीन सालों में गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं आन्ध्र प्रदेश में भी इस तरह के आन्दोलन हुए। जिसमें उभरती मँझोली किसान जातियों ने आरक्षण की माँग उठायी है। जिसके तहत गुजरात में पाटीदार, हरियाणा में जाट, आन्ध्र प्रदेश में कापू शामिल हैं। महाराष्ट्र में ऐतिहासिक तौर पर मराठा, कुनबी और माली जाति कृषि पृष्ठभूमि से तालुक़ात रखती हैं। जहाँ 20वीं सदी में कुनबी और मराठा जाति अपने आपको क्षत्रिय के तौर पर स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। आज बदली हुई आर्थिक परिस्थितियों में अपने सामाजिक स्थिति में बदलाव के तौर पर अपने आपको पिछड़े वर्ग के तौर पर शामिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। मराठा जाति की 77 फ़ीसदी आबादी आज भी कृषि में लगी हुई है। ऐसे में कृषि उद्योग की हालत देखें तो पता चलेगा कि 2012-13 से 2017-18 तक के बीच में कृषि उद्योग में पिछले 4 साल में नेट ग्रोथ नेगेटिव में रहा है, वह -0.4% से -10.7% तक पहुँच गया है। जिसके चलते किसानों की आमदनी में कमी आयी है। 2004 से 2014 के बीच ग्रामीण इलाक़ों में रोज़गार देने की स्थिति 71% से घटकर 64% रह गयी है। महाराष्ट्र में ग्रामीण और शहर के बीच आमदनी का अन्तर भी देश में सबसे ज़्यादा है, शहर में पर कैपिटा इनकम 168,178 है जोकि ग्रामीण क्षेत्र से 3 गुना ज़्यादा है। 1995 से अब तक 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की है। महाराष्ट्र में 2004 से 2013 के बीच हर साल औसतन 3685 किसानों ने आत्महत्या की है। टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS) ने 2011 से 2017 के बीच सर्वे किया, जिसकी रिपोर्ट के अनुसार जिन किसानों ने आत्महत्या की, उनमें से 80% पढ़े-लिखे थे। जिनमें से 7.3% ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रैजुएट पाये गये। आत्महत्या करने वाले किसानों में 65.8% किसान मराठा जाति, 10.4% किसान धनगर जाति, 4% लिंगायत और 3.1% माली जाति से आते थे। निजीकरण-उदारीकरण के 25 वर्ष से ज़्यादा बीतने के बाद कृषि संकट और मराठा आन्दोलन का उभार को देखें तो पता चलेगा कि कृषि में लगी मराठा जाति का तेज़ी से सर्वहाराकरण हुआ है। आज मराठा जाति के भीतर कृषि और उद्योग, गाँव और शहर, मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का अन्तर बेहद तीखा है। आकड़े बताते हैं कि 65% मराठा आबादी ग़रीब है और मराठा जाति का मुश्किल से 4 फ़ीसदी हिस्सा है जिनके पास 20 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन मौजूद है। इस समय मौजूद स्टेट बैकवर्ड क्लास कमिशन के शैक्षणिक और सामाजिक आर्थिक आँकड़ों के अनुसार मराठा जाति की 37 फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे आती है। 93 फ़ीसदी परिवार हैं जिनकी वार्षिक आमदनी एक लाख से नीचे है। एक सर्वे के अनुसार 60 से 65% मराठा कच्चे घरों में रहते हैं।
वहीं अगर हम अर्थव्यवस्था में कृषि की भागीदारी की बात करें तो सकल घरेलू उत्पाद का 15% से भी कम कृषि और इससे जुड़ी हुई गतिविधियों से आता है। वहीं आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी जीविकोपार्जन के लिए इस पर निर्भर है। कृषि से इतर मैन्युफै़क्चरिंग और प्रत्यक्ष उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में रोज़गार का सृजन नकारात्मक दरों में है। सरकारी एवं प्राइवेट क्षेत्रों में भी यही हालत है और जो नयी भर्ती हो रही है उनमें अधिकतर ठेके, कैजुअल, एडहॉक के अन्तर्गत है। आज बुनियादी सवाल रोज़गार सृजन का है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में आज स्टेट ऑफ़ वर्क इन इण्डिया 2018 के रिपोर्ट के अनुसार जहाँ कई सालों तक बेरोज़गारी 2 से 3% तक थी, 2015 में यह 5% पहुँच गयी जिसमें से युवा बेरोज़गार 16% तक थे। नौकरी की कमी की वजह से आमदनी घट गयी है। आज 82% पुरुष और 92% महिलाएँ 10,000 रुपये प्रति महीना से कम कमाते हैं। 1970 और ’80 में जीडीपी ग्रोथ 3 से 4% थी और रोज़गार सृजन 2% प्रति साल था। पर 1990 से कहें या ख़ासतौर पर 2000 के बाद से जीडीपी 7% तक पहुँच गयी है, वहीं रोज़गार सृजन 1% या उससे भी कम हो गया है।
ऐसे में मराठा जाति के भीतर भी जो मेहनतकश तबक़ा है जो कृषि संकट और उससे उपजे रोज़गार, आमदनी में कमी, ग़रीबी और असमानता के खि़लाफ़ नफ़रत रखता है। उसे अस्मितावादी -पहचान की राजनीति करने वाले संगठन-पार्टियाँ अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं और वर्गीय तौर पर एकजुट होने से रोकते हैं। यही कारण है कि व्यवस्थागत उत्पन्न हो रहे गुस्से को कभी जाति, भाषा, समुदाय, क्षेत्र के नाम पर बाँटने का काम किया जाता है। इसी तरह अस्मितावादी राजनीति के तहत जहाँ एमएनएस चीफ़ राज ठाकरे मराठी और ग़ैर-मराठी के बीच अन्तर पैदा करने की कोशिश करता है। जबकि एनएसएसओ (NSSO) की रिपोर्ट बताती है कि मुम्बई में महाराष्ट्र के ही गाँव और शहर से क़रीबन 70% आबादी प्रवास के लिए आती है। आँकड़ों के अनुसार जहाँ एक व्यक्ति बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा से प्रवास के लिए महाराष्ट्र आता है, वहीं दूसरी तरफ़ 3 प्रवासी महाराष्ट्र के अन्दर से ही आते हैं। बुर्जुआ चुनावी राजनीतिक पार्टियाँ इस तरह के मसले अपनी चुनावी रोटी सकने के लिए करती हैं। जहाँ 2014 की असेम्बली इलेक्शन में एनसीपी-कांग्रेस द्वारा 16% आरक्षण का लुकमा फेल हो गया था। भाजपा को असेम्बली इलेक्शन में जीतने के बाद 122 सीटों सीटें मिली थीं। मगर वोट प्रतिशत की बात करें तो भाजपा को मराठा जाति का सिर्फ़ 24% वोट मिला था, शिवसेना को 29% और एनसीपी को 28% वोट मिला था। भाजपा द्वारा मराठा जाति को आरक्षण देने के पीछे मक़सद यही है कि मराठा जाति की प्रमुख पार्टी एनसीपी रही है, जिसकी हार के बावजूद मराठा जाति के बीच पकड़ मज़बूत है। वहीं भाजपा चुनाव से ठीक पहले आरक्षण की राजनीति से मराठा जाति के ही शहरी कुलीन आबादी के बीच अपने वोट बैंक को और बढ़ाना चाहती है। दरअसल इसमें अगर आरक्षण बिना किसी परेशानी के स्वीकृत भी हो जाता है तो उसका अगर थोड़ा-सा भी फ़ायदा मिलेगा तो वह मराठा जाति के ही उच्च वर्गीय शहरी कुलीन तबक़े को ही मिलेगा। मराठा जाति की आम मेहनतकश आबादी की जि़न्दगी में रत्ती-भर भी अन्तर नहीं आयेगा। ख़ुद भाजपा के नेता नितिन गडकरी ने मराठा आरक्षण को लेकर कहा था कि आरक्षण की लड़ाई क्यों लड़ रहे हो जब नौकरी ही नहीं है। अस्मितावादी लड़ाई से होगा यह कि एक अस्मिता के बरक्स दूसरी अस्मिता खड़ी होगी। इसी राह पर धनगर जाति भी अनुसूचित जनजाति में आरक्षण पाना चाहती है, मुस्लिम भी 2014 में किये 5% आरक्षण के वादों को याद दिलायेंगे और हाल ही में सवर्णों के ग़रीब तबक़े को 10% आरक्षण देने की राजनीति भी की गयी है। आज हमें यह समझने की ज़रूरत है कि जातिगत पूर्वाग्रह तोड़कर वर्गीय तौर पर एकजुट होकर लड़ना ही उपाय है। वरना एक काल्पनिक रोटी में हिस्से की लड़ाई में रस्साकशी करने से फ़ायदा शासक वर्ग को ही मिलेगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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