मेहनतकशों को आपस में कौन लड़ा रहा है, इसे समझो!
सत्यवीर सिंह
बिहार और यूपी के मजबूर मज़दूरों को हाल में मार-पीटकर गुजरात से भगाने वाले गुजराती मालिक नहीं, मज़दूर ही थे। उनकी झोंपड़ियों में आग अडानी ने नहीं लगायी, बल्कि ख़ुद शोषित, बेहाल गुजराती मज़दूरों ने ही ये काम अंजाम दिया। महाराष्ट्र में तो ये वहशीपन पिछले 25-30 साल से होता आ रहा है। पंजाब में भी इसी तरह के हालात बनने की सुगबुगाहट है। कभी भी कोई घटना, जैसे गुजरात में मासूम बच्ची से बलात्कार, आग भड़का सकती है। दरअसल सर्वहारा वर्ग में ये भ्रातृघाती बैर पहले ग़ुलाम राष्ट्र और मालिक राष्ट्र वाला समीकरण पैदा करता था, यूरोप के लुटेरे मुल्क़ोें के मज़दूर ख़ुद को शासक मालिक की ही तरह, भारत जैसे गुलाम मुल्क़ों के मज़दूर का मालिक समझते थे, वैसा ही अन्तर, वैसा ही वैमनस्य आज पूँजीवाद का अन्तर्निहित असमान विकास का नियम कर रहा है। शासक वर्गों के अलग-अलग धड़े और पार्टियाँ अपने निहित स्वार्थों में इस आग को और भड़कायेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि मज़दूरों के बीच इस सच्चाई का प्रचार किया जाये कि सभी मज़दूरों के हित एक हैं और उनका साझा दुश्मन वे लुटेरे हैं जो देशभर के तमाम मेहनतकशों का ख़ून चूस रहे हैं।
कार्ल मार्क्स ने इस मुद्दे को कितनी ख़ूबसूरती से समझाया है, देखिए :
”और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है : इंग्लैण्ड के हर औद्योगिक और वाणिज्यिक केन्द्र में इस समय ऐसी मज़दूर आबादी मौजूद है जो एक-दूसरे के साथ दुश्मनी ठाने हुए दो शिविरों में बँटी हुई है, अंग्रेज़ सर्वहारा और आयरिश सर्वहारा (आयरलैण्ड के प्रवासी मज़दूर – अनु.)। आम अंग्रेज़ मज़दूर आयरिश मज़दूर को ऐसे प्रतिस्पर्धी के रूप में देखता है जिसके कारण उसके जीवनस्तर में गिरावट आती है और उससे नफ़रत करता है। आयरिश मज़दूरों की तुलना में वह ख़ुद को शासक राष्ट्र के सदस्य के रूप में देखता है और इस तरह अपनेआप को आयरलैण्ड के विरुद्ध कुलीनों और पूँजीपतियों के एक औज़ार में तब्दील कर देता है, और अपने ऊपर उनके वर्चस्व को पहले से भी ज़्यादा मज़बूत बना लेता है। वह आयरिश मज़दूर के विरुद्ध धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय पूर्वाग्रहों से भरा हुआ है। उनके प्रति उसका रवैया काफ़ी कुछ वैसा ही है जैसा अमेरिका के भूतपूर्व दास रखने वाले राज्यों में ‘ग़रीब गोरों’ का ‘हब्शियों’ के प्रति होता था। आयरिश लोग इसका बदला उसी की भाषा में सूद-ब्याज सहित चुकाता है।
वह मानता है कि अंग्रेज़ मज़दूर आयरलैण्ड में इंग्लैण्ड के प्रभुत्व के अपराध में भागीदार है और साथ ही उसका एक मूर्ख औज़ार भी बना हुआ है।
इस शत्रुता को प्रेस, धर्मगुरु और कॉमिक अख़बार, संक्षेप में शासक वर्गों के हाथ में तमाम साधनों के ज़रिये कृत्रिम रूप से जि़न्दा रखा जाता है और तेज़ किया जाता है। संगठित होने के बावजूद अंग्रेज़ मज़दूरों के कुछ भी कर पाने में नाकाम रहने का यही राज़ है। यही वह राज़ है जिसके ज़रिये पूँजीपति वर्ग अपनी ताक़त क़ायम रखता है। और वह वर्ग इसे अच्छी तरह जानता है।”
– कार्ल मार्क्स, सीगफ़्रीड मेयर और कार्ल वोग्ट के नाम पत्र में, 9 अप्रैल, 1870
इंग्लैण्ड की जगह गुजरात-महाराष्ट्र और आयरलैण्ड की जगह यूपी-बिहार पढ़िए; एकदम वही हो रहा है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर-अक्टूबर-नवम्बर 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन