कॉमरेड अरविन्द के दसवें ‍स्मृतिदिवस (24 जुलाई) के अवसर पर

का. अरविन्द सच्चे अर्थों में जनता के आदमी थे। 20 वर्ष की छोटी-सी उम्र में उन्होंने क्रान्तिकारी वामपन्थी राजनीति की शुरुआत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में छात्र राजनीति से की थी। इसके बाद वर्षों तक वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों के ग्रामीण क्षेत्रों में नौजवानों को संगठित करते रहे। कुछ दिनों तक उन्होंने गोरखपुर और लखनऊ में भी छात्र-मोर्चे पर काम किया। मऊ ज़िले में ग्रामीण मजदूरों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद वे लम्बे समय तक दिल्ली-नोएडा में औद्योगिक मज़दूरों के बीच काम करते रहे। जीवन के अन्तिम वर्षों में वे गोरखपुर के मज़दूरों और सफ़ाई कर्मचारियों को संगठित करते हुए क्रान्तिकारी छात्र-युवा राजनीति में सक्रिय युवाओं की नयी पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे थे।

एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ ही का. अरविन्द सैद्धान्तिक क्षेत्र में भी गहरी पकड़ रखते थे। एक सिद्धहस्त राजनीतिक पत्रकार, लेखक और अनुवादक के रूप में पूरा हिन्दी जगत उनकी क्षमताओं से परिचित था। समाजवाद की समस्याओं, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों और सांस्कृतिक क्रान्ति के बारे में उन्होंने गहन शोध-अध्ययन किया था। मज़दूर आन्दोलन की समस्याओं और चुनौतियों पर भी उनका अध्ययन गहरा था और समझदारी व्यापक थी। ‘नौजवान’, ‘आह्वान’, ‘दायित्वबोध’, ‘बिगुल’, आदि कई पत्र-पत्रिकाओं में न केवल वे नियमित लिखते रहे, बल्कि इनके सम्पादन से भी जुड़े रहे। कई युवा साथियों को उन्होंने अपने हाथों गढ़कर संगठनकर्ता बनाया और कई को लेखनी पकड़कर लिखना सिखाया। समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर क्रान्तिकारी वाम धारा के सहयात्रियों से मिलने तथा वाम एकता के लिए विचारधारा और लाइन के सवाल पर बहस चलाने का भी काम वे करते रहे। जो उनसे एक बार भी मिला, वह उन्हें कभी नहीं भुला सका।

आज से 10 वर्ष पहले, 24 जुलाई 2008 को हमने उन्हें खो दिया था।

वे एक सच्चे कम्युनिस्ट की भाँति सहज-सरल, खुशमिज़ाज, ज़िन्दादिल और पारदर्शी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे, लेकिन उसूलों के मामले में कभी भी वे कोई समझौता नहीं करते थे। एक बेरहम ठण्डे और दुनियादारी भरे समय में वे निष्कम्प अपनी राह चलते रहे और एक सच्चे सर्वहारा क्रान्तिकारी के समान जिये और मरे। हम उन्हें कभी नहीं भुला सकेंगे।

इसी महीने भारत के मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल के 110 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस ऐतिहासिक संघर्ष की शतवार्षिकी के मौक़े पर दिल्ली में 24 जुलाई को आयोजित होने वाले सेमिनार के ब्रोशर की सामग्री भी कॉमरेड अरविन्द ने गोरखपुर में रहते हुए ही तैयार करके भेजी थी, हालाँकि अपनी स्थानीय व्यस्तताओं के कारण वे स्वयं इसमें शिरकत नहीं करने वाले थे। (23 जुलाई को अचानक उनकी तबियत बिगड़ने के बाद इस सेमिनार को रद्द कर देना पड़ा था।)

इस अवसर पर हम कॉमरेड अरविन्द और 1908 की ऐतिहासिक मज़दूर हड़ताल को याद करते हुए ‘मज़दूर बिगुल’ के एक लेख को पुनर्प्रका‍िशत कर रहे हैं। इसे ‘मज़दूर बिगुल’ के नियमित लेखक और हरियाणा में मज़दूर आन्दोलन से जुड़े युवा साथी अरविन्द ने लिखा है।   – सम्पादक मण्डल

भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल (23-28 जुलाई, 1908)
एक प्रेरक और गौरवशाली इतिहास जिसे मज़दूर वर्ग से जानबूझकर छिपाया गया

अरविन्द

”हिन्दुस्तान के जनवादी तिलक को अंग्रेज गीदड़ों द्वारा सुनायी गयी बदनाम सज़ा – उन्हें दीर्घ काल तक देश-निर्वासन की सजा दी गयी, ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स में एक प्रश्न ने यह उजागर किया कि हिन्दुस्तानी जूरी-सदस्यों ने उन्हें बरी करने के पक्ष में मत दिया और फैसला अंग्रेज जूरी-सदस्यों के मतों से पास किया गया – पूँजीपतियों के पालतू कुत्तों द्वारा की गयी इस प्रतिशोधत्मक कार्रवाई के फलस्वरूप बम्बई में सड़कों पर प्रदर्शन और हड़ताल भड़क उठी है। भारत में भी सर्वहारा अब सचेत राजनीतिक जनसंघर्ष के स्तर तक विकसित हो चुका है।” मज़दूरों के महान नेता लेनिन के ये शब्द राष्ट्रीय आन्दोलन के लोकप्रिय नेता बालगंगाधर तिलक पर चले मुकदमे और विरोधस्वरूप मज़दूर वर्ग की शानदार हड़ताल के बारे में हैं। 23 से 28 जुलाई सन् 1908 का समय भारतीय मज़दूर आन्दोलन का वह गौरवशाली इतिहास है, जिसे मुम्बई के मज़दूरों ने अपने खून से लिखा था। बंगाल के आतंकवाद पर ‘केसरी’ नामक समाचारपत्र में कुछ लेख लिखने के कारण अंग्रेजों द्वारा लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया और उन्हें 6 साल के लिए देश निकाला दे दिया गया। जब 24 जून, 1908 को मुम्बई में तिलक की गिरफ़्तारी हुई तो न सिर्फ़ मुम्बई में बल्कि शोलापुर, नागपुर समेत पूरे देश में इसके विरोध में जनता सड़कों पर उमड़ आयी थी। किन्तु मुम्बई के मज़दूर इस संघर्ष में सबसे आगे थे। मज़दूरों द्वारा किया गया यह संघर्ष एक व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि पूरी औपनिवेशिक व्यवस्था के अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष का प्रतीक है। मज़दूर अपनी आर्थिक माँगों के लिए नहीं बल्कि गोरे दमन के खिलाफ़ लड़ रहे थे। यह दिखलाता है कि मज़दूर वर्ग औपनिवेशिक ग़ुलामी के खिलाफ़ संघर्ष का बिगुल उसी समय बजा चुका था, जब देश के पूँजीपति वर्ग के नेता खुद को अंग्रेज़ हुकूमत की वफ़ादार प्रजा बताते हुए सरकार से कुछ रियायतों की भीख माँग रहे थे।

तिलक पर मुक़दमा चलने के दौरान मुम्बई के मज़दूरों ने विशाल प्रदर्शन और हड़तालें की थीं, जिनमें अक्सर पुलिस के साथ हिंसक मुठभेड़ें हो जाती थीं। फलस्वरूप सेना को भी बुला लिया गया, साथ ही देसी पुलिस का प्रयोग करने में अंग्रेज़ अन्त तक बचते रहे थे। जब 13 जुलाई से तिलक पर मुक़दमा चलना शुरू हुआ, तो उसी दिन अदालत के सामने जनता की पुलिस से हिंसक झड़प हुई थी। उस दिन अंग्रेजों की सेना के हथियारबन्द दस्तों ने रास्तों को इस तरह से घेर रखा था कि मज़दूर अपने कारख़ानों से निकलकर अदालत तक न पहुँच सकें। इसके बावजूद ब्रिव्स्कर्ण मिल के मजदूरों ने हड़ताल करके जुलूस निकाला। 14, 15 और 16 को भी ऐसा ही हुआ। मज़दूर जुलूस निकलते और मिलिटरी उन्हें आगे बढ़ने से रोकती और जूलूस को तोड़ने के प्रयास करती। 17 जुलाई को मज़दूरों के आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। दोपहर बाद लक्ष्मीराम, ग्लोब, क्रिमेंट, जमशेद, नारायण, करीमभाई, मोहम्मदभाई, ब्रिटानिया, फ़ीनिक्स, ग्रीव्सकाटन इत्यादि कपड़ा मिलों के मज़दूर हड़ताल करके बाहर निकल आये। करीब 20,000 मजदूरों ने औद्योगिक इलाके में जुलूस निकाला और सभी मज़दूरों से कारखानों से बाहर निकल आने का अनुरोध किया गया। 18 जुलाई को भी यही किया गया, किन्तु इस दिन पुलिस द्वारा मज़दूरों पर गोली चलाई गई। 19 जुलाई को मुम्बई के महिम और परेल इलाके के 60 कारखानों और रेलवे वर्कशोप के करीब 65,000 मज़दूर हड़ताल कर बाहर आ गये। 20 जुलाई को मजदूरों पर फि‍र से गोलियाँ चलायी गयीं। 21 जुलाई के दिन संघर्ष ने और भी विराट रूप धारण कर लिया। संग्राम में औद्योगिक मजदूरों के साथ गोदी मज़दूर, दुकान मज़दूर, दुकानदार, और छोटे-मोटे व्यापारी भी शामिल हो गये। 22 जुलाई को 5 हड़ताली मज़दूरों को गिरफ़्तार करके उन्हें कठोर सज़ाएँ दी गयीं ताकि दूसरे इससे डर सकें। साथ ही यह दिन तिलक पर मुक़दमे की सुनवाई का आखिरी दिन भी था। उन्हें 6 साल के कठोर कारावास, 1000 रुपए के जुर्माने समेत देश-निकाले की सजा दी गई। उसी दिन मजदूरों द्वारा 6 दिन की व्यापक हड़ताल का निर्णय (तिलक की कैद के हरेक साल के लिए एक दिन की हड़ताल के रूप में) लिया गया।

23 जुलाई को करीब एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की। मुंबई की आम जनता भी मज़दूरों के साथ आ खड़ी हुई। 24 जुलाई को संघर्षरत जनता की लड़ाई सेना के हथियारबंद दस्तों के साथ फिर से शुरू हो गयी। गोलियों का जवाब ईंटो और पत्थरों की बारिश से दिया गया। बहुत से मज़दूर आम जनता के साथ शहीद हुए। इसी बीच पुलिस कमिश्नर ने मिल मालिकों से हड़ताल का विरोध करने के लिए कहा। मालिकों ने फैसला किया कि ‘उद्योग की भलाई’ के लिए मजदूरों को हड़ताल बंद कर देनी चाहिए। मिल मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिलाल भाई विश्राम ने मिल मालिकों को सलाह दी -”आपकी ज़ि‍म्मेदारी यह देखना है कि सरकार को किसी तरह परेशान न किया जाए, कानून-कायदों को मानकर चला जाए। आप मज़दूरों को काम पर वापस जाने के लिए दबाव डालिए।” परन्तु मज़दूरों ने मालिकों-पुलिस-प्रशासन की तिकड़मों को धता बताते हुए अपने संघर्ष को जारी रखा। देश की जनता के सामने किये गए 6 दिन की हड़ताल के वायदे को मजदूरों ने शब्दशः निभाकर अपने जुझारूपन को स्थापित कर दिया। शहर के मध्यवर्ग और श्रमिकों के दुसरे हिस्सों ने मजदूरों का साथ दिया। पुलिस और सेना की तरफ़ से बार-बार गोलियाँ चलायी गयीं। इस संघर्ष में करीब 200 मज़दूरों और आम लोगों ने अपनी शहादत दी और बहुत से घायल हुए। 

जिस तरह आज़ादी की लड़ाई में मज़दूर-किसानों की शानदार भूमिका और मेहनतकशों की लाखों-लाख कुर्बानियों की चर्चा तक नहीं की जाती उसी तरह मज़दूरों के इस ऐतिहासिक संघर्ष पर भी साज़ि‍शाना तरीके से राख और धूल की परत चढ़ाकर इसे भुला दिया गया। लगता है हमारे तथाकथित इतिहासकारों और नेताओं को इन संघर्षों का जिक्र करते हुए डर की अनुभूति होती है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडा फहराते हुए ‘साबरमती के संत’ के कारनामों की तो चर्चा होती है, अंग्रेजों के दल्ले तक ‘महान स्वंत्राता सेनानी’ बन जाते हैं किन्तु जब देश की मेहनतकश जनता ने अपने खून से धरती को लाल कर दिया था, और जिन जनसंघर्षों के दबाव के कारण अंग्रेज़ भागने को मजबूर हुए उनका कभी नाम तक नहीं लिया जाता। मज़दूरों की पहली राजनीतिक हड़ताल, अहमदाबाद, कानपुर, नागपुर आदि के मज़दूरों के संघर्ष, गिरनी कामगार यूनियन का गौरवमयी इतिहास, शोलापुर कम्यून का संघर्ष, रॅायल नेवी और सेना की बगावतें, तेलंगाना, तेभागा पुनप्रा-वायलार और कय्यूर के जुझारू किसान संघर्ष, पंजाबी जनता की डंडा फौज, भगतसिंह और उनके साथियों  के संगठन एच.एस.आर.ए. के पूरे क्रान्तिकारी इतिहास इत्यादि के बारे में कितने लोग जानते हैं। पूँजीवादी मीडिया कब इनका नाम लेता है, और नाम ले भी क्यों? क्योंकि शासक वर्ग जानता है कि यदि मेहनतकश आवाम से उसका प्रतिरोध का हथियार छीनना है तो उसे उसके क्रान्तिकारी इतिहास से काट देना ही कापफी है। संसदीय वामपंथी बातबहादुर और उनकी ट्रेड-यूनियनें (जिन्हें दलाल यूनियनें  कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी) तो मज़दूरों का नाम लेकर और उन्हें दुवन्नी-चवन्नी के आर्थिक घेरो में उलझाकर ग़द्दारी ही करती रही हैं।

आज सबसे बड़ा काम है मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराया जाय। इसी कड़ी में हमें अपने पुरखों को भी याद करना होगा –  सिर्फ़ याद करने के लिए नहीं बल्कि उनके संघर्षो के लिए प्रेरित होने के लिए भी। मज़दूर वर्ग के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि आज यही हो सकती है कि मज़दूरी की व्यवस्था के नाश के उनके सपनों को हम कितनी शिद्दत के साथ अपने व्यवहार में लागू करते हैं। मुंबई की सड़कों पर बहा हमारे पुरखों का ख़ून हमें आवाज़ दे रहा है कि शोषण-उत्पीड़न-अत्याचार की इस अमानवीय और नारकीय ज़िन्दगी से मज़दूर वर्ग की आज़ादी के लिए लड़ने का ठेका दूसरों को देने की बजाय अपनी और साथ ही साथ पूरे समाज की मुक्ति का परचम हम खुद अपने हाथों में थामकर आगे बढ़ें।

 

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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