क्रान्तिकारी सोवियत संघ में स्वास्थ्य सेवाएँ

मुनीश मैन्दोला

आज की नयी पीढ़ी क्रान्तिकारी सोवियत संघ के समाजवादी मॉडल (1917-1956) के बारे में या तो कुछ नहीं जानती है या पूँजीवादी मीडिया में समाजवाद के बारे में जो कुत्सा-प्रचार किया जाता है, बस वही जानती है, जो कि ना जानने के बराबर ही होता है। कई लोग जो समाजवाद की विचारधारा और उसकी सफलताओं के बारे में जानना भी चाहते हैं, वो कई बार इण्टरनेट और विकीपीडिया या हिस्ट्री चैनल, ज्योग्राफ़ी चैनल आदि से इसकी शुरुआत करते हैं। इन पूँजीवादी चैनलों/मीडिया/इण्टरनेट आदि पर सचेतन-अचेतन रूप से समाजवाद की विचारधारा के बारे में भ्रम फैलाने का काम किया जाता है और समाजवाद की प्रचण्ड सफलताओं को जानबूझकर कम करने या ग़ायब ही कर देने का षड्यन्त्र किया जाता है ताकि लोग पूँजीवादी शोषण और लूट को सहने को ही अपना भाग्य मान लें और पूँजीवाद के एकमात्र और असली विकल्प यानी समाजवाद से मुँह फेर लें। ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि नयी पीढ़ी को समाजवाद की सफलताओं के बारे में बताया जाये। इस क्रम में हम सोवियत संघ में 1917 से 1956 तक के समय की पड़ताल करते हुए यह जानने की कोशि‍श करेंगे कि इस दौरान सोवियत संघ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या उपलब्धियाँ हासिल की गयीं। 1956 की बीसवीं पार्टी कांग्रेस के बाद निकिता ख्रुश्चेव ने समाजवाद से ग़द्दारी करके वहाँ पूँजीवाद को वापस बहाल कर दिया जिसके बाद वहाँ समाजवादी नीतियों और ढाँचे को तोड़कर श्रम की लूट पर टिकी पुरानी पूँजीवादी नीतियों को वापस शुरू किया गया जिसके परिणामस्वरूप कुछ समय बाद ही वहाँ हालात वापस ज़ारकालीन रूस या किसी भी अन्य पूँजीवादी मुल्क़ जैसे हो गये। आज के पूँजीवादी रूस में बढ़ि‍या स्वास्थ्य सेवाएँ बस अमीरज़ादों को ही हासिल हैं और आम जनता के हिस्से  अमीरों की जूठन ही आती है और यही हाल आज के भारत या किसी भी अन्य पूँजीवादी देश का है।

सोवियत संघ में स्वास्थ्य सुविधा पूरी जनता को नि:शुल्क उपलब्ध थी। वहाँ गोरखपुर की तरह ऑक्सीजन सिलेण्डर के अभाव में बच्चे नहीं मरते थे और ना ही भूख से कोई मौत होती थी। सोवियत रूस में गृह युद्ध (1917-1922) के दौरान स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ गयी थीं। 1921 में जब गृहयुद्ध में सोवियत सत्ता जीत गयी, तब रूस में सब जगह गृहयुद्ध के कारण बुरा हाल था। देशभर में टाइफ़ाइड और चेचक जैसी बीमारियों से कई लोग मर रहे थे। साबुन, दवा, भोजन, मकान, स्कूल, पानी आदि तमाम बुनियादी सुविधाओं का चारों तरफ़़़ अकाल था। मृत्यु दर कई गुना बढ़ गयी थी और प्रजनन दर घट गयी थी। चारों तरफ़़़ अव्यवस्था का आलम था। पूरा देश स्वास्थ्य कर्मियों, अस्पतालों, बिस्तरों, दवाइयों, विश्रामगृहों के अभाव की समस्या से जूझ रहा था। ऐसे में सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीयकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाने का फ़ैसला किया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके। इस प्रणाली का मक़सद था नागरिकों को उनके रहने और काम करने की जगह पर तमाम बुनि‍यादी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करवाना ताकि उन्हें इलाज घर के पास मिले, ना कि दूर-दराज़ के शहरों में। इसके तहत सबसे पहले सहायता स्टेशनों, फिर पॉलीक्लिनिक, फिर जि़लों और शहरों के बड़े अस्पतालों का निर्माण किया गया। तमाम सरकारी विभागों, फै़क्ट्रियों, कारख़ानों, खदानों, खेतों आदि में काम करने वाले मज़दूरों, किसानों, कर्मचारियों, नागरिकों को उनकी काम करने और रहने की जगह पर ही स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करवायी गयीं व लोगों को स्वास्थ्य अधिकारों  के प्रति जागरुक किया गया। सोवियत संघ के संविधान में 1936 में लिख दिया गया कि जनता को मुफ़्त स्वास्थ्य  सुविधाएँ देना सरकार का कर्तव्य है और इस बात को पूरे देश में लागू किया गया! सोवियत संघ में बीमारियों के इलाज पर ही नहीं, बल्कि बीमारियों की रोकथाम पर भी उचित ध्यान दिया गया। भाँति-भाँति की डिस्पेंसरियाँ पूरे देश में खोली गयीं जिनको शराबखोरी, टीबी, व अन्य प्रकार की बीमारियों से लड़ने में कुशलता प्राप्त थी। अप्रैल 1919 में सोवियत संघ में टीकाकरण को अनिवार्य कर दिया गया जिसका परिणाम तुरन्त सामने आया और मृत्यु दर में कमी आयी। सोवियत संघ में 1917 में 17,785 चिकित्सक थे जो 1928 में बढ़कर 63,219 हो गये। 1917 में स्वास्थ्य मद में ख़र्चा 128 मिलियन रूबल से बढ़कर 1928 तक 660 मिलियन रूबल तक पहुँच गया। 1917 में अस्पताल के बिस्तरों की संख्या 1,75,000 थी जो 1928 में बढ़कर 2,25,000 हो गयी। इसके बाद प्रथम पंचवर्षीय योजना के अन्त (1932-33) तक डॉक्टरों की संख्या बढ़कर 76,000 हो गयी, अस्पताल के बिस्तरों की संख्या में आधे से ज़्यादा की वृद्धि हुई और नर्सरियों की संख्या 2,56,000 से बढ़कर 57,50,000 हो गयी। साथ ही 14 नये मेडिकल कॉलेज व 133 नये सेकेण्डरी मेडिकल स्कूल खोले गये। ज़ारकालीन रूस में 9 शिशु और मातृत्व कल्याण केन्द्र थे, जो 1938 में बढ़कर 4,384 हो गये। माताओं और बच्चों  के लिए बड़े पैमाने पर किंडरगार्डन, नर्सरियाँ, विश्राम गृह (रेस्ट होम) आदि बनाये गये। स्तालिनकाल में सभी प्रकार के उपचार – अस्पताल के उपचार, फिजियोथेरेपी, रेडियोथेरेपी, सैनेटोरियम इलाज, दन्त चिकित्सा, मातृत्व सेवाएँ आदि – सोवियत लोगों के लिए मुफ्त उपलब्ध थे। 1937 में सोवियत संघ का सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट 1913 के ज़ारकालीन रूस का 75 गुना था। 1913 में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति ख़र्च केवल 90 कोपेक था जो 1937 तक बढ़कर 60 रूबल हो गया। 1938 तक शिशु मृत्यु दर में 50% की कमी हुई, टीबी के मरीजों की संख्या में 83% की कमी हुई, सिफ़‍लिस के मामलों में 90% की कमी हुई। 1937 की मृत्यु दर 1913 की मृत्यु दर से 40% कम थी यानी लोग ज़्यादा समय तक जीवित रहने लगे। इसके अलावा, सोवियत संघ में 1938 में खाद्य उद्योग का कुल उत्पादन 1913 के ज़ारकालीन रूस का लगभग 6 गुना था और जनता के बहुत बड़े हिस्से को बढ़िया पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाया जा रहा था। दूसरी पंचवर्षीय योजना के अन्त तक फलों की खपत 3 गुनी और मांस की खपत 5 गुनी बढ़ गयी थी।

इस सोवियत प्रणाली ने अपनी श्रेष्ठता और उपयोगिता 1941 से 1945 तक के दूसरे विश्व युद्ध में सिद्ध की, जब वहाँ के स्वास्थ्य कर्मी कई लाख बीमार और घायल सैनिकों को वापस मोर्चे पर भेजने में सफल रहे। स्वास्थ्य के मसले पर सोवियत संघ में सबसे बड़ा काम यह किया गया कि ग़रीबी और बेरोज़गारी को जड़ से मिटा दिया गया। दरअसल कई बीमारियों का असल कारण होती है ग़रीबी और बेरोज़गारी, जिसके कारण ही कई अन्य स्वास्थ्य-सम्बन्धी दिक्कतें पैदा होती हैं! सोवियत संघ में चूँकि सबको रोज़गार दिया गया, मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा‍, आवास आदि की सुविधाएँ दी गयीं, जनता को इज़्ज़त और आसूदगी की जि़न्दगी दी गयी, इसलिए सोवियत संघ स्वास्थ्य के क्षेत्र में ऊपर बतायी गयी चमत्कारिक और प्रचण्ड सफलताओं को हासिल कर सका। पूँजीवादी देशों में चूँकि श्रम करने वाली जनता को जानबूझकर ग़रीब बनाकर रखा जाता है, तरह-तरह के टैक्स लगाकर उसे लूटा जाता है, इसलिए वहाँ ग़रीबी से पैदा होने वाली बीमारियाँ जनता को हलकान किये रहती हैं। ग़रीब इलाज-सावधानी के अभाव में मरता है, और अच्छा  इलाज बहुत महँगा होता है, जिसे सिर्फ़़ पैसे वाले ही ख़रीद पाते हैं। सोवियत संघ में इसके उलट सबको रोज़गार, नि:शुल्क शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ देकर लोगों को कई भूख-और-कुपोषण-जनित बीमारियों से निजात दिलवा दी गयी! अब आप इसकी तुलना आज के भारत से करें। भारतीय पूँजीवाद पिछले 70 सालों में, जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, जनता को बुनियादी स्वास्थ्य   सुविधाएँ तक देने में बुरी तरह असफल और फिसड्डी साबित हुआ है।

मज़दूर बिगुल, जून 2018


 

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