महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के जन्मदिवस (14 मार्च) के अवसर पर उनके प्रसिद्ध लेख के अंश
समाजवाद ही क्यों?
मैं अब उस बिन्दु पर पहुँच गया हूँ जहाँ मैं संक्षेप में यह बता सकता हूँ कि मेरी राय में हमारे समय के संकट का सार क्या है। यह व्यक्ति के समाज से सम्बन्ध का सवाल है। व्यक्ति समाज पर अपनी निर्भरता के बारे में पहले से कहीं अधिक सचेत हो गया है। परन्तु वह इस निर्भरता का अनुभव एक सकारात्मक गुण, एक आवयविक सम्बन्ध, एक सुरक्षात्मक बल के रूप में नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक अधिकारों, या यहाग् तक कि अपने आर्थिक अस्तित्व के लिए एक ख़तरे के रूप में करता है। इसके अलावा, समाज में उसकी स्थिति के कारण उसकी बनावट की आत्मकेन्द्रित प्रवृत्तियों को लगातार बढ़ावा दिया जा रहा है, जबकि उसकी सामाजिक प्रवृित्तयाँ, जो प्राकृतिक रूप से कमज़ोर हैं, क्रमश: और कमज़ोर होती जा रही हैं। सारे मनुष्य, समाज में उनकी स्थिति जो भी हो, गिरावट की इस प्रक्रिया से पीड़ित हैं। अनजाने में अपने स्वयं के आत्मकेन्द्रण के क़ैदी, वे असुरक्षित, अकेला, और जीवन के सीधे-सादे, सरल, और अपरिष्कृत आनन्द से वंचित महसूस करते हैं। मनुष्य ख़तरों से भरे अपने छोटे-से जीवन में अर्थ केवल तभी पा सकता है जब वह स्वयं को समाज के लिए समर्पित करता है।
मेरी राय में, आज मौजूद पूँजीवादी समाज की आर्थिक अराजकता बुराई का असली स्रोत है। हम अपने सामने उत्पादकों के एक विशाल समुदाय को देखते हैं जिसके सदस्य लगातार एक-दूसरे को उनके सामूहिक श्रम के फल से वंचित रखने का प्रयास कर रहे हैं – बल के द्वारा नहीं, बल्कि कुल मिलाकर क़ानूनी तौर पर स्थापित नियमों का पालन करते हुए। इस सम्बन्ध में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि उत्पादन के साधन – यानी, उपभोक्ता वस्तुओं और साथ ही अतिरिक्त पूँजीगत मालों के उत्पादन के लिए ज़रूरी पूरी उत्पादक क्षमता – क़ानूनी तौर पर कुछ व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति हो सकती है, और अधिकांशतया ऐसा ही है।
सरलता के लिए, आगे की चर्चा में मैं उन तमाम लोगों को ”मज़दूर” कहूँगा जिनका उत्पादन के साधनों के स्वामित्व में हिस्सा नहीं है – हालाँकि यह शब्द प्रचलित उपयोग के अनुरूप नहीं है। उत्पादन के साधनों का मालिक मज़दूर की श्रमशक्ति को ख़रीदने की स्थिति में होता है। उत्पादन के साधनों का उपयोग करके, मज़दूर नये माल पैदा करता है जो पूँजीपतियों की सम्पत्ति बन जाते हैं। इस प्रक्रिया के बारे में बुनियादी बात मज़दूर द्वारा किये गये उत्पादन और उसको किये गये भुगतान के बीच का सम्बन्ध है, जिसमें दोनों को वास्तविक मूल्य के अनुसार मापा गया हो। जहाँ तक श्रम अनुबन्ध के “मुक्त” होने की बात है, तो मज़दूर को जो मिलता है उसका निर्धारण उसके द्वारा पैदा की गई वस्तुओं के वास्तविक मूल्य से नहीं किया जाता है, बल्कि उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं और नौकरी के लिए आपस में होड़ कर रहे मज़दूरों की संख्या के सम्बन्ध में श्रम शक्ति के लिए पूँजीपति की आवश्यकता द्वारा किया जाता है। यह बात समझनी महत्वपूर्ण है कि सिद्धान्त में भी मज़दूर का भुगतान उसके उत्पाद की क़ीमत से निर्धारित नहीं किया जाता है।
निजी पूँजी कुछ हाथों में केन्द्रित होने की प्रवृत्ति रखती है, कुछ तो पूँजीपतियों के बीच होड़ के कारण, और कुछ इसलिए कि तकनीकी विकास और बढ़ता श्रम विभाजन छोटी इकाइयों की क़ीमत पर उत्पादन की बड़ी इकाइयों के गठन को प्रोत्साहित करता है। इस विकासक्रम का परिणाम निजी पूँजी वाले मुट्ठीभर लोगों का शासन होता है जिसकी भारी शक्ति को एक लोकतांत्रिक ढंग से संगठित राजनीतिक समाज द्वारा भी प्रभावी ढंग से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। यह सच है क्योंकि विधायी निकायों के सदस्यों का चयन राजनीतिक दलों द्वारा किया जाता है, जो उन निजी पूँजीपतियों द्वारा काफ़ी हद तक वित्तपोषित या दूसरे रूपों में प्रभावित होते हैं, जो वास्तव में, विधायिका से मतदाताओं को अलग कर देते हैं। परिणाम यह होता है कि जनता के प्रतिनिधि वास्तव में आबादी के वंचित वर्गों के हितों की पर्याप्त रूप से रक्षा नहीं करते हैं। इसके अलावा, मौजूदा परिस्थितियों में, निजी पूँजीपति अनिवार्य रूप से, सीधे या परोक्ष तौर पर, सूचना के मुख्य स्रोतों (प्रेस, रेडियो, शिक्षा) को नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार अलग-अलग नागरिकों के लिए वस्तुगत निष्कर्ष निकालना और अपने राजनीतिक अधिकारों का समझदारी के साथ उपयोग करना बहुत मुश्किल, और ज़्यादातर मामलों में बिल्कुल असम्भव होता है।
इस प्रकार, पूँजी के निजी स्वामित्व पर आधारित अर्थव्यवस्था में मौजूद स्थिति की विशेषता दो मुख्य सिद्धान्तों के रूप में सामने आती हैः पहला, उत्पादन (पूँजी) के साधनों पर निजी मालिकाना होता है और उनके मालिक उनको अपनी मर्ज़ी के अनुसार इस्तेमाल करते हैं; दूसरा, श्रम अनुबन्ध स्वतन्त्र होता है। बेशक, इस अर्थ में एक शुद्ध पूँजीवादी समाज जैसी कोई चीज नहीं होती। विशेष रूप से, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि मज़दूरों ने, लम्बे और तीखे राजनीतिक संघर्ष के माध्यम से, मज़दूरों की कुछ श्रेणियों के लिए “मुक्त श्रम अनुबन्ध” में कुछ सुधार हासिल करने में सफलता पायी है। लेकिन कुल मिला कर वर्तमान आज की अर्थव्यवस्था “शुद्ध” पूँजीवाद से ज़्यादा अलग नहीं है।
उत्पादन लाभ के लिए किया जाता है, उपयोग के लिए नहीं। कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि काम करने में सक्षम और काम करने की चाहत रखने वाले सभी लोग हमेशा रोज़गार पाने की स्थिति में होंगे; “बेरोज़गारों की सेना” लगभग हमेशा मौजूद होती है। मज़दूर लगातार अपनी नौकरी खोने के डर में होते हैं। चूँकि बेरोज़गार और कम मज़दूरी पाने वाले मज़दूर एक लाभदायक बाज़ार प्रदान नहीं करते हैं, इसलिए उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन सीमित हो जाता है, और इसका परिणाम भारी मुश्किलों के रूप में सामने आता है।
तकनीकी प्रगति का परिणाम सभी लोगों के काम के बोझ को हल्का करने के बजाय अक्सर और ज़्यादा बेरोज़गारी पैदा करना होता है। मुनाफ़े की चाह और पूँजीपतियों के बीच होड़ के परिणामस्वरूप पूँजी के संचय और उसके उपयोग में अस्थिरता पैदा होती है जो उत्तरोत्तर और गहरी मन्दियों की ओर ले जाती है। असीमित होड़ श्रम की बहुत अधिक बर्बादी, और व्यक्तियों की सामाजिक चेतना के अपंग होने का कारण बनती है जिसका मैंने पहले उल्लेख किया है।
व्यक्तियों की यह अपंगता मेरे विचार में पूँजीवाद की सबसे बड़ी बुराई है। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था इस बुराई से ग्रस्त है। विद्यार्थियों के मन में अतिरेक की हद तक प्रतियोगिता की सोच बैठा दी जाती है, जिन्हें अपने भविष्य के करियर की तैयारी के रूप में लालचभरी सफलता की पूजा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
मैं आश्वस्त हूँ कि इन गम्भीर बुराइयों को खत्म करने के लिए सिर्फ़ एक ही रास्ता है, और वह है एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना, जिसके साथ सामाजिक लक्ष्यों को समर्पित एक शिक्षा व्यवस्था हो। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में, उत्पादन के साधन का स्वामित्व स्वयं समाज के हाथों में होता है और उनका योजनाबद्ध तरीक़े से उपयोग किया जाता है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, जो उत्पादन को समुदाय की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजित करती है, किये जाने वाले काम को काम करने में सक्षम सभी लोगों के बीच बाँट देगी और प्रत्येक पुरुष, स्त्री और बच्चे को आजीविका की गारण्टी देगी। व्यक्ति की शिक्षा, उसकी ख़ुद की जन्मजात क्षमता को बढ़ाने के अलावा, उसके भीतर, हमारे वर्तमान समाज में शक्ति और सफलता की स्तुति के बजाय अपने साथी मनुष्यों के प्रति जिम्मेदारी की भावना विकसित करने का प्रयास करेगी।
फिर भी, यह याद करना आवश्यक है कि एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था अपनेआप में समाजवाद नहीं है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था में व्यक्ति की पूरी दासता हो सकती है। समाजवाद क़ायम करने के लिए कुछ बेहद मुश्किल सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के समाधान की आवश्यकता है। राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के ज़बर्दस्त केन्द्रीकरण को देखते हुए, नौकरशाही को सर्वशक्तिमान और निरंकुश बनने से रोकना कैसे सम्भव है? व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा कैसे की जा सकती है और उसके साथ नौकरशाही की शक्ति के एक लोकतांत्रिक तोड़ को सुनिश्चित कैसे किया जा सकता है?
समाजवाद के लक्ष्यों और समस्याओं के बारे में स्पष्टता संक्रमण से गुज़र रहे हमारे युग में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। चूँकि, वर्तमान परिस्थितियों में, इन समस्याओं पर मुक्त और निर्बाध चर्चा एक शक्तिशाली निषेध के दायरे में आ गयी है, इसलिए मेरे विचार में इस पत्रिका की स्थापना एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवा है।
(प्रसिद्ध मार्क्सवादी विद्वानों लियो ह्यूबरमैन और पॉल स्वीज़ी द्वारा शुरू की गयी पत्रिका ‘मन्थली रिव्यू‘ के मई 1949 में निकलने वाले पहले अंक के लिए आइंस्टीन ने यह लेख लिखा था।)
मज़दूर बिगुल, मार्च 2018
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