करावलनगर में इलाक़ाई मज़दूर यूनियन की पहली सफल हड़ताल
बिगुल संवाददाता
दिल्ली के करावलनगर इलाक़े में पेपर प्लेट मज़दूरों ने इलाक़ाई यूनियन ‘करावलनगर मज़दूर यूनियन’ के बैनर तले 11 दिन की हड़ताल में जीत हासिल की। इन पेपर प्लेट फ़ैक्टरियों में पीस रेट पर कागज़ की अलग-अलग क़िस्म की प्लेटें बनती हैं। 5 सितम्बर से 16 सितम्बर 2011 तक चली इस हड़ताल की ख़ासियत यह थी कि पेपर प्लेट बनाने वाली जिन वर्कशापों में हड़ताल हुई उसमें कुल मिलाकर मात्र सौ-सवा सौ मज़दूर काम करते थे, लेकिन अन्य पेशों में काम करने वाले तमाम मज़दूरों के एकजुट होकर संघर्ष करने से 11 दिनों बाद सभी कारख़ाना मालिकों को घुटने टेकने पड़े और सभी माँगों को मानना पड़ा।
पिछले वर्ष ही ‘करावलनगर मज़दूर यूनियन’ के रूप में इस क्षेत्र के मज़दूरों की इलाक़ाई यूनियन का गठन हुआ था। इसके कुछ समय बाद ही पेपर प्लेट कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों ने यूनियन से सम्पर्क स्थापित कर अपने पेशे के भयंकर हालात के बारे में यूनियन को बताया। इन मज़दूरों ने यूनियन की सदस्यता ली और फिर पेपर प्लेट उद्योग के अन्य मज़दूरों को यूनियन से जोड़ा। इसके बाद, पेपर प्लेट कारख़ानों के हालात पर पर्चे निकालकर सभी मज़दूरों में बाँटे गये। अगस्त के आख़िरी सप्ताह से हड़ताल की तैयारी शुरू की गयी और 5 सितम्बर से हड़ताल शुरू हो गयी।
यूनियन ने एक-एक करके सातों फ़ैक्टरियों पर जाकर काम बन्द कराया। अगले सात-आठ दिनों तक कारख़ाना मालिक पुलिस और इलाक़े के दबंगों की मदद से हड़ताल को तोड़ने की तमाम कोशिशें करते रहे, लेकिन असफल रहे। हड़ताल लागू करवाने के दौरान कई बार झड़पें भी हुईं लेकिन काम बन्दी को सौ प्रतिशत तक पहुँचाने में मज़दूरों के पिकेटिंग दस्ते सफल रहे। आठवें दिन आते-आते कई कारख़ानों के मालिकों ने हथियार डाल दिये और वहाँ हड़ताल समाप्त हो गयी और काम शुरू हो गया। 11 दिन पूरे होते-होते सभी मालिक समझौते के लिए तैयार हो गये और मज़दूरों की सभी माँगें मान ली गयीं। लेकिन हड़ताल के दौरान हुई मारपीट को मुद्दा बनाकर एक मालिक ने यूनियन के कार्यकर्ताओं और मज़दूरों पर एक फ़र्ज़ी मुकदमा दायर कर दिया। इसका तात्कालिक कारण यह था कि हड़ताल के समापन के बाद ‘करावलनगर मज़दूर यूनियन’ के नेतृत्व में क़रीब 500 मज़दूरों ने ‘मज़दूर शक्ति रैली’ निकाली और अपनी विजय का जश्न मनाया। अगले ही दिन एक मालिक की शह पर पुलिस ने एक मज़दूर को मारपीट और छीना-झपटी के झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया। उन्हें छुड़ाने गये यूनियन के दो कार्यकर्ताओं सनी और प्रेमप्रकाश को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद मज़दूरों ने अपने गिरफ्तार साथियों की जमानत करायी लेकिन फ़र्ज़ी मुकदमे की कार्रवाई अभी जारी है।
इस हड़ताल की सबसे ख़ास बात यह थी कि हालाँकि यह बड़े पैमाने पर नहीं थी, लेकिन इसमें जिस पेशे और कारख़ानों के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, उससे ज़्यादा संख्या में अन्य पेशों के मज़दूरों ने भागीदारी की। अगर अन्य पेशों के मज़दूर भागीदारी न करते तो अकेले पेपर प्लेट मज़दूरों की लड़ाई का सफल होना मुश्क़िल हो सकता था। इलाक़ाई मज़दूर यूनियन बनने के बाद यह पहला प्रयोग था जिसमें मज़दूरों की इलाक़ाई एकजुटता के आधार पर एक हड़ताल जीती गयी। आज जब पूरे देश में ही बड़े कारख़ानों को छोटे कारख़ानों में तोड़ा जा रहा है, मज़दूरों को काम करने की जगह पर बिखराया जा रहा है, तो कारख़ाना-आधारित संघर्षों का सफल हो पाना मुश्क़िल होता जा रहा है। ऐसे में, ‘बिगुल’ पहले भी मज़दूरों की इलाक़ाई और पेशागत एकता के बारे में बार-बार लिखता रहा है। यह ऐसी ही एक हड़ताल थी जिसमें एक इलाक़े के मज़दूरों ने पेशे और कारख़ाने के भेद भुलाकर एक पेशे के कारख़ाना मालिकों के ख़िलाफ़ एकजुटता क़ायम की और हड़ताल को सफल बनाया।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2012
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