झारखण्ड में भूख से बच्ची की मौत
पूँजीवादी ढाँचे द्वारा की गयी एक और निर्मम हत्या

पराग वर्मा

पिछले माह झारखण्ड के सिमडेगा में 11 साल की सन्तोषी कुमारी की भूख से तड़प-तड़प कर मौत हो गयी। आधार कार्ड से लिंक न करवा पाने के कारण उस परिवार का राशन कार्ड निरस्त कर दिया गया था और उसे जुलाई से राशन नहीं मिला था। उसके परिवार वाले कहते हैं कि उनकी बेटी ने पिछले आठ दिनों से कुछ नहीं खाया था और उसकी मौत ग़रीबी व भूख के कारण हुई है। सन्तोषी की माँ कोयली देवी ने कहा कि “मेरी बेटी भात-भात कहते हुए मर गयी”। स्कूल बन्द होने की वजह से मिड-डे मील का भी विकल्प नहीं था। दूसरी तरफ़ प्रसाशन के आला अधिकारी सन्तोषी की मौत का कारण मलेरिया बताते हैं। कई बरस से लोग भूख से मर रहे हैं, लेकिन सरकार हमेशा मृत्यु का दोष पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार पर मढ़ देती है और इस बात से साफ़ इंकार करती है कि इस देश में किसी की मौत भूख के चलते भी होती है। झारखण्ड के मुख्यमन्त्री ने ग़रीब की भूख से मौत की क़ीमत पचास हज़ार आँकी है और पीड़ित परिवार को 50 हज़ार की सहायता देने का निर्देश दिया है। इसी प्रकार कुछ दिन पहले झारखण्ड के ही धनबाद में 40 साल के वैद्यनाथ दास की भूख और आर्थिक तंगी के कारण मौत हो गयी। वैद्यनाथ 30 रुपये रोज़ पर भाड़े पर रिक्शा चलाता था। बताया जाता है कि वैद्यनाथ के परिवार के पास खाद्य सुरक्षा के अन्तर्गत राशन कार्ड तक नहीं था। अख़बारों में हम इसी तरह की अन्य ख़बरें अक़सर पढ़ते हैं जिसमें किसी अज्ञात व्यक्ति का शव बरामद हुआ होता है, जो दो दिन से भूखा था या ग़रीबी के चलते किसी ने फाँसी लगा ली होती है या भूख से मजबूर औरत कचड़े से खाना बटोरती पायी जाती है। लोग इस तरह इन ख़बरों के आदि हैं कि कुछ लोग तो अगले ही क्षण इनको भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल दया और करुणा की भावना से मानवीय संवेदना व्यक्त कर देते हैं। परन्तु इन घटनाओं को केवल एक मानवतावादी दृष्टिकोण से देखना भी इन भुखमरी से पीड़ितों के साथ अन्याय है, क्यूँकि यह दृष्टिकोण भुखमरी की जड़ों पर प्रहार नहीं करता है।

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य का कार्टून, ‘द हिन्दू’ से साभार

आज दुनिया-भर में मेहनतकश आबादी की भोजन और स्वच्छ पानी जैसी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। जहाँ कुछ देश दिवालिया होने की क़गार पर पहुँच चुके हैं, वहीं कुछ भोजन और पानी के लिए तरस रहे हैं। कुछ विकसित देश भी हैं जो अपनी ऐतिहासिक साम्राज्यवादी लूट की धरोहर होने के कारण तुलनात्मक रूप से सम्पन्न हैं, परन्तु इसके बावजूद आज ये देश भी लम्बे मन्दी के दौर से गुज़र रहे हैं और ग़रीब मज़दूरों के लिए बेरोज़गारी और अस्थिरता की स्थिति वहाँ भी मौजूद है। उल्लेखनीय है कि इस समय दुनियाभर में डेढ़ अरब ऐसे लोग हैं, जिन्हें दो वक़्त की रोटी तक नहीं मिल पाती है और प्रतिदिन 24 हज़ार लोग किसी जानलेवा बीमारी से नहीं, बल्कि भूख से मरते हैं। इस संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत के हिस्से में आता है। भूख से मरने वाले इन 24 हज़ार में से 18 हज़ार बच्चे हैं। और इन 18 हज़ार का एक तिहाई यानी 6 हज़ार बच्चे भारतीय हैं। यह सब ऐसे समय हो रहा है, जब इन सभी देशों में खाद्यान्नों के अतिरिक्त भण्डार भी भरे पड़े हैं। हरित क्रान्ति के बाद भारत में भी अनाज का उत्पादन तेज़ी से बढ़ा जिसकी वजह से किसानों से अनाज ख़रीदकर सरकार खाद्य निगम के गोदाम भरती है और इस अत्याधिक अनाज को सुरक्षित रखने के लिए भी काफ़ी पैसे ख़र्च करती है। कई बार तो ये अनाज गोदाम में रखे-रखे सड़ा दिया जाता है, ताकि शराब के व्यवसायियों को बेचकर पैसा कमाया जा सके। अन्य विकासशील देशों की तरह भारत में भी भुखमरी कुपोषण का ही गम्भीरतम रूप है। कुपोषण पर किये शोध प्रदर्शित करते हैं कि प्रति व्यक्ति पोषक तत्वों की खपत गिर रही है। भारत में आज भी अधिकांश ग़रीबों के लिए बहुत आवश्यक खाद्यान्न की उपलब्धता तक नहीं होती है और अमीर और ग़रीब के बीच असमानताओं की खाई हर दिन बढ़ती ही जा रही है। आज के युग में जब विज्ञान और तकनीक के कारण सूचना, संचार और परिवहन व्यवस्था ने इतनी तरक़्की कर ली है कि सभी नागरिक सेवाओं के अच्छे इन्तज़ाम किये जा सकते हैं तब भी यदि कोई व्यक्ति कई दिनों तक न खाने की वजह से मर जाता है तो यह इस व्यवस्था के रहनुमाओं के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है। इसका कारण साफ़ है, जीवित रहने के ज़रूरी संसाधनों पर जिस वर्ग का एकाधिकार है वह इन संसाधनों का इस्तेमाल केवल अपने मुनाफ़े को ध्यान में रखके करता है।

भुखमरी निश्चित रूप से ग़रीबी से जुड़ी हुई समस्या है। विश्व साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के द्वारा किया जाने वाला तथाकथित विकास ही भुखमरी की जड़ है। पूँजीवाद में कुछ लोगों द्वारा प्राकृतिक सम्पदा और उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार है और मुनाफ़े पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें मुट्ठी-भर मालिकों द्वारा अधिकांश लोगों के श्रम का क्रूर शोषण होता है। पूँजीवाद में आर्थिक संकट में फँसे पूँजीपति बैंक को बचाने के लिए अधिक धन धड़ल्ले से बाँटा जाता है, लेकिन समाज को कुपोषण, बीमारी और भुखमरी से आज़ाद करने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया जाता। इस व्यवस्था में चिकित्सा और शिक्षा पर ख़र्च करने की जगह युद्ध और हथियारों में निवेश को ज़्यादा अहमियत दी जाती है। इस प्रक्रिया में कुछ के हाथों में जहाँ धन केन्द्रित होता है, वहीं अधिकांश आबादी कंगाल होती जाती है।

शक्तिशाली लोगों की विलासिता और भोजन की बर्बादी के बीच में, दुनिया की अधिकांश जनसंख्या भोजन, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी संसाधनों की कमी से जूझती रहती है। एक पूँजीवादी समाज में, भोजन के उत्पादन के पीछे का उद्देश्य लोगों का पेट भरना नहीं होता है और स्वास्थ्य सेवाएँ मुख्य रूप से लोगों को स्वस्थ रखने के लिए नहीं प्रदान की जाती हैं। ये चीज़ें जिन्हें मूल अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए, पूँजीवाद में माल के सिवाय और कुछ भी नहीं हैं जिसे बेचकर मुनाफ़ा कमाया जा सकता है। यदि कोई मुनाफ़ा नहीं बनाया जा सकता है तो आमतौर पर अधिक उत्पादन के कारण, तो उस वस्तु को पूँजीपतियों द्वारा बेकार माना जाता है और नष्ट कर दिया जाता है। इसलिए हम देखते हैं कि अत्यधिक भोजन गोदामों में रखा हुआ सड़ जाता है, पर ग़रीबो तक नहीं पहुँचता क्यूँकि वहाँ पहुँचने में उसे मुनाफ़ा नहीं है। भुखमरी से सम्बन्धित ज़्यादातर रिपोर्ट भी केवल यहीं तक सीमित रहती हैं कि खाद्य सामग्री की बर्बादी को सही तकनीक और बेहतर प्रभावशाली कार्यविधियों द्वारा इस हद तक सही किया जा सकता है कि खाद्यान्न की बचत होगी और उससे भुखमरी का ख़ात्मा हो जायेगा। पर वे इस सच्चाई पर मौन रहती हैं कि तमाम तकनीकी विकास के बावजूद खाद्य सामग्री ग़रीबो तक इसलिए नहीं पहुँचती है, क्योंकि इस व्यवस्था में उसके लिए कोई भौतिक इनाम नहीं है। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में उत्पादन ज़्यादा करने की होड़ रहती है, लेकिन चूँकि बहुसंख्यक आबादी की क्रयशक्ति लगातार कम होती जाती है इसलिए भुखमरी जैसी समस्याएँ बरकरार रहती हैं।

अक़सर यह बताया जाता है कि भुखमरी का कारण खाद्यान्न की कमी है, पर यह एक मिथक है। सच तो यह है कि विश्व में इतना भोजन का उत्पादन होता है कि सभी का पेट भरना सम्भव है। एक ओर सुपरमार्केट की अलमारियों में रंग’बिरंगे ि‍डब्बों में खान-पान की सामग्री स्टॉक करके रखी हुई है, वहीं दूसरी ओर विश्व-भर में रोज़ 1.6 करोड़ बच्चे और 3.3 करोड़ वयस्क भूखे सोते हैं। पूँजीवादी मुनाफ़े की होड़ के कारण भोजन की क़ीमतें मज़दूरों और मेहनतकशों की पहुँच से अधिक होती हैं और हमेशा बढ़ती जाती हैं। आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण दुनिया की काम करने वाली आबादी का एक छोटा हिस्सा भी अगर खेतों में काम करे तो दुनिया-भर की आबादी का पेट भरने में सक्षम है परन्तु आधुनिक खाद्य उत्पादन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मुनाफ़े के अधीन काम कर रहे हैं। इसका ही दूसरा पहलू यह है कि अरबों ग़रीब किसान पुराने तरीक़ों से काम करते हुए अपनी क्षमताओं को बर्बाद करते हैं।

2007-08 से जारी पूँजीवादी आर्थिक संकट ने पूरे विश्व में लाखों लोगों के स्वास्थ्य और जीवन को प्रभावित किया है। बहुत से लोगों के रोज़गार छिन गये हैं, जिनके हैं उन्हें नौकरी खोने का डर बना हुआ है। श्रमिकों के घरों में उनके परिवारों के लिए पर्याप्त भोजन ख़रीदना कठिन होता जा रहा है और कई लोग अन्य सुविधाओं में कटौती कर रहे हैं ताकि उनके बच्चे खा सकें। कॉरपोरेट खाद्य उद्योग से निकला पौष्टिक भोजन बहुत कम आय वाले परिवारों की पहुँच से दूर होता है। चूँकि पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन को चलाने के लिए श्रम लगता है जिसके लिए मज़दूर भी ज़रूरी होते हैं और इसलिए इस व्यवस्था में ही एक सस्ता और घटिया भोजन भी पैदा होता है जिसे सरकारी खाद्य कार्यक्रमों द्वारा या कम मुनाफ़े पर श्रमिकों को उपलब्ध कराया जाता है। यदि मज़दूर एकदम कुछ नहीं खायेगा तो भी पूँजीपतियों को घाटा होता है, क्यूँकि फिर उनकी फै़क्टरियों में काम कौन करेगा।

पूँजीवादी विकास के कारण भारत में कृषि उत्पादन एक संकट के दौर में है और ग्रामीण आबादी का एक बड़े हिस्सा कृषि से दूर होकर आज अप्रवासी श्रमिक के रूप में शहरों की तरफ़ अग्रसर हो रहा है जहाँ वह प्राय: अनौपचारिक क्षेत्र में मज़दूरी करता है। कृषि उत्पादों के भारी मात्रा में निर्यात और कृषि क्षेत्र में एफ़डीआई को बढ़ावा देने से मँझौले और छोटे किसान ख़ुद की जीविका साधने लायक भी नहीं पैदा कर पाते। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में ऐसे कई किसान क़र्ज़ के बोझ के कारण आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थितियाँ लोगों को लम्बे समय तक भुखमरी अवधि में रहने के लिए मजबूर करती हैं।

वैश्विक ग़रीबी उन्मूलन के लिए जो नुस्खा विश्व पूँजीवाद के नेता और इस व्यवस्था के पैरोकार बुद्धिजीवी देते हैं, वह लोगों को गुमराह करता है। वे निरंकुश पूँजीवाद को थोड़ा मानवीय बनाने के लिए खैरात की किस्म-किस्म की तिकड़में सुझाते हैं। सच्चाई तो यह है कि यह समस्या पूँजीवाद के ढॉंचे में निहित है। मुनाफ़ा-केन्द्रित ढाँचे के भीतर ग़रीबी अथवा भुखमरी उन्मूलन असम्भव है क्यूँकि यह ढाँचा ही इसको जन्म देता है। भुखमरी की समस्या का ख़ात्मा भी उत्पादन व्यवस्था को मुनाफ़े की अधीनता से मुक्त करके और सभी की ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य पर टिकी व्यवस्था में ही सम्भव हो सकता है।  केवल ऐसी व्यवस्था ही कृषि विज्ञान में हुई प्रगति का इस्तेमाल सभी के लिए प्रचुर, पौष्टिक और सुरक्षित भोजन का उत्पादन करने में कर सकती है।

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments