अफ्रीका में ‘आतंकवाद के ख़ि‍लाफ़ युद्ध’ की आड़ में प्राकृतिक ख़ज़ानों को
हड़पने की साम्राज्यवादी मुहिम

 डॉ. सुखदेव हुन्दल

अफ्रीका महाद्वीप के कई देशों में अकाल और भुखमरी की हालत बनी हुई है। सूडान में अकाल से होने वाली मौतों की दिल कँपाने वाली खबरें टेलीविज़न पर आ रही हैं। सूडान, सोमालिया, इथोपिया और मलावी सहित लगभग सारे ही उप-सहारा क्षेत्र में साधारण जनता के लिए भुखमरी की हालत बनी हुई है। इस क्षेत्र का प्राकृतिक दौलत से भरपूर होना ही यहाँ के ग़रीब लोगों के लिए सज़ा बन गया है। विश्व पूँजीवाद के राक्षस के हाथ हर उस जगह तक पहुँच जाते है जहाँ भी इन्हें मुनाफ़े की सम्भावना नज़र आती है। लाखों करोड़ों की संख्या में मेहनतकश जनता को मौत के मुँह में धकेल कर ऐतिहासिक तौर पर मरने के करीब पहुँची पूँजीवादी व्यवस्था को जीवित रखने का इन्‍तज़ाम किया जाता है।
अलजज़ीरा चैनल की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी खुफ़ि‍या एजेंसी सी.आई.ए. की फैक्टबुक में नोट किया गया है कि-
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में अफ्रीका विश्व का सबसे तेज़ी से विकास करने वाला क्षेत्र है।
2036 तक, अफ्रीकी तेल और गैस में लगभग 20 खरब डॉलर के निवेश की सम्भावनाएँ हैं।
2050 तक अफ्रीका महाद्वीप की आबादी दोगुनी (2 अरब 30 करोड़ से अधिक) हो जायेगी।
विश्व के बचे हुए खनिज पदार्थों के लगभग 30 फीसदी स्त्रोत अफ्रीका में हैं।
एक और रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे तेज़ विकास कर रही 10 अर्थव्यवस्थाओं में से 6 अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में आती हैं। तेल और गैस के विशाल भण्डारों के अलावा, परमाणु खनिज, कोल्टन, तांबे और सोने जैसी धातुओं के विशाल भण्डारों से भी यह अभागी धरती मालामाल है।
पूँजीवाद के उभार के दौर में इस महाद्वीप की भोली-भाली मेहनतकश जनता को ग़ुलाम बना कर पशुओं की तरह समुद्री जहाज़ों में लाद कर यूरोप और अमेरिका की मण्डियों में बेचा जाता था। अमेरिकी इतिहासकार एस.के. पैडोवर लिखते हैं कि मशीनरी और क्रेडिट आदि की तरह ही सीधी ग़ुलामी हमारे औद्योगीकरण की धुरी है। ग़ुलामी के बिना आपके पास कपास और कपास के बिना आपका आधुनिक उद्योग नहीं खड़ा हो सकता। ग़ुलामी व्‍यवस्‍था ने ही उपनिवेशों को सम्‍भव बनाया, और उपनिवेशों ने जिन्होंने विश्व व्यापार को जन्म दिया। विश्व व्यापार बड़े स्तर के मशीनी उद्योग की ज़रूरत है। मज़दूर वर्ग के शिक्षक कार्ल मार्क्स ने भी, अफ्रीका की मेहनतकश जनता को ग़ुलाम बनाकर, पूँजीवादी उद्योग में, स्थिर मानवीय पूँजी के तौर पर उपयोग करने का अमानवीय कारनामों का ज़िक्र किया है। उन्होंने अमेरिकी गृह युद्ध के समय अमेरिका के मज़दूर वर्ग को अपने सबसे नज़दीकी साथी ग़ुलाम मज़दूरों की मुक्ति के लिए लड़ने का आह्वान किया था। अपने जन्म के समय से ही सिर से पैरों तक खून से लथपथ पूँजीवाद का इतिहास अपने इस अन्तिम दौर में और भी बदहवास और खूँखार हो गया है। साम्राज्यवादी पूँजी के इस दौर में इसके दिल की धड़कन को चलता रखने के लिए अनिवार्य शर्त है कि इसके लिए दुनियाभर के मेहनतकशों के खून की सप्लाई बनी रहे। दूसरी ओर, पूँजीवादी व्यवस्था के संचालक अपने अमानवीय, हिंसक और निर्मम कारनामों को हमेशा ही बड़े साफ सुथरे पवित्र और जनकल्याण के कार्यों के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। उपनिवेशिक दौर में उनका नारा था कि वे असभ्य राष्ट्रों और जातियों को सभ्य बनाने के पवित्र मिशन के तहत उन्हें ग़ुलाम बना रहे हैं। जबकि असली मकसद कच्चे माल और सस्ते श्रम की लूट थी और साथ ही अपना तैयार माल बेचने के लिए बाजारों की खोज थी।
1917 की महान अक्तूबर क्रान्ति से विश्व में, मज़दूर वर्ग के किले के रूप में समाजवादी पक्ष अस्तित्व में आ गया। दुनिया में से कम्युनिज़्म को बढ़ने से रोकने और उसे खत्म करने का “पवित्र” मिशन विश्व पूँजीवाद का नया नारा बन गया। साम्राज्यवादी प्रचार माध्यम, समाजवाद के विरुद्ध कुत्सा प्रचार पर करोड़ों डॉलर खर्च करने लग गये। समाजवादी देशों और कम्युनिज़्म के बढ़ते असर को ख़तरे के रूप में पेश किया जाता था। पूँजीवादी देशों में उन देशों के मज़दूरों और मेहनतकश जनता को गुमराह करने के लिए बड़े स्तर पर प्रचार किया जाता था। अमेरिका में बदनाम ‘मैकार्थी’ के दौर में समाजवाद के समर्थक बुद्धिजीवियों पर बड़े स्तर पर ज़ुल्म किये गये।
1956 तक समाजवादी सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी। इस दौर में साम्राज्यवादी देशों की कलह कई रूपों में चलती रही। सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद और अमेरिका के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी गुट की टक्कर के इस दौर को शीत युद्ध के दौर के तौर पर जाना जाता है। साम्राज्यवाद ने दुनिया भर में अपने दबाव को कायम रखने के लिए साज़ि‍शाना गतिविधियों की सारी हदें पार कर दीं। अमेरिका के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी गुट ने सी.आई.ए. जैसी खुफ़ि‍या एजेंसियों को सक्रिय करके नये आज़ाद हुए देशों में कठपुतली हुकूमतें कायम करने, सत्ता परिवर्तन और कत्लों के सिलसिले को चलाते हुए, दुनिया भर में बेहद प्रतिक्रान्तिकारी और कट्टरपंथी ताक़तों को हवा दी। वर्तमान समय में, विश्व के भिन्न-भिन्न हिस्सों में सक्रिय धार्मिक कट्टरपंथी आतंकी टोलियों को खड़ा करने में इस दौर में दिये गये साम्राज्यवादियों के सैन्य प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हालाँकि, हर क्षेत्र में आतंक के पैदा होने के बुनियादी कारण, वहाँ की भीतरी परिस्थितियों पर भी निर्भर होते हैं। अरब देशों के तेल भण्डारों को हड़पने के लिए और अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत-परस्त गुट की हुकूमत को ख़त्म करने के मकसद से, अमेरिका ने, तालिबान और अल-कायदा जैसे आतंकी गिरोहों को हथियार, प्रशिक्षण और तमाम तरह की वित्तीय सहायता देकर मज़बूत किया।
बीसवीं सदी के अन्त तक आते-आते बहुत कुछ बदल गया। पहली बड़ी महामन्दी के बाद, पूँजीवादी व्यवस्था के लिए ऐतिहासिक राहत के रूप में सामने आया कीन्ज़ के कल्याणकारी राज्य वाला नुस्खा बेअसर होने लगा। इसकी सारी सम्भावनाएँ चुक गयी थीं। दूसरी ओर 1976 में माओ माओ त्से-तुंग की मौत के बाद मज़दूर वर्ग का आखिरी किला चीन भी पूँजीपतियों के हाथों में आ चुका था। 1992 तक, तथाकथित समाजवादी गुट जो वास्तव में, सोवियत संघ के नेतृत्व में सामाजिक साम्राज्यवादी गुट था वो भी मुक्त बाज़ार की राह चल चुका था। 21वीं सदी के शुरु से ही विश्वीकरण के दौर की विश्व अर्थव्यवस्था न हल होने वाले पूँजीवादी संकट के दौर में दाखिल हो गई। अब विश्व पूँजीवाद के दुनिया के कल्याण के पुराने नारों की पोल पूरी तरह खुल चुकी थी।
दूसरी ओर संकट इतना गम्भीर होता जा रहा था कि मेहनतकश जनता के श्रम की नंगी-सफेद लूट और दुनिया भर के प्राकृतिक स्रोतों पर कब्ज़ा, पूँजीवादी व्यवस्था को जीवित रखने के लिए अनिवार्य शर्त बन गया था। लेकिन हुक्मरान वर्ग तो हमेशा “जनकल्याण” और “मानवीयता की सेवा” करने के ऊँचे आसन पर विराजमान रहते हैं। हमेशा की तरह ही एक नया मुखौटा पहन लिया ताकि अपने कुकर्मों और खूनी चेहरे को छिपाया जा सके। इस बार मानवीय नज़र आने वाले इस मुखौटे पर लिखा है ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध’। आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के “पवित्र” कार्य के नारे तले विश्व स्तर पर धर्म, जाति और राष्ट्र आदि के नामों की पहचान आदि को हवा देकर अन्ध-राष्ट्रवाद और फासीवाद का उन्माद फैलाया जा रहा है। एशिया, लातिनी अमेरिका और अफ्रीका के पूँजीपति हुक्मरान वर्ग साम्राज्यवादी पूँजी के छोटे भागीदार बनने के लिए जोड़-तोड़ में व्यस्त हैं। इसका यह मतलब यह नहीं है कि पूँजीवादी विश्व में शत्रुताएँ खत्म हो गई हैं या बिल्कुल ढीली पड़ गई हैं। वास्तव में इस व्यवस्था में प्रत्येक एक दूसरे के दुश्मन हैं।
इस संदर्भ में सहारा क्षेत्र में, आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के छिपे मकसद को समझा जा सकता है। ऐसा लगता है कि यह क्षेत्र 21वीं सदी में प्राकृतिक स्त्रोतों के लिए होने वाले युद्ध का मुख्य अखाड़ा बन गया है। पीछे मुड़ कर देखें तो 1885 में, बर्लिन सम्मेलन में, ब्रिटेन, बेल्जि‍यम, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी, इटली और फ्रांस ने आपस में इस क्षेत्र का बँटवारा कर लिया था। फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों ने पश्चिमी और उत्तरी अफ्रीका में अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी। 20वीं सदी के मध्य में उपनिवेशवाद विरोधी मुक्ति जनान्दोलनों के उभार के समय में फ्रांस के हाथों से ज़्यादातर उपनिवेश छिन गये थे। लेकिन फिर भी उपनिवेशवादी दखलन्दाज़ी बन्द नहीं हुई। अपने पूर्व उपनिवेशों फौजी अड्डे स्थापित करके तथा कई और तरीकों से अफ्रीकी जनता और यहाँ के प्राकृतिक स्रोतों की लूट जारी रही। फ्रांस यूरोपीय हितों के रखवाले के तौर पर अफ्रीकी जनता का पुलि‍सिया बना हुआ था।
1960 में, गिनी की खाड़ी में तेल के विशाल भण्डारों का पता लगने पर शीत युद्ध के साम्राज्यवादी विश्व के सबसे बड़े सरगना अमेरिका को अफ्रीकी जनता के हितों की चिन्ता सताने लगी। अमेरिका ने इस क्षेत्र में आर्थिक और सैन्य निवेश बढ़ा दिया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, साम्राज्यवादी पूँजी के सैन्य और वित्तीय निकायों ने इन देशों में भयानक तबाही और कंगाली को जन्म दिया। जनता की बेचैनी और विद्रोह के कारण बड़े हिस्से में गृह युद्ध जैसे हालत बनते रहे। अकाल, भुखमरी और गृह युद्ध जैसी त्रासदियों से छुटकारा दिलाने के बहाने साम्राज्यवादी देश फिर मसीहा बन कर हाज़िर होते हैं। 1992 में मानवता के आधार पर अमेरिका ने, ‘हार्न ऑफ अफ्रीका’ में फौजी दखल दिया। सोमालिया के गृह युद्ध के खात्मे के बहाने 28,000 सैनिक इस देश में दाखिल हुए।
2001 में ‘विश्व व्यापार केन्द्र’ पर हमले के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों का घोषित मिशन आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध हो गया। इसी वर्ष अमेरिका की इस क्षेत्र में सैन्य अड्डे कायम करने की योजना ने रफ्तार पकड़ ली। इसने अपना पहला सैन्य अड्डा जिबूती में बनाया। अमेरिकी रक्षा विभाग ने दुनिया में अपने हथियारबन्द दस्तों की तैनाती और इसके संचालन के लिए, मिल्ट्री कमान के 6 बड़े विभाग बनाये हैं। अमेरिका के सुरक्षा हितों के नाम पर, दूसरे मुल्कों में, यह नंगी दखलन्दाज़ी है। वास्तव में यह विश्व पूँजी के हितों की पहरेदारी है। इनमें से ही एक है एफ्रीकोम है यानी कि अफ्रीकी कमान जो इस क्षेत्र के लगभग 53 देशों पर निगाह रखती है। भारी जन विरोध के डर से इसका मुख्यालय जर्मनी में है। इस क्षेत्र के ही एक और देश ‘माली’ से भी सी.आई.ए. की गतिविधियों को संचालित किया जाता है। अलजज़ीरा की एक रिपोर्ट के अनुसार, सी.आई.ए. के एक अधिकारी रुडोल्फ अतालाह (जो अफ्रीका में, अमेरिकन रक्षा विभाग के आतंकवाद विरोधी शाखा का डायरेक्टर है) का कहना है कि ‘साहेल’ का इलाका, हथियारों, विदेशी लड़ाकू हवाई जहाजों की गतिविधियाँ और जन अपराधों की घटनाओं पर निगाह रखने के लिए केन्द्रीय महत्व रखता है। ‘साहेल’ अर्ध-खुश्क मौसम वाला चरागाही इलाका है जिसके उत्तर की ओर सहारा रेगिस्तान और दक्षिण की ओर अधिक नमी वाली चरागाहों वाला सूडानी क्षेत्र है। इसे भूगौलिक तौर पर सूडानी क्षेत्र कहा जाता है, सूडान देश के अर्थ में नहीं । सैनेगल, मौरीतानिया, माली, बुरकीना फासो, अलजीरिया, नाईगर, नाइजीरिया, चैड, सूडान, इरीट्रिया, कैमरून, मध्‍य अफ्रीकी गणराज्य और इथोपिया इस क्षेत्र के देश हैं। अफ्रीकी देशों में, एक और मुख्य नेता, लीबिया के पूर्व राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी को, एफ्रीकोम के सैन्य और आर्थिक दखलन्दाज़ी के विरुद्ध खड़े होने के कारण, पूर्व अमेरिकन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने उसे ‘मध्य-पूर्व का पागल कुत्ता’ कहा था। 2011 के अरब विद्रोह के दौर में पैदा हुए हालात का लाभ उठाते हुए, एफ्रीकोम ने कर्नल गद्दाफी का तख्ता पलट करवा दिया। अफरा-तफरी के उस दौर में, क्रान्तिकारी विकल्प की गैरमौजूदगी के कारण, इस्लामिक कट्टरपंथियों के उभार से, उत्तरी माली में एक कट्टरपन्थी इस्लामिक राज्य अस्तित्व में आ गया। कुछ हफ्तों में ही, फ्रांसीसी फौजों की कार्रवाई से इस राज्य का खात्मा कर दिया गया। फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों ने, आतंकवाद से सामना करने के नाम पर, ‘माली’ के मुक्तिदाता के तौर पर अपनी पीठ थपथपाई। तेल और प्राकृतिक स्रोतों से भरपूर इस क्षेत्र की लूट के लिए अमेरिका और चीन सहित सारे साम्राज्यवाजी देशों के हित उनके एजेंडे पर आ गये हैं।
इन देशों में, ड्रोन बेस बनाने, फौज़ी अड्डे कायम करने और महाद्वीप के सैन्यकरण में लगातार वृद्धि के बाद, सैन्‍य-औद्योगिक गँठजोड़ के मुनाफों के अलावा, स्‍थानीय निजी ठेकेदारों के साथ गठजोड़ करके, करोड़ों लोगों की तबाही की कीमत पर विश्व पूँजीवाद अपने को बर्बादी से बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। तेल, गैस, और प्राकृतिक खनिजों के अलावा रेगिस्तानी रेत के नीचे मौजूद पानी को हड़पने की योजनाओं पर भी चर्चा हो रही है। 6 मई 2014 को बराक ओबामा ने जिबूती के राष्ट्रपति के साथ इस देश में सैन्य अड्डा स्थापित करने का समझौता किया। अल-कायदा, अल-शबाब और बोको-हरम जैसे आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई के नाम पर स्‍थानीय हुकूमतों द्वारा मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन नज़रअन्दाज़ किया ला रहा है। अफ्रीकी हुक्मरानों और साम्राज्यवादी हुक्मरानों के समझौते, बहुसंख्यक अफ्रीकी मेहनतकश जनता के हितों के विरुद्ध हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबन्दियाँ दिनों-दिन बढ़ रही हैं। इरीट्रिया के बाद इथोपिया, पत्रकारों की सबसे बड़ी जेल बन गया है।
अफ्रीका सहित दुनिया भर के मज़दूरों और मेहनतकश जनता को, बाहर से दिखती और प्रचारित की जाती घटनाओं की तह के नीचे सच्चाई को समझने की ज़रुरत है। सूडान, सोमालिया और यमन में फैली हिंसा, भुखमरी और अकाल की शिकार जनता के असल कातिलों को नंगा करने की ज़रुरत है। यह पूँजीवादी व्यवस्था, मुनाफे की बे-लगाम हवस (जो इसके ज़ि‍न्‍दा रहने की ज़रूरी शर्त है) के कारण किस हद तक गिर सकती है, सहारा का छिपा हुआ युद्ध इसका उदाहरण है।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2017


 

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