अर्थव्यवस्था चकाचक है तो लाखों इंजीनियर नौकरी से निकाले क्यों जा रहे हैं?
नरेन्द्र मोदी विकास के बड़े-बड़े दावे करते हुए सत्ता में आये थे। देश को ऐसी विकास यात्रा पर ले चलने के सपने दिखाये गये थे जिसमें करोड़ों रोज़गार पैदा होंगे। मगर पिछले 3 साल में गौरक्षक दलों, लम्पट वाहिनियों और स्वयंभू एंटी-रोमियो दस्तों आदि के अलावा नये रोज़गार कहीं पैदा होते नहीं दिख रहे हैं। उल्टे , आईटी जैसे जिन क्षेत्रों के लोग अपने को बहुत सुरक्षित और देश के बाकी अवाम से चार हाथ ऊपर समझते थे, उनके ऊपर भी गाज गिरनी शुरू हो गयी है।
पिछले कुछ महीनों में देश की सबसे बड़ी 7 आईटी कम्पनियों से हज़ारों इंजीनियरों और मैनेजरों को निकाला जा चुका है। प्रसिद्ध मैनेजमेंट कन्सल्टेंट कम्पनी मैकिन्सी की रिपोर्ट के अनुसार अगले 3 सालों में हर साल देश के 2 लाख साफ्टवेयर इंजीनियरों को नौकरी से निकाला जायेगा। यानी 3 साल में 6 लाख। ऐसा भी नहीं है कि केवल आईटी कम्पनियों से ही लोग निकाले जा रहे हैं। सबसे बड़ी इंजीनियरिंग कम्पनियों में से एक लार्सेन एंड टुब्रो (एल एंड टी) ने भी पिछले महीने एक झटके में अपने 14,000 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। ये तो बड़ी और नामचीन कम्पनियों की बात है, लेकिन छोटी-छोटी कम्पनियों से भी लोगों को निकाला जा रहा है। आईटी सेक्टर की कम्पनियों की विकास दर में भयंकर गिरावट है। जिन्होंने 20 प्रतिशत का लक्ष्य रखा था उनके लिए 10 प्रतिशत तक पहुँचना भी मुश्किल होता जा रहा है। अर्थव्यवस्था की मन्दी कम होने का नाम नहीं ले रही है और नये रोज़गार पैदा होने की दर पिछले एक दशक में सबसे कम पर पहुँच चुकी है।
इसका असर नये इंजीनियरों के लिए रोज़गार के अवसरों पर भी पड़ रहा है। कुछ साल पहले तक आईआईटी के छात्रों के लिए पढ़ाई पूरी होने से पहले ही लाखों की नौकरी पक्की हो जाती थी। मगर आज आईआईटी से निकलने वाले हर तीन में से एक इंजीनियर को ही तुरन्त काम मिल पा रहा है, बहुतों को तो महीनों खाली बैठे रहना पड़ रहा है। उनकी तनख्वाहें भी कम होती जा रही हैं। छोटे इंजीनियरिंग कालेजों और देशभर में थोक भाव से खुले प्राइवेट कालेजों से निकले इंजीनियरों के लिए तो बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या बन चुकी है। बहुतों को तो 15-16 हज़ार में छोटी कम्पनियों में खटना पड़ रहा है। थोक भाव से पैदा हुए एमबीए स्नातकों की हालत भी कुछ ऐसी ही है।
कहा जा रहा है कि ऑटोमेशन और नयी टेक्नोलॉजी आने से लोग बेरोज़गार हो रहे हैं। यह केवल पूँजीवाद में ही हो सकता है जहाँ कुशलता और तकनीक का हर नया विकास उन्हीं लोगों के लिए मुसीबत बन जाता है जिन्होंने उसे पैदा किया था। ऑटोमेशन और नयी तकनीकें बहुसंख्यक लोगों के लिए जीना आसान बनाने के बजाय कुछ लोगों के लिए मुनाफ़े बढ़ाने का और बहुसंख्यक लोगों के लिए बेरोज़गारी का सबब बन जाती हैं।
एक दिलचस्प बात यह है कि आईटी क्षेत्र के ये लोग जो पहले ट्रेड यूनियन का नाम सुनते ही गाली देते थे, अब उन्हें अपनी गर्दन पर तलवार पड़ने पर यूनियनों की याद आ रही है। जो लोग पहले बहस किया करते थे कि कम्पनियों को इस बात का पूरा अधिकार है कि वे अपने हिसाब से मज़दूरों को काम पर रखें और निकालें, और ‘परफ़ॉरमेंस’ ही नौकरी बने रहने का असली आधार होना चाहिए, वही लोग अब यूनियनों से सम्पर्क कर रहे हैं और खुद यूनियन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस पर यही कहा जा सकता है, ‘देर आये, दुरुस्त आये।’
मज़दूर बिगुल, मई 2017
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