रेलवे का किश्तों में और गुपचुप निजीकरण जारी
विजय प्रकाश सिंह
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र की भाजपा सरकार ने भारतीय रेल के निजीकरण का मन बना लिया है और क्रमिक ढंग से यह सिलसिला चालू भी कर दिया है। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगे जुड़वा शहर हबीबगंज का रेल स्टेशन म.प्र. की निजी कम्पनी बंसल पाथवे के हवाले कर दिया गया है। यह कम्पनी न सिर्फ़ इस स्टेशन का संचालन करेगी बल्कि रेलगाड़ियों के आवागमन का भी नियन्त्रण करेगी। जुलाई 2016 में कम्पनी के साथ किये गये क़रार के अन्तर्गत कम्पनी हवाई अड्डों के तर्ज पर रेलवे स्टेशन की इमारत का निर्माण करेगी और स्टेशन की पार्किंग, खान-पान सब उसके अधीन होगा और उससे होने वाली आमदनी भी उसकी होगी।
इस स्टेशन के निजीकरण से रेल विभाग को सालाना दो करोड़ रुपये के राजस्व का नुक़सान होगा। मगर रेल विभाग के इस क़दम को सरकार और उसका चाटुकार मीडिया विकास के प्रतीक के रूप में पेश करने की भरपूर कोशिश कर रहा है।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने नवम्बर 2016 में गुवाहाटी में पूर्वोत्तर राज्यों तक जाने वाली पहली ट्रेन को हरी झण्ड़ी दिखाकर उसका लोकार्पण करते हुए स्पष्ट रूप से इसका इशारा किया था। उन्होंने रेल स्टेशनों के निजीकरण की वकालत करते हुए कहा था कि शुरुआती चरण में 10-12 स्टेशनों का आधुनिकीकरण और व्यवसायीकरण किया जायेगा। इससे पहले नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय की अध्यक्षता वाले एक सरकारी पैनल ने रेलवे के संचालन और मेंटेंनेस के लिए प्राइवेट कंपनियों को लाये जाने की बात कही थी।
नरेन्द्र मोदी का कहना है कि अचल सम्पत्तियों की असमान छूती महँगाई के इस दौर में भारतीय रेल को अपनी भूसम्पत्ति और अपनी अवसंरचना का लाभ उठाना चाहिए और आरामदेह होटल और रेस्तराँ जैसी दूसरी सुविधाओं के विकास के लिए उन्हें निजी पक्षों के हवाले करना चाहिए। उन्होंने अपने भाषण में यहाँ तक कहा था कि रेल स्टेशनों के आधुनिकीकरण के लिए शतप्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति पहले से ही मौजूद है। कहने का आशय यह कि सिलसिलेवार ढंग से देशभर के रेल स्टेशन देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने का पूरा इन्तज़ाम कर लिया गया है।
महज़ रेल स्टेशनों के ही नहीं बल्कि समूची रेल प्रणाली के निजीकरण की प्रक्रिया पर अमल जारी है। रेल बजट को रद्द करके उसे आम बजट का हिस्सा बनाने के पीछे का कुचक्र रेल विभाग की आर्थिक, वित्तीय स्वायत्तता छीनने के लिए ही रचा गया है। रेल स्टेशनों के निजीकरण की मंशा भाजपा सरकार के मुखिया ने कम-से-कम सार्वजनिक तो की लेकिन गुपचुप तरीक़े से भारतीय रेल प्रणाली को देशी-विदेशी पूँजी के हवाले करने का काम लम्बे अरसे से किया जा रहा है।
मुम्बई से प्रकाशित एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ने महीनों पहले एक ख़बर छापकर बताया था कि भारतीय रेल के प्रशासनिक कामकाज का प्रचालन टाटा समूह को सौंप दिया गया है और प्रशासनिक कार्यों में लापरवाही, ढिलाई बरतने या निष्पादन ख़राब पाये जाने पर मण्डल रेल प्रबन्धक (डीआरएम) तक के ख़िलाफ़ अनुशासनिक और दण्डात्मक कार्रवाई करने का अधिकार टाटा के अधिकारियों को प्रदान किया गया है। उस ख़बर में बताया गया है कि ख़राब निष्पादन के लिए टाटा ने इटारसी और भोपाल मण्डल के मण्डल प्रबन्धकों को निलम्बित कर दिया है। इसका क्या अर्थ निकलता है, इसे समझना किसी के लिए कठिन काम नहीं है। इसी तरह रेल यातायात और परिवहन प्रचालन के कई काम मोदी सरकार ने अपने दो सबसे चहेते उद्योगपतियों अम्बानी और अडानी के हवाले कर दिये हैं।
एयर इण्डिया, इण्डियन एयरलाइंस, सेल, भेल, आईटीपीसी, कोल इण्डिया, बीएसएनएल और ओएनजीसी के विनिवेश का नतीजा हम देख चुके हैं। अभी दस-बारह साल पहले बिड़ला-अम्बानी जैसे औद्योगिक समूह दूरसंचार के कारोबार में हिस्सेदारी के लिए आपस में होड़ लगा रहे थे और रिलायंस ने डब्लूएलएल (वायरलेस इन लोकल लूप) के ज़रिये लोकल और एसटीडी दूरसंचार सेवाएँ शुरू की थीं और बीएसएनएल जो इस देश का दूरसंचार का पितृ संस्थान था और सारे प्रतिस्पर्धियों को स्टेक्ट्रम बेच रहा था आज इस हालत में पहुँच गया है कि उसकी अपनी फ़ोन और इण्टरनेट सेवाएँ रिलायंस के स्पेक्ट्रम पर चला करेंगी।
यही हाल, ओएनजीसी का भी है। अम्बानी के चहेते प्रधानमन्त्री ने ऐसे हालात पैदा कर दिये हैं कि ओएनजीसी के लिए अपना कारोबार चला पाना मुश्किल हो जायेगा क्योंकि डीज़ल के उसके सबसे बड़े ग्राहक भारतीय रेल को डीज़ल आपूर्ति अब रिलायंस करने वाली है। ओएनजीसी के तेल क्षेत्र से रिलायंस द्वारा माहवार अरबों की गैस चोरी किसी से छिपी नहीं है। इस देश के प्रभु वर्गों को हवाई यात्रा की सुविधा मुहैया करने के लिए भारतीय राज्य ने इण्डियन एयरलाइंस और एयर इण्डिया नामी जो निकाय सार्वजनिक धन से खड़े किये थे, उनको सिलसिलेवार ढंग से सफ़ेद हाथी साबित करके पहले ही पूँजीपतियों के हवाले किया जा चुका है।
भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक उपक्रम ही नहीं बल्कि संगठित क्षेत्र का सबसे बड़ा नियोक्ता भी है। भारतीय रेल 13 लाख लोगों को रोज़गार देता है (हालाँकि कुछ वर्ष पहले रेल कर्मचारियों की संख्या 18 करोड़ थी। रेल बोर्ड के चेयरमैन के अनुसार भारतीय रेल देश के कुल रोज़गार का 6 प्रतिशत रोज़गार मुहैया कराती है और अपनी अन्य आश्रित संस्थाओं की मार्फ़त वह 2.5% अतिरिक्त रोज़गार का भी सृजन करता है। देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद में उसका योगदान एक प्रतिशत का है। यानी देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद के हर सौ रुपये में से एक रुपया भारतीय रेल से आता है।
बोगाई और चौधरी (2013) ने ‘विकास के अभियन्ता : उत्पादकता की प्रगति’ शीर्षक अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2013 में भारतीय रेल की विकास दर विकसित और विकासशील देशों में सबसे अधिक रही है। अपनी तमाम अव्यवस्थाओं, लेटलतीफ़ियों के साथ भारतीय रेल दुनिया में सबसे सस्ता माल और यात्री परिवहन सेवा उपलब्ध कराती है। अपने 105,000 किमी लम्बे संजाल के साथ भारतीय हर दिन 2 करोड़ यात्री और 28 लाख टन माल ढोती है जबकि अमरीका जैसे विकसित देश की रेल प्रणाली एमट्रैक सालान तीन करोड़ यात्री ढोती है और अमरीका की समूची वायु परिवहन प्रणाली कुल मिलाकर रोज़ाना 10 लाख यात्री ढोती है।
भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े किये इस विशाल उपक्रम का भरपूर फ़ायदा पहले अंग्रेज़ों ने और फिर देशी पूँजीपतियों ने उठाया। रेलवे उनके मालों की सस्ती ढुलाई और उनके दफ़्तरों- कारख़ानों में काम करने वाले लोगों को लाने-ले जाने की सस्ती सवारी मुहैया कराता रहा और वह भी जनता के टैक्सों के दम पर। अब इसे भी कमाई का ज़रिया बनाने के लिए पूँजीपतियों की जीभ लपलपा रही है और पिछले दो दशकों से इसे टुकड़े-टुकड़े में निजी हाथों में देने का सिलसिला जारी है।
देश की ज़मीनी सम्पत्ति का बडा हिस्सा रेल विभाग के नियन्त्रण में हैं ऊपर से भारतीय रेलों के माध्यम से लोगों की भारी आवाजाही देश के लाखों लोगों को आजीविका के अवसर देती है। स्टेशनों पर और उनके आस-पास खाने-पीने की चीज़ों की रेहड़ी-ठेले लगाकर लाखों परिवार अपनी आजीविका कमाते हैं। स्टेशनों को पूँजीपतियों के हवाले करने से उनकी आजीविका छिनेगी और बेकारों की फ़ौज में बढ़ोत्तरी होगी। ‘कॉमसम’ जैसी कम्पनियों को बड़े स्टेशनों पर खाने-पीने का ठेेका देकर आम लोगों को सस्ते में खाना मुहैया कराने वाले बहुतेरे ढाबे आदि तो पहले ही बन्द कराये जा चुके हैं।
रेल विभाग भारत सरकार का सबसे कमाऊ विभाग है। वित्त वर्ष 2015-16 में उसकी आय 1.68 लाख करोड़ थी। रेल बजट को रद्द करके मोदी सरकार ने ऐसा इन्तज़ाम किया है जिससे उसकी वित्तीय स्वायत्तता छिन जायेगी और वह भी दूसरे विभागों की तरह बजटीय प्रबन्धन अधिनियम और अन्य नियामक यान्त्रिकियों से संचालित होने लगेगा। उसे पूँजीपतियों के हित में तोड़ना-मरोड़ना सरकार के लिए ज़्यादा आसान हो जायेगा।
नीति आयोग अपने गठन के समय से ही भारतीय रेल के पीछे पड़ा हुआ है। इसका अन्दाज़ा रेल विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों से तैयार करायी नीति आयोग की ”सामाजिक सेवा दायित्व के प्रभाव की समीक्षा” शीर्षक रिपोर्ट से लग जाता है। उस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय रेल को अपने यात्री परिवहन व्यापार से लगातार घाटा होता आया है। अतीत में ऐसे तर्क दिये जाते रहे हैं कि यात्री परिवहन व्यापार के प्रति रेलवे के कल्याणकारी रुझान से उसके कारोबार पर बुरा असर पड़ता है। नीति आयोग इसी तर्क को हवा दे रहा है।
उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के प्रभाव में शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी-परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं से सब्सिडी ख़त्म करके उन्हें पूरी तरह बाज़ार और मुनाफ़े की शक्तियों के हवाले किया जा रहा है। अब देशी-विदेशी पूँजीपतियों की गिद्धदृष्टि भारतीय रेल पर लगी है और उनका चाकर प्रधानमन्त्री अपने पूँजीपति आकाओं की इच्छापूर्ति करने के लिए कमर कसकर तैयार है। कहने की ज़रूरत नहीं कि निजीकरण के साथ ही रेलवे में ठेकाकरण और मज़दूरों-कर्मचारियों के शोषण में और बढ़ोत्तरी होगी। रेलवे के कई बड़े वर्कशॉप बन्द हो चुके हैं, नई भर्तियाँ नहीं के बराबर हैं और किस्तों में छँटनी जारी है। मगर रेलवे की सारी बड़ी-बड़ी यूनियनों के नेता अफ़सरों से मिलने वाली मोटी मलाई खाकर मस्त पड़े हैं।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017
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