नपुंसक न्याय-व्यवस्था से इंसाफ़ माँगते-माँगते खैरलांजी के भैयालाल भोतमांगे का संघर्ष थम गया
बबन ठोके
आज से 11 साल पहले खैरलांजी के दलित परिवार के अमानवीय, बर्बर हत्याकाण्ड ने देश के हर न्यायप्रिय इंसान को झकझोर कर रख दिया था। हत्याकाण्ड में जीवित बचे परिवार के एकमात्र व्यक्ति भैयालाल भोतमांगे का भी 20 जनवरी 2017 को दिल के दौरे से निधन हो गया। भारतीय व्यवस्था की नपुसंकता व असली चेहरा खैरलांजी की घटना के पीडि़त भैयालाल भोतमांगे की मृत्यु ने दिखा दिया है। उच्चवर्णियों की तिरस्कृत नज़रों से अपने परिवार का बचाव करते व जीवन के पुर्वार्ध में मेहनत कर अपने परिवार का पेट पालन कर शान्ति से जीने वाले भोतमांगे को अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्हीं की नज़रों के प्रकोप से भयंकर शोकान्तिका का सामना करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति उम्मीद के दम पर जीता है। भैयालाल भी अपने परिवार पर हुए पाशविक अत्याचार को ख़ुद अपनी आँखों से देखने के बाद भी न्याय की आशा लिए न्यायव्यवस्था का दरवाज़ा खटखटाते रहे। पर अन्त में दिल के दौरे ने उनकी ये आशा छीन ली।
गाँव में सामाजिक विषमता की प्रचण्ड आग सहन करते हुए भी कठोर मन से जीने के लिए संघर्ष करने वाले भोतमांगे परिवार के लिए 29 सितम्बर 2006 का दिन एक काला दिन बनकर आया। पड़ोस के गाँव के प्रेमानन्द गजवी नाम के व्यक्ति के साथ किन्हीं कारणों से गाँव के लोगों का विवाद हो गया था। सच का पक्ष लेते हुए भैयालाल भोतमांगे की पत्नी सुरेखा ने गजवी के समर्थन में गवाही दी। ये बात गाँव के उच्चजातीय व उच्चवर्गीय वर्चस्व रखने वाले लोगों को सहन नहीं हुई। सदियों से वंचित रहे एक दलित व्यक्ति का स्वाभिमान से जीना, बच्चों को पढ़ाना, लड़की होने के बावजूद बेटी प्रियंका को 12वीं तक पढ़ाकर पुलिस में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करना ये सब उन लोगों के लिए असहनीय था व साथ ही गजवी के पक्ष में गवाही देने के कारण भी द्वेष में थे। इसके बाद मानवता पर कलंक लगाने वाली ये घटना हुई। पत्नी सुरेखा व बेटी प्रियंका का सामूहिक बलात्कार किया गया, नग्न कर गुप्तांगों पर वार कर उनके टुकड़े कर दिये। दोनों लड़कों को बेदम होने तक मारा व बाद में हाथ-पैर तोड़कर बैलगाड़ी में डालकर जुलूस निकाला। अन्त में गाँव के बाहर फेंक दिया। उसी समय असहाय भैयालाल भोतमांगे पुलिसवालों के पाँव पकड़कर विनती कर रहे कि कम से कम एक बार तो आप गाँव में चलो। पर पुलिसवालों ने उनकी एक न सुनी। भैयालाल की आँखों के ख़ून के आँसु बता रहे थे कि सिर पर इतना बड़ा दुखों का पहाड़ टूटने के बाद उनकी जीने की इच्छा भी नहीं बची पर फिर भी हुआ अत्याचार देखते हुए, हार न मानते हुए परिवार को न्याय मिले, इसके लिए ख़ुद प्रत्येक दिन शरीर जलाकर न्याय के लिए उनका संघर्ष शुरू हुआ। निधन तक 11 वर्ष के समय में भण्डारा में एक छात्रावास में चपरासी के रूप में (रिटायरमेण्ट के बाद उनकी विशेष परिस्थितियाँ देखते हुए उन्हें सेवा विस्तार दिया गया था) काम करते हुए बेहद कम आय पर अपना जीवन काटते हुए भैयालाल न्याय के लिए कभी नागपुर तो कभी दिल्ली के चक्कर मारते रहे।
पर संवेदनशुन्य हो चुकी जुल्मी न्याय व्यवस्था तक भोतमांगे की आवाज़ व वेदना जीवन के आख़िर तक भी नहीं पहुँच पायी। इस हत्याकाण्ड में गाँव के बहुत सारे लोगों का हाथ होने के बावजुद सिर्फ़ 11 लोगों पर मुक़दमा चलाया गया। भण्डारा न्यायालय ने इनमें से तीन आरोपियों को मुक्त कर दिया, दो को उम्रकैद व छह को फाँसी की सज़ा सुनायी। बाद में उच्च न्यायालय ने फाँसी की सज़ा को भी उम्रकैद में बदल दिया। सीबीआई ने भैयालाल भोतमांगे को आश्वासन दिया कि कम हुई सज़ा के विरोध में हम सर्वोच्च न्यायालय में अपील करेंगे, पर उन्होंने ऐसा किया नहीं। इसलिए भैयालाल ने ख़ुद सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की। वहाँ भी उनको न्याय नहीं मिला। उनकी याचिका की अन्तिम सुनवाई अगस्त 2015 में हुई थी। मृत्यु से दो दिन पहले उन्होंने पूछा था कि दो सालों से स्थगित याचिका की सुनवाई कब होगी? उनका ये अन्तिम सवाल उनके दिल की गति रुकने के साथ ही ख़त्म हो गया। उन्हें व्यवस्था से दो हाथ करते हुए क़दम-क़दम हार का सामना करना पड़ा। उनके न्याय के सपने अधूरे रह गये। बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे जैसे दलित हत्याकाण्डों की ही तरह खैरलांजी हत्याकाण्ड में भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। इस घटना ने एक बार फिर ग़रीबों, दलितों व समाज के अन्य वंचित तबकों को न्याय देने में इस न्याय-व्यवस्था की अक्षमता उजागर की है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2017
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