विधानसभा चुनाव परिणाम : फासिस्ट शक्तियों की सत्ता पर बढ़ती पकड़
इसका जवाब न तो झूठी उम्मीदें हैं और न ही हताश कार्रवाइयाँ
एक जुझारू प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की तैयारियों में लगना होगा!
सम्पादक मण्डल
उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर विधानसभाओं के चुनाव के नतीजे कुछ लोगों को चौंकाने वाले लग सकते हैं लेकिन यह बिल्कुल अप्रत्याशित नहीं थे। चुनाव परिणाम आने के बाद जो कुछ हुआ और हो रहा है वह भी कतई अप्रत्याशित नहीं है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना और गोवा व मणिपुर में बुर्जुआ लोकतंत्र का भी माखौल बनाते हुए चुनाव में पिछड़ने के बावजूद भाजपा की सरकारें बनना आने वाली राजनीति के संकेत मात्र हैं।
देश के सबसे बड़े और विविधताओं से भरे राज्य का मुख्यमंत्री एक ऐसा व्यक्ति बना है जो कहता रहा है कि एक हिन्दू लड़की के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को उठा लाया जाएगा और मुसलमानों को धमकी के स्वर में कहता रहा है कि ‘मेरे एक हाथ में माला है तो दूसरे हाथ में भाला है।’ उनका कहना है कि मुसलमानों की संख्या जहाँ दस फीसदी से ज्यादा है वहीं दंगे होते हैं और जहाँ उनकी संख्या 35 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ गैर-मुस्लिम एकदम सुरक्षित नहीं हैं। योगी आदित्यनाथ की ‘हिन्दू युवा वाहिनी’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के 35 जिलों में पहले से ही सक्रिय है और वह छोटे-छोटे शहरों-कस्बों और गाँवों तक अपना प्रभाव विस्तार कर रही है। मऊ और आजमगढ़ में साम्प्रदायिक आग भड़काने में योगी की भूमिका सर्वज्ञात है। गोरखपुर में तो उनका आतंक राज चलता ही है। चुनावों के दौरान मोदी और अमित शाह ने पूरे उत्तर प्रदेश के पैमाने पर उग्र हिन्दुत्व का खुला खेल खेलने के लिए योगी को पूरी छूट दी थी और अब आरएसएस ने एक लम्बी योजना के तहत भाजपा के कई पुराने नेताओं के दावे को किनारे लगाकर उन्हें मुख्यमंत्री बनवा दिया है।
आज पूँजीवाद अब तक के सबसे गहन संकट के दौर से गुज़र रहा है। ऐसे में दो ही चीज़ें हो सकती हैं। महँगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक बदहाली से तबाह जनता को कुछ तात्कालिक राहत के नारे देकर शान्त किया जाये जिन्हें जनता बार-बार देखकर ऊब चुकी है। ऐसे में अगर कोई क्रान्तिकारी शक्ति समाज में न हो जो इस असन्तोष को व्यापक आन्दोलन में बदल सके तो फिर फासिस्टों के लोकरंजक नारे और धुआँधार प्रचार जनता को अपने साथ बहा ले जाने में कामयाब हो जाते हैं। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं।
उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर बुलेट ट्रेन की रफ्तार से अमल कर रही भाजपा सरकार जानती है कि इनसे पैदा होने वाली बेरोजगारी, मँहगाई और चौतरफा तबाही पूरे देश में विस्फोटक जनाक्रोश को जन्म देगी। इसको रोकने के दो कारगर फार्मूले शासक वर्ग के पास हैं। एक, साम्प्रदायिक आधार पर जनता को बाँटने की राजनीति और दूसरा, अन्धराष्ट्रवाद। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति लाजिमी तौर पर जातिगत ध्रुवीकरण की राजनीति को भी नयी संजीवनी देगी और पूरा देश एक बार फिर मण्डल-कमण्डल के भँवर में उलझकर रह जायेगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव में इस प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है।
विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का निरन्तर जारी संकट पूरी दुनिया में फासिस्ट शक्तियों या फासिस्ट प्रवृत्तियों वाले शासकों को बल दे रहा है। अमेरिका में ट्रम्प की जीत, ग्रीस, फ्रांस, इटली, जर्मनी आदि देशों में फासीवादी-अर्द्धफासीवादी शक्तियों की बढ़ती ताक़त कोई हैरानी की बात नहीं है। भारत में पूँजीवादी जनतंत्र शुरू से ही अधूरा और विकलांग रहा है। फासिस्ट ताक़तें यहाँ समाज और राज्य व्यवस्था के ताने-बाने में शुरू से मौजूद रही हैं। अलग-अलग दौरों में देशी पूँजीवाद का संकट बढ़ने के साथ ही इनकी ताक़त लगातार बढ़ती रही है। पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान व्यवस्था का संकट एक ढाँचागत संकट बन जाने के साथ ही इनकी ताक़त तेज़ी से बढ़ी है।
रामजन्मभूमि का ताला खुलने और बाबरी मस्जिद के से शुरू हुई प्रक्रिया की तार्किक परिणति 2002 के गुजरात दंगों में हुई। यह प्रक्रिया लगातार जारी है। संघ परिवार सत्ता में रहे या न रहे उसके संगठन सुनियोजित तरीके से समाज में नफ़रत और झूठ का ज़हर फैलाने में लगातार सक्रिय रहते हैं। मोदी के सत्ता में आने के बाद उन्हें भारी ताक़त मिल गयी है। बड़े कारपोरेट घरानों के साथ साँठ-गाँठ की बदौलत मीडिया को पूरी तरह अपना भोंपू बना दिया गया है और अन्धाधुन्ध प्रचार के ज़रिए लोगों को एक झूठी चेतना देने में वे सफल रहे हैं। हिटलर का प्रचार मंत्री गोयबेल्स कहता था कि एक झूठ को सौ बार ज़ोर-ज़ोर से बोलो तो वह सच हो जाता है। आज उनके पास पास इस काम के लिए पहले से अधिक उन्नत हथियार मौजूद हैं। बार-बार, बार-बार अनंक तरीकों से झूठे तर्कों और लुभावने नारों को ग़रीबों के दिमाग में बैठा दिया जाता है। यहाँ तक नोटबन्दी जैसे ग़रीबों को भारी नुकसान पहुँचाने वाले फ़ैसलों के बारे में भी उनकी एक बड़ी आबादी को यह समझा दिया गया कि अभी इससे भले ही हमारा कुछ नुकसान हो रहा है लेकिन ज़्यादा नुकसान तो अमीरों का हुआ है और आगे चलकर हमें फ़ायदा होगा।
लोगों को छलावा देने के लिए भाजपा आर्थिक तौर पर भी कुछ लोकरंजक क़दम उठा सकती है। लेकिन यह तय है कि आने वाले दिनों में संकट और गहरायेगा। जनता पर टूटने वाले महँगाई-बेरोज़गारी के कहर को ये किसी भी तरह रोक नहीं पायेंगे। ऐसे में कभी राम मन्दिर, कभी आन्तरिक आतंकवाद, कभी सीमा पर तनाव, अन्धराष्ट्रवाद का जुनून पैदा करने जैसे हथकण्डे ही इनके काम आयेंगे। धार्मिक अल्पसंख्यकों को तरह-तरह से निशाना बनाकर जनसमुदाय के बड़े हिस्से को ‘आतंक राज’ के मातहत दोयम दर्जे के नागरिक जैसी स्थिति में धकेल दिया जायेगा। आदित्यनाथ के मंचों से ऐसी बातें पहले ही की जाती रही हैं कि मुसलमानों से वोट का अधिकार छीन लिया जायेगा और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया जायेगा। दलितों, स्त्रियों और तमाम वंचित समुदायों का उत्पीड़न और बढ़ेगा। गुजरात में 2002 के नरसंहार के बाद दंगे नहीं हुए क्योंकि अब इसकी ज़रूरत ही नहीं थी। वहाँ अल्पसंख्यकों को बुरी तरह दबाकर, आतंकित करके, कोने में धकेलकर उनकी स्थिति बिल्कुल दोयम दर्जे की बना दी गयी है। यही ‘गुजरात मॉडल’ उत्तर प्रदेश में लागू करने की कोशिश की जायेगी। संघ परिवार की विचारधारा में दलितों और स्त्रिायों विरुद्ध जैसा विष भरा हुआ है उसका खुला प्रदर्शन समय-समय पर होता ही रहा है। निश्चित तौर पर आने वाले दिन गम्भीर होंगे। जनवादी अधिकारों पर हमले और तेज़ होंगे और आम जनता के लिए आवाज़ उठाने वालों को तरह-तरह से बदनाम करने और निशाना बनाने की कार्रवाइयाँ बढ़ती जायेंगी।
फासीवादी उभार के लिए उन संशोधनवादियों, संसदमार्गी नकली कम्युनिस्टों और सामाजिक जनवादियों को इतिहास कभी नहीं माफ़ कर सकता, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान मात्र आर्थिक संघर्षों और संसदीय विभ्रमों में उलझाकर मज़दूर वर्ग की वर्गचेतना को कुण्ठित करने का काम किया। ये संशोधनवादी फासीवाद-विरोधी संघर्ष को मात्रा चुनावी हार-जीत के रूप में ही प्रस्तुत करते रहे, या फिर सड़कों पर बस कुछ प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शनों तक सीमित रहे। अतीत में भी इनके सामाजिक जनवादी, काउत्स्कीपंथी पूर्वजों ने यही महापाप किया था। दरअसल ये संशोधनवादी आज फासीवाद का जुझारू और कारगर विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये ”मानवीय चेहरे” वाले नवउदारवाद का और कीन्सियाई नुस्खों वाले ”कल्याणकारी राज्य” का विकल्प ही सुझाते हैं। आज पूँजीवादी ढाँचे में चूँकि इस विकल्प की सम्भावनाएँ बहुत कम हो गयी हैं, इसलिए पूँजीवाद के लिए भी ये संशोधनवादी काफी हद तक अप्रासंगिक हो गये हैं। बस इनकी एक ही भूमिका रह गयी है कि ये मज़दूर वर्ग को अर्थवाद और संसदवाद के दायरे में कैद रखकर उसकी वर्गचेतना को कुण्ठित करते रहें और वह काम ये करते रहेंगे। जब फासीवादी आतंक चरम पर होगा तो ये संशोधनवादी चुप्पी साधकर बैठ जायेंगे। अतीत में भी बाबरी मस्जिद गिराये जाने के आगे-पीछे फैले साम्प्रदायिक उन्माद का सवाल हो या फिर गुजरात में हफ़्तों चले बर्बर नरसंहार का, ये बस संसद में गत्ते की तलवारें भाँजते रहे और टीवी और अख़बारों में बयानबाज़ियाँ करते रहे। ना इनके कलेजे में इतना दम है और ना ही इनकी ये औक़ात रह गयी है कि ये फासीवादी गिरोहों और लम्पटों के हुजूमों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने के लिए लोगों को सड़कों पर उतार सकें। इन्हीं की तर्ज़ पर काग़ज़ी बात बहादुरी करने वाले और सोशल मीडिया पर क्रान्ति करते रहने वाले छद्म वामपंथी बुद्धिजीवियों में से कई तो घरों में दुबक जायेंगे। आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में कुछ तथाकथित वाम बुद्धिजीवी चोला बदल लें।
पूँजीवादी संकट का यदि समाजवादी समाधान प्रस्तुत नहीं हो पाता तो फासीवादी समाधान सामने आता ही है। इस बात को इतिहास ने पहले कई बार साबित किया है। फासीवाद हर समस्या के तुरत-फुरत समाधान के लोकलुभावन नारों के साथ तमाम मध्यवर्गीय जमातों, छोटे कारोबारियों, सफ़ेदपोश कर्मचारियों, छोटे उद्यमियों और मालिक किसानों को लुभाता है। उत्पादन प्रक्रिया से बाहर कर दी गयी मज़दूर आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी फासीवाद के झण्डे तले गोलबन्द हो जाता है जिसके पास वर्ग चेतना नहीं होती और जिनके जीवन की परिस्थितियों ने उनका लम्पटीकरण कर दिया होता है। निम्न मध्यवर्ग के बेरोज़गार नौजवानों और पूँजी की मार झेल रहे मज़दूरों का एक हिस्सा भी अन्धाधुन्ध प्रचार के कारण मोदी जैसे नेताओं द्वारा दिखाये सपनों के असर में आ जाता है। जब कोई क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व उसकी लोकरंजकता का पर्दाफाश करके सही विकल्प प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं होता तो फासीवादियों का काम और आसान हो जाता है। आरएसएस जैसे संगठनों द्वारा लम्बे समय से किये गये प्रचार से उनको मदद मिलती है। भूलना नहीं चाहिए कि संघियों के प्रचार तंत्र का असर मज़दूर बस्तियों तक में है। बड़े पैमाने पर संघ के वीडियो और ऑडियो टेप मज़दूरों के मोबाइल फोन में पहुँच बना चुके हैं। बहुत-सी जगहों पर ग़रीबों की कालोनियों और मज़दूर बस्तियों में भी संघ की शाखाएँ लग रही हैं।
फासीवाद निम्न-बुर्जुआ वर्ग का घोर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है जिसके पास एक सामाजिक आधार और काडर फ़ोर्स होती है। इसका जवाब अमन-शान्ति और मेलमिलाप के नारों से नहीं बल्कि मज़दूर वर्ग और नौजवानों के जुझारू दस्तों द्वारा ही दिया जा सकता है। इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के बरक्स एक जुझारू प्रगतिशील आन्दोलन खड़ा करके ही इसका मुकाबला किया जा सकता है। क्रान्तिकारी वाम की शक्तियाँ आज बिखरी हुई हैं। एक हिस्सा कठमुल्लेपन, अतिरेकपंथ और दुस्साहसवाद का शिकार है तो एक हिस्सा सच्चाइयों से आँख चुराते-चुराते वस्तुगत तौर पर अवसरवाद और बिखराव का शिकार है। जो शक्तियाँ संजीदगी से सोच रही हैं उन्हें ताक़त कम या अधिक होने के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि सामने मौजूद कार्यभार की गम्भीरता को समझकर अपने आप को इस काम में झोंक देना होगा। उन्हें मज़दूरों के बीच अपने आर्थिक-वैचारिक-सांस्कृतिक काम को बढ़ाते हुए मज़दूरों के जुझारू दस्ते तैयार करने की शुरुआत करनी होगी। साथ ही मध्य वर्ग के जो लोग घरों में दुबक जाने वाले सेक्युलर नहीं हैं, उन्हें साथ में लेना होगा।
साम्प्रदायिक तनाव और अंधराष्ट्रवादी लहर जैसी स्थिति में राज्यसत्ता को निरंकुश स्वेच्छाचारी बना देना सुगम हो जायेगा और जनता के रहे-सहे जनवादी अधिकारों का भी कोई मतलब नहीं रह जायेगा। रक्षा तैयारियों पर भारी खर्च की आड़ लेकर जनता से मँहगाई बर्दाश्त करने की अपील की जायेगी और जनता पेट काटकर ”देशभक्ति” की कीमत चुकायेगी।
नवउदारवाद के इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गम्भीर होता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनियाभर में फासीवादी उभार का एक नया दौर दिखायी दे रहा है। ग्रीस, स्पेन, इटली, फ्रांस और उक्रेन जैसे यूरोप के कई देशों में फासिस्ट किस्म की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की ताक़त बढ़ रही है। अमेरिका में भी टी-पार्टी जैसी धुर दक्षिणपंथी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है। नव-नाज़ी ग्रुपों का उत्पात तो इंग्लैण्ड, जर्मनी, नार्वे जैसे देशों में भी तेज़ हो रहा है। तुर्की, इंडोनेशिया जैसे देशों में पहले से निरंकुश सत्ताएँ व़फायम हैं जो पूँजीपतियों के हित में जनता का कठोरता से दमन कर रही हैं। हाल के वर्षों में कई जगह ऐसी ताकतें सीधे या फिर दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के साथ गठबन्धन में शामिल होकर सत्ता में आ चुकी हैं। जहाँ वे सत्ता में नहीं हैं, वहाँ भी बुर्जुआ जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखा धूमिल-सी पड़ती जा रही है और सड़कों पर फासीवादी उत्पात बढ़ता जा रहा है।
हमने पहले भी लिखा था कि भाजपा सत्ता में आये या न आये, भारत में सत्ता का निरंकुश दमनकारी होते जाना लाज़िमी है। सड़कों पर फासीवादी उत्पात बढ़ता जायेगा। फासीवाद विरोधी संघर्ष का लक्ष्य केवल भाजपा को सत्ता में आने से रोकना नहीं हो सकता। इतिहास का आज तक का यही सबक रहा है कि फासीवाद विरोधी निर्णायक संघर्ष सड़कों पर होगा और मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी ढंग से संगठित किये बिना, संसद में और चुनावों के ज़रिए फासीवाद को शिकस्त नहीं दी जा सकती। फासीवाद विरोधी संघर्ष को पूँजीवाद विरोधी संघर्ष से काटकर नहीं देखा जा सकता। पूँजीवाद के बिना फासीवाद की बात नहीं की जा सकती। फासीवाद विरोधी संघर्ष एक लम्बा संघर्ष है और उसी दृष्टि से इसकी तैयारी होनी चाहिए। अब जबकि फासिस्ट सत्ता में अपनी पकड़ लगातार मज़बूत बना रहे हैं, तो ज़ाहिर है कि हमारे सामने एक फौरी चुनौती आ खड़ी हुई है। हमें इसके लिए भी तैयार रहना होगा।
निश्चय ही फासीवादी माहौल में क्रान्तिकारी शक्तियों के प्रचार एवं संगठन के कामों का बुर्जुआ जनवादी स्पेस सिकुड़ जायेगा, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह होगा कि नवउदारवादी नीतियों के बेरोकटोक और तेज़ अमल तथा हर प्रतिरोध को कुचलने की कोशिशों के चलते पूँजीवादी संरचना के सभी अन्तरविरोध उग्र से उग्रतर होते चले जायेंगे। मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश जनता रीढ़विहीन ग़्ाुलामों की तरह सबकुछ झेलती नहीं रहेगी। अन्ततोगत्वा वह सड़कों पर उतरेगी। व्यापक मज़दूर उभारों की परिस्थितियाँ तैयार होंगी। यदि इन्हें नेतृत्व देने वाली क्रान्तिकारी शक्तियाँ तैयार रहेंगी और साहस के साथ ऐसे उभारों में शामिल होकर उनकी अगुवाई अपने हाथ में लेंगी तो क्रान्तिकारी संकट की उन सम्भावित परिस्थितियों में बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करके संघर्ष को व्यापक बनाने और सही दिशा देने का काम किया जा सकेगा। अपने देश मे और और पूरी दुनिया में बुर्जुआ जनवाद का क्षरण और नव फासीवादी ताक़तों का उभार दूरगामी तौर पर नयी क्रान्तिकारी सम्भावनाओं के विस्फोट की दिशा में भी संकेत कर रहा है।
आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिपर्फ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चैकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। हमें अपनी भरपूर ताकत के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए।
2019 में भाजपा की हार की सदिच्छा में जीना या मन्नत मानते हुए बैठे रहना आत्मघाती होगा। वैसे फासिस्ट सत्ता में रहें, या चले जायें, फासिस्टों का उत्पात जारी रहेगा। भारतीय पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह जनता को डराने और काबू में करने के लिए, मेहनतकशों और क्रान्ति के पक्ष में खड़े सभी वर्गों की एकता को तोड़ने और उनकी चेतना को भ्रष्ट करने के लिए फासीवाद का इस्तेमाल लगातार करता रहेगा। सोचने का सच्चा क्रान्तिकारी तरीका सच्चाई को पहचानकर उसके मुकाबले की तैयारी करना है। झूठी उम्मीद को विकल्प का नाम मत दीजिये। विकल्प का क्रान्तिकारी रास्ता बहुत कठिन है, लेकिन उस पर चलने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है। इतिहास ने इस सच को भी बार-बार साबित किया है कि जनता के हिरावल जब आगे आकर शोषित-उत्पीड़ित जनसमुदाय का आह्वान करते हैं और कुछ लोगों को ही लेकर बदलाव के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो लम्बा और कठिन रास्ता भी आसान लगने लगता है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन