बोलते आंकडे़ चीखती सच्चाइयां
- एक गैर सरकारी अनुमान के अनुसार आज भी देश में लगभग 32 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता या वे कुपोषण के शिकार है। दूसरी ओर छह करोड़ टन अनाज भण्डारण की उचित व्यवस्था न होने के कारण खुले में सड़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार खुले में पड़ी हुई अनाज की बोरियों को अगर एक ऊपर एक रख दिया जाये तो इनकी ऊंचाई इतनी होगी कि इस पर चढ़ते हुए चांद पर पहुंचा जा सकता है।
- वर्ष 2002 में लगभग दो करोड़ टन अनाज उस कीमत पर निर्यात किया गया जिस कीमत पर गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को कंट्रोल की दुकानों से अनाज दिया जाता है। देश के थोक गल्ला व्यापारियों ने सरकार से सस्ते दरों पर अनाज खरीदकर वापस सरकार को ही महंगे दरों पर बेच दिया। इस तरह सरकार को करोड़ो रुपये का चूना लगाया।
- जब से देश में नयी आर्थिक नीतियां लागू होनी शुरू हुई हैं तब से प्रति व्यक्ति खाद्यान्न खपत में भारी गिरावट आयी है। एक गणना के अनुसार 1990 में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न खपत 246 किग्रा सालाना थी जो वर्ष 2002-03 में घटकर केवल 132 किग्रा सालाना रह गयी है यानी कुल 114 किग्रा की गिरावट। यह खपत दूसरे महायुद्ध के दौरान ही नहीं वरन बंगाल की 1942 की अकाल के समय की खपत दर से भी नीचे है।
- एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में बेरोजगारों–अर्द्धबेरोजगारों की कुल संख्या 50 करोड़ की संख्या पार कर रही है, यानी देश की आधी आबादी के पास कोई काम नहीं है। शिक्षित बेरोजगारी की भयावहता का अनुमान सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों रेलवे में खलासी के 38000 पदों के लिए 75 लाख नौजवानों ने आवेदन किया था। इनमें आधे से ज्यादा उच्च शिक्षाप्राप्त नौजवान थे। इसी परीक्षा के दौरान असम में बिहारी युवकों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं की शुरुआत हुई थी जिसने आगे चलकर भयावह रूप ले लिया था।
- सरकार सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भारी संख्या में रोजगार पैदा होने का ढिंढोरा पीट रही है। असलियत यह है कि पिछले एक दशक में सिर्फ पांच लाख नौकरियां पैदा हुई हैं।
- इस समय सरकार के ऊपर विभिन्न प्रकार के कर्जों की मात्रा कुल राष्ट्रीय आय (सकल घरेलू उत्पाद–जी डी पी) के 80 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।
- कुल राष्ट्रीय आय (जी डी पी) में केन्द्र सरकार को अलग–अलग स्रोतों से मिलने वाले राजस्व का योगदान 10 प्रतिशत होता है। इसमें से पांच प्रतिशत सरकार अपने ऊपर खर्च करती है और पांच प्रतिशत सरकार पर लदे कर्जों के सूद की अदायगी में स्वाहा हो जाता है।
- वित्त मंत्री जसवन्त सिंह द्वारा पिछले दिनों पेश किये गये ‘मिनी बजट’ में आयात या सीमा शुल्कों में जो भारी कटौती की है उसका फायदा तो विदेशी कंपनियों और अमीर उपभोक्ता उठायेंगे पर इस वजह से राजस्व में जो कमी आयेगी उसका बोझ देश की गरीब जनता पर ही लादा जायेगा। एक मोटे अनुमान के अनुसार केन्द्र सरकार के राजस्व को लगभग 11 हजार करोड़ रुपये की चपत लगेगी। यह देशी–विदेशी उद्योगपतियों– व्यापारियों को परोक्ष रूप से दी गयी सरकारी सहायता भी है।
- 1991-92 में केन्द्र सरकार को विभिन्न प्रकार के करों से जो राजस्व मिलता था वह जीडीपी के 10.3 प्रतिशत के बराबर था जो 2001-02 में घटकर 8.6 प्रतिशत रह गया। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अमीरों को करों में लगातार छूट देती जा रही है और आम जनता को सुविधाएं मुहैया कराने की बात चलने पर खजाना खाली होने का रोना रोती है।
- देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की खस्ता हाल का अंदाज लगाने के लिए यह तथ्य काफी है कि कुल स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी क्षेत्र का योगदान केवल 18 प्रतिशत है, जबकि 82 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र के दायरे में आती हैं। विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के लिये जो आर्थिक सहायता देती है उसका केवल 10 प्रतिशत ही गरीबों को मिलता है। बाकी 90 प्रतिशत अमीर हड़प जाते हैं।
- एक सर्वेक्षण के अनुसार पांच साल से कम उम्र के 1000 में से 93 बच्चे हर साल मर जाते हैं।
- राष्ट्रीय आय का केवल एक प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर और केवल 4.1 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च होता है।
- एक सर्वेक्षण के अनुसार देश से लगभग 50 लाख लोग हर साल विदेश यात्राओं पर जाते हैं और लगभग 4 अरब डालर का सोना आयात करते हैं।
बिगुल, फरवरी 2004
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