इधर कुआं उधर खाई

एक बिगुल पाठक

मैं कंट्रोल एंड स्विचगियर कम्पनी (प्लाट नं. ए–7 और 8 से 8, नोएडा –में एक परमानेंट मजदूर हूं। मुझे इस कम्पनी में हड्डियां गलाते हुए 10 साल हो गये। मुझे केवल 2500 रु. मिलते हैं। सरकार की तरफ से जो डी.ए. मिलता था वह भी कम्पनी ने देना बंद कर दिया है। मजदूर कैजुअल हो या परमानेंट यह डी.ए. सभी के लिए होता है पर कम्पनी उसे हमें देती ही नहीं। काम करने की दशा यह है कि हम सुबह 9 बजे यहां घुसते हैं और रात 10–11 बजे घर जाते हैं। सारा दिन प्रोडक्शन का भूत सवार रहता है। अगर एक–दो मिनट थोड़ी थकान दूर करने के लिए सुस्ताने लगें तो फौरन गेट पर खड़ा करने की धमकी मिलती है। दिमाग हर वक्त टेंशन में रहता है। क्या करें, क्या न करें। 2500 रु. में कैसे जी रहा हूं मुझे ही पता है। मेरे तीन बच्चे हैं। कमरे का किराया 100 रु. है। 500–600 रु. राशन का खर्च आता है। फिर हारी–बीमारी भी है। मैं उत्तरांचल का हूं। घर जाता हूं तो 400 रु. के आसपास किराया लगता है। लिहाजा घर जाना अब सपना हो गया है। कभी सोचता हूं ऐसी हालत में अब तो नौकरी छोड़नी ही होगी। इससे अच्छा तो खेती ही कर लूंगा। लेकिन तभी ख्याल आता है कि खेती भी तो हमारी राम भरोसे है। इतनी जमीन भी तो नहीं है। आखिर वहां भी क्या कर पाऊंगा? जिन्दगी तो वहां भी अंधेरे में ही रहेगी। मेरे लिए इधर कुआं उधर खाई की स्थिति है।

हमारी कम्पनी में यूनियन भी थी। बहुत ही जबर्दस्त हड़ताल होती थी। अपने हक के लिए लड़ने का बहुत उत्साह था। कम्पनी की 8–9 यूनिटें हैं। चार यूनिटों में एक साथ हड़ताल थी। जिसमें फेज–2 की कम्पनी भी आती थी। वहां के मजदूर काम पर लौट गये। मालिक ने यहां मजदूरों को काम से बाहर निकालने की धमकी दे दी। और 70–80 मजदूरों को निकाल भी दिया। बस फिर तो स्थिति खराब होती चली गयी। हमारी यूनियन का रिकार्ड था कि वह कभी मालिक से हारी नहीं थी। अब की बार कुछ मजदूरों की गद्दारी के कारण हार गई। लेकिन हम तो हड़ताल के लिए अब भी तैयार हैं। हड़ताल चाहे 6 महीने चल जाये। अपने हक के लिए उतने ही उत्साह से लड़ेंगे, जितने पहले लड़ते थे। लेकिन हमारे साथ अच्छा और ईमानदार नेता होना चाहिए।

बिगुल, फरवरी 2004


 

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