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बकलमे–खुद : कहानी – मालिक / तपीश
इस स्तम्भ के बारे में
इस स्तम्भ के अन्तर्गत हम जिन्दगी की जद्दोजहद में जूझ रहे मजदूरों और उनके बीच रहकर काम करने वाले मजदूर संगठनकर्ताओं– कार्यकर्ताओं की साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित करते हैं-कविताएं, कहानियां, डायरी के पन्ने, गद्यगीत आदि–आदि।
इस स्तम्भ की शुरुआत की एक कहानी है। ‘बिगुल’ के सभी प्रतिनिधियों–संवाददाताओं के अनुभव से यह जुड़ी हुई है। हमने पाया कि जो कुछ पढ़े–लिखे और उन्नत चेतना के मजदूर हैं, वे गोर्की की ‘मां’, उनकी आत्मकथात्मक उपन्यास–त्रयी और अन्य रचनाओं को तो बेहद दिलचस्पी के साथ पढ़ते हैं, प्रेमचंद उन्हें बेहद पसन्द आते हैं, आस्त्रोव्स्की की ‘अग्निदीक्षा’ और पोलेवेई की ‘असली इंसान’ ही नहीं, कुछ तो बाल्जाक और चेर्निशेव्स्की को भी मगन होकर पढ़ते हैं। लेकिन जब हम हिन्दी के आज के सिरमौर वामपंथी कथाकारों की बहुचर्चित रचनाएं उन्हें पढ़ने को देते हैं तो वे बेमन से दो–चार पेज पलटकर धर देते हैं। पढ़कर सुनाते हैं तो उबासी या झपकी लेने लगते हैं। यदि उन सबकी राय को समेटकर थोड़े में कहा जाये, तो इसका कारण यह है कि ज्यादातर वामपंथी–प्रगतिशील लेखक आज अपनी रचनाओं में आम आदमी की जिन्दगी की, संघर्ष और आशा–निराशा की जो तस्वीर उपस्थित कर रहे हैं, वह आज की जिन्दगी की सच्चाइयों से कोसों दूर हैं। वह या तो ट्रेनों–बसों की खिड़कियों से देखे गये गांवों और मजदूर बस्तियों का चित्र है, या फिर अतीत की स्मृतियों के आधार पर रची गयी काल्पनिक तस्वीर। नयेपन के नाम पर जो कला का इन्द्रजाल रचा जा रहा है, वह भी आम जनता के लिए बेगाना है। कारण स्पष्ट है। दरअसल इन तथाकथित वामपंथियों का बड़ा हिस्सा ‘‘वामपंथी कुलीनों’’ का है। ये ‘‘कलाजगत के शरीफजादे’’ हैं जो प्राय: प्रोफेसर, अफसर या खाते–पीते मध्यवर्ग के ऐसे लोग हैं जो जनता की जिन्दगी को जानने–समझने के लिए हफ्ते–दस दिन की छुट्टियां भी उसके बीच जाकर बिताने का साहस नहीं रखते। ये अपने नेहनीड़ों के स्वामी सद्गृहस्थ लोग हैं। ये गरुड़ का स्वांग भरने वाली आंगन की मुर्गियां हैं। ये फर्जी वसीयतनामा पेश करके गोर्की, लू शुन, प्रेमचंद का वारिस होने का दम भरने वाले लोग हैं। समय आ रहा है जब क्रान्तिकारी लेखकों– कलाकारों की एकदम नई पीढ़ी जनता की जिन्दगी और संघर्षों के ट्रेनिंग–सेण्टरों से प्रशिक्षित होकर सामने आयेगी। इन कतारों में आम मजदूर भी होंगे। भारत का मजदूर वर्ग आज स्वयं अपना बुद्धिजीवी पैदा करने की स्थिति में आ चुका है। भारत का यह नया बुद्धिजीवी मजदूर या मजदूर बुद्धिजीवी सर्वहारा क्रान्ति की अगली–पिछली पांतों को नई मजबूती देगा। आज परिस्थितियां ऐसी हैं कि हम अपेक्षा करें कि भारतीय मजदूर वर्ग भी अपना इवान बाबुश्किन और मक्सिम गोर्की पैदा करेगा। ‘बिगुल’ की कोशिश होगी कि वह ऐसे नये मजदूर लेखकों का मंच बने और प्रशिक्षणशाला भी।
इसी दिशा में, पहलकदमी जगाने वाली एक शुरुआती कोशिश के तौर पर इस स्तम्भ की शुरुआत की गयी है। मुमकिन है कि मजदूरों और मजदूरों के बीच काम करने वाले संगठनकर्ताओं की इन रचनाओं में कलात्मक अनगढ़ता और बचकानापन हो, पर इनमें जीवित यथार्थ की ताप और रोशनी के बारे में आश्वस्त हुआ जा सकता है। जिन्दगी की ये तस्वीरें सच्ची वामपंथी कहानी का कच्चा माल भी हो सकती हैं। और फिर यह भी एक सच है कि हर नयी शुरुआत अनगढ़–बचकानी ही होती है। लेकिन मंजे–मंजाये घिसे–पिटे लेखन से या काल्पनिक जीवन–चित्रण के उच्च कलात्मक रूप से भी ऐसा अनगढ़ लेखन बेहतर होता है जिसमें जीवन की वास्तविकता और ताजगी हो। हमारा यह अनुरोध है कि मजदूर साथी अपनी जिन्दगी की क्रूर–नंगी सच्चाइयों की तस्वीर पेश करने के लिए अब खुद कलम उठायें और ऐसी रचनाएं इस स्तम्भ के लिए भेजें। साथ ही प्रकाशित रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया भी भेजें।
इस अंक में हम एक मजदूर कार्यकर्ता तपीश की कहानी छाप रहे हैं।
सम्पादक मण्डल
मालिक
तपीश
उसके हाथ बला की तेजी से चल रहे थे। वह आटे की लोई को अपनी हथेलियों में दबा कर चपटा करता और फिर थाप कर तंदूर में डाल देता। कड़ाके की ठंड थी। सड़क के उस पार कुछ लोग टायर और कूड़़ा–करकट जलाकर किसी तरह रात कट जाने की दुआ कर रहे थे, लेकिन उस का बदन पसीने से तर था, मानो तंदूर उस के शरीर का सारा पानी पी जाना चाहता हो। एक बूढ़ा टेबुल–टेबुल जाकर प्लेटें इकट्ठा कर रहा था और उनको साफ कर एक ओर ढेर लगा रहा था। उस की पीठ धनुषाकार थी और पांव घुटनों से कुछ ऐसे झुके हुए थे कि मानो वह चलते–चलते उड़ने लगेगा।
काउण्टर पर एक मोटा–गंजा तोंदियल बैठा है। उस के चारों ओर भगोने रखे हैं और एक कोने में प्लेटों का ढेर लगा है। वह अपनी जगह पर बैठे–बैठे प्लेटों में साग–भाजी डाल रहा है। लेकिन उस का मुख्य काम गल्ला संभालने और नौकरों को गरियाने–फटकारने का है। वह उस भारी मूसल की याद दिलाता है जो ओखल में दनादन गिरती रहती है।
रात के दस बजे होंगे। एक बड़ी सी टेबुल के इर्द–गिर्द बेंच लगी थीं। उस पर सत्रह–अठारह साल का एक नौजवान अकेले बैठा था। उस की पीठ पीछे एक अन्य व्यक्ति बैठा था-दिखने में दुबला–पतला, चेहरे पर हल्की–दाढ़ी थी।
मैं उस लड़के के सामने जा कर बैठ गया। तभी होटल वाला लड़का आया और उस नौजवान के सामने एक प्लेट में सालन और दो रोटी रख कर मेरी ओर ताकने लगा। ‘‘क्या लाऊँ?’’ उस ने पूछा। मैंने भी सालन रोटी मंगवा ली। मैंने देखा कि वह नौजवान खाना ऐसे खा रहा था मानो कोई काम निपटा रहा हो। उस के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
यकायक मैं बोल पड़ा-क्या काम करते हो?
उसने नज़रें मेरे चेहरे पर जमा दी और कुछ देर एकटक देखने के बाद बोला-क्यों? मानो कह रहा हो-जब बिना मतलब के इस दुनिया में कोई किसी को नहीं पूछता तो फिर तुम ही क्यों?
मैं कुछ सकपका गया और फिर सफाई देने के अंदाज में बोला-नहीं, बस ऐसे ही, चुप बैठना खल रहा था, तो सोचा क्यों न कुछ बात ही कर ली जाये।
वह हलके से मुस्कुरा दिया। कहने लगा-दो साल से तो रिक्शा चला रहा हूँ। माँ–बाप को कभी देखा नहीं। अकेला हूँ कोई जिम्मेदारी है नहीं…।
तभी मेरे लिये भी खाना आ गया। वह आगे कहता रहा-बताते हैं माँ–बाप बचपन में ही गुजर गये। पहले तो कुछ रिश्तेदारों ने पाला, फिर सब ने हाथ खींच लिये। कुछ समय सरकारी मदरसे में भी पढ़ा। एक बार मौलवी ने कहा- आगे अपनी मनपसंद की पढ़ाई करनी हो तो घर से किसी को भेज देना। कौन जाता? उसके बाद पढ़ाई भी छूट गयी। शुरू में छोटे–मोटे काम किये अब अपना रिक्शा ले लिया है। लेकिन यह भी कोई ठीक काम नहीं है। इसमें इज्जत नहीं है। अरे चार छोकरे आकर बैठ जायें तो जाना ही पड़ेगा। पैसा देंगे अपनी मन–मर्जी का। और चूँ–चपड़ करो तो गाली। पैसे वालों का रुआब है। जिस की जेब गरम है उसी की पूछ है। अब देखिये न इस होटल के सामने अगर मैं अपना रिक्शा खड़ा कर दूँ तो ये तोंदियल मुझे गाली देगा और अगर कोई कार आकर खड़ी हो जाये तो यह कुछ भी नहीं कहेगा उल्टा इसकी शान बढ़ जायेगी। इसलिये कहता हूँ इस काम में इज्जत नहीं है, इज्जत। सोचता हूँ कि कोई दूसरा काम करूँ।
क्या काम करोगे?-मैंने पूछा।
अरे कुछ भी। लेकिन अब सिर्फ अपने लिये करूँगा, अपने काम की बात ही कुछ और है। क्यों, बिजनेस ठीक रहेगा न? कपड़े की दुकानदारी में बड़ा पैसा है, बड़ी बरकत है। वैसे अगर कहीं जुगाड़ बने तो होटल भी बुरा नहीं है। बहुत पैसा है इस धन्धे में।
मैंने महसूस किया कि यकायक उसकी आँखें चमकने लगी थीं और वह कुहनियों के बल टेबुल पर झुका हुआ था। अमीर बन जाने की उत्तेजना से उस का ऊपर का होंठ फड़कने लगा था। मुझे यकायक लगा कि मेरे सामने मासूम लड़का नहीं, बल्कि एक चालाक बूढ़ा बैठा है। वह आगे कहता गया-बस एक बार पैसा आ जाये तो मैं गरीबों…।
‘उन्हें टुकड़े फेंकने का काम करोगे’-उस तीसरे आदमी की कड़कदार आवाज ने जैसे रंग में भंग कर दिया। ‘मुसीबत तो यह है कि तुम्हारी उम्र के छोकरे कुछ सुनते–समझते नहीं। अभी कल ही की बात है, मेरे पड़ोस में रहने वाले धन्ना को इस सनक की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।’ उसने कहना जारी रखा, ‘अरे अमीर बनने का प्रेत अगर सिर चढ़ जाये तो भगवान भी नहीं बचा सकता। उसने न जाने कहाँ–कहाँ से उधार–कर्म करके किसी कमेटी में पैसा लगाया, बाद में पता चला कि कमेटी वाले पैसा लेकर रफूचक्कर हो गये।’ वह उत्तेजित स्वर में बोला, ‘किसी और की क्या कहूँ मेरे ही घर में देख लो, एक ही बेटा है। खाने को दाने नहीं हैं, लेकिन चले हैं कुबेर नाथ बनने। अपनी ज़िन्दगी में किसी मजूर को मालिक बनते नहीं देखा। हाँ, मालिकों को फलते–फूलते जरूर देखा है और देखा है कि कैसे मालिकान हम मजदूरों को फैक्ट्री को चलाने का कोयला समझते हैं। जब तक ये अमीर मालिक हैं तब तक हम ऐसे ही जिल्लत सहते रहेंगे…’
अभी वह अपनी बात कह ही रहा था कि एक जोर की आवाज ने हम सबको चौंका दिया-देखा तो चीनी–मिट्टी के टुकड़े फर्श पर बिखरे थे। बूढ़ा कांपते हाथों से उन्हें चुन–चुन कर इकट्ठा कर रहा था और मोटे तोंदियल की भद्दी गालियाँ हमारे कानों में लगातार पड़ रही थीं।
बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2004
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