अक्लमंद, मूर्ख और गुलाम
लू शुन
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एक गुलाम हरदम लोगों की बाट जोहता रहता था, ताकि उन्हें अपना दुखड़ा सुना सके। वह बस ऐसा ही था और बस इतना ही कर सकता था। एक दिन उसे एक अक्लमंद आदमी मिल गया।
“मान्यवर!” वह उदास स्वर में रोते हुए बोला, उसके गालों पर आंसुओं की धार बह चली, “अाप जानते हैं, मैं कुत्ते की जिन्दगी जी रहा हूँ। मुझे दिन भर में एक बार भी खाना नसीब नहीं, और अगर मिलता भी है तो बस वही बाजरे की भूसी, जिसे सुअर भी नहीं खाता। और उसकी भी क्या कहूं जो एक छोटी कटोरी भर से ज्यादा नहीं मिलती…।”
“यह तो वाकई बहुत बुरा है,” अक्लमंद आदमी ने सहानुभूति जतायी।
“और क्या?”, वह कुछ उत्तेजित हो उठा, “जबकि मैं सारा दिन और सारी रात खटता रहता हूँ। पौ फटते ही मुझे पानी भरना पड़ता है, सांझ को मैं खाना पकाता हूँ, सुबह मैं सौंपेे गये काम निपटाता हूँ, शाम को मैं गेहूँँ पीसता हूँ, जब मौसम अच्छा होता है तो मैं कपड़े धोता हूँ, और जब बारिश होती है तो मुझे छाता थामना पड़ता है, जाड़े में मैं अंगीठी सुलगाता हूँ, और गर्मी में पंखा झलता हूँ। आधी रात को मैं खुम्मियां उबालता हूँ और जुआरियों की पार्टियों में व्यस्त अपने मालिक का इन्तजार करता हूँ। लेकिन कभी मुझे कोई बख़्शीश नहींं मिलती, बस जब-तब चाबुक ही खानी पड़ती है…। ”
“मेरे प्यारे…” अक्लमंद आदमी ने नि:श्वास छोड़ी। उसकी आंखों के किनारे कुछ-कुछ लाल हो चुके थे, मानो अब वह रो देने वाला हो।
“मैं ऐसे नहीं जी सकता, मान्यवर। मुझे कोई न कोई उपाय ढूँढना ही होगा। लेकिन मैं क्या करूं?”
“मुझे विश्वास है कि हालात जरूर सुधरेंगे…।”
“क्या आप ऐसा सोचते हैं? निश्चय ह मैं इसकी उम्मीद करता हूँ। लेकिन अब जबकि मैंने आपको अपना दुखड़ा सुना दिया है और आपने इतनी हमदर्दी के साथ मेरा हौसला बढ़ाया है, मैं पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूँ। इससे जाहिर होता है कि अभी भी दुनिया मेें कुछ इंसाफ है।”
हालांकि थोड़ेे ही दिन बाद वह फिर उदासी से भर उठा और अपना दुखड़ा सुनाने के लिए किसी दूसरे आदमी से मिला।
“मान्यवर!” उसने आंसू बहाते हुए सम्बोधित किया, “आप जानते हैं, जहां मैं रहता हूँ वह सुअरबाड़े से भी बदतर जगह है। मेरा मालिक मुझेे आदमी नहीं समझता। वह अपने कुत्ते को मुझसे दस हजार गुना बेहतर समझता है…।”
“उसका सत्यानाश हो!” दूसरे व्यक्ति ने इतने जोर से गाली दी कि गुलाम भौचक्का रह गया। यह दूसरा आदमी मूर्ख था।
“मैं जिसमें रहता हूँ, मान्यवर, वह टूटी-फूटी एक कमरे वाली झोपड़ी है, जिसमें सीलन, ठंडक और बेशुमार खटमल है। ज्यों ही मैं सोने जाता हूँ वे काटने लगते हैं। वह जगह बदबू से भरी हुई है और उसमें एक भी खिड़की नहीं है..।”
“क्या तुम अपने मालिक से एक खिड़की बनवाने के लिए कह सकते हो?”
“मैं कैसे कह सकता हूँ?”
“ठीक है, मुझे दिखाओ वह जगह कैसी है।”
मूर्ख आदमी गुलाम के पीछे-पीछे उसकी झोपड़ी में गया और मिट्टी की दीवार पर चोट करने लगा।
“यह आप क्या कर रहे हैं, मान्यवर?”
गुलाम डर गया था।
“मैं तुम्हारे वास्ते एक खिड़की खोल रहा हूँ।”
“यह ठीक नहीं होगा। मालिक मुझे मारेगा।”
“मारने दो।” मूर्ख आदमी दीवार पर चोट करता रहा।
“दौड़ो! एक डाकू घर तोड़ रहा है। जल्दी आओ नहीं तो वह दीवार ढहा देगा…।” चिल्लाते-सिसकते वह गुलाम पागलों की भांति जमीन पर लोटने लगा। गुलामों का एक पूरा दल ही उमड़ आया और उस मूर्ख को खदेड़ दिया। इस हल्ले-गुल्ले को सुनकर जो सबसे आखिर मेंं धीरे-धीरे बाहर आया, वह मालिक था।
“एक डाकू हमारा घर गिरा देना चाहता था। मैंने सबसे पहले खतरे की सूचना दी, और हम सबने मिलकर उस मूर्ख को खदेड़ दिया।” गुलाम ने ससम्मान और विजय गर्व से कहा।
“तुम्हारा भला हो!” मालिक नेे उसकी प्रशंसा की।
उस दिन हमदर्दी दिखाने कई लोग आये, जिनमें वह अक्लमंद आदमी भी था।
“मान्यवर, चूंकि मैंने अपने को काम लायक सिद्ध किया, इसलिए मालिक ने मेरी प्रशंसा की। आप सचमुच दूरदर्शी हैं, आपने उस दिन कहा था कि हालात सुधरेंगे”, वह बहुत आशान्वित और खुश होकर बोला।
“यह सही है…।” अक्लमंद आदमी ने जवाब दिया, और वह भी अपने पर खुश लग रहा था।
The Wise Man, The Fool and The Slave
Lu Xun
A slave did nothing but look for people to whom to pour out his woes. This was all he would and all he could do. One day he met a wise man.
“Sir!” he cried sadly, tears pouring down his cheeks. “You know, I lead a dog’s life. I may not have a single meal all day, and if I do it is only husks of sorghum which not even a pig eat. Not to say there is only one a small bowl of it. …”
“That’s really too bad,” the wise man commiserated.
“Isn’t it?” His spirits rose. “Then I work all day and all night. At down I carry water, at dusk I cook the dinner; in the morning I run errands, in the evening I grind wheat; when it’s fine I wash the clothes, when it’s wet I hold the umbrella; in winter I mind the furnace, in summer I wave the fan. At midnight I boil white fungus, and wait on our master at his gambling parties; but never a tip do I get, only sometimes the strap. …”
“Dear me. …” The wise man sighed, and the rims of his eyes looked a little red as if he were going to shed tears.
“I can’t go on like this, sir. I must find some way out. But what can I do?”
“I am sure things will improve. …”
“Do you think so? I certainly hope so. But now that I I’ve told you my troubles and you have been so sympathetic and encouraging, I already feel much better. It shows there is still some justice in the world.”
A few days later, though, he was in dumps again and found someone else to whom to pour out his woes.
“Sir!” he exclaimed, shedding tears. “You know, where I live is even worse than a pigsty. My master doesn’t treat me like a human being; he treats his dogs ten thousand times better. …”
“Confound him!” The other swore so loudly that he startled the slave. This other man was a fool.
“All I have to live in, sir, is a tumble-down, one-roomed hut, damp, cold and swarming with bedbugs. They gorge on me when I lie down to sleep. The place is stinking and hasn’t a single window. …”
“Can’t you ask your master to have a window made?’
“How can I do that?”
“Well, show me what it’s like.”
The fool followed the slave to his hut, and began to pound the mud wall.
“What are you doing, sir?” The slave was horrified.,
“I am opening a window for you.”
“This won’t do! The master will curse me.”
“Let him!” The fool continued to pound away.
“Help! A bandit is breaking down the house! Come quickly or he will knock down the wall! …” Shouting and sobbing, the salve rolled frantically on the ground. A whole troop of slaves came out and drove away the fool.
Roused by the outcry, the last one to come slowly out was the master.
“A bandit tried to break down our house. I was the first one to give the alarm, and together we drove him away!” The slave spoke respectfully and triumphantly.
Good for you!” The master praised him.
Many came that day to express concern, among them the wise man.
“Sir, because I made myself useful, the master praised me. When you said the other day that things would improve, you were really showing foresight.” He spoke very hopefully and happily.
“That’s right…” replied the wise man, and seemed happy for his sake.
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