जाति उन्मूलन का ऐतिहासिक कार्यभार महज़ दलित आबादी का उत्तरदायित्व नहीं है
राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति को अलग-अलग करके देखना अवैज्ञानिक है
‘जाति उन्मूलन का रास्ता – समस्याएँ, चुनौतियाँ एवं सम्भावनाएँ’ विषय पर सेमिनार का आयोजन

बिगुल संवाददाता

हरियाणा के कैथल जिले के कलायत शहर में 28 अगस्त, रविवार को ’जाति उन्मूलन का रास्ता- समस्याँ, चुनौतियाँ एवं सम्भावनाएं’ विषय पर सेमिनार का आयोजन किया। डा. अम्बेडकर भवन में आयोजित सेमिनार  में विभिन्न शहरों और संगठनों से आए करीब 150 छात्रों, नौजवानों और बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया। ’मज़दूर बिगुल’ मासिक अखबार और ’रेड पॉलेमिक’ ब्लॉग के लेखक अभिनव ने कार्यक्रम में मुख्या वक्ता के तौर पर शिरकत की।

मंच संचालक उमेद ने सेमिनार का विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि हरियाणा जैसे जातीय हिंसा और दलित विरोधी अपराधों (दुलाना, गोहाना, भगाना आदि) के लिए कुख्यात पिछडी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना वाले राज्य में ’जाति उन्मूलन’ जैसे संवेदनशील विषय पर अत्यन्त संजीदा चिन्तन-मनन की सख्त जरूरत है। देश और प्रदेश में भाजपा, आरएसएस की सरकारें बनने के बाद से दलितों -अल्पसंख्यकों पर हमलों में अकेले हरियाणा में 19 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। शासन और प्रशासन के अलावा शिक्षा और सांस्कृति के तमाम संस्थानों पर भगवाकरण थोपा जा रहा है। एक सोची-समझी साजिश के तहत पूरी रणनीति बनाकर पुराने मूल्य-मान्यताओं को खाद-पानी देने का काम किया जा रहा है – पितृसत्ता, वर्णाश्रम, धार्मिक और जातीय कट्टरता का ज़हर युवा पीढी को देेने की कोशिश हो रही है। जिस तरह से हरियाणा में फरवरी माह में जाट-गैर जाट का कार्ड खेलकर खून-खराबा और आगजनी में पूरे प्रदेश को झोंक दिया गया उससे एक बात तो स्पष्ट है कि जातीय अस्मिता की दृष्टि से हरियाणा अत्यन्त सवेदनशील है। साथ ही देश स्तर पर फिलहाल जिस नये बहाने को लेकर दलितों पर हमले किये जा रहे हैं, वह है गौरक्षा। हाल ही में, ऊना (गुजरात) से लेकर राजस्थान, हरियाणा व महाराष्ट्र तक में दलितों पर बर्बर हमले किये गये हैं। लेकिन इस बार मेहनतकश दलित आबादी ने भी विशेष तौर पर गुजरात में इन घटनाओं के विरुद्ध जुझारू आन्दोलन शुरू कर दिया है। और इतना तय है कि मौजूदा आन्दोलन ने जाति के प्रश्न को एक बार फिर से पुरज़ोर तौर पर रेखांकित किया है और ऐसे सभी लोगों के समक्ष यह यक्ष-प्रश्न एक बार फिर से खड़ा किया है कि भारतीय समाज में किसी भी मुक्तिकामी और परिवर्तनकामी रूपान्तरण की परियोजना के लिए जाति के प्रश्न को ऐतिहासिक तौर पर किस रूप में समझा जाय और इसके हल का रास्ता क्या हो? मौजूदा आन्दोलन इस मायने में कुछ हालिया आन्दोलनों से आगे गया है कि यह सरकार से रियायतें माँगने, सुधारवाद और व्यवहारवाद के रास्ते कुछ फौरी राहत हासिल करने, या संविधान-कानून-कोर्ट के दायरे का अतिक्रमण कर रहा है। नेतृत्व की विचारधारा जो भी हो, मगर इतना तय है कि यह मेहनतकश ग़रीब दलित आबादी का एक उभार है जिसका साथ सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि तमाम प्रगतिशील लोग व साथ ही आम मेहनतकश वर्गों से आने वाले ग़ैर-दलित भी दे रहे हैं। लेकिन साथ ही नेतृत्व की राजनीति और विचारधारा का प्रश्न भी बेहद अहम है क्योंकि ऐसे किसी भी स्वतःस्फूर्त उभार को अन्ततः दिशा देने का कार्य यही नेतृत्व करता है।2016-08-28-abjvm-seminar-caste-kalayat-3

इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ नुक्ता यह है कि जाति-उन्मूलन की कोई भी लड़ाई तभी आगे बढ़ सकती है जबकि यह समझा जाये कि जाति और वर्ण आख़िर हैं क्या? हम इन्हें कैसे परिभाषित करें? हम इसके पूरे ऐतिहासिक विकास को कैसे समझें? हम इसके समकालीन स्वरूप को किस रूप में देखें? ‘रैडिकल’ होने का अर्थ होता है समस्या के मूल तक जाना। यदि हम इन प्रश्नों को उत्तर नहीं देते तो क्या हम जाति-उन्मूलन के ऐतिहासिक संघर्ष को सुधारवादी, व्यवहारवादी खाँचे से आगे बढ़ा पाएँगे? ऐसा नहीं लगता। ऐसे में, इन ऐतिहासिक प्रश्नों को नज़रन्दाज़ करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। हमें जाति-उन्मूलन के प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए एक दूरगामी कार्यक्रम देना ही होगा। वह कौन-सी व्यवस्था और कौन-सा समाज हो सकता है जो वास्तव में जाति की गाँठ को पूरी तरह समाप्त कर सकता है? क्या वह महज़ सरकारी रियायतों, कानूनी-संवैधानिक सुधारों व तथाकथित सकारात्मक कार्रवाई (एफर्मेटिव एक्शन) के ज़रिये सम्भव है? यदि नहीं, तो हम किस प्रकार के व्यवस्थागत परिवर्तन की बात करें? यह कहना दोहरावपूर्ण किन्तु सत्य है कि ‘बिना क्रान्ति के जाति उन्मूलन सम्भव नहीं है और बिना एक क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन के, क्रान्ति के लिए ज़रूरी वर्ग एकजुटता कायम करना मुश्किल है।’ ऐसे में जाति-उन्मूलन के संघर्ष की विचारधारा और राजनीति क्या होनी चाहिए? जाति-उन्मूलन का दूरगामी कार्यक्रम इन्हीं मूलभूत प्रश्नों को उत्तर देगा और यह दूरगामी कार्यक्रम क्या हो, यह सोचना किसी सुदूर भविष्य का कार्यभार नहीं बल्कि हमारा समकालीन कार्यभार है।

‘मज़दूर बिगुल’ के संपादक अभिनव ने विषय पर बात रखते हुए कहा कि आज मौजूद जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए उसकी उत्पत्ति, भारतीय इतिहास में बदलते उत्पादन सम्बन्धों के साथ जाति व्यवस्था का स्वरूप तथा दलित मुक्ति संघर्षाें के योगदान और उनकी सीमाओं का विश्लेषण करना बेहद जरूरी है। पूरे देश स्तर पर दलित आबादी पर बढ़ती उत्पीडन की घटनाओं से लेकर मेहनतकश दलित आबादी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर आंकडों से अपनी बात की शुरूआत की। आगे उन्होंने जाति-वर्ण के उद्भव से लेकर अलग दौर में जाति-व्यवस्था के स्वरूप में आये बदलाव को रेखाकित किया। साथ ही ज्योतिबा फुल, पेरियार से लेकर डाॅ अम्बेडकर के जाति-विरोधी संघर्ष का समीक्षा-समाहार करते हुए आज के दौर में जाति-उन्मूलन की परियोजना समस्याएं और चुनौतियां पर बात रखी। अभिनव  ने आगे गुजरात के ऊना कांड के बाद दलित आन्दोलन अपनी बात रखी। आज देश भर में मेहनतकश दलित आबादी भी संघी फासीवादियों के अत्याचारों के ख़िलाफ चुप नहीं बैठ रही है। उसने केवल संविधान और सरकार के भरोसे रहने, रियायतें माँगने और सुधारवाद के भरोसे रहना बन्द कर दिया है। गुजरात में मेहनतकश दलितों ने सम्मान और समानता के हक़ के लिए जो जंग छेड़ी है वह शानदार है। आज देश के मेहनतकश ग़रीब दलित मज़दूर और आम मेहनतकश यह समझ रहा है कि इंक़लाब के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वह समझ रहा है कि केवल शासक वर्गों के साथ सहयोग कर कुछ रियायतें हासिल करने के रास्ते से उसे पिछले आठ दशकों में कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका है। देश का मेहनतकश दलित और पिछड़े वर्गों के दमित ग़रीब लोग समझ रहे हैं कि आरक्षण के ही रास्ते उन्हें बराबरी और इंसाप़फ हासिल नहीं हो सकता है। ग़ौरतलब है, सरकारी नौकरियाँ पिछले कई वर्षों से दो प्रतिशत से भी तेज़ रफ़्तार से घट रही हैं। आरक्षण को लागू न करने के सवर्णवादी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ना ज़रूरी है। मगर आरक्षण के भरोसे ही दलित मुक्ति के खोखले सपने परोसने वालों से सावधान रहें। यदि पिछले कई दशकों के आरक्षण के बाद भी आज देश में 90 प्रतिशत दलित ग़रीबी, अपमान और अन्याय झेल रहे हैं, तो क्या यह सिद्ध नहीं होता कि दलित मुक्ति की पूरी परियोजना को आरक्षण पर सीमित करना एक साज़िश है? दलितों के बीच से जो एक धनी व उच्च मध्यवर्गीय तबका पैदा हुआ है, वह शासक वर्ग का साझीदार है। इस कुलीन मध्यवर्गीय दलित तबके को अब मेहनतकश दलितों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों और अन्याय से कोई लेना-देना नहीं है। यही तबका ही मुख्य रूप से नौकरियों और उच्च शिक्षा में अब आरक्षण का भी लाभ उठा रहा है। मेहनतकश दलितों को इसका लाभ बिरले ही मिल पाता है क्योंकि 87 प्रतिशत दलित स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते। दलितों के बीच से पैदा हुआ यह छोटा सा शासक वर्ग जाति उन्मूलन के संघर्ष से पूरी तरह ग़द्दारी कर चुका है। वरना क्या कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में दलितों के विरुद्ध हुए जघन्य अत्याचारों के बावजूद किसी दलित नेता या नौकरशाह ने जुबानी जमाखर्च की नौटंकी के अलावा कुछ नहीं किया? उल्टे रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज जैसे दलितों के मसीहा बनने वाले घृणित राजनीतिज्ञ सवर्णवादियों और ब्राह्मणवादियों की पालकी ढो रहे हैं! क्या मायावती से लेकर थिरुमावलवन जैसे पूँजीवादी दलित राजनीतिज्ञ वक्त पड़ने पर संघियों और सवर्णवादियों के साथ मोर्चे नहीं बना लेते? दलित मुक्ति के आन्दोलन में व्याप्त व्यवहारवाद ने जाति-उन्मूलन के ऐतिहासिक संघर्ष को बहुत नुकसान पहुँचाया है। व्यवहारवाद का अर्थ हैµ‘ज़रूरत पड़ने पर गधे को बाप बनाओ’, ‘जो भी शासन में हो उससे सहयोग करो और रियायतें माँगो’, ‘बदलाव जनता के जुझारू क्रान्तिकारी आन्दोलन से नहीं सरकारी कानूनों और नीतियों से होता है’, ‘परिवर्तनकामी रास्ता बेकार है, छोटे-छोटे सुधारों के लिए लड़ते रहो’ वगैरह।

देश की मेहनतकश दलित और पिछड़ी आबादी यह समझ रही है कि सरकारों और संविधान के भरोसे रहकर अब और कुछ हासिल नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज देश भर में दलित मेहनतकश आबादी ने जुझारू संघर्ष और आन्दोलन का रास्ता चुना है। अन्य जातियों के मेहनतकश भी काफी हद तक उनका साथ दे रहे हैं। लेकिन अभी इस वर्ग एकजुटता को और ज़्यादा बढ़ाने की आवश्यकता है। मज़दूरों और आम मेहनतकशों को यह समझना होगा कि जातिवादी रूढ़िवादी विचारों को त्यागे बग़ैर उनका भला नहीं हैं। बजाय अपने दुश्मन के विरुद्ध लड़ने के, वे आपस में ही लड़ मरेंगे। क्या आपने सोचा है कि जातिवादी उत्पीड़न के शिकार हमेशा ग़रीब दलित क्यों होते हैं? कोई नौकरशाह या नेताशाह दलित कभी इसके निशाने पर क्यों नहीं होता? क्या आपने कभी सोचा है कि जाति-आधारित हिंसा में कोई अमीर सवर्ण या कुलीन मध्यवर्गीय दलित का घर क्यों नहीं जलता? हमेशा इन उत्पीड़न और दंगों में ग़रीब आबादी क्यों जान-माल का नुकसान उठाती है? इन सवालों पर सोचते ही सच्चाई सामने आने लगती है।

जाति उन्मूलन के संघर्ष में नौजवानों की विशेष भूमिका की ज़रूरत है। हमारे देश में आज़ादी के बाद से जो शहरीकरण व औद्योगिकीकरण हुआ उसने छुआछूत और आनुवांशिक जाति श्रम विभाजन को काप़फी कमज़ोर किया है, लेकिन अन्तरजातीय विवाहों के न होने के कारण जाति व्यवस्था अपना रूप बदलकर मज़बूती से शासक वर्गों की सेवा कर रही है। अवैज्ञानिक व अतार्किक विचारों ने जातिगत रूढ़ियों को बढ़ावा ही दिया है। वहीं स्त्रियों की गुलामी ने भी जाति व्यवस्था के ध्वंस को मुश्किल बना रखा है। स्त्रिायों को चूल्हे-चैखट तक सीमित कर दिया जाता है और उन्हें अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने का हक़ नहीं दिया जाता। नतीजतन, समाज में जाति का दम घोंटने वाला रूढ़िबद्ध ढाँचा भी कायम रहता है। ऐसे में, नवयुवकों और नवयुवतियों को आगे आकर इन अवैज्ञानिक और अतार्किक विचारों पर चोट करनी चाहिए। उन्हें सबसे पहले आकर छुआछूत को तोड़ना चाहिए, अन्तरजातीय विवाहों की परम्परा बहाल करनी चाहिए और शहीदे-आज़म भगतसिंह के विचारों को अपनाते हुए हर प्रकार के ब्राह्मणवादी-मनुवादी विचारों पर पुरज़ोर चोट करनी चाहिए। लेकिन यह कार्य नौजवान तभी कर सकते हैं, जब वे संगठित हों और अपने क्रान्तिकारी युवा संगठन का निर्माण करें। समाज के प्रबुद्ध नागरिकों को भी जाति उन्मूलन की मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जाति-विरोधी मुहिम चलानी चाहिए। जाति उन्मूलन का ऐतिहासिक कार्यभार महज़ दलित आबादी का उत्तरदायित्व नहीं है। जाति का उन्मूलन अस्मिता के आधार पर बने दलित संगठनों या दलित आन्दोलनों के ज़रिये नहीं बल्कि वर्ग-आधारित जाति-विरोधी संगठन व आन्दोलन के ज़रिये ही सम्भव है। यह समूचे क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक प्रमुख एजेण्डा है। ऐसे वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन को जाति-उन्मूलन की लड़ाई को मज़दूर आन्दोलन, स्त्री मुक्ति आन्दोलन, दमित राष्ट्रीयताओं के आन्दोलन के साथ जोड़ना होगा और एक आमूलगामी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक क्रान्ति को अपना लक्ष्य बनाना होगा। जो लोग यह सोचते हैं कि राजनीतिक व आर्थिक क्रान्ति के बिना ‘सामाजिक क्रान्ति’ हो जायेगी या आर्थिक शोषण के विरुद्ध लड़े बग़ैर सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लड़ा जा सकता है, वे भयंकर ग़लतप़फहमी का शिकार हैं। आर्थिक शोषण हर-हमेशा सामाजिक अन्याय व उत्पीड़न के साथ गुंथा-बुना होता है। इसलिए यह सोचना अज्ञानपूर्ण है कि राजनीतिक-आर्थिक क्रान्ति के लिए शहीदे-आज़म भगतसिंह और सामाजिक क्रान्ति के लिए अम्बेडकरवाद। शहीदे-आज़म भगतसिंह इस बात को समझते थे कि आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न एक-दूसरे के साथ गुंथे-बुने होते हैं और इन्हें कायम रखने का कार्य शासक वर्ग और उनकी राजनीतिक सत्ता करती है। आर्थिक शोषण सामाजिक उत्पीड़न के ऐतिहासिक सन्दर्भ व पृष्ठभूमि को बनाता है और सामाजिक उत्पीड़न बदले में आर्थिक शोषण को आर्थिक अतिशोषण में तब्दील करता है। यही कारण है कि 10 में से 9 दलित-विरोधी अपराधों के निशाने पर ग़रीब मेहनतकश दलित होते हैं और यही कारण है कि मज़दूर आबादी में भी सबसे ज़्यादा शोषित और दमित दलित जातियों के मज़दूर होते हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के सम्मिश्रित रूपों को बनाये रखने का कार्य शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक सत्ता करते हैं। यही कारण है कि इस आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न को ख़त्म करने का संघर्ष वास्तव में पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता के ध्वंस और मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना का ही एक अंग है। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति को अलग-अलग करके देखना अवैज्ञानिक है और जो बिना राजनीतिक-आर्थिक क्रान्ति के ‘सामाजिक क्रान्ति’ की बात करता है, उसकी सोच सुधारवाद, संविधानवाद और शासकों से रियायतें माँगने से आगे कभी नहीं जा सकती, चाहे वह ब्राह्मणवाद और मनुवाद के बारे में कितनी ही मूर्तिभंजक बातें क्यों न करे। शहीदे-आज़म भगतसिंह का मेहनतकश आबादी के इंक़लाब का रास्ता ही वास्तव में एक ऐसी आमूलगामी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्रान्ति का रास्ता है, जो आर्थिक शोषण के साथ-साथ सामाजिक उत्पीड़न के तमाम रूपों के विरुद्ध कारगर तौर पर संघर्ष को सम्भव बनाता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2016


 

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