जनता की बदहाली के दम पर दिनों-दिन बढ़ रही है भारत के धन्नासेठों की आमदनी
मानव
1991 से उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू करने की शुरुआत के समय ही प्रचार किया जा रहा है कि इन नीतियों के कारण ऊपरी वर्गों की आमदनी बढ़ेगी और यही खुशहाली रिस-रिस कर निचलें वर्गों तक भी पहुँचेगी। मगर इतने सालों की असलियत यही है कि ऊपरी वर्ग और अमीर होते जा रहे हैं जबकि आम लोगों के लिए हालात बद से बदत्तर होती जा रही है।
हाल में जारी नये आँकड़े पूँजीवादी व्यवस्था की इन नीतियों की सच्चाई को और नंगा कर देते हैं। ‘वर्ल्ड वैल्थ’ और फोर्ब्स द्वारा जारी दो रिपोर्टों में बताया गया है कि भारत में इस समय कुल 2.36 लाख करोड़पति हैं जिनकी कुल संपत्ति 10 लाख करोड़ से भी अधिक है और यह हिस्सा बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। आने वाले 10 वर्षों तक इन करोड़पतियों की गिनती दुगुनी से भी अधिक हो जायेगी, अर्थात् भारत में 2025 तक 5.54 लाख करोड़पति होंगे। 2008 से विश्व अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट का शिकार है जिससे यह अब तक उबर नहीं सकी है। भारत के हुक्मरान भी विश्व भर की सरकारों की तरह शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन आदि पर होने वाले खर्च में कटौती कर रहे हैं पर इसी दौरानी मतलब 2008 से 2016 के बीच भारत में करोड़पतियों की गिनती 55% बढ़ी है। इसका साफ मतलब यह है कि आम लोग तो आर्थिक संकट का सारा बोझ झेल रहे हैं पर इन पूँजीपतियों की अय्याशी और ठाठबाट दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। इन धन्नासेठों की अमीरी का मुख्य स्त्रोत शेयर बाज़ार जैसी सट्टेबाज़ी से होने वाली आमदनी है। सरकार इनको जो रियायतें, सब्सिडियां, कर्ज़े आदि देती है, उसका बड़ा हिस्सा ये शेयर बाज़ार में लगा देते हैं। हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न सरकारों के समय में भी इन धन्नासेठों की आमदनी लगातार बढ़ती गयी है, चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या कोई और। क्योंकि सभी पार्टियों की नीतियाँ पूँजीवाद के पक्ष में ही हैं। इसलिए पूररी व्यवस्था को बदले बिना सिर्फ सरकारें बदलने का ना तो कोई नतीजा निकला है और ना निकलेगा।
जहां एक ओर तो आम लोग अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर भी चिंतित हैं कि अगर कोई घर में बड़ी बीमारी का शिकार हो जाये तो उसके इलाज पर वर्षों की कमाई लग जाती है वहीं दूसरी ओर भारत के धन्नासेठ दिनों-दिन अमीर होते जा रहे हैं और सरकारें भी अपनी नीतियों द्वारा उनकी पूरी सेवा करती रहती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था लोगों से उनकी बुनियादी ज़रूरतें भी दिनों-दिन छीन रही है जबकि ऊपर वाला वर्ग अय्याशी में डूबा हुआ है। ऐसी मानवद्रोही व्यवस्था को बदलना आज हर इंसाफ़पसंद व्यक्ति की माँग होनी चाहिए।
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2016
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन