मज़दूरों का भी अपना उत्सव होना चाहिए। वह उत्सव है पहली मई का दिन और इस पर उन्हें ऐलान करना चाहिए
”सभी को काम, सभी को आज़ादी, सभी को बराबरी!”
(इस पर्चे को ‘पहली मई ज़िन्दाबाद’ शीर्षक से मार्च 1912 में रूसी मज़दूरों द्वारा मई दिवस मनाने के लिए जोसेफ़ स्तालिन द्वारा तैयार और प्रकाशित किया गया था।)
साथियो,
बहुत समय पहले पिछली सदी में, सभी देशों के मज़दूरों ने फैसला लिया था कि वे हर साल यह दिन, पहली मई मनाया करेंगे। यह फैसला 1889 में लिया गया था जब कई देशों के समाजवादियों की पेरिस कांग्रेस में मज़दूरों ने संकल्प के साथ ऐलान किया था कि ठीक इसी दिन, मई की पहली तारीख को, जब प्रकृति सर्दियों की नींद से जाग उठती है, जब वनों और पहाड़ों पर हरियाली का समारोह दिखाई देने लगता है और जब खेत-खलिहान और घास के मैदान फूलों की शोभा से भर उठते हैं, सूरज की गर्म धूप खिल उठती है, हवा में नवजीवन का नया आनन्द भर जाता है और प्रकृति नृत्य और आनन्द में झूम उठती है—ठीक उसी दिन उन्होंने संकल्प के साथ बुलन्द आवाज में ऐलान किया था कि मज़दूर वर्ग मानवजाति के जीवन में बसन्त की बहार लाने जा रहा है, लाने जा रहा है पॅूंजीवाद के शिकंजे से मुक्ति का आस्वादन। आजादी और समाजवाद के आधार पर दुनिया का कायाकल्प करना ही मज़दूर वर्ग का ध्येय है।
हर वर्ग के अपने उत्सव होते हैं। कुलीन सामन्त ज़मींदार वर्ग ने अपने उत्सव चलाये और इन उत्सवों पर उन्होंने ऐलान किया कि किसानों को लूटना उनका ”अधिकार” है। पॅूंजीपति वर्ग के अपने उत्सव होते हैं और इन पर वे मज़दूरों का शोषण करने के अपने ”अधिकार” को जायज़ ठहराते हैं। पुरोहित-पादरियों के भी अपने उत्सव हैं और उन पर वे मौजूदा व्यवस्था का गुणगान करते हैं जिसके तहत मेहनतकश लोग ग़रीबी में पिसते हैं और निठल्ले लोग ऐशो-आराम में रहकर गुलछर्रे उड़ाते हैं। मज़दूरों के भी अपने उत्सव होने चाहिए जिस दिन वे ऐलान करें: सभी को काम, सभी के लिए आज़ादी, सभी लोगों के लिए सर्वजनीन बराबरी। यह उत्सव है मई दिवस का उत्सव।
बहुत समय पहले 1889 में ही मज़दूरों ने यह संकल्प लिया था। तभी से मज़दूर वर्ग की समाजवाद की रणभेरी पहली मई के इस दिवस पर जलसे-जूलूसों में प्रबल से प्रबलतर स्वर में गूँज उठी है। मज़दूर आन्दोलन का महासागर लगातार उद्वेलित होता जा रहा है, फैलता जा रहा है नये-नये देशों में, विभिन्न राज्यों में, यूरोप-अमेरिका से लेकर एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया तक। केवल कुछ दशकों के दौरान ही पहले का कमज़ोर अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ एक मज़बूत अन्तरराष्ट्रीय भाईचारे में तबदील हो गया है। नियमित रूप से उसकी कांग्रेस आयोजित हो रही है और दुनिया के कोने-कोने में करोड़ों मज़दूर आज उसमें एकजुट हैं। मज़दूर वर्ग के आक्रोश का सागर प्रमत्त लहरें उठाते हुए उफन रहा है और पूँजीवाद के लड़खड़ाते गढ़ के विरुद्ध प्रलयंकारी वेग से आगे बढ़ता जा रहा है। ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, बेल्जियम, अमेरिका आदि देशों में कोयला खान मज़दूरी की हाल ही में जो विशाल हड़ताल हुई, वह एक ऐसी हड़ताल हुई है जिससे सारी दुनिया के शोषक के दिलों में कँपकँपी मच गयी है, यह इस बात का एक साफ संकेत है कि समाजवादी क्रान्ति अब दूर नहीं है।
”पूज्य धन के हम पुजारी नहीं हैं।” हम बुर्जुआ वर्ग और अत्याचारियों का राज नहीं चाहते। पूँजीवाद का नाश हो। नाश हो पूँजीवाद की पैदा की हुई ग़रीबी और रक्तपात की विभीषिकाओं का। मज़दूरों का राज ज़िन्दाबाद।, समाजवाद ज़िन्दाबाद।
इस दिवस पर सभी देशों के वर्ग सचेत मज़दूर यही ऐलान कर रहे हैं।
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन